उस क्षेत्र का अवशेष वर्णन सुषमाकाल के समान है। विशेष यह है कि वह क्षेत्र हानि-वृद्धि से रहित होता हुआ संस्थितरूप अर्थात् एक सा ही रहता है।।१७४४।। इस क्षेत्र के बहुमध्यभाग में विजयवान् नामक नाभिगिरि स्थित है। यहाँ पर सर्व दिव्य वर्णन से संयुक्त चारण देव रहते हैं।।१७४५।। महापद्मद्रह के उत्तरभागसम्बन्धी तोरणद्वार से हरिकान्ता नदी निकलकर पर्वत के ऊपर से जाती है।।१७४६।। वह नदी एक हजार छह सौ पाँच योजन और पाँच कलाप्रमाण पर्वत के ऊपर जाकर नाली के द्वारा कुण्ड में गिरती है।।१७४७।। १६०५-५/१९। पश्चात् वह नदी दो कोस से नाभिगिरि को न पाकर अर्थात् नाभिगिरि से दो कोस इधर ही रहकर उसकी प्रदक्षिणा करके रोहित् नदी की अपेक्षा दुगुणे विस्तारादि से सहित होती हुई पश्चिम की ओर जाती है।।१७४८।। इस प्रकार वह नदी छप्पन हजार परिवारनदियों से सहित होती हुई द्वीप के जगतीबिल में प्रवेश करके लवणसमुद्र में प्रवेश करती है।।१७४९।। ५६०००।