क्या स्वास्थ्य हेतु समान मापदण्डों का निर्माण संभव है ? दुनियाँ में कोई भी दो व्यक्ति सम्पूर्ण रूप से एक जैसे नहीं हो सकते हैं ? उनके जीवन का लक्ष्य, प्राथमिकताएँ, खान—पान, रहन—सहन, आचार—विचार, आवास एवं व्यवसाय का वातावरण तथा परिस्थितियाँ, अत: बाह्य रूप से कुछ लक्षणों में समानता होने के बाबजूद किसी एक रोग के नाम से रोगी का परिचय करना कहाँ तक सही होता है ?
पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के विषय जैसे देखना, सुनना, बोलना, गंध लेना, स्पर्श करना, समझना आदि एक जैसी परिस्थितियों का अलग—अलग प्रभाव क्यों पड़ता है ? कहने का आशय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति स्वास्थ्य के अलग—अलग स्तर पर जीता है।
रोग के निदान हेतु जो भी रोगी से पूछा जाता है और रोगी अभिव्यक्त करता है अथवा जो यंत्रों एवं पैथालोजिकल रिपोर्ट के परीक्षण से प्राप्त होता है वह सत्यांश ही होता है। अत: स्वस्थ रहने हेतु व्यक्ति को निदान और उपचार की यथार्थता के प्रति स्वयं की सजगता और विवेक आवश्यक होता है।
प्रभावशाली स्वावलंबी चिकित्सा पद्धतियाँ व्यक्ति को स्वस्थ रखने एवं रंग का उपचार करते समय निम्न तथ्यों की उपेक्षा नहीं करती।
जब से मानव सभ्यता का विकास हुआ, तभी से स्वास्थ्य वैज्ञानिक, चिकित्सक इस प्रयास में व्यस्त है कि मानव रोग मुक्त जीवन कैसे जी सके ?
यथार्थता यह है कि इतनी प्रगति के बावजूद भी आज रोग और रोगियों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जा रही है ? दुनिया में चेतनाशील प्राणियों में मानव का प्रतिशत तो एक प्रतिशत से भी कम है, बाकी ९९ प्रतिशत जीव अनादिकाल से सहज जीवन जी रहे हैं, जिन्हें किसी भी प्रकार की चिकित्सा पद्धति का न तो कोई ज्ञान होता है और न अनुभवी चिकित्सकों का सान्निध्य ही मिलता है। क्या वे रोगी नहीं होते हैं ? वे पुन: कैसे स्वस्थ होते हैं ?
दूसरी तरफ स्वच्छ वातावरण में रहने वाले, पौष्टिक आहार का सेवन करने वाले, शुद्ध निर्मल मिनरल वाटर पीने वाले भी रोगी हो जाते हैं, आखिर क्यों ? इस पर बिना किसी पूर्वाग्रह के स्वतंत्र एवं निष्पक्ष सम्यक् चिंतन आवश्यक है।
मानव शरीर दुनियाँ की सर्वश्रेष्ठ मशीन है जो पाँच इन्द्रियों और मन जैसी अमूल्य सम्पदाओं से न केवल परिपूर्ण ही होता है अपितु उसके सारे अंग उपांग पूर्ण तालमेल एवं आपसी सहयोग व समन्वय से अपना—अपना कार्य करते हैं। यदि शरीर के किसी भी भाग में कोई तीक्ष्ण कांटा, सुई अथवा पिन चुभ जाये तो उस समय न तो आँख को अच्छे दृश्य देखना अच्छा लगता है और कानों को मनपसन्द गीत सुनना।
यहाँ तक कि दुनियाँ भर में चक्कर लगाने वाला हमारा चंचल मन क्षणमात्र के लिए अपना ध्यान वहाँ केन्द्रित कर देता है। जिस शरीर में इतना तालमेल और अनुशासन हो, क्या उस शरीर में कोई अकेला नामधारी रोग उत्पन्न हो सकता है ?
हमेंचिंतन करना होगा कि जो शरीर अपनी कोशिकाएँ, रक्त, माँस, मज्जा, हड्डियाँ, चर्बी, वीर्य आदि अवयवों का निर्माण स्वयं करता है, जिसे आधुनिक विकसित स्वास्थ्य विज्ञान पूरी कोशिका के बावजूद अभी तक नहीं बना सको, ऐसे स्वाचालित, स्वर्नििमत शरीर में स्वयं के रोग को दूर करने की क्षमता न हो, यह कैसे संभव है ?
अनुभवी चिकित्सक एवं अच्छी से अच्छी दवा शरीर को अपना उपचार स्वयं करने की प्राकृतिक विधि में सहायक मात्र होते हैं। शरीर के सहयोग के बिना सारे उपचार निष्क्रिय हो जाते हैं।
अधिकांश व्यक्ति रोग होने में स्वयं की गलती को स्वीकार नहीं करते। इसी कारण रोग को समझे बिना, निदान के बारे में अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त किये बिना, डॉक्टरों के पास पड़ने वाली भीड़ के अन्धा:नुकरण के कारण, चिकित्सा से भविष्य में पड़ने वाले दुष्प्रभावों की उपेक्षा करते हुए अपने आपको डॉक्टरों की प्रयोगशाला बनाते प्राय: संकोच नहीं करते।
वे इस बात काचिंतन तक नहीं करते कि दवाओं के अधिक अथवा अनावश्यक सेवन से शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति क्षीण होने लगती है।
आत्मा को अशुभकर्मों से भारी करने में सबसे ज्यादा कारण हिंसा, व्रूरता, निर्दयता का आचरण होता है। दुनियाँ में कोई भी जीव मरना नहीं चाहता। भले ही उसे न चाहते हुए भी मरना क्यों न पड़े। जीयो और जीने दो पर आधारित जीवनचर्या ही मानवता का प्रतीक होती है। अपने स्वार्थ के लिए अन्य जीवों को कष्ट पहुँचाना पाश्विकता का लक्षण है।
हमें तो पिन अथवा सूई की चुभन भी सहन न हो, परन्तु अज्ञानवश पौष्टिकता एवं स्वाद, शिक्षा, दवाओं के निर्माण एवं परीक्षण अथवा उपचार आदि के लिए अन्य जीवों के साथ व्रूरता अथवा वध करना या उन्हें परेशान और पीड़ित करना, स्वयं के लिए दु:खों, कष्टों, रोगों को आमंत्रण देना है। उन मूक बेजुबान, असहाय जीवों की बद्दुआएँ हृदय से निकली चीत्कारें उनको पीड़ित करने में प्रत्यक्ष—अप्रत्यक्ष रूप से सहयोगी करने वालों को कभी शांत, सुखी एवं स्वस्थ नहीं रहने देगी।
भले ही पूर्व पुण्य के प्रभाव से स्वार्थी मानव को उसका तत्काल दुष्फल न भी मिलें। जब पूज्य पुरुषों का आशीर्वाद हमें शांति पहुँचा सकता है। तो दु:खी प्राणी की आहें अपना प्रभाव क्यों नहीं दिखाएँगी,चिंतन का प्रश्न हैं ? क्याहिंसा द्वारा निर्मित और व्रूरता द्वारा परीक्षण की गई दवाओं द्वारा उपचार करवाने वालों को अशुभ कर्मों का बन्ध नहीं होता है ?
प्रकृति का दण्ड देने का विधान पूर्ण न्याय पर आधारित होता है। वहाँ देर भले ही हो सकती है, अंधेर नहीं हो सकती। अत: जहाँ कोई विकल्प न हो और रोग सहनशक्ति के बाहर हो, उसी अवस्था में लाचारीवश ही ऐसा उपचार लेकर प्रायश्चित लेना चाहिए। अत:हिंसा को प्रोत्साहन देकर आत्मा को विकारी बनाने वाली चिकित्सा पद्धतियाँ पूर्ण रूप से प्रभावशाली कदापि नहीं हो सकती ?
स्वावलंबी चिकित्सा पद्धति से उपचार करते समय रोगी को निम्न बातों का विशेष ध्यान रखना आवश्यक होता है।
रोगी जितना—जितना उपरोक्त नियमों का पालन करेगा, उतना जल्दी ही वह रोग मुक्त हो जायेगा। यदि वह स्वस्थ है तो रोग उसको परेशान नहीं करेगा। उपरोक्त सारी बातें व्यक्ति के स्वयं के नियंत्रण में होती है।
स्वावलम्बी अिंहसात्मक चिकित्सा पद्धतियाँ रोग के मूल कारण को दूर करती है। शरीर, मन और आत्मा में तालमेल एवं सन्तुलन स्थापित करती है। शरीर की क्षमताओं और उसके स्वरूप आवश्यकताओं में सन्तुलन रखती है। स्वावलंबी चिकित्सा पद्धतियाँ व्यक्ति में धैर्य, सहनशीलता, सजगता स्वदोष दृष्टि एवं आत्म विश्वास विकसित करती हैं।
व्यक्ति रोग तो स्वयं पैदा करता है, परन्तु दवा और डॉक्टर से ठीक करवाना चाहता है। क्या हमारा श्वास अन्य व्यक्ति ले सकता है ? क्या हमारा खाया हुआ भोजन दूसरा व्यक्ति पाचन कर सकता है ? क्या हमारा खाया हुआ भोजन दूसरा व्यक्ति पाचन कर सकता है ? प्रकृति का सनातन सिद्धान्त है कि जहाँ समस्या होती है।
उसका समाधान उसी स्ािान पर अवश्य होता है। अत: जो रोग शरीर में उत्पन्न होते हैं उनका उपचार शरीर में अवश्य होना चाहिये। शरीर का विवेकपूर्ण एवं सजगता के साथ उपयोग करने की विधि स्वावलम्बी जीवन की आधार शिला होती है। मानव की क्षमता, समझ और विवेक जागृत करना उसका उद्देश्य होता है।
स्वावलम्बी चिकित्सा में निदान और उपचार में रोगी की भागीदारी एवं सजगता प्रमुख होती हैं। अत: रोगी उपचार से पड़ने वाले सूक्ष्मतम प्रभावों के प्रति अधिक सजग रहता है। जिससे दुष्प्रभावों की संभावना प्राय: नहीं रहती है। ये उपचार बाल—वृद्ध शिक्षित—अशिक्षित, गरीब—अमीर, शरीर विज्ञान की विस्तृत जानकारी न रखने वाला साधारण व्यक्ति भी आत्म विश्वास से चिकित्सक के परामर्श से स्वयं कर सकता है।
स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियाँ हिंसा पर नहीं, अहिंसा पर, विषमता पर नहीं अिंहसा पर, विषमता पर हीं समता पर, साधनों पर नहीं साधना पर, परावलम्बन पर नहीं स्वावलम्बन पर, क्षणिक राहत पर नहीं, अपितु अन्तिम प्रभावशाली स्थायी परिणामों पर आधारित होती है। रोग के लक्षणों की अपेक्षा रोग के मूल कारणों को दूर करती है। शरीर, मन और आत्मा में संतुलन और तालमेल स्थापित करती है।
जो जितना महत्वपूर्ण होता है, उसको उसकी क्षमता के अनुरूप महत्व एवं प्राथमिकता देती है। स्वस्थ जीवन जीने हेतु जो आवश्यक, अनुपयोगी प्रवृत्तियाँ है उन पर नियंत्रण रखने हेतु सचेत करती है। इस प्रकार आधि, व्याधि और उपाधि के संतुलन से समाधि, शांति और स्वस्थता शीघ्र प्राप्त होती है। अत: स्वावलंबी चिकित्सा पद्धतियाँ अन्य चिकित्सा पद्धतियों से अधिक प्रभावशाली होती है। साधन, साध्य एवं सामग्री तीनों परित्र होते हैं।
उपचार से पूर्व रोगी उपचार से पड़ने वाले दुष्प्रभावों के प्रति पूर्ण सावधान रहता है उसका उपचार अंधेरे में न होने से वह गलत एवं हिंसक दवाओं के सेवन से अपने आपको सहज बचा लेता है। अत: जो चिकित्सा पद्धतियाँ जितनी अधिक स्वावलम्बी होती है, रोगी की उसमें उतनी ही अधिक सजगता, भागीदारी होने से वे पद्धतियाँ उतनी ही अधिक प्रभावशाली होती है।
डॉ. चंचलमल जी चोरडिया, चोरडिया भवन, जोधपुर (राज.)
वीतराग वाणी सितम्बर—अक्टूबर