टायफायड यानी मियादी बुखार एक ऐसी बीमारी है जिससे रोगी एक लंबे और निश्चित समय तक पीड़ित रहता है। संसार में तीन करोड़ से भी ज्यादा लोग हर साल इसका शिकार होते हैं। यह रोग सालमोनेला टायफी नामक जीवाणु के संक्रमण से पैदा होता है। विकसित देशों में यह बीमारी बहुत कम होती जा रही है इसका कारण वहां पर उपलब्ध बेहतर जन—स्वास्थ्य की सुविधाएं हैं। इसके साथ ही वहां साफ सफाई और खानपान पर विशेष ध्यान दिया जाता है, लेकिन जनस्वास्थ्य सुविधाओं की सीमितता व अन्य कारणों की वजह से विकासशील देशों में आज भी यह बीमारी एक गंभीर रोग के रूप में मौजूद है। टायफायड बुखार हर उम्र के बच्चों युवाओं और बूढ़ों को होता है। परन्तु बच्चों में यह बुखार अधिक गंभीर,खतरनाक तथा समस्याएं उत्पन्न करने वाला साबित होता है। इसलिए टायफायड या मियादी बुखार बच्चों में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। टायफायड का बुखार करीब चार हफ्तों तक चलता है और इस बुखार का हर एक हफ्ता अपने खास लक्षण व जटिलता के लिए जाना जाता है। शुरुआत में इस बीमारी में रोगी की आंतों में ही संक्रमण होता है परन्तु रोग बढ़ने पर रोगी का प्रत्येक अंग इस जीवाणु के संक्रमण की गिरफ्त में आ जाता है। इस वजह से टायफायड बुखार की जटिलताएं चिकित्सकों के लिए चुनौती बन जाती हैं। दर्शकों पुराना टायफायड या मियादी बुखार आज भी जनस्वास्थ्य के लिए खतरा बना हुआ है।
टायफायड का संक्रमण सालमोनेला टायफी नामक जीवाणु से फैलता है।
यह जीवाणु रोगी से अन्य स्वस्थ बच्चों या बड़ों के संपर्क में आने पर मुंह के रास्ते आहार नलिका में प्रवेश करता है। वे लोग जो खान—पान के व्यवसाय से संबंध रखते हैं, टायफायड को फैलाने में अहम भूमिका अदा करते हैं। सार्वजनिक स्थलों पर मलमूत्र त्यागने की गलत प्रथा से इस रोग को बढ़ावा मिलता है। गंदी जगह पर गलत ढंग से बनी खाने—पीने की चीजें खुले, कटे और सड़े गले फल, पीने का गंदा पानी, गंदी बर्फ व उससे जमी आइसक्रीम , गंदे दूध की वस्तुएं और गंदे तरीके से बनने वाले बेकरी के उत्पादों के कारण टायफायड रोग के जीवाणु स्वस्थ मनुष्य की आंतों में पहुंच जाते हैं और फिर लिंक कोशिकाओं में लगातार अपनी संख्या को बढ़ाते हुए अपने शिकार की खून की नलिकाओं में संक्रमण उत्पन्न करते हैं । खून की सहायता से टायफायड के जीवाणु शरीर के प्रत्येक अंग को संक्रमित कर देते हैं। विशेषकर छोटी आंत की आंतरिक संरचना को प्रभावित करके उसमें छोटे—छोटे जख्म पैदा कर देते हैं। ये खतरनाक बैक्टीरिया रोगी के मलमूत्र के रास्ते बाहर आ कर पूरे वातावरण में पैâलते हैं और दूसरे स्वस्थ मनुष्यों को प्रभावित करते हैं। अन्य रोगों की तरह ही टायफायड या मियादी बुखार के भी लक्षण होते हैं। जैसे— इसका बुखार लगभग १५-२० दिन तक रहता है। यह बुखार रोजाना धीरे—धीरे बढ़ता है। टायफायड के रोगी को भूख लगनी बंद हो जाती है। रोगी के पेट में दर्द होने लगता है। रोगी की नब्ज सुस्त पड़ने लगती है। जिगर बढ़ जाता है। रोगी का वजन लगातार घटने लगता है। रोगी को सिरदर्द होता है। रोगी की आंतों से रक्तस्राव हो सकता है। रोगी के शरीर में तिल्ली बढ़ जाती है। रोगी को उल्टी आने को होती है। व्यस्क रोगी को कब्ज व बच्चों को दस्त हो सकते हैं। रोगी सुस्त और कमजोर हो जाता है। रोगी के बदन पर गुलाबी रंग के दाने हो जाते हैं। रोगी की आंतों में संक्रमण के पश्चात शरीर के प्रत्येक अंग में संक्रमण हो सकता है और मस्तिष्क ज्वर, ब्रोंकाइटिस, न्यूमोनिया, हृदय की मांसपेशियों में संक्रमण, हड्डियों में संक्रमण, पित्त की थैली का संक्रमण, गुर्दे में संक्रमण के साथ इसमें से किसी भी रोग की समस्या पैदा हो सकती है।
आंतों के जख्म या अल्सर के फटने से आपरेशन की स्थिति बन सकती है। सही ढंग से रोगी को उपचार न मिलने की स्थिति में रोग काबू से बाहर होने लगता है और अगर यह रोग एक बार काबू से बाहर हो जाए तो यह कई प्रकार की समस्याओं को जन्म देता है। साधारण तौर पर ये समस्याएं रोगी के बुखार के १८-२० दिनों के बाद सामने आती हैं। आंतों से रक्तस्राव की स्थिति बच्चों के लिए इस हद तक खतरनाक होती है कि उनकी जान को खतरा पैदा हो जाता है। रोग के संक्रमण की गंभीरता और शरीर की प्रतिरोधक क्षमता घट जाने की वजह से बेहोशी की अवस्था आ सकती है। रोगी के शरीर के विभिन्न अंगों में संक्रमण की वजह से शरीर के किसी भी अंग की कार्यक्षमता प्रभावित हो जाती है और उस अंग का गंभीर संक्रमण किसी दूसरी बीमारी को उत्पन्न होने में मदद करता है। टायफायड के लक्षण सामने आते ही अच्छे चिकित्सा विशेषज्ञ से इलाज आरंभ कर देना चाहिए। रोगी के खून व मलमूत्र की जांच करनी चाहिए। साथ ही ब्लड कल्चर तथा विडार टेस्ट भी करना चाहिए। रोगी के आसपास व घर की सफाई का विशेष ख्याल रखना चाहिए। रोगी के कपड़ों, बिस्तर, हाथ के नखूनों आदि का भी ध्यान रखना चाहिए । टायफायड के बुखार में रोगी को कुछ विशेष प्रकार की दवाएं दी जाती हैं जिन्हें चिकित्सा विशेषज्ञ के संपर्क में रहकर उसकी सलाह से ही इस्तेमाल करना चाहिए जैसे, क्लोरेथ फैनिकाल, एमाक्सीसिलीन, कोट्राइमाक्सा जोल, सेफट्राक्सोन, पेफ्लाक्सासीन, औफ्लाक्सासीन, फ्यूराजालीडीन आदि दवाइयां। यदि रोग गंभीर हो जाए तो रोगी को अस्पताल में दाखिल कराकर ही उपचार करवाएं। रोगी का समुचित इलाज करवाएं। खाने की जगह रसोईघर, ढाबा, होटल, रेस्तरां, मेला और समारोह में सामूहिक स्वच्छता का खास ध्यान दें । मक्खियों व मच्छरों पर नियंत्रण रखें और उन्हें पनपने न दें। व्यक्तिगत और सामूहिक सफाई की उचित व्यवस्था करें। खाना खाने से पहले सदैव अपने हाथों को धोकर साफ करने की आदत डाल लें। अपने नाखून हमेशा काटकर रखें। कपडों की सफाई रखें। पीने के लिए हमेशा स्वच्छ जल का ही इस्तेमाल करना चाहिए। पानी को उबालकर और फिर उसे छानकर ही पीना चाहिए। रहने के स्थान पर रोगी को मलमूत्र त्याग नहीं करने देना चाहिए।