(इसमें सर्वप्रथम संकल्प करके पुण्याहवाचन करें)
अर्हंत देव कथित दयामूल धर्म है।
याजक व श्रावकों के लिये सौख्य मर्म है।। इ
न धर्मनिष्ठ जनों को सद्धर्म वृाद्ध हो।
श्रीबल व आयु स्वास्थ्य व ऐश्वर्य वृद्धि हो।।१।।
अथ श्रीमज्जिनशासने भगवतो महतिमहावीरवद्र्धमानतीर्थंकरस्य धर्मतीर्थे, श्रीमूलसंघे, मध्यलोके, जम्बूद्वीपे सुदर्शनमेरोर्दक्षिणभागे, भरतक्षेत्रे आर्यखंडे … देशे … नगरे विविधालंकारमंडितयज्ञमंडपे, हुंडावसर्पिणीकाले, दु:षमनाम्नि पंचमे कलियुगे प्रवर्तमाने, … संवत्सरे … अयने … ऋतौ … मासे … पक्षे … तिथौ जिनप्रतिमाया: सन्निधौ, मुन्यार्यिकाश्रावकश्राविकादिचतुर्विधसंघसन्निधौ विधिना विधियमान इन्द्रध्वजविधान१कर्मणि सकलाभ्युदयनि:श्रेयससिद्ध्यर्थं, शुद्ध्यर्थं, शान्त्यर्थं शांतिहोमविधिं विधास्याम:। तत्कर्मण: पुण्याहार्थं ऋद्ध्यर्थं स्वस्त्यर्थं पुण्याहवाचनां कर्तुमुत्सहामहे।
(ऐसा संकल्प करके पुण्याहवाचन करें।)
(पुण्याहवाचन के पूर्व करीब एक सेर श्वेत चावल एक चौकी पर बिछावें, उस पर ‘‘ह्रींकार’’ से वेष्टित स्वास्तिक बनायें। उसके ऊपर जल से परिपूर्ण गंध अक्षत आदि से अर्चित अशोक या आम्र के पत्तों से सुशोभित श्वेत सूत्र से कंठ वेष्ठित, नूतन वस्त्र, माला आदि से शोभित, जिसके अन्दर मांगलिक वस्तु हल्दी, सुपारी, नवरत्न आदि डाले गये हैं, ऐसे कलश को स्थापित२ करें। पुन: उस कलश के जल से पूजक आदि सभी जनों पर आगे के शांति मंत्र को बोलते हुए जल छिड़के।)
ॐ पुण्याहं पुण्याहं प्रियंतां प्रियंतां भगवन्तोऽर्हन्त: सर्वज्ञा: सर्वदर्शिन: त्रिलोकनाथा: त्रिलोकप्रद्योतनकरा: वृषभाऽजितसंभवाभिनंदनसुमतिपद्मप्रभसुपाश्र्व-चन्द्रप्रभपुष्पदन्तशीतलश्रेयोवासुपूज्यविमलानंतधर्मशांतिवुँथ्वरमल्लिमुनिसुव्रत-नमिनेमिपाश्र्वश्रीवर्धमाना: शांता: शांतिकरा: सकलकर्मरिपुविजयकांतार-दुर्गविषमेषु रक्षंतु नो जिनेंद्रा: सर्वंविदश्च। श्री ह्री धृतिकीर्तिकांतिबुद्धिलक्ष्मी-मेधाविन्य: सेवाकृषिवाणिज्यवाद्यलेख्यमंत्रसाधनचूर्णिप्रयोगस्थानगमन-सिद्धिसाधनाय अप्रतिहतशक्तयो भवंतु नो विद्यादेवता:। नित्यमर्हत्सिद्धा-चार्योपाध्यायसर्वसाधवश्च भगवंतो न: प्रियन्तां प्रियन्तां। आदित्य सोमांगार-बुधबृहस्पतिशुक्रशनैश्चरराहुकेतुग्रहाश्च न: (प्रियंतां प्रियंतां)। तिथिकरणमुहूर्त-लग्नदेवता: इह चान्यग्रामनगरादिषु अपि वास्तुदेवताश्च ता: सर्वा गुरूभक्ता अक्षीणकोषकोष्ठागारा: भवेयु: दानतपोवीर्य नित्यमेवास्तु न: प्रीयंता प्रीयंतां। मातृपितृ-भ्रातृसुतसुहृत्स्वजनसंबंधिबंधुवर्गसहितानां धनधान्यैश्वर्यद्युति-बलयशोवृद्धिरस्तु। प्रमोदोऽस्तु। शांतिर्भवतु। पुष्टिर्भवतु। सिद्धिर्भवतु। काममांगल्योत्सवा: सन्तु। शाम्यंतु घोराणि। शाम्यंतु पापानि। पुण्यं वद्र्धताम्। धर्मोवद्र्धताम्। श्रेयायुषी वद्र्धताम्। कुलं गोत्रं चाभिवद्र्धताम्। स्वस्ति भद्रं चास्तु न:। हतास्ते परिपंथिन:। शत्रव: शमं यान्तु। निष्प्रतिघमस्तु। शिवमतुलमस्तु। सिद्धा: सिद्धिं प्रयच्छंतु न: स्वाहा। (ॐ कर्मण: पुण्याहं भवन्तो ब्रुवन्तु इति प्रार्थयेत्। प्रार्थितविप्रा: पुण्याहं कर्मणोऽस्तु इति ब्रूयु:। अनेन प्रकारेण। ॐ कर्मण स्वस्ति भवंतो ब्रुवन्तु स्वस्ति कर्मणेऽस्तु च। कर्मऋद्धिं भवन्तो ब्रुवन्तु कर्मऋद्धिस्तु। एतद्वाक्यत्रयोच्चारणान्ते त्रिवारपात्रांतरपातितपूर्णकलशजलेन सभां शांतिमंत्रेण सिंचेत्।)
चारों निकाय देव के मुकुटाग्र मणी से।
जिनके चरण चुंबित हुये अर्हंत देव वे।।
सब दोष शून्य परम ज्ञान ज्योति रूप हैं।
बहिरंग समवसरण मध्य चित् स्वरूप हैं।।२।।
अथ अभ्यर्हिताखिलाभ्युदय नि:श्रेयस संपादक: स्याद्वादन्यायनायक: परमाप्तो भगवानर्हद्भट्टारक:। मातृपितृभ्रातृसृहृत्स्वजनसंबंधिबंधुवर्गसहितयजमा-नस्य (…) सकलकल्याणं करोतु। शांतिं कांतिमाविष्करोतु प्रादुष्करोतु। सौभाग्यमारोग्यमातनोतु संतनोतु। संपदमापदं संपादयतु संविदारयतु। अयशोयशो निष्कासयतु विकासयतु। एनो मतिमवसादयतु प्रसादयतु। सुखमसुखं तनोतु धुनोतु। अनभिमतमभिमतं वारयतु पूरयतु। श्रियमायु: श्लाघयतु द्राघयतु। पुण्यं पापं व्याजृंभयतु स्तंभयतु। कुपथं सुपथं व्यावर्तयतु प्रवर्तयतु। सत्कर्मासत्कर्म बोधयतु रोधयतु। अनेकांतमेकांतं निध्यापयतु विध्यापयतु। विद्यामविद्यां उन्मीलयतु समुन्मूलयतु। सत्शास्त्रं असच्छास्त्रं पोषयतु शोषयतु। श्रेय: प्रत्यवायं पुष्णातु मुष्णातु। क्षामं क्षेमं क्रशयतु शृशयतु। शौचमाचारं प्रभृयतु द्रढयतु। कुमतिं सुमतिं अनिशं मर्दयतु वर्धयतु। सकलाभ्युदयनि:श्रेयस सिद्धिं करोतु वृद्धिं करोतु। झ्वीं क्षीं हं स: स्वाहा।
कल्याण हो धन बढ़े सुख शांति होवे।
दीर्घायु हो सुकुलवंशसमृद्धि होवे।।
आरोग्य हो फल अभीसिप्त प्राप्त होवे।
हे वत्स! ते जिनपदांबुज प्रीति होवे।।३।।
चक्रीश पंचम कहे वर कामदेवा।
तीर्थेश षोडश तुम्हें त्रैलोक्य पूजे।।
हे शांतिनाथ! जग में तुम शांतिदाता।
श्री शांतिहोम करणाय तुम्हें नमूँ मैं।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्षीं भू: स्वाहा।विधियज्ञप्रतिज्ञापनाय पुष्पांजलि:।
घंटा ताल मृदंग ध्वनि, दुंदुभि वाद्य बजंत।
जय जय मंगल ध्वनि करूँ, पुष्पांजलि विकिरंत।।५।।
ॐ घंटादिवाद्यं उद्घोषयामि स्वाहा।
(बाजों पर पुष्पांजलि क्षेपण कर घंटा, मजीरा, ढोलक, आदि बाजे बजाकर जय जय ध्वनि करें)
जिन यज्ञ में इस क्षेत्र की रक्षा सुकीजिये।
संपूर्ण विघ्न दूर करके शांति दीजिये।।
हे क्षेत्रपाल आइये निज भाग लीजिये।
आग्नेय दिश में थापूँ यहाँ पर ही तिष्ठिये।।६।।
ॐ ह्रीं क्षेत्रपाल! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्।
ॐ ह्रीं क्षेत्रपाल! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:।
ॐ ह्रीं क्षेत्रपाल! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।। ॐ
ह्रीं अत्रस्थ क्षेत्रपालाय इदं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरूं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।
(आग्नेय दिशा में अर्घ चढ़ावें)
संपूर्ण गेह में सदा निवास जो करें।
श्रीवास्तुदेव सर्व का उपकार वो करें।।
उन वास्तुदेव का यहाँ आह्वान मैं करूँ।
ईशान कोण में यहाँ वसु अर्घ मैं धरूँ।।७।।
ॐ ह्रीं वास्तुदेव! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्।
ॐ ह्रीं वास्तुदेव! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:।
ॐ ह्रीं वास्तुदेव! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
ॐ ह्रीं वास्तुदेवाय इदं अर्घं पाद्यं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।
(ईशान दिशा में अर्घ चढ़ावें)
जिनदेव के विहार में तुम भक्ति से आते।
देवेन्द्र की आज्ञा से सुखद पवन चलाते।।
वायुकुमार देव! यज्ञ भूमि सोधिये।
निज यज्ञ भाग लीजिये संतुष्ट होइये।।८।।
ॐ ह्रीं वायुकुमार देव! महीं पूतां कुरू कुरू हूं फट् स्वाहा।
(दर्भ के पूले से भूमि का संमार्जन करें)
ॐ ह्रीं वायुकुमाराय सर्वविघ्नविनाशनाय इदं अर्घं पाद्यं गंधं अक्षतं पुष्पं चरूं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।
(पूर्व और ईशान दिशा के बीच में अर्घ चढ़ावें)
जिनदेव के विहार में तुम भक्ति से आते।
सुरभित उदक की वृष्टि अति हर्ष बढ़ाते।।
हे मेघकुमर देव! यज्ञ भूमि सोधिये।
निज यज्ञ भाग लीजिये संतुष्ट होइये।।९।।
ॐ ह्रीं मेघकुमार देव! धरां प्रक्षालय प्रक्षालय अं हं सं वं झं ठं क्ष: फट् स्वाहा।(दर्भ पूले से जल लेकर भूमि पर छिड़के)
ॐ ह्रीं मेघकुमाराय सर्वविघ्नविनाशनाय इदं अर्घं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरूं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा। (पूर्व और ईशान दिशा के बीच में अर्घ चढ़ावें)
संपूर्ण होम अग्नि में तुम पूज्य हुये हो।
निर्वाण की पूजा में अग्रगण्य हुये हो।।
अग्निकुमार देव! यज्ञ भाग लीजिये।
अग्नीशिखा से यज्ञ भूमि शुद्ध कीजिये।।१०।।
ॐ ह्रीं अग्निकुमार देव! भूमिं ज्वालय ज्वालय अं हं सं वं झं ठं क्ष: फट् स्वाहा।
(दर्भ के पूले से जलते हुये भूमि शुद्ध करें)
ॐ ह्रीं अग्निकुमारदेवाय सर्वविघ्नविनाशनाय इदं अर्घं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा। (पूर्व और ईशान दिशा के बीच में दर्भपूला या कपूर जलावें)
से साठ सहस नागकुमर देव विचरते।
जिन यज्ञ में भक्तों के सर्व विघ्न को हरते।।
ईशान दिशा में यहाँ जलांजली करूँ।
हे नागदेव आपको संतुष्ट मैं करूँ।।११।।
ॐ ह्रीं क्रों षष्टिसहस्रसंख्येभ्यो नागेभ्य: स्वाहा।
इदं अर्घं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।
(नागसंतर्पण के लिये ईशान दिशा में जलांजलि देवें)
(यहाँ पर पुण्याहवाचन करने का भी विधान है। मंदिर से अतिरिक्त स्थान पर यदि विधान के लिये मंडप बनाया है तो अवश्य ही लघु पुण्याहवाचन करें।
(यह अर्घ मंडप पर ही चढ़ावें)
पहले ब्रह्म प्रदेश में, पुन: पूर्वदिश आदि।
दर्भ स्थापन विधि करूँ, मंत्रसहित रुचिरादि।।१२।।
ॐ ह्रीं दर्पमथनाय नम: स्वाहा। ब्रह्मादिदशदिक्षु दर्भ:।
भूमि अर्चन—ॐ नीरजसे नम: जलं। शीलगंधाय नम: चंदनं।
अक्षताय नम: अक्षतं।
विमलाय नम: पुष्पं।
दर्पमथनाय नम: नैवेद्यं।
ज्ञानोद्योताय नम: दीपं।
श्रुतधूपाय नम: धूपं।
परमसिद्धाय नम: फलं।
ॐ ह्रीं भूमि देवतायै नम: अघ्र्यं…..।
पांडुकशिला प्रसिद्ध उसके बीच सिंहासन।
उसके सदृश वेदी के मध्य रखा सिंहासन।।
शुचि नीर से इस पीठ की प्रक्षालना करूँ।
अक्षत कुसुम व दर्भ आदि थापना करूँ।।१३।।
ॐ ह्रीं अर्हं क्ष्मं ठ ठ श्री पीठ स्थापनं करोमि स्वाहा।
(श्री पीठ स्थापित करें)
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: नमोऽर्हते भगवते श्रीमते पवित्रतरजलेन श्री पीठ प्रक्षालनं करोमि स्वाहा।
तत्पीठोत्परिप्रागग्रवस्त्राच्छादनं।
(पीठ प्रक्षालन करें)
ॐ ह्रीं दर्पमथनाय नम: ।
(पुष्प, अक्षत और दर्भ स्थापित करें)
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राय स्वाहा। (पीठ को अर्घ चढ़ाना)
इस पीठ पे जिनबिंब की स्थापना करूँ।
बहु वाद्य बजा लोक में प्रभावना करूँ।।
प्रतिमा के दायें भाग में त्रयचक्र को धरूँ।
त्रय छत्र बायें भाग में धर ताप को हरूँ।।१४।।
ॐ ह्रीं अर्हं धर्मतीर्थादिनाथ भगवन्! इह पांडुकशिलापीठे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा।
(श्री पीठ पर जिनबिंब को स्थापित करें)
दक्षिणपाश्र्वे चक्रत्रयस्थापनं।
वामपाश्र्वे छत्रत्रय स्थापनं।
(प्रतिमा के दायें भाग में तीन चक्र और बायें भाग में तीन छत्र स्थापित करना)
पुन: जिनेंद्रदेव का आह्वान आदि करके नीर से जिन प्रतिमा के चरणों का प्रक्षालन करके जल, चंदन आदि आठ द्रव्य चढ़ावें।
अर्हतदेव पूजा ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उ सा र्हं एहि एहि संवौषट् आह्वानं।
ॐ ह्रां … अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रां … अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
ॐ ह्रीं परमब्रह्मणे अनंतानंतज्ञानशक्तये जलं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ ह्रीं परमब्रह्मणे अनंतानंतज्ञानशक्तये चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
(इसी मंत्र को पुन: पुन: बोलकर आठों द्रव्य चढ़ाकर ‘उदकचंदन’ आदि बोलकर अर्घ चढ़ावें)
राजेन्द्र व देवेन्द्र व जिनेन्द्र योग्य हैं।
ये चक्र तीन मंगलमय मुख्य वस्तु हैं।।
जिन पास में स्थापित की अर्चना करूँ।
संसारचक्र नाश के मुक्त्यंगना वरूँ।।१५।।
ॐ नीरजसे नम: जलं। ॐ शीलगंधाय नम: चंदनं।
ॐ अक्षताय नम: अक्षतं। ॐ विमलाय नम: पुष्पं।
ॐ दर्पमथनाय नम: नैवेद्यं।
ॐ ज्ञानोद्योताय नम: दीपं।
ॐ श्रुतधूपाय नम: धूपं।
ॐ परमसिद्धाय नम: फलं।
ॐ ह्रीं चक्रत्रयेभ्य: अघ्र्यं।
त्रैलोक्य के स्वामित्व के ये चिन्ह बताये।
ये तीन छत्र मंगलमय वस्तु कहाये।।
जिनपास में स्थापित की अर्चना करूँ।
संसार ताप नाशो यह प्रार्थना करूँ।।१६।।
ॐ नीरजसे नम: जलं
(उपर्युक्त मंत्रों से आठों द्रव्य चढ़ावें) पुन: कुण्ड के निकट बैठने हेतु निम्न मंत्रों से भूमिशुद्धि आदि करें।
ॐ ह्रीं क्षीं भू: शुद्धयतु स्वाहा।
(भूमि पर जल छिड़के)
ॐ ह्रीं अर्हं क्ष्मं ठं आसनं निक्षिपामि स्वाहा।
(आसन बिछावें)
ॐ ह्रीं अर्हं ह्युँ ह्युँ णिसिहि आसने उपविशामि स्वाहा।
होम और पूजनादि द्रव्य पास में रखके।
सब वस्तु शोध करके उचित मौन को धरके।।
सब मंत्र क्रिया क्रम में सावधान हो रहा।
इस होम क्रिया विधि को प्रारंभ कर रहा।।१७।।
(होम द्रव्य पूजानादि द्रव्य को समीप में रखना। स्रुच और स्रुवा आदि को पास में लेना और जल से धोना। सभी पात्रों को ग्रहण करने और रखने में देखना, शोधन करना। घी के पात्र को उठाकर जमीन को देखकर रखना। घी को दर्भ से हिलाकर देखकर तपा लेना। इस तरह पूजक को प्राणियों के घात के परिहार हेतु आदर सहित सारे कार्य करने चाहिये।)
ॐ ह्रीं र्हं मौनस्थितायार्हं मौनव्रतं गृण्हामि स्वाहा।
(मौनव्रत ग्रहण करें)
ॐ ह्रीं नम: सर्वज्ञाय सर्वलोकनाथाय धर्मतीर्थंकराय श्रीशांतिनाथाय परमपवित्राय पवित्रजलेन होमकुण्डशुद्धिं पात्रशुद्धिं च करोमि स्वाहा।
(होम कुण्ड पर और सभी पात्रों पर जल छिड़के)
होम कुण्ड की अर्चना, अग्नि प्रजालन आदि।
सर्वविधि विधिवत् करूँ, मिटे कर्म की व्याधि।।१८।।
ॐ प्रक्रमक्रमविधि अवधानाय पुष्पांजलि:।
चौकोन कुण्ड की पूजा तीर्थेश से संबंधि ये चौकोन कुण्ड है।
श्रीगार्हपत्य आश्रय से इंद्र वंद्य है।।
निर्वाण समय इंद्र रचित पुण्य पुंज है।
इस कुंड की पूजा करूँ ये ध्यान कुंज है।।१९।।
ॐ नीरजसे नम: जलं।
ॐ शीलगंधाय नम: चंदनं।
ॐ अक्षताय नम: अक्षतं।
ॐ विमलाय नम: पुष्पं।
ॐ दर्पमथनाय नम: नैवेद्यं।
ॐ ज्ञानोद्योताय नम: दीपं।
ॐ श्रुतधूपाय नम: धूपं।
ॐ परमसिद्धाय नम: फलं।
ॐ चतुरस्रकुण्डाय अर्घं … ।
गणधर गुरू संबंधि यह त्रिकोन कुण्ड है।
ये आह्वानीय अग्नि के आश्रय से श्रेष्ठ है।।
निर्वाण समय इंद्ररचित पुण्य पुंज है।
इस कुण्ड की पूजा करूँ यह ध्यान कुंज है।।२०।।
ॐ नीरजसे नम: इत्यादि मंत्रों से अष्टद्रव्य चढ़ायें।
सामान्य केवली मुनी का गोल कुण्ड है।
ये दक्षिणाग्नि आश्रय से सर्ववंद्य है।।
निर्वाण समय इंद्र रचित पुण्यपुंज है।
इस कुण्ड की पूजा करूँ ये ध्यान कुंज है।।२१।।
ॐ नीरजसे नम: इत्यादि मंत्रों से अष्टद्रव्य चढ़ायें।
ॐ नमोऽर्हते भगवते सत्यवचनसंदर्भाय केवल दर्शने प्रज्वलनाय पूर्वोत्तराग्रेण दर्भपरिधिं उदुंवरसत्परिधिं च करोमि स्वाहा।
(यह मंत्र बोलकर होम कुण्ड के चारों ओर पाँच-पाँच दर्भकाण्ड की परिधि करें)
ॐ नमोऽर्हते भगवते सत्यवचनसंदर्भाय केवलदर्शनप्रज्वलनाय पूर्वोत्तराग्रेण होमकुण्डानां मध्ये शुष्कदर्भंपरिस्तरणं करोमि स्वाहा।
(यह मंत्र बोलकर होमकुण्ड के मध्य सूखा दर्भ स्थापित करें, दर्भ के अभाव में कपूर स्थापित करें)
पुन: अग्नि स्थापना ॐ ह्रीं स्वस्तये श्रीमन्तं पवित्रतरं अग्नीन्द्रं स्थापयामि स्वाहा।
(कुण्ड में अग्नीन्द्र की स्थापना करें)
जैनेन्द्रवाक्य के समान सुप्रसन्न है।
सूखे हुये दर्भाग्र से उत्पन्न अग्नि है।।
कुण्डों में रखे इर्धन की शुद्ध अग्नि है।
मैं अग्नि संधुक्षण करूँ ये समय मान्य है।।२२।।
उसहायिजिणे पणमामि सया, अमलो विरजो वरकप्पतरू।
सअ कामदुहा मम रक्ख सया, पुरु विज्जुणुही पुरु विज्जुणुही।।२३। |
ॐ ॐ ॐ ॐ रं रं रं रं स्वाहा। अग्निं संधुक्षयेत्
(कपूर से अग्नि संधुक्षित करें)
तीर्थकरादिक से प्रथित, गार्हपत्य प्रमुखाग्नि।
कर्मेंधन के दहन हित, समिधाहुति दूँ मान्य।।
ॐ वैश्वानर जातवेद इहावलोकिताक्ष सर्वकर्माणि साधय साधय स्वाहा।
(एक समिधा की आहुति देवें)
तीर्थेश के निर्वाण महोत्सव में भक्ति से।
अग्निकुमार ने प्रगट की अग्नि मुकुट से।।
वो गार्हपत्य अग्नि इंद्रवंद्य जगत में।
पूजूँ वही चौकोण कुण्ड अग्नि आज मैं।।२४।।
ॐ ह्रीं नीरजसे नम: इत्यादि मंत्रों से पूजा करें।
गणधर गुरू के अन्त्य महोत्सव में भक्ति से।
अग्निकुमार ने प्रगट की अग्नि मुकुट से।।
वो आह्वनीय अग्नि इंद्र वंद्य जगत में।
पूजूँ वही त्रिकोण कुंड अग्नि आज मैं।।२५।।
ॐ ह्रीं नीरजसे नम: इत्यादि आठों द्रव्य चढ़ावें।
जिनकेवली के अन्तिम उत्सव में भक्ति से।
अग्निकुमार ने प्रगट की अग्नि मुकुट से।।
वो दक्षिणाग्नि इंद्रगण से वंद्य जगत् में।
पूजूँ वही ही गोलकुण्ड अग्नि आज मैं।।२६।।
ॐ ह्रीं नीरजसे नम: इत्यादि मंत्रों से पूजा करें।
कटनी त्रय की अर्चना, करूँ प्रीति मन लाय।
तिथिपति ग्रह देवेन्द्र अरू, दिक्पालादि बुलाय।।
विधियज्ञ प्रतिज्ञापनाय पुष्पांजलि:।
जननाथ पादभक्त हैं तिथि देवता सभी।
ये लोक की यात्रा यहाँ वर्तन करें सभी।।
आह्वान करके यज्ञभाग देउं मैं यहाँ।
ये सर्वजन को सुख व शांति देवेंगे यहाँ।।२७।।
ॐ ह्रीं यक्षवैश्वानर राक्षसनधृत पन्नगअसुरसुकुमारपितृ विश्वमालि चमर वैरोचन महाविद्यमार पिंडाशिन् पंचदशतिथिदेवता: सर्वेऽपि आयात-आयात यानायुधयुवतिजनै: सार्धं।
ॐ भूर्भुव: स्व: स्वाहा स्वहा। पुष्पांजलि:।
साघ्र्यं चरूं अमृतमिमं स्वस्तिकं यज्ञभागं च गृण्हीत गृण्हीत। अघ्र्यं।
ॐ ह्रीं यक्षादिपंचदशतिथिदेवा: यष्ट्रप्रभृतीनां शांतिं कुरुत कुरुत स्वाहा। पूर्णाघ्र्यं।
(पूर्णाघ्र्य चढ़ावें)
जो मेरू की प्रदक्षिणा सदैव कर रहे।
नरलोक में निग्रह अनुग्रह भी कर रहे।।
वे सूर्य चंद्र मंगल बुध गुरू व शुक्र हैं।
शनि राहु केतु नवग्रह का अर्घ सुखद है।।२८।।
ॐ ह्रीं आदित्य सोमांगारकबुधबृहस्पति शुक्रशनैश्चरराहुकेतव: नवग्रहदेवा: सर्वेऽपि आयात आयात यानायुधयुवतिजनै: सार्धं।
(ॐ भूर्भुव: स्व: स्वाहा स्वधा। पुष्पांजलि:।)
साघ्र्यं चरुं अमृतं इमं स्वस्तिकं यज्ञभागं च गृण्हीत-गृण्हीत।
(अघ्र्यं) ॐ ह्रीं आदित्यादिनवग्रहदेवा: सर्वेऽपि यष्ट्रप्रभृतीनां शांति कुरुत कुरुत स्वाहा। पूर्णाघ्र्यं।
(पूर्णार्घं चढ़ावें)
भावनसुरों के इंद्र दश व्यंतर के आठ हैं।
ज्योतिष्क के रवि चंद्र इंद्र दो विख्यात हैं।।
सुर कल्पवासि के अधिप बारह प्रसिद्ध हैं।
बत्तीस इंद्र को जजूँ ये सर्व इष्ट हैं।।२९।।
ॐ ह्रीं असुरेन्द्रादि द्वात्रिंशदिंद्रा: सर्वेऽपि आयात आयात यानायुधयुवति- जनै: सार्धं ॐ भूर्भुव: स्व: स्वाहा स्वधा।
पुष्पांजलि:।
साघ्र्यं चरुं अमृतं इमं स्वस्तिकं यज्ञभागं च गृण्हीत गृण्हीत अघ्र्यं।
ॐ ह्रीं असुरेंद्रादि द्वात्रिंशदिन्द्रा यष्ट्रप्रभृतीनां शांतिं कुरुत कुरुत स्वाहा। (पूर्णाघ्र्यं)
जिन यज्ञ में समस्त विघ्न दूर हटाते।
जिन धर्म का अतिशय प्रभाव जग में बढ़ाते।।
इंद्रादि दश दिक्पाल का आह्वान मैं करूँ।
पूजन में भाग देकर सन्मान मैं करूँ।।३०।।
ॐ ह्रीं इंद्राग्नियमनैऋतवरुणवायुकुबेरैशानशेषशीतांशवो दशदिक्पालदेवा: सर्वेऽपि आयात आयात यानायुधयुवति जनै: सार्धं ॐ भूर्भुव: स्व: स्वाहा स्वधा।
(पुष्पांजलि:।)
साघ्र्यं चरुं अमृतं इमं स्वस्तिकं यज्ञभागं च गृण्हीत गृण्हीत अघ्र्यं।
ॐ ह्रीं इंद्रादिदशदिक्पालदेवा यष्ट्रप्रभृतीनां शांतिं कुरुत कुरुत स्वाहा। (पूर्णाघ्र्यं।)
सिद्धों की अर्चना में जो क्रियामंत्र हैं।
जो जैनवेद में ये साधनादि मंत्र हैं।।
ये होममंत्र हैं इन्हीं से होम करूँ मैं।
इन तीन अग्नि में हवन प्रारंभ करूँ मैं।।३१।।
पीठिका मंत्र छत्तीस से, काम्यमंत्र तक लेय।
पूजा शेष हव्यादि से, करूँ आहुती येह।।३२।।
(अब ३६ पीठिका मंत्रों से अन्न की आहुति देवें)
ॐ सत्यजाताय नम:।
अर्हज्जाताय नम:।
परमाजाताय नम:।
अनुपमजाताय नम:।
स्वप्रदाय नम:।
(स्वप्रधानाय नम:)
अचलाय नम:।
अक्षताय नम:।
अव्याबाधाय नम:।
अनंतज्ञानाय नम:।
अनंतदर्शनाय नम:।
अनंतवीर्याय नम:।
अनंतसुखाय नम:।
नीरजसे नम:।
निर्मलाय नम:।
अच्छेयाय नम:।
अभेद्याय नम:।
अजराय नम:।
अमराय नम:।
अप्रमेयाय नम:।
अगर्भवासाय नम:।
अक्षोभ्याय नम:।
अविलीनाय नम:।
परमधनाय नम:।
परमकाष्ठयोगरूपाय नम:।
लोकाग्रवासिने नमो नम:।
परमसिद्धेभ्यो नमो नम:।
अर्हत्सिद्धेभ्यो नमो नम:।
केवलिसिद्धेभ्यो नमो नम:।
अंतकृत्सिद्धेभ्यो नमो नम:।
परंपरासिद्धेभ्यो नमो नम:।
अनादिपरंपरासिद्धेभ्यो नमो नम:।
अनाद्यनुपमसिद्धेभ्यो नमो नम:।
सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे आसन्न भव्य आसन्न भव्य, निर्वाणपूजार्ह निर्वाणपूजार्ह अग्नीन्द्राय (अग्नीन्द्र) स्वाहा। से
वाफलं षट्परमस्थानं भवतु।
अपमृत्युविनाशनं भवतु।
समाधिमरणं भवतु।
दशविध जातीमंत्र से, होय निराकुल चित्त।
पूजा शेष हव्यादि से, करूँ आहुती अद्य।।३३।।
ॐ सत्यजन्मन: शरणं प्रपद्यामि।
अर्हज्जन्मन: शरणं प्रपद्यामि।
अर्हन्मातु: शरणं प्रपद्यामि।
अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्यामि।
अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्यामि।
अनुपमजन्मन: शरणं प्रपद्यामि।
रत्नत्रयस्य शरणं प्रपद्यामि।
सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे, ज्ञानमूर्ते ज्ञानमूर्ते, सरस्वति सरस्वति, स्वाहा।
सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु।
अपमृत्युविनाशनं भवतु।
समाधिमरणं भवतु।
तेरह निस्तारक मंत्रों से आहुति
निस्तारक आदी कहे, तेरह मंत्र प्रसिद्ध।
पूजा शेष हव्यादि से, करूँ आहुती अद्य।।३४।।
ॐ सत्यजाताय स्वाहा। अर्हज्जाताय स्वाहा।
षट्कर्मणे स्वाहा।
ग्रामपतये स्वाहा।
अनादिश्रोत्रियाय स्वाहा।
स्नातकाय स्वाहा। श्रावकाय स्वाहा।
देवब्रह्मणाय स्वाहा। सुब्राह्मणाय स्वाहा।
अनुपमाय स्वाहा।
सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे, निधिपते निधिपते, वैश्रवण वैश्रवण स्वाहा।।१३।।
सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु।
अपमृत्युविनाशनं भवतु। समाधिमरणं भवतु।
अट्ठारह ऋषिमंत्र से, होय निराकुल चित्त।
पूजा शेष हव्यादि से, करूँ आहुती अद्य।।३५।।
ॐ सत्यजाताय नम:।
अर्हज्जाताय नम:।
नग्र्रंथाय नम:।
वीतरागाय नम:।
महाव्रताय नम:।
त्रिगुप्ताय नम:।
महायोगाय नम:।
विविधयोगाय नम:।
विविधद्र्धये नम:।
अंगधराय नम:।
पूर्वधराय नम:।
गणधराय नम:।
परमर्षिभ्यो नम:।
अनुपमजाताय नमो नम:।
सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे, भूपते भूपते नगरपते नगरपते, कालश्रमण कालश्रमण स्वाहा।।१८।।
सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु।
अपमृत्युविनाशनं भवतु। समाधिमरणं भवतु।
मंत्र सुरेन्द्रादिक कहे, सोलह दिवसुख काज।
पूजा शेष हव्यादि से, करूँ आहुती आज।।३६।।
ॐ सत्यजाताय स्वाहा।
अर्हज्जाताय स्वाहा।
दिव्यजाताय स्वाहा।
दिव्याच्र्यजाताय स्वाहा।
नेमिनाथाय स्वाहा।
सौधर्माय स्वाहा।
कल्पाधिपतये स्वाहा।
अनुचराय स्वाहा।
परंपरेन्द्राय स्वाहा।
अहमिन्द्राय स्वाहा।
परमार्हताय स्वाहा।
अनुपमाय स्वाहा।
सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे, कल्पपते कल्पपते, दिव्यमूर्ते दिव्यमूर्ते, वङ्कानामन् वङ्कानामन् स्वाहा।।१६।।
सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु।
अपमृत्युविनाशनं भवतु। समाधिमरणं भवतु।
मंत्र परमराजादि हैं, बारह निज सुख काज।
पूजा शेष हव्यादि से, करूँ आहुती अद्य।।३७।।
ॐ सत्यजाताय स्वाहा। अर्हज्जाताय स्वाहा।
अनुपमेन्द्राय स्वाहा। विजयाच्र्यजाताय स्वाहा।
नेमिनाथाय स्वाहा।
परमजाताय स्वाहा।
परमार्हताय स्वाहा।
अनुपमाय स्वाहा।
सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे, उग्रतेज: उग्रतेज:, दिशांजय दिशांजय, नेमिविजय नेमिविजय स्वाहा।।१२।।
सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु।
अपमृत्युविनाशनं भवतु। समाधिमरणं भवतु।
परमेष्ठी आदिक कहे, छब्बिस मंत्र प्रसिद्ध।
पूजा शेष हव्यादि से, करूँ आहुती अद्य।।३८।।
ॐ सत्यजाताय नम:। अर्हज्जाताय नम:।
परमजाताय नम:। परमार्हताय नम:। परमरूपाय नम:। परमतेजसे नम:। परमगुणाय नम:। परमस्थानाय नम:। परमयोगिने नम:। परमभाग्याय नम:। परमद्र्धये नम:। परमप्रसादाय नम:। परमकांक्षाय नम:। (परमकांक्षिताय) नम:। परमविजयाय नम:। परमविज्ञानाय नम:। परमदर्शनाय नम:। परमवीर्याय नम:। परमसुखाय नम:। सर्वज्ञाय नम:। अर्हते नम:। परमेष्ठिने नमो नम:। परमनेत्रे नमो नम:। सम्यग्दृष्टे, सम्यग्दृष्टे, त्रिलोकविजय त्रिलोकविजय, धर्ममूर्ते धर्ममूर्ते, धर्मनेमे धर्मनेमे, स्वाहा।।२६।। सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु। अपमृत्युविनाशनं भवतु। समाधिमरणं भवतु।
शाल्यन्न घी व पायस! पूआदि लिया है।
पक्वान्न बहुत लेकर के हवन किया है।।
इस अन्न से की आहुति मैं भक्ति भाव से।
हे अग्निदेव मेरे सब विघ्न शांत हों।।३९।।
ॐ ह्रीं अग्निकुमारदेव! यजमान प्रभृतीनां शांतिं कुरु कुरु स्वाहा। (पूर्णाघ्र्यं)
ये क्षीरतरु पलाश आदि काष्ठ की समिधा।
लम्बी कहीं नव अंगुल ये होम की समिधा।
ये मोटी दो या तीन भी अंगुल प्रमाण हैं।
इन इक सौ आठ समिधा से होम मान्य है।।४०।।
(गार्हपत्य अग्नि अर्थात् चौकोन कुण्ड में १०८ समिधा से शांतिमंत्र द्वारा १०८ आहुति देवें।)
शिांतिमंत्र—ॐ नमोऽर्हते भगवते श्रीमते प्रक्षीणाशेषदोषकल्मषाय दिव्यतेजोमूर्तये नम: श्रीशांतिनाथाय शांतिकराय सर्वपापप्रणाशनाय सर्वविघ्नविनाशनाय सर्वरोगापमृत्युविनाशनाय सर्वपरकृतक्षुद्रोपद्रवविनाशनाय सर्वक्षामडामरविनाशनाय ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उ सा सर्व शांतिं कुरु कुरु स्वाहा। ॐ ह्रीं अग्निकुमार यजमानप्रभृतीनां सर्वशांतिं कुरु कुरु स्वाहा। (पूर्णाघ्र्यं)
ताजा लिया गोघृत इसी से आहुती करूँ।
ये इक सौ आठ शांतिमंत्र से हवन करूँ।।
घृतहोम से तुम पूज्य अग्निदेव यहाँ पे।
भक्तों को शांति कांति पुष्टि तुष्टि करोगे।।४१।।
ॐ नमोऽर्हते भगवते श्रीमते प्रक्षीणाशेषदोष ….स्वाहा।
(उपर्युक्त शांतिमंत्र से घी से चौकोन कुण्ड में १०८ आहुति देवें।)
ॐ ह्रीं अग्निकुमार देव! यजमानप्रभृतीनां सर्व शांतिं कुरु कुरु स्वाहा। (पूर्णाघ्र्यं)
वर लौंग और लाजा तिल तंदुलादि हैं।
कर्पूर केशरादि चंदन विभिन्न हैं।।
इन इक सौ आठ लौंगों से आहुती करूँ।
सब विघ्न दूर कर परम स्थान छह वरूँ।।४२।।
ॐ नमोऽर्हते भगवते श्रीमते प्रक्षीणाशेष दोष…..।
(उपर्युक्त शांतिमंत्र से लवंग द्वारा चौकोन कुण्ड में १०८ आहुति देवें।)
ॐ ह्रीं अग्निकुमार यजमानप्रभृतीनां सर्वंशांतिं कुरु कुरु स्वाहा। (पूर्णाघ्र्यं)
(यहाँ विधान के मूलमंत्र से जाप्य देवें।)
गंध पुष्प अक्षत मिलित, विमलनीर को लेय।
परमेष्ठी तर्पण करूँ, मंत्र पीठिका देय।।४३।।
ॐ ह्रीं सत्यजाताय नम: इत्यादि ३६ पीठिका मंत्रों से तर्पण करें।
अथ पूर्णाहुति ॐ श्री जिनेन्द्र देव और तिथीदेव को।
ग्रहदेव नव को एवं दिक्पालदेव को।।
अग्नी प्रसन्न हेतु वे मंत्र उच्चरूँ।
मैं भक्ति सहित घी से पूर्ण आहुती करूँ।।४४।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धकेवलिभ्य: स्वाहा।
ॐ ह्रीं क्रों पंचदशतिथिदेवेभ्य: स्वाहा।
ॐ ह्रीं क्रों नवग्रहदेवेभ्य: स्वाहा।
ॐ ह्रीं क्रों द्वात्रिंशदिन्द्रेभ्य: स्वाहा।
ॐ ह्रीं क्रों दशलोकपालकेभ्य: स्वाहा।
ॐ ह्रीं अग्निन्द्राय स्वाहा।
इति पूर्णाहुति:। तत: पुण्याहं घोषयेत् (यहाँ पुण्याहवाचन भी पढ़ते हैं।) (पुन: नीरजसे नम: जलं इत्यादि मंत्रों से चौकोन कुंड अग्नि की पूजा करें।)
ये चार सौ इकसठ कहे पूर्वोक्त मंत्र हैं।
इन सबसे आहुती किया हे अग्निदेव मैं।।
सम्यक्त्व से आरोपित हे गार्हपत्य तुम।
सब अभ्युदय सहित मुझे निर्वाण करो तुम।।४५।।
ॐ ह्रीं गार्हपत्य! यजमानप्रभृतीनां शांतिं कुरु कुरु स्वाहा। (पूर्णाघ्र्य चढ़ावें।)
(पुन: नीरजसे नम: जलं इत्यादि मंत्रों से त्रिकोण कुण्ड अग्नि की पूजा करें।)
जो एक सौ इकतिस प्रमाण दिव्य मंत्र हैं।
आहुति किया है अन्न की उन मंत्र से ही मैं।।
हे आह्वनीय अग्नि सज्ज्ञान कल्प तुम।
सब अभ्युदय सहित मुझे निर्वाण करो तुम।।४६।।
ॐ ह्रीं आह्वनीय! यजमानप्रभृतीनां शांतिं कुरु कुरु स्वाहा। (पूर्णाघ्र्य चढ़ावें।)
(पुन: नीरज से नम: जलं इत्यादि मंत्रों से गोलकुंड की अग्नि की पूजा करें।)
जो एक सौ इकतीस प्रमाण दिव्य मंत्र हैं।
आहुति किया है अन्न की उन मंत्र से ही मैं।।
चारित्र से संकल्पित हे दक्षिणाग्नि तुम।
सब अभ्युदय सहित मुझे निर्वाण करो तुम।।४७।।
ॐ ह्रीं दक्षिणाग्ने! यजमानप्रभृतीनां शांतिं कुरु कुरु स्वाहा। (पूर्णाघ्र्य चढ़ावें।)
(पुन: नीरज से नम: जलं इत्यादि मंत्रों से चौकोर कुण्ड की अग्नि की पूजा करें।) स्तुति
सब अभ्युदय नि:श्रेयस की सिद्धि में हेतू।
जो रत्नत्रय से कल्पित उस अग्नि को पूजूँ।।
तीर्थेश के नि:श्रेयस कल्याण में प्रगटी।
उन अग्नि को मैं वंदूँ वह कर्म को दहती।।४८।।
ध्यानाध्ययन की अग्नि से जो कर्म को दहें।
वे केवली व गणधर निर्वाण को लहें।।
इन सबके मुक्ति जाने पर अग्नि जो प्रगटी।
उस अग्नि को वंदूँ वह कर्म को दहती।।४९।।
अग्निकुमार इंद्र के मुकुटाग्र से प्रगटी।
तीर्थेश आदि मुक्ति प्राप्त देह को दहती।।
उस अग्नि को जो वंदे वो मुक्ति लहेंगे।
निज ध्यान अग्नि से ही वसु कर्म दहेंगे।।५०।।
चौंतीस अतिशयों युत अर्हंत को नमूँ।
मोहारि विघ्न रज के नाशक तुम्हें नमूँ।।
अंतर व बाह्य मल के विध्वंसि को नमूँ।
सब विश्वरूप ज्ञाता निजदेव को नमूँ।।५१।।
वसु प्रातिहार्य के तुम स्वामी तुम्हें नमूँ।
नव केवलीलब्धीयुत जिनदेव को नमूँ।।
त्रैलाक्य में हो मंगल उत्तम तुम्हें नमँ।
त्रैलोक्य के शरण हो मैं कोटिश: नमूँ।।५२।।
(इस प्रकार जिनप्रतिमा के सम्मुख खड़े होकर स्तुति पढ़ें।)
होम की भस्म लगाने का श्लोक ये रत्नत्रय अर्चनयुत वर होम भूति है।
तुम सबको दिव्य इंद्र की विभूति को करे।।
छह खण्ड दिग्विजय की विभूति को देवे।
त्रैलोक्य राज्यमय जिनेन्द्र विभव को देवे।।५३।।
(इस आशीर्वाद श्लोक को बोलते हुए विधानाचार्य यजमान आदि जनों को शांतिमंत्र से मंत्रित होम की भस्म को देवें। सब लोग भी भक्ति से वह भस्म अपने ललाट में, दोनों भुजाओं में, कंठ में और हृदय में लगावें।)
पुन: शांतिपाठ और विसर्जन करें— संपूजकानां प्रतिपालकानां, यतीन्द्रसामान्यतपोधनानां।
देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञ:, करोतु शांतिं भगवान् जिनेंद्र:।।५४।।
(तीन बार शांतिधारा देवें।)
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उ सा अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायर्ससाधव: अन्ये च देवादय: सर्वे च स्वस्थानं गच्छत गच्छत ज: ज: ज:।
प्रमादाज्ज्ञानदर्पाद्यै: विहितं विहितं न यत्।
जिनेन्द्रास्तु प्रसादात्ते सकलं सकलं च तत्।।५५।।
(विसर्जन करें। क्षमापणपूर्वक पंचांग नमस्कार करें।)
मोहध्वांत के नाशक विश्वप्रकाशी विशद दीप्तिधारी।
सन्मारग प्रतिभासक बुधजन को नित ही मंगलकारी।।
श्रीजिनचंद्र! शांतिप्रदभगवन्! तापहरन! तव भक्ति करूँ।
पुन: पुन: तव दर्शन होवे, यही याचना नित्य करूँ।।५६।।
(विधान समाप्ति के बाद विधानाचार्य निम्नलिखित श्लोक बोलकर यजमान आदि के मस्तक पर पुष्प क्षेपण करते हुए आशीर्वाद देवें।)
आशीर्वाद श्लोक सौभाग्यं धनधान्यसौख्यविपुलं सर्वत्र कीत्र्यास्पदं।
आरोग्यं सुतमित्रबंधुवनितासौख्यं सदा मंगलं।।
विद्याधीश्वरतां नरेशवशितां भूभृत्पदं भूतले।
श्रीमज्जैनविधानतो भवतु ते सर्वार्थसिाqद्धस्त्वरं।।५७।।