प्रत्येक युग एवं स्थान में समय—समय पर ऐसे युगपुरुष जन्म लेते हैं, जो अपनी गहन, सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि एवं युग की आवश्यकतानुसार विचार—दृष्टि के कारण तत्कालीन युग में ही नहीं, वरन् अपनी दूरदर्शिता के कारण युगों—युगों तक समसामयिक एवं प्रासंगिक बने रहते हैं।
चाहे नारी—सन्दर्भ में देखें या अन्य विषयों में, स्वामी विवेकानन्द की विचारदृष्टि आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी उस युग में थी। स्वामी विवेकानन्द ने नारी जाति, विशेषत: भारतीय नारी की महिमा प्रतिष्ठित की है। उनके अनुसार‘ईश्वर की प्रथम अभिव्यक्ति वह हाथ है जो पालना झुलाता है।’ नारी का परमोत्कर्ष मातृत्व में है और मां परमात्मा का स्वरूप है। श्वेताश्वतर उपनिषद में कहा गया है—
‘स्त्री त्वं पुमान्, त्वं कुमार उत वा कुमारी।’
दाम्पत्य जीवन में पत्नी की गरिमा का उल्लेख करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा—‘विवाह—संस्कार बड़ा सुन्दर होता है, एक—दूसरे का हृदय स्पर्श करता है और वे ईश्वर तथा उपस्थित लोगों के सामने प्रतिज्ञा करते हैं कि वे एक—दूसरे के प्रति सच्चे रहेंगे।
जब कोई व्यक्ति किसी सार्वजनिक पूजा में भाग लेता है,तब उसकी पत्नी उसके साथ रहती है। अपनी उपासना में हिन्दू पांच संस्कारों का अनुष्ठान करता है— ईश्वर, पितरों, दीनों, मूक पशुओं तथा ज्ञान की उपासना। जबकि किसी हिन्दू के घर में कुछ भी हो, अतिथि को किसी बात की कमी नहीं होती। जब वह संतुष्ट हो जाता है, तब बच्चे और पिता, फिर मां भोजन ग्रहण करते हैं।’
यूनिटेरियन चर्च में किए गए भाषण में उन्होंने कहा— ‘धार्मिक ग्रन्थों में उनको बहुत आदर की दृष्टि से देखा गया है, जहां स्त्रियाँ ऋषि—मनीषी हुआ करती थीं। उस समय उनकी आध्यात्मिकता सराहनीय थी।
पूर्व की स्त्रियों को पश्चिमी मापदंड से जांचना उचित नहीं है। पश्चिम में स्त्री पत्नी है, बाद में वह मां है। हिन्दू मां भाव की पूजा करते हैं और सन्यासियों को अपनी मां के सामने अपने मस्तक से पृथ्वी का स्पर्श करना पड़ता है। पातिव्रत्य का यहां बहुत सम्मान है।
‘भारतीय नारी प्राचीनी, मध्यमकालीनी और वर्तमान’ विषय पर बोलते हुए स्वामीजी ने कहा था—’ भारत में नारी ईश्वर की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है और उसका सम्पूर्ण जीवन इस विचार से ओतप्रोत है कि वह मां है और पूर्ण मां बनने के लिए उसे पतिव्रता रहना आवश्यक है।
उन्होंने कहा कि भारत में किसी भी मां ने अपने बच्चे का परित्याग नहीं किया। विवेकानंद जी ने किसी को भी इसके विपरीत सिद्ध करने की चुनौती दी। भारतीय लड़कियों को यदि अमरीकन लड़कियों की भाँति अपने आधे शरीर को युवकों की कुदृष्टि के लिए खुला रखने के लिए बाध्य किया जाए, तो वे मरना कबूल करेंगी।
स्वामी विवेकानन्द ने स्त्रियों को सदैव पूज्य, वरेण्य, जाति की उत्थापिका माना—‘स्त्रियों की पूजा करके ही सब जातियां बड़ी हुई हैं। जिस देश में,जिस जाति में स्त्रियों की पूजा नहीं होती, वह देश,वह जाति कभी बड़ी नहीं हुई और न हो सकेगी। तुम्हारी जाति का जो अध:पतन हुआ है,उसका प्रधान कारण है,इन्हीं सब शक्ति—मूर्तियों की अवहेलना।….
संयुक्त राज्य ने हमारे हृदय में भविष्य में महान संभावनाओं की आशा उत्पन्न की है किन्तु हमारा भाग्य सारे संसार के भाग्य के सदृश आज कानून बनाने वालों पर निर्भर नहीं करता वरन स्त्रियों पर निर्भर करता है।’
इस तरह भारतीय नारी का आदर्श,उसकी वर्तमान स्थिति और उसका भविष्य रेखांकित करने के उपरान्त स्वामीजी भारतीय और पाश्चात्य नारियों की तुलना करते हुए भारतीय परिवार में मां की महत्ता प्रदर्शित करते हैं— ‘पाश्चात्य देशों में स्त्री को पत्नी की दृष्टि से देखा जाता है।
वहां स्त्री में पत्नीत्व की कल्पना की जाती है, इसके विपरीत प्रत्येक भारतीय नारी में मातृत्व की कल्पना करता है। पाश्चात्य देशों में गृह की स्वामिनी और शासिका पत्नी है, भारतीय गृहों में घर की स्वामिनी और शासिका माता है। पाश्चात्य गृह में यदि माता भी हो तो उसे पत्नी के अधीन रहना पड़ता है, क्योंकि गृहस्वामिनी पत्नी है।
हमारे घरों में माता ही सब कुछ है, पत्नी को उसकी आज्ञा का पालन करना ही चाहिए।’ इसके साथ ही उन्होंने देशवासियों को उनके कर्तव्य की याद दिलाते हुए उनका उद्बोधन किया— ‘भारत! तुम मत भूलना कि तुम्हारी स्त्रियों का आदर्श सीता, सावित्री, दमयन्ती हैं, मत भूलना कि तुम्हारे उपास्य सर्वत्यागी उमानाथ शंकर हैं, मत भूलना कि तुम्हारा विवाह, तुम्हारा धन और तुम्हारा जीवन, इन्द्रियसुख, व्यक्तिगत सुख के लिये नहीं हैं, मत भूलना की तुम जन्म से ही ‘माता ’ के लिए बलिस्वरूप रखे गये हो, यह मत भूलना कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया की छायामात्र है।’
स्वामी विवेकानन्द के ये अमूल्य विचार जितने उपयोगी तब थे,आज कहीं उससे अधिक हैं। मातृभूमि एवं नारी जाति के प्रति कर्तव्य भाव, सम्मान भाव रखने एवं नारी जाति के स्वयं जागरुक होने से ही हमारे देश का भविष्य उज्ज्वल हो सकता है। हमें अपने प्राचीन आदर्शों की ओर उन्मुख होना चाहिए।
अणुव्रत से साभार