डॉ रमेशचन्द जैन, बिजनौर (उ. प्र.)
मुनिधर्म मोक्ष का साक्षात् कारण है। मुनिधर्म मनुष्य देह में ही प्राप्त होता है, अन्य जन्म में नहीं और मनुष्य जन्म संकटपूर्ण संसार में बड़े दु:ख से प्राप्त होता है।हरिवंशपुराण १८/५१—५२ अत: मनुष्य जन्म प्राप्त कर मुनिधर्म का आचरण करना चाहिये।
मुनि (श्रमण) के लिये पाँच महाव्रत तथा पाँच समितियों का पालन, समस्त सावद्य योग का त्याग, मन और इन्द्रियों को वश में करना, समता, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग इन छह क्रियाओं का पालन करना, केशलोंच करना, स्नान नहीं करना, एक बार भोजन करना, खड़े—खड़े भोजन करना, वस्त्र धारण नहीं करना, पृथ्वी पर शयन करना, दन्तमल दूर करने का त्याग करना, तप, संयम, चारित्र, परीषहजय, अनुप्रेक्षाएं, उत्तम क्षमादि दस धर्म, ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, और तपविनय की सेवावही २/१२८—१३१ करना, इन सब नियमों का पालन करना आवश्यक है।
अहिंसा महाव्रत —काय, इन्द्रिय, गुणस्थान, जीवस्थान, कुल और आयु के भेद तथा योनियों के नाम विकल्पों का आगम रूपी चक्षु के द्वारा अच्छी तरह अवलोकन कर बैठने, उठने आदि क्रियाओं में छह काय के जीवों के वध, बन्धनादि का त्याग करना अहिंसा महाव्रत है।वही २/११६, ११७
सत्य महाव्रत— राग, द्वेष और मोह के कारण दूसरे के सन्ताप उत्पन्न करने वाले वचनों से निवृत्त होना सत्य महाव्रत है।हरिवंशपुराण २/११८ सत्य दशवही १०/९८—१०७ प्रकार के होते हैं—
१. नामसत्य—व्यवहार चलाने के लिए किसी का इन्द्रादि नाम रख लेना नाम सत्य है।
२. रूप सत्य—पदार्थ के न होने पर भी रूपमात्र की मुख्यता से जो कथन होता हे, वह रूप सत्य है। जैसे—किसी अचेतन चित्र को उस मनुष्य रूप कहना।
३. स्थापना सत्य—पासा, खिलौना आदि में आकार की समानता होने अथवा न होने पर भी व्यवहार के लिये जो स्थापना की जाती है, वह स्थापना सत्य है। जैसे शतरंज की गोटों में वैसा आकार न होने पर भी बादशाह, वजीर आदि की स्थापना करना और हाथी, घोड़ा आदि के खिलौनों में उन जैसा आकार होने पर हाथी, घोड़ा की स्थापना करना।
४. प्रतीत्य सत्य—आगम के अनुसार प्रतीतिकर और औपशमिकादि भावों का कथन करना प्रतीत्य सत्य है। जैसे—मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में, आगम में औदयिक भाव बतलाया है। यद्यपि वहाँ ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम भाव होने से क्षायोपशमिक तथा जीवत्व और भव्यत्व अथवा जीवत्व और अभव्यत्व की अपेक्षा पारिणामिक भाव भी है, परन्तु आगम के अनुसार वहाँ दर्शनमोह की अपेक्षा औयिक भाव ही कहना।
५. संवृति सत्य—समुदाय को एकदेश की मुख्यता से एक रूप कहना संवृतिसत्य है। जैसे—भेरी, मृदंग आदि अनेक बाजों का शब्द जहाँ एक समूह में हो रहा है, वहाँ भेरी आदि की मुख्यता से भेरी आदि का शब्द कहना।
६. संयोजना सत्य—जो चेतन और अचेतन द्रव्यों के विभाग को करने वाला न हो, उसे संयोजना सत्य कहते हैं। जैसे—क्रौञ्च ब्यूह आदि सेना की रचना के प्रकार चेतन और अचेतन पदार्थों के समूह से बनते हैं, परन्तु अचेतन पदार्थों की विवक्षा न कर केवल क्रौञ्चाकार रची हुई सेना को क्रौञ्चव्यूह और चेतन पदार्थों की विवक्षा न कर चक्र के आकार रचाी हुई सेना को चक्रव्यूह कह देते हैं।
७. जनपद सत्य—जो वचन आर्य, अनार्य आदि देशों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का करने वाला है, उसे जनपद सत्य कहते हैं।
८. देश सत्य—जो वचन गाँव की रीति, नगर की नीति तथा राजा की नीति का उपदेश करने वाला एवं गण और आश्रमों का उपदेशक हो, वह देश सत्य माना गया है।
९. भाव सत्य—यद्यपि छद्मअस्थ के द्रव्यों के यथार्थज्ञान की विकलता है, तथापि केवली के वचन की प्रमाणता कर वे प्रासुक और अप्रासुक द्रव्य का निर्णय करते हैं, यह भाव सत्य है।
१०. समय सत्य—जो द्रव्य और पर्याय के भेदों की यथार्थता को बतलाने वाला तथा आगम के अर्थ का पोषण करने वाला वचन हे, यह समय सत्य है।
अस्तेय महाव्रत—बिना दी हुई वस्तु चाहे वह थोड़ी हो या अधिक उसके ग्रहण का त्याग करना अचौर्य महाव्रत है।हरिवंशपुराण २/११९
ब्रह्मचर्य महाव्रत—कृत (स्वयं करना), कारित (दूसरे से करना) और अनुमोदन (दूसरे की प्रशंसा करना) से स्त्री—पुरुष के प्रति आसक्ति का त्याग करना ब्रह्मचर्य महाव्रत है।वही २/१२०
अपरिग्रह महाव्रत—परिग्रह के दोषों सहित समस्त बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहों से विरक्त होना अपरिग्रह महाव्रतवही २/१२१ है।
इस संसार में प्राणियों के यथासम्भव इन्द्रियादि दस प्राण होते हैं। प्रमादी बनकर सदा उनका विच्छेद करना हिंसा पाप है। प्राणियों के दु:ख का कारण होने से प्रमादी मनुष्य जो किसी के प्राणों का वियोग करता है, वह अधर्म का कारण है, परन्तु समितिपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले प्रमाद रहित जीव के कदाचित् किसी जीव के प्राणों का वियोग हो जाता है तो उसके लिये बन्ध का कारण नहीं होता है। प्रमादी आत्मा अपनी आत्मा का अपने आपके द्वारा पहले घात कर लेता है, पीछे दूसरे प्राणियों का वध होता है और नहीं भी होता हैहरिवंश ५८/१२७—१२९।
१. ईर्या समिति—्नोत्र गोचर जीवों के समूह को बचाकर गमन करने वाले मुनि (यति) के प्रथम ईर्या समिति होती हैवही २/१२२।
२. भाषा समिति—सदा कर्कश और कठोर वचन छोड़कर यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले यति का धर्मकार्यों में बोलना भाषा समिति हैवही २/१२३।
३. एषणा समिति—शरीर की स्थिरता के लिए पिण्ड शुद्धि—पूर्वक मुनि का जो आहार ग्रहण करना है, वह एषणा समिति हैैवही २/१२४।
४. आदान—निक्षेपण समिति—देखकर योग्य वस्तु का उठाना और रखना आदान—निक्षेपण समिति हैवही २/१२५।
५. प्रतिष्ठापन समिति—जीव—जन्तु रहित (प्रासुक) भूमि पर शरीर के भीतर का मल छोड़ना प्रतिष्ठापन समितिवही २/१२६ है।
गुप्तियाँ—मनोयोग, वचन योग ओर काय योग की शुद्ध प्रवृत्तियों का पालन करना क्रमश: मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति है।वही २/१२६ तप—तप दो प्रकार का होता है–१. बाह्य और २. आभ्यन्तर। बाह्यतप अनशनादि के भेद से छह प्रकार का है।<ref.वही ६४/२०
१. अनशन—संयम को आदि लेकन समीचीन ध्यान की सिद्धि रूप प्रत्यक्ष फल की प्राप्ति के लिए तथा राग को दूर करने के लिए आहार का त्याग करना अनशन है। यह बेला तेला आदि के भेद से अनेक प्रकार का होता है।वही ६४/२२
२. अवमौदर्य— दोषों (वात, पित्त आदि) का उपशम, सन्तोष, स्वाध्याय और ध्यान की सिद्धि के लिए तथा संयम की प्राप्ति के लिए भूख से कम भोजन करना अवमौदर्य है। यह जागरण का कारण है।वही ६४/२३
३. वृत्तिपरिसंख्यान— भोजन विषयक तृष्णा को दूर करने के लिए भिक्षा के अभिलाषी मुनि जो घर तथा अन्न आदि से सम्बन्ध रखने वाले नाना प्रकार के नियम लेते हैं, वह वृत्तिपरिसंख्यान नाम का तप है।हरिवंशपुराण ६४/२४
४. रस परित्याग— निद्रा और इन्द्रियों को जीतने के लिये जो घी, दूध और गरिष्ठ रसों का त्याग किया जाता है, वह रस परित्याग नाम का तप है।वही ६४/२५
५. विविक्त शय्यासन— व्रत की शुद्धि के लिये पशु तथा स्त्री आदि से रहित एकान्त प्रासुक स्थान में उठना, बैठना विविक्त शय्यासन तप है। कायक्लेश—आतातप, वर्षा और शीत ये योग धारण करना तथा प्रतिमा योग ये स्थित होना, इन्हें आदि लेकर बुद्धिपूर्वक जो सुख का त्याग किया जाता हे, वह मोक्षमार्ग की प्रभावना करने वाला कायक्लेश नाम का तप है।वही ६४/२६ बाह्य तप के कथन का कारण—अनशनादि छह प्रकार का तप बाह्य द्रव्य की अपेक्षा रखता है तथा पर कारणों से होता है, अत: इसे बाह्य तप कहते हैं।वही ६४/२७ आभ्यन्तर तप—मन का नियमन करने के लिये आभ्यन्तर तप का कथन किया जाता है।वही ६४/२८
१. प्रायश्चित— किये हुए दोषों की शुद्धि करना प्रायश्चित तप है। आलोचना आदि के भेद से यह ९ प्रकार का होता है।वही ६४/२८
आलोचना—प्रमाद से किये हुए दोषों का दश प्रकार के दोष छोड़कर गुरु के लिए निवेदन करना।वही ६४/३२
प्रतिक्रमण—‘मिथ्या मे दुष्कृतमस्तु’ इत्यादि शब्दों द्वारा अपने आप दोषों को प्रकट कर उनका दूर करना।वही ६४/२८
तदुभय—आलोचना तथा प्रतिक्रमण दोनों से जो शुद्धि होती है, वह विशुद्धि को करने वाला तदुभय नाम का प्रायश्चित है।वही ३४/३४
विवेक—संसक्त अन्नपान का विभाग करना।वही ६४/३३ व्युत्सर्ग—कायोत्सर्ग आदि करना।वही ६४/३५ तप—उपवास आदि करना।वही ६४/३५
छेद—दिन, माह आदि से मुनि की दीक्षा कम कर देनावही ६४/३६।
परिहार—पक्ष, मास आदि निश्चित समय तक अपराधी मुनि को संघ से दूर कर देना परिहार नाम का प्रायश्चित है।वही ६४/३६
उपस्थापना—फिर से नवीन दीक्षा देना।वही ६४/३७
२. विनय— पूज्य पुरुषों में आदर प्रकट करना विनय है। इसके चार भेद हैंवही ६४/३७—ज्ञान विनय—कालानतिक्रमण आदि आठ प्रकार के ज्ञानाचार का आगमोक्त विधि से ग्रहण करना ज्ञानविनय हैवही ६४/२९। शब्दाचार, अर्थाचार, उभयाचार, कालाचार, विनयाचार, उपधानाचार, बहुमानाचार, अनिह्नवाचार ये ज्ञानाचार के आठ भेद हैं। शब्द का शुद्ध उच्चारण करना शब्दाचार है। शुद्ध अर्थ का निश्चय करना अर्थाचार है।
शब्द और अर्थ दोनों का शुद्ध होना उभयाचार है। अकाल में स्वाध्याय न कर विहित समय में ही स्वाध्याय करना कालाचार है। विनय पूर्वक स्वाध्याय करना, स्वाध्याय के समय शरीर तथा वस्त्र शुद्ध रखना एवं आसन वगैरह का ठीक रखना विनयाचार है। चित्त की स्थिरतापूर्वक स्वाध्याय करना उपधानाचार है।
शास्त्र तथा गुरु आदि का पूर्ण आदर रखना बहुमानाचार है और जिस गुरु अथवा जिस शास्त्र से ज्ञान हुआ है उसका नाम नहीं छुपाना, उसके प्रति सदैव कृतज्ञ रहना अनिह्नवाचार है। इन आठ ज्ञानचारों का विधिपूर्वक पालन करना ज्ञान विनय है।
दर्शन विनय—नि:शंकित आदि आठ अंगों के भेद से दर्शनाचार आठ प्रकार का है, उसमें गुण—दोष का विवेक रखना दर्शन विनय है।वही ६४/३८ चारित्र विनय—पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति के भेद से जो तेरह प्रकार का चारित्राचार है, उसमें निरतिचार प्रवृत्ति करना चारित्र विनय है।
हरिवंशपुराण६४/३९ औपचारिक विनय—प्रत्यक्ष या परोक्ष दोनों अवस्थाओं में गुरु आदि के उठाने पर उठकर अगवानी करना, नमस्कार करना आदि जो यथायोग्य प्रवृत्ति की जाती है, उसे औपचारिक विनय कहते हैं।वही ६४/40
३. वैयावृत्य— अपने शरीर से या अन्य द्रव्यों से आचार्य आदि की सेवा करना वैयावृत्य है। इसके दस भेद हैंहरिवंशपुराण ६४/२९—
मोह के उदय से मिथ्यात्व की ओर इनकी प्रवृत्ति होने लगे अथवा परीषह रूपी शत्रुओं का उदय हो तो ग्लानि दूर कर उनकी यथा योग्य सेवा करना यह दस प्रकार का वैयावृत्य तप है।
वैयावृत्य का अत्यधिक महत्त्व है। गृहस्थ की तो बात ही क्या प्रासुक द्रव्य के द्वारा वैयावृत्य करने में तत्पर रहने वाले मुनि को भी उससे बन्ध नहीं होता। किन्तु निर्जरा ही होती है। इस संसार में शरीर ही प्राणियों का सबसे बड़ा धर्म का साधन है। इसलिए यथाशक्ति उसकी रक्षा करना चाहिए।
यह आगम का विधान है। मन्दशक्ति अथवा बीमार आदि जितने भी सम्यग्दृष्टि हैं, सम्यग्दृष्टि मनुष्य को उन सबकी वैयावृत्ति द्वारा निरन्तर सेवा करना चाहिए। जो प्रतिकार करने में समर्थ होकर भी रोग से दु:खी सम्यग्दृष्टि की उपेक्षा करता है, वह पापी है तथा सम्यग्दर्शन का घात करने वाला है।
जिसका धन अथवा शरीर सहधर्मी जनों के उपयोग में नहीं आता उसका वह धन अथवा शरीर किस काम का ? वह तो केवल कर्मबन्ध का ही कारण है। जिसका जो धन अथवा जो शरीर सहधर्मी जनों के उपयोग में आता है। यथार्थ में वही धन अथवा वही शरीर उसका है। जो समर्थ होकर भी आपत्ति के समय सम्यग्दृष्टि की उपेक्षा करता है उस कठोर हृदय वाले के जिनशासन की क्या भक्ति है ? कुछ भी नहीं है।
जो सम्यग्दर्शन की शुद्धता से शुद्ध सहधर्मी की भक्ति वहीं करता है, वह सूठ—भूठ बना फिरता है। उसके सम्यग्दर्शन की शुद्धि क्या है। यदि बोध की प्राप्ति में निमित्तभूत दर्शनविशुद्धि में बाधा पहुँचाई जाती है तो फिर इस संसार में पुन: बोध की प्राप्ति दुर्लभ ही समझनी चाहिए। यदि बोध की प्राप्ति नहीं होती है तो मुक्ति का साधनभूत चारित्र कैसे हो सकता है ?
और जब चारित्र नहीं है तो मुक्ति सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? सुख के अभाव में स्वास्थ्य कैसे मिल सकता है ? और स्वास्थ्य के अभाव में यह जीव कृतकृत्य कैसे हो सकती है ? इसलिए आत्महित चाहने वाला चाहे मुनि हो या गृहस्थ उसे सब प्रकार अपनी शक्ति के अनुसार वैयावृत्य करने में उद्यत रहना चाहिए।
जो मनुष्य वैयावृत्य करता है, वह अपने तथा दूसरे के शरीर दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं उत्तम तप आदि सभी गुणों स्वयं प्रत्युपकार की अपेक्षा से रहित होता है वह शीघ्र ही स्व—पर आत्मा का मोक्ष प्राप्त करता है। जो जिन शासन के अर्थ की उत्कट भावना करता हुआ वैयावृत्य करने में प्रवृत्त रहता है उसे देव भी रोकने में समर्थ नहीं है। क्षुद्र जीवों की तो बात ही क्या हैवही १८/१४२/१५६ ?
४. स्वाध्याय— ज्ञान की भावना में आलस्य छोड़ना स्वाध्याय है। इसके पाँच भेद हैंहरिवंशपुराण १८/१४२/१५६।
वाचना—ग्रंथ तथा उसका अर्थ दूसरे के लिये प्रदान करना—पढ़कर सुनाना।वही ६४/३०
पृच्छना—अनिश्चित तत्त्व का निश्चय करने के लिये अथवा निश्चित तत्त्व को सुदृढ़ करने के लिए दूसरे से पूछना।वही ६४/४६
अनुप्रेक्षा—ज्ञान का मन से अभ्यास करना।वही ६४/४७
आम्नाय—पाठ को बार—बार पढ़ना।वही ६४/४७ उपदेश—दूसरों को धर्म का उपदेश देना।वही ६४/४७ यह पाँच प्रकार का स्वाध्याय प्रशस्त अभिप्राय के लिए प्रज्ञा—भेद विज्ञान के अतिशय की प्राप्ति के लिए, संवेग के लिए और तप के लिए किया जाता है।वही ६४/४८
५. व्युत्सर्ग—बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहों में ये मेरे हैं, इस प्रकार के संकल्प का त्याग करना व्युत्सर्ग है।
इसके दो भेद होते हैं वही ६४/३०—
1. आभ्यन्तरोपधि त्याग”’—क्रोधादि अन्तरङ्ग उपधि का त्याग करना तथा शरीर के विषय में भी यह मेरा नहीं है, इस प्रकार का विचार रखना अभ्यन्तरोपधि त्याग है।वही ६४/४९
2. बाह्योपधित्याग ध्यान—आभूषणादि बाह्य उपधि का त्याग करना बाह्योपधि त्याग है।वही ६४/४९ यह दोनों प्रकार की उपाधियों का त्याग निष्परिग्रहता, निर्भयता और मैं अधिक दिनों तक जीवित रहूँ, इस आशय को दूर करने के लिये किया जाता है।वही ६४/५० ध्यान—चित्त की चंचलता का त्याग करना ध्यान है।
यह चार प्रकार का होता है। इनमें आर्त और रौद्र ये दो ध्यान खोटे ध्यान हैं। और धम्र्य तथा शुक्ल ये दो उत्तम ध्यान है।वही ६४/३१ जिस समय एकान्त, प्रासुक तथा क्षुद्र जीवों के उपद्रव से रहित क्षेत्र, दिव्य संहनन आदि के तीन संहनन रूप द्रव्य, उष्णता आदि की बाधा से रहित काल और निर्मल अभिप्राय रूप श्रेष्ठ भाव, इस प्रकार क्षेत्रादि चतुष्टय रूप सामग्री मुनि को उपलब्ध होती है, तब समस्त बाधाओं को सहन करने वाला मुनि प्रशस्त ध्यान का आरम्भ करता है।
ध्यान करने वाला पुरुष, गम्भीर, निश्चल शरीर और सुखद पर्यज्रसन से युक्त होता है। उसके नेत्र न तो अत्यन्त खुले होते हैं और न बन्द ही रहते हैं। नीचे के दाँतों के अग्रभाग पर उसके ऊपर के दाँत स्थित होते हैं। वह समस्त इन्द्रियों के व्यापारों से निवृत्त हो चुकता है, श्रुत का पारगामी होता है, धीरे—धीरे श्वासोच्छ्वास का संचार करता है।
मोक्ष का अभिलाषी मनुष्य अपनी मनोवृत्ति नाभि के ऊपर मस्तक पर, हृदय में अथवा ललाट में स्थिर कर आत्मा को एकाग्र करता हुआ धम्र्यध्यान और शुक्ल ध्यान इन दो हितकारी ध्यानों का चिन्तन करता है। बाह्य और आत्मिक भावों का जो यथार्थ भाव है, वह धर्म कहलाता है, उस धर्म से जो सहित है, उसे धम्र्यध्यान करते हैं।
हरिवंशपुराण ५६/२३/३५ जो शुचित्व अर्थात् शौच के सम्बन्ध से होता है, वह शुक्ल ध्यान कहलाता है। दोष आदिक का अभाव हो जाना शौच है।वही ५६/५३
चारित्र के सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात ये पाँच भेद हैं।वही ६४/१५
सामायिक—सब पदार्थों में समता भाव रखना तथा सब प्रकार के सावद्य योग का पूर्ण त्याग करना सामायिक चारित्र है।वही ६४/१५
छेदोपस्थापना—अपने प्रमाद के द्वारा किये हुए अनर्थ का सम्बन्ध दूर करने के लिए जो समीचीन प्रतिक्रिया होती है, वह छेदापस्थापना चारित्र है।वही ६४/१६
परिहारविशुद्धि—जिसमें जीविंहसा के परिहार से विशुद्ध शुद्धि होती है, वह परिहार विशुद्धि नाम का चारित्र हैवही ६४/१७।
सूक्ष्मसाम्पराय—सम्पराय कषाय को कहते हैं। ये कषाय जिसमें अत्यन्त सूक्ष्म रह जाती हैं, वह पाप को दूर करने वाला सूक्ष्म साम्पराय नाम का चारित्र है।वही ६४/१८
यथाख्यात—जहाँ समस्त मोहनीय कर्म का उपशम अथवा क्षय हो चुकता हे, उसे यथाख्यात अथवा अथाख्यात चारित्र कहते हैं।वही ६४/१९
१. क्षुधा परीषह—जठराग्नि प्रज्वलित रहने पर भी भूख से आधा भोजन करना।वही ६३/९२
२. तृषा परीषह—तीव्र प्यास से पीड़ित नहीं होना।वही ६३/९३
३. शीत परीषह—तीव्र वायु और हिम वर्षा के समय दिन राज खुले चबूतरे पर बैठना तथा वायु और वर्षा से विषम वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे बैठना।वही ६५/९४
४. उष्ण परीषह—ग्रीष्म ऋतु में पर्वत के ऊंचे शिखर पर बैठना।वही ६३/९५
५. दंशमशक—डाँस मच्छरों के काटने पर भी निश्चल रहना।हरिवंशपुराण ६३/९६
६. नाग्न्य परीषह—नग्न रहना।वही ६३/९७
७. रति परीषह—ध्यान के योग्य पहाड़ी मार्ग एवं वन की दुर्गम भूमियों में अकेले ही विहार कर धर्म साधन से प्रीति रखना।वही ६३/९८
८. अरति परीषह—स्त्रियों के कटाक्षपात होने पर भी विचलित न होना।वही ६३/९९
९. चर्या परीषह—पैदल तीर्थ क्षेत्रों वगैरह में विहार करना।वही ६३/१००
१०. निषद्या परीषह—ध्यान और अध्ययन में सदा निमग्न रहने के कारण रात्रि के समय अल्प निद्रा तथा एक करवट से बिना कुछ ओढ़े हुए सोना।वही ६३/१०१
११. शय्या परीषह—ध्यान और अध्ययन में सदा निमग्न रहने के कारण रात्रि के समय अल्प निद्रा तथा एक करवट से बिना कुछ ओढ़े हुए सोना।वही ६३/१०२
१२. आक्रोश परीषह—तीक्ष्ण व कुवचनों की बाधा सहकर क्षमा युक्त होना।वही ६३/१०३
१३. वध परीषह—कोई वध भी कर दे तो भी उसे सहन करना।वही ६३/१०४
१४. याचना परीषह—शरीर की स्थिरता के लिए चरणानुयोग की पद्धति से चर्या के लिए जाना, किन्तु किसी से आहार आदि की याचना नहीं करना।वही ६३/१०५
१५. अलाभ परीषह—चन्द्रमा के समान अमीर गरीब सभी के घर में (आहार के लिये) प्रवेश करना और लाभ अलाभ में समदृष्टि रखना।वही ६३/१०६
१६. रोग परीषह—रूखे, शीतल एवं प्रकृति से विरुद्ध आहार तथा वात, पित्त और कफ के प्रकोप से उत्पन्न रोग का प्रतीकार नहीं करना, सदा उसकी उपेक्षा करना।वही ६३/१०७
१७. तृण स्पर्श परीषह—शयन, आसन आदि के समय कठोर लाख के कण, तृण तथा कंकण आदि के द्वारा पीड़ित होने पर भी अन्तरङ्ग में किसी प्रकार का विकार न आना।वही ६३/१०८
१८. मल परीषह—हाथ के नाखूनों से शरीर का मैल नहीं छुटाना।वही ६३/१०९
१९. सत्कार पुरस्कार परीषह—आदर करने पर प्रसन्न न होना और अनादर करने पर मन में विहार न लाना।हरिवंशपुराण ६३/११०
२०. प्रज्ञा परीषह—इस समय पृथ्वी पर मुझसे बढ़कर न वादी है, न वाग्मी है, न गमक है और न महाकवि है, इस प्रकार का अहंकार न करनावही ६३/१११
२१. अज्ञान परीषह—यह अज्ञानी न पशु है, न मनुष्य है, ने देखता हे, न बोलता है, व्यर्थ ही इसने मौन ले रखा है, इस प्रकार के अज्ञानी जनों के वचनों की परवाह न करना।वही ६३/११२
२२. अदर्शन—उग्र तप के प्रभाव से बड़ी—बड़ी ऋद्धियाँ प्राप्त हो जाती थीं, यह कहना व्यर्थ है, क्योंकि आज तक हमें एक भी ऋद्धि प्राप्त न हुई, ऐसा कहना।वही ६३/११३
अनित्यानुप्रेक्षा—यह विचार करना कि जिस महल, शरीर, धन, सांसारिक सुख और बन्धुजनों में ये नित्य हैं, यह समझकर ममताभाव उत्पन्न होता है उनमें आत्मा के सिवाय किसी में भी नित्यता नहीं है—सभी क्षणभंगुर हैं।(अ) वही ६३/७९
अशरणानुप्रेक्षा—जिस प्रकार व्याघ्र के मुख में पड़े मृग के बच्चे को कोई शरण नहीं है, उसी प्रकार मृत्यु के दु:ख से पीड़ित मेरे लिये धर्म के सिवा न भाई बन्धु शरण हैंवही ६३/८० और न धन ही शरण है, यह चिन्तन करना।
संसारानुप्रेक्षा —नाना योनियों से भरे और कुलकोटियों के समूह से युक्त इस संसार रूपी चक्र के ऊपर चढ़े प्राणी महाविषम कर्म रूपी यन्त्र से प्रेरित हो स्वामी से भृत्य और पिता से पुत्र आदि अवस्थाओं को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार का विचार करना संसारानुप्रेक्षा हैं।वही ६३/८१
एकत्वानुप्रेक्षा—यह जीव अकेला ही उत्पन्न होता है और अकेला ही मृत्यु को प्राप्त होता है। एक धर्म को छोड़कर दूसरा इसका सहायक नहीं है, इस प्रकार का चिन्तन करना एकत्वानुप्रेक्षा है।वही ६३/८०
अन्यत्वानुप्रेक्षा—मैं नित्य हूँ और शरीर अनित्य है। मैं चेतन हूँ और शरीर अचेतन है। जब शरीर से भी मुझमें भिन्नता है तब दूसरी वस्तुओं से भिन्नता क्यों नहीं होगी ?वही ६३/८३ इस प्रकार का विचार करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है।
अशुच्यनुप्रेक्षा—यह अपना अथवा पराया शरीर रज, वीर्य रूप निन्द्य निमित्तों से उत्पन्न है, सप्त धातुओं से भरा है एवं वात, पित्त और कफ इन तीन दोषों से युक्त है, इसलिये ऐसा कौन पवित्र आत्मा होगा जो इस अपवित्र शरीर में वियोग के समय शोक को प्राप्त होगा और संयोग के समय राग करेगा।वही ६३/८२ इस प्रकार शरीर की अपवित्रता का विचार करना अशुच्यनुप्रेक्षा है।
आस्रवानुप्रेक्षा—काय योग, वचन योग और मनोयोग यह तीन प्रकार का योग ही आस्रव है। इसी के निमित्त से आत्मा में पुण्य और पाप कर्मों का आगमन होता है। आस्रव के बाद यह जीव कर्मबन्धन रूप दृढ़ साँकल से बद्ध होकर भयज्र्र संसार में चिरकाल तक भ्रमण करता रहता है।हरिवंशपुराण ६३/८४ इस प्रकार आस्रव तत्त्व के विषय में विचार करना आस्रवानुप्रेक्षा है।
संवरानुप्रेक्षा—द्रव्यास्रव और भावास्रव रूप दोनों प्रकार के आस्रव का रुक जाना संवर है। यह संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र से होता है। निर्जरा के साथ—साथ संवर हो जाने पर यह जीव स्वकृत कर्मों का क्षय कर सिद्ध हो जाता है।हरि. ६३/८५
निर्जरानुप्रेक्षा—अनुबन्धिनी और निसुबन्धिनी के भेद से निर्जरा के मूलत: दो भेद हैं। अनुबन्धिनी निर्जरा के अकुशलता और कुशला के भेद से दो भेद हैं। नरकादि गतियों में जो प्रतिसमय कर्मो की निर्जरा होती है वह अकुशलानुबन्धिनी निर्जरा है और संयम के प्रभाव से देव आदि गतियों में जो निर्जरा होती है, वह कुशलानुबन्धिनी निर्जरा है।
जिस निर्जरा के बाद पुन: कर्मों का बन्ध होता रहता है, वह अनुबन्धिनी निर्जरा है और जिस कर्म निर्जरा के बाद पूर्वकृत कर्म खिरते हैं, पर नवन कर्मों का बन्ध नहीं होता उसे निसुबन्धिनी निर्जरा कहते हैं। इस प्रकार निर्जरा के स्वरूप का विचार करना निर्जरानुप्रेक्षा है।वही ६३/८६
लोकानुप्रेक्षा—लोक की स्थिति अनादि अनन्त है। यह लोक अलोकाकाश के ठीक मध्य में स्थित है। इस लोक के भीतर छह काय के जीव निरन्तर दु:ख भोगते रहते हैं, ऐसा चिन्तन करना लोकानुप्रेक्षा हैवही ६३/८७
बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा—प्रथम तो निगोद से निकल कर अन्य स्थावरों में उत्पन्न होना ही दुर्लभ है, फिर त्रसपर्याय पाना दुर्लभ है, त्रसों में भी इन्द्रियों की पूर्णता होना दुर्लभ है और इन्द्रियों की पूर्णता होने पर भी समीचीन धर्म जिसका लक्षण है, एवं उत्तम समाधि का प्राप्त होना जिसका फल है, ऐसी बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। वही इस प्रकार बोधि प्राप्ति की दुर्लभता का विचार करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है।
धर्मानुप्रेक्षा—जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहा हुआ अहिंसादि लक्षण वाला धर्म ही मोक्ष प्राप्ति का कारण है। इसका त्याग करने से संसार का दु:ख प्राप्त होता है—इस प्रकार चिन्तन करना धर्मानुप्रेक्षा है।वही ६३/९०
उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य ये दस धर्म है। मुनियों के भेद पुलाक, वकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक के भेद से निग्र्रंथ मुनि के पांच भेद है।हरिवंशपुराण ६४/५८
पुलाक—जो उत्तरगुणों की भावना से रहित हों तथा मूलव्रत में भी जो पूर्णता को प्राप्त न हों, वे धान्य के छिलके के समान पुलाक मुनि कहलाते हैं।वही ६४/५९
वकुश—जो मूलव्रतों का अखण्ड रूप से पालन करते हैं। परन्तु शरीर और उपकरणों को साफ सुधरा रखने में लीन रहते हों, जो अनेक मुनियों के परिवार से युक्त हों और मलिन—सातिचार चारित्र के धारक हों, उन्हें वकुश कहते हैं।वही ६४/६०
कुशील—प्रतिसेवना कुशील और कषायकुशील की अपेक्षा कुशील मुनियों के दो भेद हैं। जो मूलगुण और उत्तरगुणों की पूर्णता से युक्त हैं। परन्तु कदाचित् उत्तरगुणों की विराधना कर बैठते हैं एवं संघ आदि परिग्रह से युक्त होते हैं। ये प्रतिसेवना कुशील हैं। जिनके अन्य कषाय शान्त हो गए हैं, केवल संज्वलन का उदय रह गया है। वे कषायकुशील कहलाते हैं।वही ६४/६२
निर्ग्रन्थ—जिनके जल में खींची गई दण्ड की रेखा के समान कर्मों का उदय अव्यक्त—अप्रकट रहता है तथा जिन्हें एक मुहूर्त के बाद केवलज्ञान उत्पन्न होने वाला है। वे निग्र्रंथ कहलाते हैं।वही ६४/६३ ”’स्नातक—जिनके घातिया कर्म नष्ट हो गए हैं। ऐसे केवली भगवान स्नातक कहलाते हैं।वही ६४/६४ उपर्युक्त पाँचों ही मुनि नैगमादिनयों की अपेक्षा निग्र्रंथ माने जाते हैं।वही ६४/६४
मुनियों में भेद संयम आदि आठ अनुयोगों के कारण किया जाता है।वही ६४/५६
पुलाक, वकुश और प्रतिसेवनाकुशील मुनि प्रारम्भ के सामायिक और छेदोपस्थापना इन दो संयमों में, कषाय कुशील यथाख्यात को छोड़कर शेष चार संयमों में और निग्र्रंथ तथा स्नातक यथाख्यात संयम में स्थित हैं।हरि. पुराण ६४/६६/६७
प्रतिसेवनाकुशील पुलाक और वकुश ये उत्कृष्ट रूप से अभिन्न दशपूर्वश्रुत को धारण करते हैं। जो कषायकुशील और निग्र्रंथ नामक मुनि हैं वे सब चौदह पूर्व को धारण करते हैं। जघन्य की अपेक्षा पुलाकमुनि के आचारवस्तुरूप श्रुत होता है और निग्र्रंथपर्यन्त समस्त मुनियों के पाँच समिति तीन गुप्ति रूप अष्ट प्रवचनमातृ का प्रमाण श्रुत होता है।वही ६४/६८/७०
प्रतिसेवना की अपेक्षा पुलाकमुनि पाँच महाव्रत तथा रात्रिभोजन त्याग इनमें से किसी एक का कभी दूसरों के बलपूर्वक सेवन करने वाला होता है। वकुश के सोपकरणवकुश और शरीरवकुश की अपेक्षा दो भेद होते हैं। इनमें सोपकरणवकुश अनेक उपकरणों के प्रेमी होते हैं और शरीरवकुश शरीरसंस्कार की अपेक्षा रखते हैं–शरीर की शोभा बढ़ाना चाहते हैं।
प्रतिसेवनाकुशील मूलगुणों में विराधना नहीं करते किन्तु उत्तरगुणों में कभी कोई विराधना कर बैठते हैं। कषायकुशील निग्र्रंथ और स्नातक प्रतिसेवना से रहित होते हैं।वही ६४/७१/७४
तीर्थ की अपेक्षा पुलाक आदि पाँचों मुनि सभी तीर्थंकरों के तीर्थ में होते हैं।वही ६४/७४
लिङ्ग के भाव और द्रव्य की अपेक्षा दो भेद होते हैं। भाविंलग की अपेक्षा पुलाक आदि पाँचों निर्ग्रन्थ लिंग के धारक हैं और द्रव्यिंलग की अपेक्षा विद्वानों के द्वारा भजनीय है।वही ६४/७५
लेश्या की अपेक्षा पुलाकमुनि के आगे के तीन अर्थात् पीत अक्ष और शुक्ल ये तीन, वकुश और प्रतिसेवनाकुशील के छहों कषायकुशील के आगे की चार अर्थात् कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ये चार एवं सूक्ष्मसाम्पराय निग्र्रंथ और स्नातक के एक शुक्ल लेश्या होती है। अयोगकेवली स्नातक लेश्या से रहित होते हैं।वही ६४/७६/७७
उपपाद की अपेक्षा पुलाक का अपवाद सहस्रार स्वर्ग में होता है और वहाँ उत्कृष्ट आयु का धारक होता है। प्रतिसेवनाकुशील और वकुश का उपपाद आरण और अच्युत स्वर्ग में होता है। निग्र्रंथ (ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती) और कषायकुशील का उपपाद सर्वार्थसिद्धि में होता है और जघन्य की अपेक्षा पुलाक आदि पांच मुनियों का उपपाद सौधर्म स्वर्ग में होता है और वहाँ वे दो सागर की आयु के धारक होते हैं।हरिवंशपुराण ६४/७८/७९
आरम्भ में संयम के जो स्थान भेद होते हैं वे कषाय के निमित्त से होते हैं तथा उनमें असंख्येय और अनन्त गुणी संयम की प्राप्ति होती है। इनमें सर्वजघन्य लब्धिस्थान कषायकुशील और पुलाक के होते हैं। ये दोनों मुनि असंख्येय स्थान तक साथ—साथ जाते हैं। उसके बाद पुलाकमुनि नीचे विच्छिन्न हो जाता है—नीचे रह जाता है।
तदनन्तर वकुश और दोनों प्रकार के कुशील साथ—साथ असंख्यात स्थानों तक जाते हैं उसके बाद वकुश नीचे रह जाता है और दोनों कुशील आगे बढ़ जाते हैं। अनन्तर असंख्येय स्थान तक साथ—साथ जाकर प्रतिसेवनाकुशील नीचे छूट जाता है। और कषायकुशील असंख्येय स्थान तक आगे चला जाता है।
इसके आगे कषायकुशील भी निवृत्त हो जाता है। तदनन्तर कषायरहित संयम के स्थान प्रकट होते हैं और उन्हें निग्र्रंथ मुनि प्राप्त करता है। वह असंख्येय स्थानों तक जाकर पीछे छूट जाता है। इसके आगे संयम का एक स्थान रहता है जिसे अनन्तगुण रूप ऋद्धियों को धारण करने वाला स्नातक प्राप्त करता है और वह वहाँ कर्मों का अन्त कर निर्वाण प्राप्त करता है।वही ६४/८०/८६