आज शिर्डी में प्रथम बार भगवान पाश्र्वनाथ जो हमारे संकटमोचक हैं, जो हमारे विघ्नों के नाशक हैं, चिंताओं के नाशक हैं, ऐसे पाश्र्वनाथ भगवान की प्रतिमा विराजमान करने का और एक भव्य उत्तुंग कमल मंदिर बनाने का शिलान्यास समारोह रखा गया है। इस कार्यक्रम में आज देश के कोने-कोने से और महाराष्ट्र के अनेक प्रान्तों से भक्तगण आये हैं। आप सभी लोगों ने पीठाधीश बनने के उपलक्ष्य में मेरा यहाँ पर सम्मान भी किया। पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी और उनके परिवार के उनके भाई होने का मुझे गौरव प्राप्त है। हम १३ भाई-बहन हैं और उसमें मैं अपने माता-पिता की ९वीं संतान हूँ। जब मैं दो साल का बालक था, तब उस समय मुझे ज्ञानमती माताजी छोड़कर आई थीं। उसके बाद जबसे मैंने माताजी को देखा, तब से बहन के रूप में न देखकर उनको आर्यिका, साध्वी के रूप में ही देखा है। ज्ञानमती माताजी ने, सन् १९६८ में जब मैं शायद पहली बार माताजी के दर्शन के लिए प्रतापगढ़ (राज.) में आया था, उस समय मुझे समझा-बुझाकर दो साल का ब्रह्मचर्य व्रत दिया और यह संकल्प कराया कि जब शादी और व्यापार की चर्चा चले तो मेरे पास होकर जाना और उसके बाद आगे बढ़ना। लखनऊ विश्वविद्यालय से पढ़ने के बाद जब माताजी के पास मैं पुन: आया तो माताजी ने समझा-बुझाकर मुझे आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का संकल्प दिलाया। वह व्रत सन् १९७२ में आचार्य धर्मसागर जी महाराज जो आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की परम्परा के तृतीय पट्टाचार्य थे, उनसे उस व्रत को प्राप्त करने का अवसर और सौभाग्य मिला। सन् १९७२ के बाद पूज्य माताजी के साथ मैं इस प्रकार रहा जैसे पूज्य माताजी के साथ ब्र. मोतीचंद जी और ब्र. यशवंत कुमार जी सनावद वाले रहे। ये दो युवा पूज्य माताजी के साथ सन् १९६८ के बाद से आये थे। यशवंत कुमार जी ने पूज्य माताजी की प्रेरणा से मुनि दीक्षा ली और मुनि वर्धमानसागर बन गये। उसके बाद भी मुनि वर्धमानसागर जी लगातार कई वर्षों तक पूज्य माताजी के पास रहे और वे आज आचार्य वर्धमानसागर जी महाराज के रूप में हैं। उनके दूसरे शिष्य थे मोतीसागर जी, मोतीचंद जी थे। उन्होंने सन् १९८७ में क्षुल्लक दीक्षा ली और पूज्य माताजी ने उन्हें पीठाधीश पद पर अभिषिक्त किया। सन् १९८७ में जब मोतीसागर जी महाराज को पीठाधीश बनाया गया, तो उन्होंने कहा कि पूज्य माताजी! चूँकि मैं क्षुल्लक हूँ, मेरे हाथ में पिच्छी-कमण्डलु है इसलिए मैं संस्था का अध्यक्ष पद स्वीकार नहीं करूँगा। मैं किसी भी बैंक के चेक पर हस्ताक्षर या किसी प्रकार का लेन-देन अपने हाथ से नहीं करूँगा। मैं अपने क्षुल्लक व्रत का पालन करते हुए पीठाधीश पद का निर्वाह करूँगा। उनका मार्गदर्शन पीठाधीश के रूप में हमारे दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान को और उससे संबंधित जितनी भी संस्थाएँ रहीं, उन सभी को बराबर २४ साल से प्राप्त होता रहा और उन्होंने अपने व्रतों का पूरा निर्वाह करते हुए अभी १० नवम्बर २०११, कार्तिक शु. पूर्णिमा को समाधिमरण पूज्य माताजी के सान्निध्य में मुनि अवस्था में प्राप्त किया। उनका लंगोट और चादर हटा दिया गया और उनका समाधिमरण हो गया। अगले दिन ही पूज्य माताजी ने विचार करके कि एक पीठाधीश का अवसान हुआ अत: दूसरा पीठाधीश नियुक्त करना है इसके लिए पूज्य माताजी ने निश्चय किया। मैंने काफी मना किया, मैंने कहा कि नहीं, मेरे को मुनि दीक्षा लेनी है और समय अब निकल चुका है, लेकिन माताजी ने कहा कि नहीं, इस संस्था को अभी संचालित करना है और सबसे बड़ा कार्य जो है, मांगीतुंगी में १०८ पुâट मूर्ति का अभी वह अधूरा है, जब तक उस मूर्ति को बनाकर तुम सामने नहीं लाते हो, उसका पंचकल्याणक सम्पन्न नहीं होता है, तब तक तुमको पीठाधीश के पद पर रहना है ऐसा पूज्य माताजी ने घोषित किया और २० नवम्बर को ही माताजी ने मुझे १०वीं प्रतिमा के व्रत देकर हस्तिनापुर में पीठाधीश का पद प्रदान किया। १०वीं प्रतिमा माताजी ने मुझे इसलिए दी कि इसमें जो पहली प्रतिमा से नवमी प्रतिमा तक हैं वह मध्यम श्रावक का कथन हमारे आगम के अंदर है और १०वीं-११वीं प्रतिमा उत्कृष्ट श्रावक की प्रतिमा मानी गई है। ११वीं प्रतिमाधारी क्षुल्लक और ऐलक होते हैं और उनके पास पिच्छी-कमण्डलु होता है, उनकी कुछ सीमाएँ होती हैं, अनेक उनके नियम होते हैं और उस नियम से कुछ कम नियम १०वीं प्रतिमा में होते हैं, जिससे हम कहीं भी रेल से, हवाई जहाज से, मोटर से, कार से जा सकते हैं। इसीलिए पूज्य माताजी ने ११वीं प्रतिमा न देकर मुझे १०वीं प्रतिमा देकर पीठाधीश का पद प्रदान किया। सन् १९५५ में जब आचार्य शांतिसागर जी महाराज का समाधिमरण हुआ है, उस समय दो महिने तक ज्ञानमती माताजी आचार्य शांतिसागर जी महाराज के पास कुंथलगिरि में क्षुल्लिका के रूप में विराजमान थीं, उन्होंने पूज्य आचार्य शांतिसागर जी महाराज से जो चर्या, जो आगम, जो ज्ञान प्राप्त किया, उसके अनुसार उन्होनें कहा कि सातवीं प्रतिमा के बाद जो प्रतिमा ली जाती है, उसमें सफेदवस्त्र बदलकर लाल वस्त्र दिये जाते हैं, आचार्य शांतिसागर जी महाराज की परम्परा में आज भी जो क्षुल्लक, ऐलक की दीक्षा लेते हैं, उनको लाल वस्त्र प्रदान किये जाते हैं, लाल यानि कि गेरुए वस्त्र। उसके अनुसार पूज्य माताजी ने हमारे सफेद वस्त्र हटा करके और हमको लाल वस्त्र दिए हैं। आगम और आचार्य शांतिसागर जी महाराज की परम्परा के अनुसार व्रत, नियम हमें प्रदान किये। पिछले ४० साल से जो भी पूज्य माताजी ने हमसे कहा और जो हम उनकी आज्ञा का पालन करके जो कुछ भी कर सकते थे, चाहे वह हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप रचना और अन्य रचनाओं का निर्माण का कार्य हो, चाहे अयोध्या जो पाँच तीर्थंकरों की जन्मभूमि है वहाँ का विकास कार्य हो, मस्तकाभिषेक हो, चाहे काकंदी जो अत्यन्त उपेक्षित थी, हमारे निर्मल जी सेठी बैठे हैं, उनकी फ्लोर मिल है गोरखपुर में, और ये भी चाहते थे कि किसी भी तरह से काकंदी जो पुष्पदंतनाथ की जन्मभूमि हैं जहाँ साल में १० यात्री भी नहीं जाता है, जहाँ २००० रुपये महिने की आमदनी भी नहीं हो और एक कर्मचारी की तनख्वाह गोरखपुर की जैन समाज चंदा करके देती हो, ऐसे कावंâदी तीर्थ पर पूज्य माताजी की पावन प्रेरणा से पिछले वर्ष हमने ९ फुट के ग्रेनाइट पाषाण के भगवान विराजमान करके भव्य विशाल मंदिर का निर्माण कराया। ऐसे उपेक्षित तीर्थ जहाँ-जहाँ हमारे तीर्थंकर भगवन्तों ने जन्म लिया, उन तीर्थों के विकास में पूज्य माताजी की दृष्टि गई। पूज्य माताजी ने अपने नाम से किसी तीर्थ का निर्माण नहीं करवाया, उनका कहना है कि हमारे २४ तीर्थंकर भगवान की १६ जन्मभूमियाँ हैं, अगर वह जन्मभूमियाँ उपेक्षित हैं, तो उनका विकास अगर हम कुछ कर सकते हैं, तो अवश्य करें। हमने कभी भी ५० करोड़, १०० करोड़, २५ करोड़ की कोई योजना हाथ में नहीं ली। छोटी-छोटी योजना ली और उस कार्य को हमने एक-दो साल के अंदर पूरा किया। आप लोग यहाँ बैठे अनेक प्रान्तों के लोग, जिन्होंने भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर को देखा हो, पूज्य ज्ञानमती माताजी वहाँ गर्इं, २२ महीने तक वहाँ कच्चे कमरों में रहकर, टीन के कमरों में रहकर उस कुण्डलपुर तीर्थ को बनाया और केवल २६०१-२६०१ रुपये आप लोगों से लेकर और उससे बड़ी राशि २६००१ रुपये लेकर उस कुण्डलपुर तीर्थ को आज स्वर्ग जैसा बनाया और वहाँ पर सुन्दर निर्माण हुआ नंद्यावर्त महल का, जिस महल के अंदर राजा सिद्धार्थ ने रानी त्रिशला ने भगवान महावीर को बालक के रूप में जन्म दिया था, उस महल का नाम नंद्यावर्त महल, सात मंजिल का उस महल का निर्माण वहाँ पर किया गया। उस बिहार प्रदेश के मुख्यमंत्री एक बार आराम से बैठे हुए थे कुण्डलुपर में नंद्यावर्त महल में। उन्होंने बार-बार मेरे से पूछा कि भाई जी! आप यह बताओ कि इस निर्माण में आपका कितना रुपया लगा है। हमने कहा, मंत्री जी! सामान लोग भेज देते हैं, कोई र्इंट भेजता है, सरिया भेजता है, कोई सीमेंट भेजता है, मैं लगा देता हूँ। मुझे नहीं मालूम कितना पैसा लगा। उनने कहा-फिर भी कितना लगा, मैंने कहा कि दो से ढाई करोड़ रुपये इस तीर्थ के पूरे निर्माण में जमीन खरीदने से लेकर पूरे निर्माण में हमारा दो से ढ़ाई करोड़ रुपया लगा है। उन्होंने आश्चर्य चकित होकर कहा कि ‘‘अगर मेरी सरकार को बनाना होता, तो हो सकता है मेरा यह काम काफी राशि और समय लगाकर पूरा हो पाता। आप सबको एवं जैन समाज को और ज्ञानमती माताजी को मैं बहुत बधाई देता हूँ’’, यह शब्द मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी के हैं। उन्होंने कहा कि ‘‘आपने यहाँ आकर के और हमारे बिहार प्रदेश का एक ऐसा दर्शनीय स्थल बना दिया है, भगवान महावीर के जन्मभूमि के रूप में, जो हमारा पर्यटन विभाग है, उसके लिए एक तीर्थ दिया है, एक स्थान दिया है, जहाँ घूमने के लिए, देखने के लिए पर्यटक आते हैं।’’ आज हमें कहते हुए खुशी है कि आज भी वहाँ पर प्रतिदिन शिक्षण संस्थाओं की बसें और उनके बालक आकर के और कुण्डलपुर के भगवान महावीर के दर्शन करते हैं और उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। ऐसे तीर्थों के निर्माण में पूज्य माताजी ने प्रेरणा प्रदान की, हम लोगों ने समाज को जोड़कर के छोटी-छोटी सी राशि से उन तीथों को निर्मित किया। आज अवसर आया इस शिर्डी तीर्थ के निर्माण का। कई साल से योजनाएं चल रही थीं। हमारे कोपरगांव के लोग, हमारे राजाभाऊ पाटनी, हमारे औरंगाबाद के लोग, कई बार पूज्य माताजी के पास गये, कि थोड़ा सा शिर्डी की तरफ ध्यान दीजिए और शिर्डी का जो मंदिर बनाना है, उसका निर्माण शीघ्र हो जाये। आज का यह मुहूर्त निकला, अत्यन्त शुभ मुहूर्त है मगसिर शुक्ला दशमी आज सिद्धी योग, बहुत सुन्दर मुहूर्त है और पूर्णा तिथि है, रविवार का दिन है, यह दिन पूज्य माताजी ने हमें प्रदान किया कि आप लोग जाकर के वहाँ शिलान्यास करो, मंदिर का निर्माण करो। हमारे बीच में राजाभाऊ पाटनी बैठे हैं, वे हमारे ट्रस्ट के महामंत्री हैं। आज मैं उनकी प्रशंसा इसलिए कर रहा हूँ कि आज उनके जीवन के अंदर यह पहला कार्य होगा कि इस मंदिर का निर्माण उनके परिवार की ओर से होगा, उनके द्वारा शिलान्यास होगा, इस मंदिर के निर्माण कराने का श्रेय और पुण्य इस परिवार को प्राप्त हो रहा है। उन्होंने जीवन के अंदर करोड़ों रुपये कमाए होंगे, खर्च किए होंगे, लेकिन उनके जीवन का सबसे बड़ा शिखर और कलश यह शिर्डी के मंदिर का निर्माण होगा, यहाँ कमल मंदिर का निर्माण होगा। और भी हमारे लोग हैं। जैसे सुभाषचंद जी साहू ने कहा कि मैं अतिथि भवन का शिलान्यास करूँगा। आप लोगों ने एक-एक फ्लैट बोले, ऐसे एक-एक करके हो जायेंगे, धीरे-धीरे हो जायेंगे। हमने छोटी-छोटी राशि से सब काम किया है। ५१००/-५१००/-रुपये की राशि देकर तथा किसी ने ५१००० रुपये की राशि घोषित की, ११०००/-रुपये की राशि घोषित की है, किसी ने ५१००/-रुपये की राशि घोषित की है, आपका यह पैसा जैसा कि हमने २६००-२६०० रुपये से कुण्डलपुर का निर्माण किया है, उसी प्रकार से इस ज्ञान तीर्थ शिर्डी के निर्माण का जो सूत्रपात आपने किया है, जो उत्साह बढ़ाया है ५१००-५१०० रुपये देकर, यह राशि आपकी नींव का पत्थर है। यह राशि आपके ५१०० नहीं ५१ लाख के बराबर है। और आने वाले समय में साल-दो साल के अंदर ये तीर्थ आपको देखने को मिलेगा और आप कहेंगे मेरा ५१००/-रुपये लगाना, ५१०००/- लगाना यहाँ पर सार्थक हो गया। बंधुओं! मैं ५ दिन से इस महाराष्ट्र में आया हूँ। जिस दिन से औरंगाबाद में आया ३० नवम्बर की शाम को ५ बजे, उस शाम को ५ बजे से लेकर, ऐरोड्रम से लेकर आज तक जो पीठाधीश पद का मेरा आपने सम्मान किया है, यह वस्तुत: मेरा सम्मान नहीं है। यह व्यक्ति का सम्मान नहीं है। ये पूज्य ज्ञानमती माताजी की भावनाओं का सम्मान है। उनकी भावना है कि जो तीर्थ हम करोड़ों की सम्पत्ति से बनायें, उस तीर्थ का संरक्षण हमारा कोई न कोई व्रती पीठाधीश जो गृह विरत हो, जिसके पीछे घर की कोई चिंताएं नहीं हों, परिवार की कोई चिंता नहीं हो, उद्योग की कोई चिंता न हो, व्यापार की चिंता नहीं हो, ऐसा कोई व्रती व्यक्ति इस तीर्थ को संभालता रहे, इन भावनाओं के साथ पूज्य माताजी ने मुझे पीठाधीश का पद समर्पित किया है, मैं पूज्य माताजी के चरणों में नमन करता हूँ। आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज को हमने नहीं देखा, आचार्य श्री वीरसागर महाराज को हमने नहीं देखा, लेकिन उस परम्परा के आचार्य श्री शिवसागर जी, श्री धर्मसागर जी, श्री अजितसागर जी, श्री अभिनंदनसागर जी, श्री वर्धमानसागर जी और उस परम्परा से रिलेटेड जितने आचार्य हुए हैं, आचार्य देशभूषण जी, आचार्य विमलसागर जी, सुबलसागर जी इन सब आचार्यों के मैंने दर्शन किये हैं और उनके भी अनुभव मैंने प्राप्त किए हैं। मैं उन सभी आचार्यों के चरणों में परोक्ष रूप से वंदना करता हूँ। आज हमारे अरहनाथ भगवान जो हस्तिनापुर के जन्मे हुए भगवान हैं, उनका दीक्षाकल्याणक है, वे तीर्थंकर हैं, कामदेव हैं, चक्रवर्ती हैं। हस्तिनापुर एक ऐसी धरती है, जहाँ तीन तीर्थंकर हुए हैं। अन्य तीर्थंकर के साथ २१ तीर्थंकर न तो चक्रवर्ती थे, न कामदेव थे। शांतिनाथ-कुंथुनाथ-अरहनाथ तीन भगवान तीर्थंकर भी थे, चक्रवर्ती भी थे, और कामदेव भी थे। यानि तीर्थंकर के रूप में, चक्रवर्ती के रूप में जिन्होंने छह खण्ड का शासन हस्तिनापुर से किया हो, ऐसे अरहनाथ भगवान का आज दीक्षाकल्याणक भी है। उनके चरणों में आज मैं परोक्ष में नमोस्तु करता हूँ। और आप सब की जो शुभकामना हमें प्राप्त हुई हैं, ये सम्मान जो आपने माला से किया है, ये तो आप किसी का भी करते हैं, कर सकते हैं, ये सम्मान माताजी की भावनाओं का है और आपका जो स्नेह, आपका जो विश्वास, आपकी जो श्रद्धा मेरे अंदर है, मैं तो यही चाहता हूँ कि इस श्रद्धा के अंदर इस विश्वास के अंदर, मैं आगे भी इसी प्रकार से चलता रहूँ। जो रुपया आज तक मुझे समाज से प्राप्त हुआ है। आज तक जहाँ की जिस योजना में मुझे पैसा मिला है, मांगीतुंगी का पैसा मांगीतुंगी में लगा, कावंâदी का पैसा काकंदी में लगता है, शिर्डी का पैसा शिर्डी में लगेगा, हस्तिनापुर का पैसा हस्तिनापुर में लगेगा। सब जगह के बैंक एकाउण्ट बिल्कुल अलग हैं, सबके पदाधिकारी लोग उसका संचालन करते हैं। हमारी किसी भी संस्थान में जो भारत सरकार का नियम है, कि ट्रस्ट हो या सोसायटी हो, उस प्रकार से हमारे रजिस्टर्ड ट्रस्ट या सोसायटी हैं और उसमें तीन में से दो हस्ताक्षर से पैसा निकले एवं जमा हों, वही परिपाटी है, हमारे यहाँ किसी भी संस्थान में एक हस्ताक्षर से पैसा बैंक से निकालने का किसी भी कमेटी में किसी को अधिकार आज तक ४० साल के अंदर भी नहीं दिया गया है, न आगे दिया जायेगा। पूरा संचालन पैसे का, बैंक का हमारे तीन में से दो हस्ताक्षर से होता है। वही व्यवस्था यहाँ शिर्डी में रहेगी। शिर्डी के अंदर अभी कार्यालय नहीं बना है, अभी यह खेत है। निर्माण होगा, थोड़ा समय लगेगा। इसलिए जिन बंधुओं ने यहाँ पर पैसे बोले ५१००/-रुपये, ५१०००/-रुपये, या ३ लाख रुपये कमरे के लिए, वे हमारे महामंत्री राजाभाऊ पाटनी, नासिक के पास भेजकर आप रसीद लें। यहाँ पर हमारे शिर्डी के अंदर भाई किशोर जी गंगवाल हैं, सूरजमल गंगवाल हैं, इसके ट्रस्टी हैं यहाँ के स्थानीय हैं, उनके पास आप पैसा दे सकते हैं, उनके पास रसीद बुक रहेगी। वो आपको रसीद देकर आपका पैसा लेंगे और ट्रस्ट में पैसा जमा होगा। जिन लोगों को सुविधा हो, हस्तिनापुर में भी चेक और ड्राफ्ट भेज सकते हैं, वहां भी पैसा दे सकते हैं, वहाँ जो भी पैसा जमा होगा, वह पैसा शिर्डी में आयेगा। जैसे आज मांगीतुंगी में प्रतिमा का निर्माण हो रहा है, मांगीतुंगी प्रतिमा के निर्माण का बैंक एकाउण्ट सटाणा में भी है, ताहराबाद में भी है, और हस्तिनापुर में भी है। हस्तिनापुर में जितना पैसा मांगीतुंगी के लिए इकट्ठा होता है, सब मांगीतुंगी में लगता है। मैं आपको गौरव के साथ कहता हूँ, आज जो पैसा मूर्ति निर्माण के अंदर लग रहा है, ९० प्रतिशत हम हस्तिनापुर से मूर्ति के लिए इकट्टा करके मांगीतुंगी भिजवा रहे हैं, मांगीतुंगी में प्रतिमा के लिए १० प्रतिशत पैसा आता है। अगर हमको २० लाख रुपये महिने की जरूरत है, तो २ लाख, ३ लाख, चार लाख रुपये मांगीतुंगी से प्राप्त होता है बाकी हम वहाँ ही लोगों से स्वीकृतियाँ लेकर उसको एकत्र करके हस्तिनापुर से भेजते हैं। हस्तिनापुर में भी हमारा बैंक एकाउण्ट है, यहाँ भी बैंक खाता है, सारा संचालन हमारा व्यवस्थित रूप से अध्यक्ष, महामंत्री, कोषाध्यक्ष के हस्ताक्षर से होता है। इस व्यवस्था की हमने आपको इसलिए जानकारी दी है, कि कई कमेटियों के अंदर कई लोगों के अनेक प्रश्न होते हैं, सब चीजों का खुलासा आपको मालूम होना चाहिए। ज्ञानमती माताजी ने जिस दिन से संस्थान का निर्माण कराया। हमारे बीच में हमारे संस्थान के महामंत्री वैलाशचंद जी गोधा बैठे हैं, ये खण्डेलवाल जैन हैं, दिल्ली के हैं और जिस दिन से माताजी दिल्ली आर्इं थी, राजस्थान से, सबसे पहले सन् १९७२ में, तब से जुड़े हुए हैं, उस समय ये माताजी का कमण्डलु लेकर चले और आज आप २० साल से हमारी संस्था के महामंत्री हैं ये कोई करोड़पति नहीं हैं, कार्यकर्ता हैं, इन्होंने कार्य किया है और समाज को यह दिखाया है कि हम भी एक छोटे से व्यक्ति होकर समाज के और माताजी के कार्य को कर सकते हैं। ऐसे-ऐसे कार्यकर्ता पूज्य ज्ञानमती माताजी के साथ जु़ड़े रहे, जिससे आज सारे काम संभव हो सके। एक एम.एल.ए. से लेकर एक चेयरमैन से लेकर, राष्ट्रपति तक पूज्य माताजी के चरणों में आने का श्रेय माताजी का पुण्य है। जब हम राष्ट्रपति भवन में गये राष्ट्रपति से मिलने के लिए, सन् २००८ में जब राष्ट्रपति बनीं, उनको ज्ञात हुआ कि माताजी का जन्म सन् १९३४ का है, तब उन्होंने बड़े हंसते हुए कहा कि मेरा भी जन्म सन् १९३४ का है और ज्ञानमती माताजी के प्रवचन आस्था चैनल पर हमारे पतिदेव रोज सुनते हैं, मुझे बताते हैं कि ज्ञानमती माताजी जैन धर्म के बारे में क्या बोलती हैं। ये शब्द थे राष्ट्रपति प्रतिभा देवीिसह पाटिल के। उन्होंने कहा कि मैं जरूर आऊँगी, माताजी का दर्शन करूँगी और माताजी का आशीर्वाद लूँगी और जिस उत्तरप्रदेश मेरठ मण्डल के अंदर कभी भी राष्ट्रपति १९५० के बाद नहीं आए, पहली बार सन् २००८ में राष्ट्रपति जी का आगमन माताजी के चरणों में हुआ और लोग देख रहे थे कि माताजी राष्ट्रपति जी को किस प्रकार से आशीर्वाद देंगी। जिस प्रकार से जैन साधु को राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री को आशीर्वाद देना चाहिए, उसी आगम की परम्परा के अनुसार आगम की रक्षा करते हुए पूज्य ज्ञानमती माताजी ने आशीर्वाद राष्ट्रपति जी को प्रदान किया था २१ दिसम्बर २००८ को। ये सारी बातों की मैंने आपको जानकारी दी है। हमारे कंधे बहुत छोटे हैं, हमारे हाथ बहुत छोटे हैं, हमारे पास करोड़-करोड़ रुपये के दातार नहीं है। हम छोटे-छोटे दान से २६००-२६०० रुपये से, ५१००-५१०० रुपये, ५१००० रुपये से तीर्थों का निर्माण करते हैं, समाज को जोड़ते हैं, हम चाहते हैं कि हर आदमी यह कहे कि यह तीर्थ हमारा है, यह प्रतिमा हमारी है। आज मांगीतुंगी के डा. पापड़ीवाल जी यहाँ बैठे हैं, महामंत्री हैं। आज वहाँ पर हमारे १५५० मेम्बर १०८०००/-रुपये के हैं। मांगीतुंगी प्रतिमा निर्माण के लिए सारे देश से कोई भी प्रान्त हिन्दुस्तान का बाकी नहीं है जहाँ जैन समाज रहती हो, और उन्होंने मांगीतुंगी के अंदर पैसा नहीं दिया हो। सबने १०८०००/-रुपये इस प्रतिमा के निर्माण के लिए दिये हैं। हमारे संघपति लाला महावीर प्रसाद जैन, कमलचंद जैन, खारीबावली, अनिल जी जैन, हमारे भाई वैलाशचंद लखनऊ, हमारे डॉ. पन्नालाल पापड़ीवाल जी ने दिया है। हमारे कस्तूरचंद जी बड़जाते एवं प्रमोद कुमार जी कासलीवाल हैं। उस प्रतिमा निर्माण के लिए कोई ११ रुपये भी देता है, १०१/-रुपये भी देता है, तो मैं मानता हूँ कि जिस प्रकार से श्रवणबेलगोल के बाहुबली भगवान पर एक राजा का कलश नहीं ढुर सका था, लेकिन एक गुलिका की छोटी सी कलशी के जल से अभिषेक होकर मस्तक से नीचे आ गया था। इसलिए १०१/-रुपये देने वाला भी, ११०००/-रुपये देने वाला भी उसी प्रकार से धन्यवाद का पात्र है। मूर्ति के निर्माण में पता नहीं किसके पुण्य से इतनी बड़ी प्रतिमा का निर्माण हो जाये। हम लोग कौन मूर्ति बनाने वाले हैं, प्रतिमा को क्या भला हम बना सकते हैं, हमारे ट्रस्टी बना सकते हैं, हमारा १०८०००/-रुपये बना सकता हैं, हमारे पापड़ीवाल जी बना सकते हैं, अनिल जी बना सकते हैं, नहीं, कोई नहीं बना सकते। हमारे इंजीनियर सी.आर.पाटिल बैठे हैं, नहीं बना सकते। इतनी बड़ी प्रतिमा का निर्माण अगर भगवान के यक्ष-यक्षिणी नहीं चाहेंगे, गोमुख यक्ष और चव्रेश्वरी देवी नहीं चाहेंगे, तो हम प्रतिमा का निर्माण कभी नहीं कर सकते। ज्ञानमती माताजी का आशीर्वाद, चव्रेश्वरी देवी का आशीर्वाद, गोमुख यक्ष का आशीर्वाद हमारे साथ में है। इसलिए प्रतिमा के निर्माण को हम आपके सहयोग से, समाज के सहयोग से पूरा करेंगे। दृढ़ संकल्पित हैं कि प्रतिमा जल्दी से जल्दी से बनें लेकिन हम उसमें अधिक जल्दी नहीं कर सकते हैं। कुछ ऐसी चीजे होती हैं, जिसमें हम जल्दी नहीं कर सकते। वहाँ पत्थर की कटिंग चलती है, वायसा मशीन लगी है, वहाँ चेनसा मशीन लगी है। बहुत सावधानीपूर्वक काम करना पड़ता है। वहाँ रात में महीने में कम से कम २-४ बार शेर आता है। हमारे कारीगरों को मिलता है। अभी परसों की घटना है, वहाँ एक कारीगर बोला कि मेरे पास से १० फुट की दूरी पर शेर आकर चला गया। हमारे सी.आर.पाटिल बैठे हैं, अधिकतर मांगीतुंगी रहते हैं, शाम को भ्रमण करने जाते हैं, नीचे इनके १ फुट की दूरी से शेर आकर निकल गया। लेकिन आज तक किसी शेर ने किसी का कोई नुकसान नहीं किया। ऐसा अतिशय है, मैं मानता हूँ कि यह अतिशय गणिनी ज्ञानमती माताजी का है, यह चव्रेश्वरी देवी का है। यह वहाँ के भगवान पाश्र्वनाथ का है, जो हमें शक्ति देते हैं और उस शेर को वहाँ आकर दर्शन करने का मौका देते हैं, किसी के नुकसान का नहीं। आज मुझे यहाँ सूरजमल जी गंगवाल ने बताया कि भगवान पाश्र्वनाथ की प्रतिमा यहाँ पर रखी गई है, लगभग २-३ साल हो गये इस प्रतिमा को आये हुए। हम बहुत चिंतित थे, कि यह प्रतिमा यहाँ रखी हुई है अप्रतिष्ठित है, इसकी प्रतिष्ठा बहुत जल्दी होना चाहिए, मंदिर बनना चाहिए। आज योग आया। यहाँ पर भी उन्होंने बताया कि कई बार एक काला सर्प यहाँ पर आता है, लेकिन आज तक किसी को उसने नुकसान नहंी पहुँचाया। यह काला सर्प और कुछ नहीं है, यह भगवान के जो धरणेन्द्र और पद्मावती यक्ष-यक्षिणी थे, जो उसके रक्षक थे, वह यहाँ के रक्षा करने वाले होगे। यहाँ के आने वालों की रक्षा करने वाले होंगे। उनको आशीर्वाद देने वाले होंगे। हम आचार्य शांतिसागर जी महाराज की परम्परा के हैं। आगम की परम्परा के हैं, हम यह कभी नहीं कहते कि यह यक्ष-यक्षिणी हमारा कुछ नहीं करते, इनको मंदिर से हटा दो, ऐसा हम नहीं कहते, वह तो हमको शक्ति देते हैं। उनके अंदर शक्ति है, हम दस प्रतिमा धारी हैं, उनके एक भी प्रतिमा नहीं है। एक भी प्रतिमा नहीं है हमारे यक्ष-यक्षिणी के। न पद्मावती के, न क्षेत्रपाल के, लेकिन हम वह काम नहीं कर सकते, जो वह करते हैं। हम भगवान पाश्र्वनाथ की रक्षा उस उपसर्ग से नहीं कर सकते थे, जो उपसर्ग की रक्षा आ करके पद्मावती और धरणेन्द्र ने किया था। यह उनकी ताकत है, उनकी शक्ति है। वे अव्रती होकर भी उनके अंदर इतनी शक्ति है, वे सम्यग्दृष्टि हैं। हमारे तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ के अंदर आया हुआ है, हमारे जितने भी शासन देवी, यक्ष-यक्षिणी हैं, वह सम्यग्दृष्टि हैं। उनके द्वारा हमारे शासन की रक्षा होती है। जब भगवान का श्रीविहार होता है, तीर्थंकर भगवान का। उनके आगे-आगे श्री देवी, सरस्वती देवी, लक्ष्मी देवी चलती हैं, ये देवियाँ हैं। ये कोई व्रती नहीं हैं, ये कोई क्षुल्लक नहीं, कोई क्षुल्लिका नहीं हैं। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती हैं। सम्यग्दृष्टी हैं। इनका हम यथोचित्त सम्मान करते हैं। हमारे जितने भी प्रतिष्ठा शास्त्र ग्रंथ हैं, जितने भी पूजा-पाठ के ग्रंथ हैं, सबके अंदर पूजा करने के पहले, प्रतिष्ठा करने के पहले सारे देवी-देवताओं का आह्वान किया जाता है, उनको बुलाया जाता है, उनको अपना साधर्मी समझा जाता है, उनका आदर किया जाता है कि आप भी आयें, हमें सहयोग दें, हम आपका सम्मान करते हैं, हम उनको अघ्र्य समर्पित करते हैं। उनको हम अघ्र्य देते हैं कि आप भी चढ़ाइये। हम भी आपका आदर कर रहे हैं। जैसे कि आपके घर में कोई मेहमान आता है, आप चाय से उसका स्वागत करते हैं, आप मिठाई से उसका स्वागत करते हैं, आप उसको बिठाकर स्वागत करते हैं। उसी प्रकार से हम इन यक्ष-यक्षिणियों का सम्मान करते हैं और वही रूप यहाँ पर आपको देखने को मिलेगा। यहाँ यक्ष-यक्षिणी का सम्मान होगा और उनका अतिशय यहाँ के तीर्थ के ऊपर प्रगट होगा। बंधुओं! आप सब लोगों ने खुले दिल से मेरी बात को सुना। मैंने जो कुछ भी कहा है आचार्य शांतिसागर जी महाराज की परम्परा से, आचार्य वीरसागर जी महाराज से जो ज्ञान ज्ञानमती माताजी ने लिया, जो हम शिष्यों को प्रदान किया, उसको मैंने आपको बताया। एक बात और कहकर मैं अपनी बात समाप्त करता हूँ, आपके इसी महाराष्ट्र में केवल ५० किमी. की दूरी पर वीरगाँव नाम का स्थान है। वह वीर गाँव आचार्य वीरसागर जी महाराज की जन्मभूमि है और ज्ञानमती माताजी के दीक्षा गुरु आचार्य वीरसागर जी महाराज हैं। आज ज्ञानमती माताजी और सुपाश्र्वमती माताजी दो माताजी केवल हैं, जो आचार्य वीरसागर जी महाराज से साक्षात् उनके करकमलों से दीक्षित हैं। हिन्दुस्तान के अंदर और उस पीढ़ी का कोई भी साधु नहीं बचा है। ज्ञानमती माताजी एक बहुत बड़ी धरोहर हैं। उन्होंने संकल्प लिया है, मुझे आदेश दिया है कि हमारे दीक्षा गुरु आचार्य वीरसागर जी महाराज ने जहाँ जन्म लिया था, वहाँ जाकर के देखो मैं जाना चाहता था, दो दिन पहले, लेकिन स्वागत-स्वागत में रात के १०-११ बज गये। मैं नहीं जा सका, मैं जाऊँगा और उस वीर गाँव को जो आचार्य वीरसागर महाराज की जन्मभूमि है, उसको हम अतिशय क्षेत्र बनायेंगे। वीरसागर महाराज की जन्मभूमि का हम उत्थान करेंगे। वहाँ के सरपंच आये हैं। मैं इनसे कहूँगा कि हमको आपसे कुछ नहीं चाहिए। आप थोड़ी सी भूमि दीजिए वहाँ पर। अच्छा-सा स्थान दीजिए, जो वास्तु के हिसाब से हम आचार्य वीरसागर जी महाराज का जन्मभूमि के अनुरूप वहाँ का विकास कर सवेंâ। इस भावना के साथ कि वे पूज्य ज्ञानमती माताजी के दीक्षागुरु हैं और आचार्य शांतिसागर जी महाराज की परम्परा के प्रथम पट्टाचार्य हैं। वे उनके प्रथम शिष्य थे, और प्रथम पट्टाचार्य भी थे। ऐसे वीरसागर जी महाराज की उस जन्मभूमि का विकास हमें और आपको करना है। महाराष्ट्र वालों को करना है, पापड़ीवाल जी को करना है, ओैरंगाबाद वालों को करना है, और वहाँ के पास में बैजापुर गाँव है, बैजापुर वालों को करना है, आपको संभालना है, हम तो जाकर के देखेंगे, और सोचेंगे कि वहाँ पर क्या हो सकता है। और कम से कम कुछ नहीं, तो भगवान की इतनी बड़ी प्रतिमा जरूर वहां पर विराजमान करेंगे, कि साल में एक बार ठाट-बाट से वहाँ पर महामस्तमकाभिषेक हो, जो सारे हिन्दुस्तान के अंदर जाये कि वीरगाँव आचार्य वीरसागर जी महाराज की जन्मभूमि है, वहाँ से मस्तकाभिषेक का प्रसारण हो रहा है और हम मस्तकाभिषेक देख रहे हैं। आचार्य वीरसागर जी महाराज का स्टेचू भी लगाया जायेगा। जो वहाँ का मंदिर है, उसमें अगर जीर्णोद्धार की आवश्यकता है, उसको भी किया जायेगा। यह सारे कार्य जो वीरगाँव मैंने सुना है कि आचार्य वीरसागर जी महाराज के वंशज उनका परिवार, पोते, पहाड़े परिवार, कुछ लोग वहाँ औरंगाबाद रहते हैं और एक परिवार वहाँ वीरगाँव में भी है। उन लोगों को भी जिम्मेवारी दी जायेगी। जो वहाँ के आस-पास के लोग जिम्मेवारी ले करके इस तीर्थ को विकसित करेंगे। इन्हीं शब्दों के साथ मैं आप सबको बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ आज कि आपने जो इस तीर्थ के विकास में अपना उत्साह दिखाया है। ५१००-५१०० रुपये देकर करके या ५१००० रुपये देकर करके या १ लाख रुपये देकर जो उत्साह दिखाया है, इसका मतलब है कि आपकी भावना है कि यह शिर्डी का तीर्थ जल्दी से जल्दी बनें। मैं चाहता हूँ कि हर ट्रस्टी अपने-अपने गाँव से लोगों को ऐसे जोड़े कि यह तीर्थ साल-दो साल के अंदर बिल्कुल कुण्डलपुर, हस्तिनापुर, प्रयाग और अयोध्या जैसा एक विकसित तीर्थ देखने को सबको मिले। हमारा जो भी जैन पर्यटक और यात्री हस्तिनापुर में देश के कोने-कोने से, कहीं से आये तो उसको मालूम हो कि मुझे जाकर शिर्डी में ज्ञानतीर्थ पर ठहरना है। ज्ञानतीर्थ के फ्लैट अच्छे हैं। उसको यह भावना नहीं लाना है कि हमें किशोर जी के होटल में ठहरना है। हमें सूरजमल जी के होटल में ठहरना है। होटल शब्द जो है, हो टल अर्थात् अच्छे हो, तो वहाँ से टल जाओ। ये होटल शब्द जो है, ये किसी और को ठहराने के हैं। हमको अपने तीर्थ पर ठहराना है अपने दिगम्बर जैन यात्रियों को। इसलिए आप सब लोग उत्साहपूर्वक इसमें दान देना, इसमें पैसा देना। आपके एक-एक पैसे का सदुपयोग होगा। हमारे ४१ लोगों का यह ट्रस्ट है। बराबर उसकी मीटिंग होती है। सभी ट्रस्टी इसमें संभ्रात हैं। सब लोग पैसा लगाने के लिए तैयार हैं। यह तीर्थ जल्दी से जल्दी बनकर तैयार हो, पूज्य ज्ञानमती माताजी के चरणों में जो आज हस्तिनापुर में विराजमान हैं, उनके चरणों में मैं यही निवेदन करता हूँ और वंदामि करता हूँ कि उन्होंने जो पीठाधीश का पद मुझे दिया है, जो जिम्मेवारी मेरे ऊपर सौंपी है, उस जिम्मेवारी का मैं उनके आशीर्वाद से आगे भी निर्वाह करता रहूँ और इन तीर्थों के विकास में हमारे पास तो पैसा नहीं है, हम तो तन और मन लगाते हैं पैसा आप लोग लगाते हैं। हाँ, यह जरूर है कि हमारे बड़े भाई साहब जो गृहस्थ अवस्था के हैं, सम्पन्न हैं, अभी उन्होंने अयोध्या के अंदर भगवान ऋषभदेव का जो जन्म स्थान है, वहाँ पर अच्छी राशि लगा करके भगवान ऋषभदेव के जन्मभूमि का मंदिर निर्मित किया और उसका फरवरी २०११ के अंदर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव हुआ। उसके कर्ता वैâलाशचंद जैन सर्राफ लखनऊ वह भी धन्यवाद के पात्र हैं। क्योंकि हमने तो घर छोड़ा, तो घर से कोई संबध नहीं रखा। हम आज तक घर की किसी शादी में नहीं गये। हमारे भाई-बहनों की नाती-पोते आदि आज लगभग १७५ संतानें हैं। हमारी माँ की १३ सन्तानों में से ९ सन्तानों ने विवाह किया, ४ संतानें हम अविवाहित हैं, ज्ञानमती माताजी, अभयमती माताजी, चंदनामती माताजी, और मैं ब्र. रवीन्द्रकुमार, जिन्हें माताजी ने अब रवीन्द्रकीर्ति बनाया है। ४ के अलावा जो ९ संताने हैं उनसे जो पोते-परपोते, नाती आदि मिलाकर आज १७५ हैं, मैं किसी की शादी में कभी नहीं गया जब से मैंने ब्रह्मचर्य व्रत लिया। मैंने अपने ब्रह्मचर्य व्रत का निर्वाह करते हुए कभी किसी शादी मेें, किसी सांसारिक कार्यों में न अनुमोदना की, न उसमें सम्मिलित हुआ। तो इसी प्रकार से मेरा निर्बाध रूप से जितना जीवन शेष है, वह भगवान के चरणों में तीर्थों के निर्माण में भगवान की जन्मभूमियों के विकास में और पूज्य माताजी की आज्ञा के अनुसार जो आचार्य श्री शांतिसागर जी की परम्परा है उसके अनुसार चलता रहे, चलता रहे, चलता रहे, इन्हीं शब्दों के साथ गणिनी ज्ञानमती माताजी की जय, भगवान पार्श्वनाथ की जय।