‘पहला सुख निरोगी काया’ जानते, मानते और आवश्यक होते हुए भी आज मानव प्राय: कितना स्वस्थ एवं सुखी है ? यह जनसाधारण से छिपा हुआ नहीं है। प्रत्येक मनुष्य जीवन—पर्यन्त स्वस्थ रहना चाहता है, परन्तु चाहने मात्र से तो स्वस्थ नहीं रह सकता है। मृत्यु निश्चित है। जन्म के साथ आयुष्य के रूप में श्वासों का जो खजाना लेकर हम जन्म लेते हैं, वह धीरे—धीरे क्षीण होता जाता है। जीवन के अंतिम क्षणों तक संचित प्राण ऊर्जा के प्रवाह को संतुलित,नियत्रित एवं सही संचालित करके तथा उसका सही उपयोग करके ही हम शांत, सुखी एवं स्वस्थ रहकर दीर्घ जीवन जी सकते हैं।
रोग क्या है ?
उपचार से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि रोग क्या है, कहाँ, कब और क्यों होता है ? उसके प्रत्यक्ष—अप्रत्यक्ष कारण तथा सहायक एवं विरोधी तत्व क्या हैं ? क्या रोगों का मन और आत्मा से सम्बन्ध होता है ? शरीर की प्रतीकारात्मक शक्ति क्यों और वैâसे कम होती है ? उसको बढ़ाने अथवा कम करने वाले तत्त्व कौन से हैं ? वास्तव में प्राकृतिक नियमों से जाने—अनजाने में उल्लंघन अर्थात् असंयमित, अनियमित, अनियन्त्रित, अविवेकपूर्ण, स्वचछन्द आचरण के द्वारा शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक क्षमताओं का दुरुपयोग अथवा असंतुलन रोग का कारण होता है। जिसके परिणामस्वरूप शरीर, मन और आत्मा में समन्वय बिगड़ जाता है। शरीर के अंग, उपांग एवं अवयव अपना—अपना कार्य स्वतन्त्रता पूर्वक ठीक से नहीं कर पाते । फलत: शरीर के अवांछित, विजातीय, अनुपयोगी विकारों का बराबर विसर्जन नहीं होता। उनमें अवरोध उत्पन्न होने से पीड़ा, कमजोरी, चेतन—शुन्यता, तनाव, बेचैनी आदि की स्थितियाँ शरीर में उत्पन्न होती हैं, ये ही रोग कहलाते हैं।
रोग का प्रारम्भ आत्म—विकारों से
मनुष्य का शरीर अनन्त गुणधर्मी होता है। अत: हमें अनेकान्त दृष्टिकोण से उसको समझना होगा तथा रोग उत्पन्न करने वाले कारणों से बचना होगा। शक्ति की सबसे गहरी एवं प्रथम परत आत्मा पर होती है। पूर्वार्जित कर्मों के अनुसार ही इस जन्म में हमें प्रज्ञा, श्रद्धा, आयुष्य, सुख—दु:ख, प्रिय—अप्रिय, अनुकूल—प्रतिकूल, संयोग—वियोग आदि मिलते हैं। हमारी आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन सुख से परिपूर्ण होती है। परन्तु कर्मों से आच्छादित होने के कारण उनका सही रूप प्रकट नहीं हो पाता। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के अनुसार हमारी प्रज्ञा होती है। दर्शनावरणीय कर्म के प्रभाव से हमें सोचने,समझने, विश्वास करने एवं चिन्तन की सही अथवा गलत दृष्टि मिलती है। वेदनीय कर्म के अनुसार हमें साता—असाता तथा सुख–दु:ख कर प्राप्ति होती है। आयुष्य कर्मों के आधार पर आयुष्य प्राप्त होता है। मोहनीय कर्म से राग—द्वेष एवं आसक्ति अथवा अनासक्ति के भाव पैदा होते हैं। गोत्र कर्म के अनुसार कुल, परिवार, जाति एवं आस—पास का वातावरण मिलता है। नाम कर्म के अनुरूप पद, प्रतिष्ठा, शरीर की आकृति, अंग, उपांग, अवयव, तंत्रों की शक्तियां एवं अन्त:स्रावी ग्रन्थियाँ की क्षमता मिलती है। अन्तराय कर्म का उदय विकास एवं सुखद उपलब्धियों की प्राप्ति में अवरोध उत्पन्न करता है जिसके परिणामस्वरूप सभी अकूलताओं के होते हुए भी इच्छित लक्ष्य प्राप्ति में कुछ न कुछ बाधा उपस्थित हो जाती है। कर्मों की परिणति का प्रभाव हम अपने आस—पास के वातावरण में स्पष्ट अनुभव करते हैं। आत्मा पर आये इन कर्मों के आवरणों को मनुष्य जीवन में सम्यक् पुरुषार्थ द्वारा दूर किया जा सकता है। सारे कर्मों का क्षय होने से मनुष्य नर से नारायण, आत्मा से परमात्मा, भक्त से भगवान् के रूप में सर्वज्ञ , सर्वदर्शी एवं अनन्त सुखी बन जाता है। अपने स्वभाव में स्थित होती है।यही मानव जीवन का परम लक्ष्य होता है। जो आत्मोत्थान में जितना —जितना विकसित होता है, उतना—उतना ही आत्मबली बनता जाता है।रोगों की जड़े ही समाप्त हो जाती हैं। उपचार की आवश्यकताएँ कम होती जाती हैं। आत्मा के विकार आत्मज्ञानी के मार्ग निर्देशन में व्यक्ति आवश्यकताएँ कम हो जाती हैं। आत्मा के विकार आत्मज्ञानी के मार्ग निर्देशन में व्यक्ति के सम्यक् पुरुषार्थ एवं सम्यक् आचरण से ही दूर किये जा सकते हैं। अत: हमें स्वस्थ रहने के लिए आत्मा में विकार बढ़ाने वाली प्रवृत्तियों से बचना चाहिये।
रोग में मन की भूमिका
शक्ति एवं रोग की दूसरी परत मन से सम्बन्धित होती है। मन का जितना विकसित स्वरूप मानव जीवन में प्राप्त होता है उतना अन्य किसी प्राणी में नहीं मिलता। मन से ही मनन, चिन्तन, कृति, विकृति, संकल्प, इच्छाओं , एषणाओं, भावनाओं का नियन्त्रण होता है। मन बड़ा चंचल है। उसकी स्वछन्द एवं अनियन्त्रित गतिविधियाँ ही अधिकांश रोगों की उत्पत्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मन को संयमित, नियन्त्रित, अनुशासित रखने से अनेक रोगों से सहज ही बचा जा सकता है। आज हम जितना ख्याल शारीरिक स्वच्छता, शुद्धता का रखते हैं, बाह्य पर्यावरण एवं प्रदूषण की चिन्ता करते हैं, क्या उतनी चिन्ता मन में उठने वाले क्रोध, घृणा, हिंसा, व्रूरता, तिरस्कार, वासना आदि विचारों के प्रदूषण की करते हैं ?इन आवेगों से ही रोग बढते हैं। मन का नियन्त्रण हमारी स्यवं की सजगता पर निर्भर करता है। इसी कारण एक जैसे रोग की स्थिति में एक व्यक्ति बहुत परेशान एवं बेचैन रहता है— हाय—हाय करता है, जबकि दूसरा तनिक भी विचलित नहीं होता। स्वस्थ चिन्तन, मनन, स्वाध्याय, ध्यान एवं कायोत्सर्ग द्वारा मन को अशुभ से शुभ, अनुपयोगी से उपयोगी प्रवृत्तियों में लगाया जा सकता है। जो स्वस्थ जीवन के लिये अति आवश्यक है।
शारीरिक लक्षणों पर आधारित रोग का निदान अपूर्ण
आत्मा और मन के पश्चात् रोग एवं शक्ति की तीसरी परत होती है— शरीर। रोग का प्रभाव पड़ता है शरीर की आन्तरिक क्रियाओं पर और अन्त में उसके लक्षण बाह्य रूप से भी प्रकट होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जितने रोग अथवा उनके कारण होते हैं उतने हमारे ध्यान में नहीं आते। जितने ध्यान में आते हैं उतने हम अभिव्यक्त नहीं कर सकते। जितने रोगों को अभिव्यक्त कर पाते हैं, वे सारे के सारे चिकित्सक अथवा अति आधुनिक समझी जाने वाली मशीनों की पकड़ में नहीं आते। जितने लक्षण उनकी समझ में स्पष्ट रूप से आते हैं, उन सभी का वे उपचार नहीं कर पाते। परिणामस्वरूप जो लक्षण स्पष्ट रूप से आते हैं, उन सभी का वे उपचार नहीं कर पाते। परिणामस्वरूप जो लक्षण स्पष्ट रूप से प्रकट होते हैं , उनके अनुसार आज रोगों का नामकरण किया जा रहा है तथा अधिकांश प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों का ध्येय उन लक्षणों को दूर कर रोगों से राहत पहुँचाने मात्र का होता है। विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों के चिकित्सक आज असाध्य एवं संक्रामक रोगों के उपचार के जो बड़े—बड़े दावे और विज्ञापन करते हैं, वे कितने भ्रामक एवं अस्थाई होते हैं,जिस पर पूर्वाग्रह छोड़ सम्यक् चिन्तन आवश्यक है। जब निदान ही अधूरा हो तब प्रभावशाली उपचार के दावे छलावा नहीं तो क्या है ? अत: उपचार करते समय जो चिकित्सा पद्धतियाँ शारीरिक व्याधियों को मिटाने के साथ—साथ मन एवं आत्मा के विकारों को दूर करती हैं, वे ही उपचार के लिए प्रभावशाली होती हैं, इसमें हमें तनिक भी संदेह नहीं होना चाहिये। सत्य सनातन होता है। करोड़ों व्यक्तियों के कहने से दो और दो पाँच नहीं हो जाते हैं । दो और दो चार ही होते हैं। अत: जिन्हें स्थायी रूप से रोगमुक्त बनना हो, उन्हें रोग के सभी शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकारों से बचना एवं उत्पन्न होने पर उन्हें दूर करना चाहिए।
स्वास्थ्य हेतु चिकित्सा के विभिन्न दृष्टिकोण
रोग की अवस्था में आयुर्वेद के सिद्धान्तानुसार शरीर में वात, पित्त और कफ का असन्तुलन होने लगता है। आधुनिक चिकित्सक को मल, मूत्र, रक्त आदि के परीक्षणों में रोग के लक्षण और शरीर में रोग के कीटाणुओं अथवा शरीर के तंत्रों में अवरोध दृष्टिगत होने लगते हैं। प्राकृतिक चिकित्सक ऐसी स्थिति से शरीर के निर्माण में सहयोगी पंच महाभूत तत्वों— पृथ्वी, पानी, हवा, अग्नि और आकाश का असन्तुलन अनुभव करते हैं । चीन एक्यूपंक्चर एवं एक्यूप्रेशर के विशेषज्ञों के अनुसार शरीर में यिन—यांग का असंतुलन हो जाता है। एक्यूप्रेशर के प्रतिवेदन बिन्दुओं की मान्यता वाले थेरेपिष्ट को व्यक्ति की हथेली और पगथली में विजातीय तत्वों का जमाव प्रतीत होने लगता है। सुजोक बियोल मेरेडियन सिद्धान्तानुसार रोगी के शरीर में पंच ऊर्जाओं (वायु, गर्मी, ठण्डक, नमी और शुष्कता) का आवश्यक सन्तुलन बिगड़ने लगता है। चुम्बकीय चिकित्सक शरीर में चुम्बकीय ऊर्जा का असन्तुलन अनुभव करते हैं। ज्योंषिशास्त्री ऐसी परिस्थिति का कारण प्रतिकूल ग्रहों का प्रभाव बतलाते हैं। आध्यात्मिकयोगी ऐसी परिस्थिति का कारण प्रतिकूल ग्रहों का प्रभाव बतलाते हैं। आध्यात्मिकयोगी ऐसी अवस्था का कारण पूर्वार्जित असुभ असाता वेदनीय कर्मों का उदय मानते हैं । होम्योपैथ और बायोकेमिस्ट की मान्यतानुसार शरीर में आवश्यक रसायनिक तत्वों का अनुपात बिगड़ने से ऐसी स्थिति उत्पन्न होने लगती है। आहार—विशेषज्ञ शरीर में पोष्टिक तत्वों का अभाव बतलाते हैं। शरीर में अम्ल—क्षार, ताप—ठण्डक का असन्तुलन बढ़ने लगता है । कहने का आशय यही है कि विभिन्न चिकित्सा पद्धत्तियाँ अपने—अपने सिद्धान्तों के अनुसार शरीर में इन विकारों की उपस्थिति को रोग अथवा अस्वस्थता का कारण मानते हैं । जो जैसा कारण बतलाता है, उसी के अनुरूप उपचार और परहेज रखने का परामर्श देता है। सभी चिकित्सा पद्धतियों के चिकित्सकों को आंशिक सफलताएँ भी प्राप्त हो रही हैं तथा सफलताओं एवं अच्छे परिणामों के लम्बे—लम्बे दावे सुनने को मिल रहे हैं। विज्ञान के इस युग में किसी पद्धति को बिना सोचे समझे अवैज्ञानिक मानना न्याय—संगत नहीं कहा जा सकता।फिर भी इतना अवश्य है कि अधिकांश चिकित्सा पद्धतियाँ रोग के मूल कारणों को समझने एवं दूर करने में अपने—आपको असमर्थ पा रही हैं। क्योंकि उनके चिन्तन में समग्रता का अभाव होता है। जिसका जितना ज्यादा विज्ञापन, प्रचार—प्रसार होता है, उस पद्धति का बिना सोचे समझे रोगी और उसके परिजनों की अधीरता एवं अज्ञानवश उपचार हेतु प्राय: अन्धानुकरण हो रहा है। परिणाम स्पष्ट है कि डॉक्टरों और अस्पतालों की संख्या में निरन्तर वृद्धि के बावजूद रोग और रोगियों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है, जो स्वास्थ्य के प्रति हमारी अदूरदर्शिता, गलत चिन्तन, अप्राकृतिक जीवनशैली एवं अविवेक का सूचक है। आज उपचार के नाम पर रोग के कारणों को दूर करने की बजाय अपने—अपने सिद्धानों के आधार पर रोग के लक्षण मिटाने का प्रयास हो रहा है। उपचार में समग्र दृष्टिकोण का अभाव होने से तथा रोग का मूल कारण पता लगाए बिना उपचार किया जा रहा है अर्थात् रोग से राहत ही उपचार का लक्ष्य बनता जा रहा है । उपचार एवं निदान करते समय मन के भावों, वाणी की अभिव्यक्ति, मानसिक कारणों तथा आत्मा की प्राय: पूर्णतया उपेक्षा हो रही है। अत: अच्छा स्वास्थ्य रखने वालों को स्वास्थ्य के मूलभूत सनातन प्राकृतिक साधारण नियमों का ईमानदारी पूर्वक सजगता एवं स्वविवेक से पालन करना चाहिये। जितना—जितना हमारा प्रकृति के साथ तालमेल होगा, उतना—उतना हम स्वस्थता के समीन होते जाएंगे। आकस्मिक दुर्घटनाओं को छोड़ अन्य परिस्थितियों में रोग का सही कारण जानने तथा उपचार की प्रासंगिकता समझने का भी प्रयास करना चाहिये, ताकि रोग की पुनरावृत्ति और उपचार के दुष्प्रभावों से स्वयं को बचाया जा सके।
उपचार हेतु रोगी का दृष्टिकोण
आज चिकित्सा के बारे में असमंजस की स्थिति है। जनसाधारण से ऐसी अपेक्षा भी नहीं की जा सकती है कि वे शरीर, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा पद्धतियों के बारे में विस्तृत जानकारी रखें। अधिकांश रोगियों को न तो रोग के बारे में सही जानकारी होती है और न वे अप्रत्यक्ष रोगों को रोग ही मानते हैं। जब तक रोग स्पष्ट लक्षण प्रकट न हों, रोग सहनशक्ति से बाहर नहीं आ जाता, रोग की तरफ उनका ध्यान ही नहीं जाता। रोगी का एक मात्र उद्देश्य येन—केन—प्रकारेण को हटा अथवा दबा शीघ्रातिशीघ्र राहत पास होता है। जैसे ही उसे आराम मिलता है, वह अपने आपको स्वस्थ समझने लग जाता है । प्राय: रोगी रोग का कारण स्वयं को नहीं मानता और न अधिकांश चिकित्सक उपचार में रोगी की सजगता और पूर्ण भागीदारी की आवश्यकता ही समझते हैं। विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों की प्रभावशालिता के भ्रामक विज्ञापन एवं डॉक्टरों के पास रोगियों की पड़ने वाली भीड़ के आधार पर ही रोगी उपचार हेतु चिकित्सक को अपना आत्म समपर्ण कर देता है। डॉक्टर पर उसका इतना अधिक विश्वास हो जाता है कि रोग का सही कारण अथवा निदान की सत्यता मालूम किये बिना उपचार प्रारम्भ करवा शीघ्रातिशीघ्र राहत पाना चाहता है। रोगी चिकित्सक के द्वारा बताये पथ्य एवं परहेज और मार्गदर्शन का पूर्ण निष्ठा के साथ पालन भी करता है। परन्तु शरीर, मन और आत्मा पर उपचार से पड़ने वाले सूक्ष्मतम परिवर्तनों एवं दुष्प्रभावों से उपेक्षित रहने के कारण कभी—कभी उपचार के बावजूद स्वस्थ नहीं हो पाता और कभी—कभी तो दवा उसके जीवन का आवश्यक अंग बन जाती है।
रोग के विभिन्न प्रभाव एवं लक्षण
रोग स्वयं की गलतियों से उत्पन्न होता है। अत: उपचार में स्वयं की सजगता और सम्यक् पुरुषार्थ आवश्यक है। जब तक व्यक्ति रोग के कारणों से कारणों से नहीं बचेगा, उसकी गम्भीरता को नहीं स्वीकारेगा तब तक पूर्ण स्वस्थ कैसे हो सकेगा ? रोग प्रकट होने से पूर्व कई बार अलग—अलग ढंग से चेतावनी देता है। परन्तु रोगी उस तरफ ध्यान ही नहीं देता।इसी कारण उपचार एवं परहेज के बावजूद चिकित्सा लम्बी, अस्थायी दुष्प्रभावों वाली हो तो भी आश्चर्य नहीं। अत: रोग होने की स्थिति में रोगी को स्वयं से पूछना चाहिये उसको रोग क्यों हुआ ? रोग कैसे हुआ और कब ध्यान में आया ? रोग से उसकी विभिन्न शारीरिक प्रक्रियाओं तथा स्वभाव में क्या परिवर्तन हो रहे हैं ? इस बात की जितनी सूक्ष्म जानकारी रोगी को हो सकती है, उतनी अन्य को नहीं ? उसके मल के रंग , बनावट एवं गन्ध में तो परिवर्तन नहीं हुआ ? कब्जी, दस्त या गैस की शिकायत तो नहीं रही है ? पेशाब की मात्रा एवं रंग और स्वाद में तो बदलाव नहीं हुआ ?स्वभाव में चिड़चिड़ापन, निराशा, क्रोध, भय, अधीरता, घृणा, व्रूरता, तनाव, अशान्ति तो नहीं बढ़ रही है ? आलस्य एवं थकान की स्थिति तो नहीं बन रही है ? दर्द कब, कहाँ और कितना होता है ? मन में संकल्प–विकल्प कैसे आ रहे हैं ? ये सारे रोग के लक्षण होते हैं। जिनकी सूक्ष्मतम जानकारी रोगी की सजगता से ही प्राप्त हो सकती है तथा इन सभी लक्षणों में जितना — जितना सुधार और संतुलन होता है उतना ही उपचार स्थायी और प्रभावशाली होता है। मात्र रोग के बाह्य लक्षणों के दूर होने अथवा पीड़ा और कमजोरी से राहत पाकर अपने आपको स्वस्थ मानने वालों के पूर्ण उपचार न होने से नये—नये रोगों के लक्षण प्रकट होने की संभावना बनी रहती हैं। रोगी ही जान सकता है कि उसका कौन सा अंग कब सर्वाधिक सक्रिय रहता है ? अत: जब तक रोगी सजग नहीं होगा, रोग एवं उपचार से पड़ने वाले अच्छे अथवा बुरे परिणामों से परिचित नहीं होगा तब वह हानिकारक प्रभावों से कैसे बचेगा ? अत: उपचार में रोगी की सजगता परमावश्यक होती है। नेता को हटाने के लिये जिस प्रकार उसके सहयोगियों को अलग करना आवश्यक होता है,ठीक उसी प्रकार मुख्य रोग से छुटकारा पाने के लिये अप्रत्यक्ष सहायक रोगों की उपेक्षा से स्थायी समाधान कठिन होता है।
स्वास्थ्य के प्रति सरकारी उपेक्षा
आज हमारे स्वास्थ्य पर चारों ओर से आक्रमण हो रहा है। स्वास्थ्य मंत्रालय की नीतियों में रोग के मूल कारण गौण हैं। भ्रामक विज्ञापनों तथा स्वास्थ्य के लिये हानिकारक प्रदूषण, पर्यावरण, दुव्र्यसनों एवं दुष्प्रवृत्तियों पर कानूनी प्रतिबन्ध नहीं है। उल्टी वे सरकारी संरक्षण में पनप रही हैं। आज राष्ट्रीयता,नैतिकता, स्वास्थ्य के प्रति सजगता थोथे नारों और अन्धानुकरण तक सीमित हो रही है। परिणामस्वरूप जो नहीं खिलना चाहिये वह भी खिलाया जा रहा है। जो नहीं पिलाना चाहिये उसे भी सरकार पैसे के लोभ में पिला रही हैं। जो काम—वासना, व्रूरता,हिंसा आदि के दृश्यों को सार्वजनिक रूप से नहीं दिखाया जाना चाहिये, मनोरंजन के नाम से उसे भी दिखाया जा रहा है। जो नहीं पढ़ाना चाहिये वह भी पढ़ाया जा रहा है और समाज एवं राष्ट्र के लिये घातक, हिंसक गतिविधियाँ हैं, वे प्रोत्साहित की जा रही हैं। आज रक्षक ही भक्षक हो रहे हैं। खाने में मिलावट आम बात हो गई हैं। सारा वातावरण पाश्विक वृत्तियों से दूषित हो रहा है। सरकारीतन्त्र को सच्चाई जानने, समझने एवं उसकी क्रियान्विति में कोई रुचि नहीं है। सारे सोच का आधार है भीड़, संख्या बल। क्योंकि जनतन्त्र में उसी के आधार पर नेताओं का चुनाव और नीतियाँ निर्धारित होती हैं। फलत: उनके माध्यम से राष्ट्र विरोधी, जनसाधारण के लिये अनुपयोगी, स्वास्थ्य को बिगाड़ने वाली कोई भी गतिविधि स्वार्थवश आराम से चलायी जा सकती है।
उपचार हेतु रोगी की सजगता एवं सम्यक् पुरुषार्थ आवश्यक
ऐसी परिस्थितियों में हमें अपने स्वास्थ्य का ख्याल स्वयं को ही रखना होगा। अपनी क्षमताओं को समझ उनका सदुपयोग कर डॉक्टरों की पराधीनता को छोड़ना होगा। सर्वप्रथम रोग के कारणों से बचना होगा। कोई भी रोग एक दिन में प्रकट नहीं हो जाता । स्वास्थ्य कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे बाजार से खरीदा जा सके, उधर लिया जा सके अथवा चुराया जा सके । क्या हमारा श्वास कोई दूसरा ले सकता है, खाना अन्य कोई पचा सकता है, हमारी प्यास दूसरों के पानी पीने से शान्त हो सकती है ? हमारी निद्रा अन्य कोई ले सकता है ? शरीर से निकलने वाले मल—मूत्र आदि अवांछित तत्वों का विसर्जप दूसरा कर सकता है ? हमारा रक्त, मांसपेशियाँ, कोशिकाएँ, हड्डियाँ जैसी प्रतिक्षण बनने वाली वस्तुओं को भी शरीर स्वयं कर सकता है तब क्या उसे स्वस्थ नहीं रख सकता ? मानव जीवन अमूल्य है। अत: अज्ञानवश उसके साथ छेड़छाड़ न हो। वर्तमान की उपेक्षा भविष्य की समस्या न बने, इस हेतु हमें अपने प्रति सजग , विवेकशील और इमानदार बनना होगा। जो स्वयं लापरवाह है, बेखबर है उसकी चिन्ता दूसरा कैसे कर सकता है ? आज अधिकांश चिकित्सकों का दृष्टिकोण पूर्वाग्रहों से परिपूर्ण है। अहम् से ओतप्रोत है, दुष्प्रभावों के प्रति असजग है। उपचार में साधन, साध्य एवं सामग्री की पवित्रता संदिग्ध है। उपचार में आत्मा और मन के विकार पूर्ण रूप से उपेक्षित हैं। अर्थात् उपचार की प्राथमिकताएँ ही गलत हैं। निदान अपूर्ण होता है तब सही उपचार , पूर्ण स्वास्थ्य के प्राप्ति की आशा, मिथ्या कल्पना नहीं तो क्या ? स्थायी उपचार तो अपने आपको स्वावलम्बी बनाने वाली, सभी काल में, सभी के लिये, सभी स्थानों पर उपलब्ध प्रभावशाली, स्वावलम्बी, अहिंसात्मक चिकित्सा पद्धतियों से ही संभव हो सकेगा। क्योंकि वे हिंसा पर नहीं अहिंसा पर , विषमता पर नहीं समता पर, साधनों पर नहीं साधना पर आधारित होती हैं, जिसमें शरीर,मन एवं आत्मा के विकारों को दूर करने की क्षमता होती है। परन्तु उसके लिये रोगी की सजगता, सम्यक् पुरुषार्थ और उसके आचरण आवश्यक होता है।