उत्तर प्रदेश के मेरठ ज़िले में स्थित एक ऐतिहासिक क्षेत्र है। हस्तिनापुर प्राचीन समय से ही अपने अन्दर विभिन्न इतिहास समेटे हुए है ” कहते हैं कि सन् १९४८ में भारत के प्रधानमंत्री स्व. पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उजड़े हुए हस्तिनापुर को पुनः बसाया था जो कि ‘‘हस्तिनापुर सेन्ट्रल टाउन’’ के नाम से जाना जाता है। वहाँ आज लगभग २० हजार की जनसंख्या है एवं शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, डाक व्यवस्था, आवागमन सुविधा आदि के समस्त साधन वहाँ सरकार की ओर से उपलब्ध हैं। टाउनेरिया की सक्रियता से हस्तिनापुर कसबे की सारी जनता प्रसन्नतापूर्वक अपना जीवन यापन करती है। यहाँ हिन्दू-मुसलमान, पंजाबी-बंगाली सभी जाति के लोग जातीय एकता के साथ अपने-अपने धर्म एवं ईश्वर की उपासना करते हैं।
ऐतिहासिक तीर्थक्षेत्र हस्तिनापुर अयोध्या के समान ही अत्यन्त प्राचीन एवं पवित्र माना जाता है। जिस प्रकार जैन पुराणों के अनुसार अयोध्या नगरी की रचना देवों ने की थी, उसी प्रकार युग के प्रारंभ में हस्तिनापुर की रचना भी देवों द्वारा की गयी थी। हस्तिनापुर में जैन धर्म के तीन तीर्थंकर शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ ने जन्म लिया । इतना ही नहीं, इन तीनों जिनवरों के चार-चार कल्याणक (गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान) हस्तिनापुर में इन्द्रों ने मनाए हैं ऐसा वर्णन जैन ग्रंथों में है। आज से लगभग पौन पल्य ६६ लाख ८६ हजार ५२९ वर्ष पूर्व हस्तिनापुर के राजा विश्वसेन की महारानी ऐरादेवी की पवित्र कुक्षि से ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन सोलहवें तीर्थंकर भगवान शांतिनाथ ने जन्म लिया था। पुन: राजा सूरसेन की महारानी श्रीकांता ने वैशाख शुक्ला एकम् तिथि में सत्रहवें तीर्थंकर कुन्थुनाथ को जन्म दिया तथा राजा सुदर्शन की महादेवी मित्रसेना के पवित्र गर्भ से मगशिर शु. १४ को १८वें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ का जन्म हुआ था। इस प्रकार तीन बार यहाँ पर १५-१५ मास तक कुबेर ने अगणित रत्नों की वृष्टि की थी अत: रत्नगर्भा नाम से सार्थक यह भूमि प्राणिमात्र को रत्नत्रय धारण करने की प्रेरणा प्रदान करती है। ये तीनों तीर्थंकर चक्रवर्ती और कामदेव पदवी के धारक भी थे। प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव को एक वर्ष ३९ दिन के उपवास के पश्चात् हस्तिनापुर में ही युवराज श्रेयांस एवं राजा सोमप्रभ ने इक्षुरस का प्रथम आहार दिया था। उस समय भी वहाँ पर देवों द्वारा पंचाश्चर्य वृष्टि की गई थी एवं सम्राट् चक्रवर्ती भरत ने अयोध्या से हस्तिनापुर जाकर राजा श्रेयांस का सम्मान करके उन्हेंं ‘‘दानतीर्थ प्रवर्तक’’ की पदवी से अलंकृत किया था। पुराण ग्रंथों में वर्णन आता है कि भरत ने उस प्रथम आहार की स्मृति में हस्तिनापुर की धरती पर एक स्तूप का निर्माण करवाया था। आज तो उसका कोई अवशेष देखने को नहीं मिलता है किन्तु इससे यह ज्ञात होता है कि धर्मतीर्थ एवं दानतीर्थ की प्रशस्ति का उल्लेख उसमें अवश्य होगा। काल के थपेड़ों में वह इतिहास आज समाप्त प्राय हो गया किन्तु हस्तिनापुर एवं उसके आसपास में इक्षु-गन्ने की हरी-भरी खेती आज भी इस बात का परिचय कराती है कि कोड़ाकोड़ी वर्ष पूर्व भगवान के द्वारा आहार में लिया गया गन्ने का रस वास्तव में अक्षय हो गया है। इसीलिए उस क्षेत्र में अनेक शुगर फैक्ट्री तथा केशर गुड, खांड और चीनी बनाकर देश के विभिन्न नगरों में भेजते हैं। इसी प्रकार से हस्तिनापुर की पावन वसुन्धरा पर रक्षाबन्धन कथानक, महाभारत का इतिहास, मनोवती की दर्शन प्रतिज्ञा की प्रारम्भिक कहानी, राजा अशोक व रोहिणी का कथानक आदि प्राचीन इतिहास प्रसिद्ध हुए हैं। जिनका वर्णन प्राचीन ग्रंथों में प्राप्त होता है और हस्तिनापुर नगरी की ऐतिहासिकता सिद्ध होती है।
भगवान आदिनाथ का प्रथम आहार- हस्तिनापुर तीर्थ तीर्थों का राजा है। यह धर्म प्रचार का आद्य केन्द्र रहा है। यहीं से धर्म की परम्परा का शुभारंभ हुआ। यह वह महातीर्थ है जहाँ से दान की प्रेरणा संसार ने प्राप्त की। भगवान आदिनाथ ने जब दीक्षा धारण की उस समय उनके देखा-देखी चार हजार राजाओं ने भी दीक्षा धारण की। भगवान ने केशलोंच किया, उन सबने भी केशलोंच किया, भगवान ने वस्त्रों का त्याग किया, उसी प्रकार से उन राजाओं ने भी नग्न दिगम्बर अवस्था धारण कर ली। भगवान हाथ लटकाकर ध्यान मुद्रा में खड़े हो गये, वे सभी राजागण भी उसी प्रकार से ध्यान करने लगे किन्तु तीन दिन के बाद उन सभी को भूख-प्यास की बाधा सताने लगी। वे बार-बार भगवान की तरफ देखते किन्तु भगवान तो मौन धारण करके नासाग्र दृष्टि किये हुए अचल खड़े थे, एक-दो दिन के लिए नहीं पूरे छह माह के लिए अतः उन राजाओं (मुनियों) ने बेचैन होकर जंगल के फल खाना एवं झरनों का पानी पीना प्रारंभ कर दिया। उसी समय वन देवता ने प्रगट होकर उन्हें रोका कि-‘‘मुनि वेश में इस प्रकार से अनर्गल प्रवृत्ति मत करो। यदि भूख-प्यास का कष्ट सहन नहीं हो पाता है, तो इस जगत पूज्य मुनि पद को छोड़ दो।’’ तब सभी राजाओं ने मुनि पद को छोड़कर अन्य वेष धारण कर लिये। किसी ने जटा बढ़ा ली, किसी ने बल्कल धारण कर ली, किसी ने भस्म लपेट ली, कोई कुटी बनाकर रहने लगे इत्यादि।
भगवान ऋषभदेव का छह माह के पश्चात् ध्यान विसर्जित हुआ, वैसे तो भगवान का बिना आहार किये भी काम चल सकता था किन्तु भविष्य में भी मुनि बनते रहें, मोक्षमार्ग चलता रहे, इसके लिए आहार के लिए निकले किन्तु उनको कहीं पर भी विधिपूर्वक एवं शुद्ध प्रासुक आहार नहीं मिल पा रहा था। सभी प्रदेशों में भ्रमण हो रहा था किन्तु कहीं भी दातार नहीं मिल रहा था। कारण यह था कि उनसे पूर्व में भोगभूमि की व्यवस्था थी। लोगों को जीवनयापन की सामग्री-भोजन, मकान, वस्त्र, आभूषण आदि सब कल्पवृक्षों से प्राप्त हो जाते थे। जब भोगभूमि की व्यवस्था समाप्त हुई, तब कर्मभूमि में कर्म करके जीवनोपयोगी सामग्री प्राप्त करने की कला भगवान के पिता नाभिराय ने एवं स्वयं भगवान ऋषभदेव ने सिखाई। असि, मसि, कृषि, सेवा, शिल्प एवं वाणिज्य करके जीवन जीने का मार्ग बतलाया। सब कुछ बतलाया किन्तु दिगम्बर मुनियों को किस विधि से आहार दिया जावे, इस विधि को नहीं बतलाया। जिस इन्द्र ने भगवान ऋषभदेव के गर्भ में आने से छह माह पहले से रत्नवृष्टि प्रारंभ कर दी थी, पाँचों कल्याणकों में स्वयं इन्द्र प्रतिक्षण उपस्थित रहता था किन्तु जब भगवान प्रासुक आहार प्राप्त करने के लिए भ्रमण कर रहे थे, तब वह भी नहीं आ पाया। सम्पूर्ण प्रदेशों में भ्रमण करने के पश्चात् हस्तिनापुर आगमन से पूर्व रात्रि के पिछले प्रहर में यहाँ के राजा श्रेयांस को सात स्वप्न दिखाई दिये, जिसमें प्रथम स्वप्न में सुदर्शन मेरु पर्वत दिखाई दिया। प्रातःकाल में उन्होंने ज्योतिषी को बुलाकर उन स्वप्नों का फल पूछा, तब ज्योतिषी ने बताया कि जिनका मेरु पर्वत पर अभिषेक हुआ है, जो सुमेरु के समान महान् हैं, ऐसे तीर्थंकर भगवान के दर्शनों का लाभ प्राप्त होगा। कुछ ही देर बाद भगवान ऋषभदेव का हस्तिनापुर नगरी में मंगल पदार्पण हुआ। भगवान का दर्शन करते ही राजा श्रेयांस को जातिस्मरण हो गया, उन्हेें आठ भवपूर्व का स्मरण हो आया। जब भगवान ऋषभदेव राजा वज्रजंघ की अवस्था में व स्वयं राजा श्रेयांस वज्रजंघ की पत्नी रानी श्रीमती की अवस्था में थे और उन्होंने चारण ऋद्धिधारी मुनियों को नवधा भक्तिपूर्वक आहारदान दिया था, तभी राजा श्रेयांस समझ गये कि भगवान आहार के लिए निकले हैं। यह ज्ञान होते ही वे अपने राजमहल के दरवाजे पर खड़े होकर मंगल वस्तुओं को हाथ में लेकर भगवान का पड़गाहन करने लगे।
हे स्वामी! नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु अत्र तिष्ठ तिष्ठ……..विधि मिलते ही भगवान राजा श्रेयांस के आगे खड़े हो गये। राजा श्रेयांस ने पुनः निवेदन किया-मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि, आहार जल शुद्ध है, भोजनशाला में प्रवेश कीजिये। चौके में ले जाकर पाद प्रक्षाल करके पूजन की एवं इक्षुरस का आहार दिया। आहार होते ही देवों ने पंचाश्चर्य की वृष्टि की। चार प्रकार के दानों में से केवल आहार दान के अवसर पर ही पंचाश्चर्य वृष्टि होती है। भगवान जैसे पात्र का लाभ मिलने पर उस राजा श्रेयांस की भोजनशाला में उस दिन भोजन अक्षय हो गया। शहर के सारे नर-नारी भोजन कर गये, तब भी भोजन जितना था उतना ही बना रहा। एक वर्ष के उपवास के बाद हस्तिनापुर में जब भगवान का प्रथम आहार हुआ तो समस्त पृथ्वीमंडल पर हस्तिनापुर के नाम की धूम मच गई, सर्वत्र राजा श्रेयांस की प्रशंसा होने लगी। अयोध्या से भरत चक्रवर्ती ने आकर राजा श्रेयांस का भव्य समारोहपूर्वक सम्मान किया तथा प्रथम आहार की स्मृति में यहाँ एक विशाल स्तूप का निर्माण कराया। दान के कारण ही भगवान आदिनाथ के साथ राजा श्रेयांस को भी याद करते हैं। जिस दिन यहाँ प्रथम आहार दान हुआ, वह दिन वैशाख सुदी तीज का था। तब से आज तक वह दिन प्रतिवर्ष पर्व के रूप में मनाया जाता है। अब उसे आखा तीज या अक्षय तृतीया कहते हैं।
इस प्रकार दान की परम्परा हस्तिनापुर से प्रारंभ हुई। दान के कारण ही धर्म की परम्परा भी तब से अब तक बराबर चली आ रही है क्योंकि मंदिरों का निर्माण, मूर्तियों का निर्माण, शास्त्रों का प्रकाशन, मुनि संघों का विहार, दान से ही संभव है और यह दान श्रावकों के द्वारा ही होता है। श्रवणबेलगोल में एक हजार साल से खड़ी भगवान बाहुबली की विशाल प्रतिमा भी चामुण्डराय के दान का ही प्रतिफल है, जो कि असंख्य भव्य जीवों को दिगम्बरत्व का, आत्मशांति का पावन संदेश बिना बोले ही दे रही है। यहाँ बनी यह जम्बूद्वीप की रचना भी संपूर्ण भारतवर्ष के लाखों नर-नारियों के द्वारा उदार भावों से प्रदत्त दान के कारण मात्र दस वर्ष में बनकर तैयार हो गई, जो कि सम्पूर्ण संसार के लिए आकर्षण का केन्द्र बन गई है। जम्बूद्वीप की रचना सारी दुनिया में अभी केवल यहाँ हस्तिनापुर में ही देखने को मिल सकती है। नंदीश्वर द्वीप की रचना, समवसरण की रचना तो अनेक स्थलों पर बनी है और बन रही है। यह हमारा व आप सबका परम सौभाग्य है कि हमारे जीवनकाल में ऐसी भव्य रचना बनकर तैयार हो गई और उसके दर्शनों का लाभ सभी को प्राप्त हो रहा है। भगवान आदिनाथ के प्रथम आहार के उपलक्ष्य में वह तिथि पर्व के रूप में मनाई जाने लगी, वह दिन इतना महान हो गया कि कोई भी शुभ कार्य उस दिन बिना किसी ज्योतिषी से पूछे कर लिया जाता है। जितने विवाह अक्षय तृतीया के दिन होते हैं उतने शायद ही अन्य किसी दिन होते हों और तो और जब से भगवान का प्रथम आहार इक्षुरस का हुआ, तब से इस क्षेत्र में गन्ना भी अक्षय हो गया, जिधर देखों उधर गन्ना ही गन्ना नजर आता है। सड़क पर गाड़ी में आते-जाते बिना खाये मुँह मीठा हो जाता है। कदम-कदम पर गुड़, शक्कर बनता दिखाई देता है। हस्तिनापुर में आने वाले प्रत्येक यात्री को जम्बूद्वीप प्रवेश द्वार पर भगवान के आहार के प्रसाद रूप में यहाँ लगभग बारह महीने इक्षुरस पीने को मिलता है।
भगवान आदिनाथ के पश्चात् अनेक महापुरुषों का इस पुण्य धरा पर आगमन होता रहा है। भगवान शांतिनाथ, कुंथुनाथ एवं अरहनाथ के चार-चार कल्याणक यहाँ हुए हैं। तीनों तीर्थंकर चक्रवर्ती एवं कामदेव पद के धारी थे। तीनों तीर्थकरों ने यहाँ से समस्त छह खण्ड पृथ्वी पर राज्य किया किन्तु उन्हें शांति की प्राप्ति नहीं हुई। छियानवे हजार रानियाँ भी उन्हें सुख प्रदान नहीं कर सकीं अतएव उन्होंने सम्पूर्ण आरंभ परिग्रह का त्याग कर नग्न दिगम्बर अवस्था धारण की, मुनि बन गये। जैसा कि आज भी वैराग्यभावना में पढ़ा जाता है- छोड़े चौदह रत्न नवों निधि, अरु छोड़े संग साथी। कोटि अठारह घोड़े छोड़े, चौरासी लख हाथी। इत्यादिक संपति बहुतेरी जीरण तृण सम त्यागी। नीति विचार नियोगी सुत को, राज दियो बड़भागी। भगवान शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ ने महान तपश्चर्या करके दिव्य केवलज्ञान की प्राप्ति की। उनकी ज्ञान ज्योति के प्रकाश से अनेकोें भव्य जीवों का मोक्षमार्ग प्रशस्त हुआ। अंत में उन्होंने सम्मेदशिखर से निर्वाण प्राप्त किया। आज प्रतिमाह हजारों लोग उन तीर्थंकरों की चरण रज से पवित्र उस पुण्यधरा की वंदना करने आते हैं। उस पुनीत माटी को मस्तक पर चढ़ाते हैं। उन तीनों तीर्थंकर भगवन्तों की ३१-३१ फुट विशाल खड्गासन प्रतिमाएँ जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में विराजमान हो जाने से तीर्थ का प्राचीन इतिहास जीवन्त हो गया है।
महाभारत की विश्व विख्यात घटना भगवान नेमीनाथ के समय में यहाँ घटित हुई। यह वही हस्तिनापुर है, जहाँ कौरव पांडव ने राज्य किया। सौ कौरव भी पाँच पांडवों को हरा नहीं सके। क्या कारण था? कौरव अनीतिवान थे, अन्यायी थे, अत्याचारी थे, ईर्ष्यालु थे, द्वेषी थे। उनमें अभिमान बाल्यकाल से ही कूट-कूट कर भरा हुआ था। पांडव प्रारंभ से धीर-वीर-गंभीर थे। सत्य आचरण करने वाले थे। न्याय-नीति से चलते थे। सहिष्णु थे। इसलिए पांडवों ने विजय प्राप्त की। यहाँ तक कि पांडव भी सती सीता की तरह अग्नि परीक्षा में सफल हुए। कौरवों के द्वारा बनाये गये जलते हुए लाक्षागृह से भी णमोकार महामंत्र का स्मरण करते हुए एक सुरंग के रास्ते से बच निकले। वे दूसरी बार पुनः अग्नि परीक्षा में सफल हुए, जब शत्रुंजय में नग्न दिगम्बर मुनि अवस्था में ध्यान में लीन थे, उस समय दुर्योधन के भानजे कुर्युधर ने लोहे के आभूषण बनवाकर गरम करके पहना दिये। जिसके फलस्वरूप बाहर से उनका शरीर जल रहा था और भीतर से कर्म जल रहे थे। उसी समय सम्पूर्ण कर्म जलकर भस्म हो गये और अंतकृत केवली बनकर तीन पांडवों ने निर्वाण प्राप्त किया और नकुल, सहदेव उपशम श्रेणी का आरोहरण करके ग्यारहवें गुणस्थान में मरण को प्राप्त करके सर्वार्थसिद्धि गये। कौरव-पांडव तो आज भी घर-घर में देखने को मिलते हैं। यदि विजय प्राप्त करना है, तो पांडवों के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। सदैव न्याय-नीति से चलना चाहिए। तभी पांडवों की तरह यश की प्राप्ति होगी। धर्म की सदा जय होती है।
एक समय हस्तिनापुर में अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों का संघ आया हुआ था। उस समय यहाँ महापद्म चक्रवर्ती के पुत्र राजा पद्म राज्य करते थे। उनसे कारणवश बली मंत्री ने वरदान के रूप में सात दिन का राज्य माँग लिया। राज्य लेकर बली ने अपने पूर्व अपमान का बदला लेने के लिए जहाँ सात सौ मुनि विराजमान थे, वहाँ उनके चारों ओर यज्ञ के बहाने अग्नि प्रज्वलित कर दी। उपसर्ग समझकर सभी मुनिराज शांत परिणाम से ध्यान में लीन हो गये। दूसरी तरफ उज्जैनी में विराजमान विष्णुकुमार मुनिराज को मिथिला नगरी में चातुर्मास कर रहे मुनिश्री श्रुतसागर जी के द्वारा भेजे गये क्षुल्लक श्री पुष्पदंत से सूचना प्राप्त हुई कि हस्तिनापुर में मुनियों पर घोर उपसर्ग हो रहा है और उसे आप ही दूर कर सकते हैं। यह समाचार सुनकर परम करुणामूर्ति विष्णुकुमार मुनिराज के मन में साधर्मी मुनियों के प्रति तीव्र वात्सल्य की भावना जागृत हुई। तपस्या से उन्हें विक्रिया ऋद्धि उत्पन्न हो गई थी। वे वात्सल्य भावना से ओतप्रोत होकर उज्जैनी से चातुर्मास काल में हस्तिनापुर आते हैं। अपनी पूर्व अवस्था के भाई वहाँ के राजा पद्म को डांटते हैं। राजा उनसे निवेदन करते हैं-हे मुनिराज! आप ही इस उपसर्ग को दूर करने में समर्थ हैं, तब मुनि विष्णुकुमार ने वामन का वेष बनाकर बलि से तीन कदम जमीन दान में मांगी। बलि ने देने का संकल्प किया। मुनिराज ने विक्रिया ऋद्धि से विशाल शरीर बनाकर दो कदम में सारा अढ़ाई द्वीप नाप लिया, तीसरा पैर रखने की जगह नहीं मिली। चारों तरफ त्राहिमाम् होने लगा। रक्षा करो, क्षमा करो की ध्वनि गूंजने लगी। बलि ने भी क्षमा मांगी। मुनिराज तो क्षमा के भंडार होते ही हैं, उन्होंने बलि को क्षमा प्रदानकर की। उपसर्ग दूर होने पर विष्णुकुमार ने पुनः दीक्षा धारण की। सभी ने मिलकर विष्णुकुमार की बहुत भारी पूजा की। अगले दिन श्रावकों ने भक्ति से मुनियों को सिवई की खीर का आहार दिया और आपस में एक-दूसरे को रक्षा सूत्र बाँधे। यह निश्चय किया कि विष्णुकुमार मुनिराज की तरह वात्सल्य भावनापूर्वक धर्म एवं धर्मायतनों की रक्षा करेंगे। तभी से वह दिन प्रतिवर्ष रक्षाबंधन पर्व के रूप में श्रावण सुदी पूर्णिमा को मनाया जाने लगा। इसी दिन बहनें भाइयों के हाथ में राखी बाँधती हैं। अब आगे से रक्षाबंधन के दिन हस्तिनापुर का स्मरण करें। देव-शास्त्र-गुरु के प्रति तन-मन-धन न्योछावर कर दें। साधर्मी के प्रति वात्सल्य की भावना रखें। तभी रक्षाबंधन पर्व मनाना सार्थक हो सकता है।
गजमोती चढ़ाकर भगवान के दर्शन कर भोजन करने का अटल नियम निभाने वाली इतिहास प्रसिद्ध महिला मनोवती भी इसी हस्तिनापुर की थी। यह नियम उसने विवाह के पूर्व लिया था। विवाह के पश्चात् जब ससुराल गई, तो वहाँ संकोचवश कह नहीं पाई। तीन दिन तक उपवास हो गया। जब उसके पीहर में सूचना पहुँची, तो भाई आया, उसे एकांत में मनोवती ने सब बात बता दी। उसके भाई ने मनोवती के स्वसुर को बताया, तो उसके स्वसुर ने कहा कि हमारे यहाँ तो गजमोती का कोठार भरा है। तभी मनोवती ने गजमोती चढ़ाकर भगवान के दर्शन करके भोजन किया। इसके बाद मनोवती को तो उसका भाई अपने घर लिवा ले गया। इधर उन मोतियों के चढ़ाने से इस परिवार पर राजकीय आपत्ति आ गई, जिसके कारण मनोवती के पति बुधसेन के छहों भाइयों ने मिलकर उन दोनों को घर से निकाल दिया। घर से निकलने के बाद मनोवती ने तब तक भोजन नहीं किया, जब तक गजमोती चढ़ाकर भगवान के दर्शनों का लाभ नहीं मिला। जब चलते-चलते थक गये, तो रास्ते में सो गये, पिछले रात्रि में उन्हें स्वप्न होता है कि तुम्हारे निकट ही मंदिर है शिला हटाकर दर्शन करो। उठकर संकेत के अनुसार शिला हटाते ही भगवान के दर्शन हुए। वहीं पर चढ़ाने के लिए गजमोती मिल गये। दर्शन करके भोजन किया। आगे चलकर पुण्ययोग से बुधसेन राजा के जमाई बन गये। इधर वे छहों भाई अत्यन्त दरिद्र अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं। गाँव छोड़कर कार्य की तलाश में घूमते-घूमते छहों भाई, उनकी पत्नियाँ व माता-पिता सभी वहाँ पहुँचते हैं, जहाँ बुधसेन जिनमंदिर का निर्माण करा रहे थे। लोगों ने उन्हें बताया कि आप बुधसेन के यहाँ जाओ आपको वे काम पर लगा लेंगे। वे सभी वहाँ पहुँचे, उनको काम पर लगाया, बुधसेन मनोवती उन्हें पहचान गये अन्त में सबका मिलन हुआ। सभी भाइयों-भौजाइयोें तथा माता-पिता ने क्षमायाचना की। धर्म की जय हुई। इस घटना से यही शिक्षा मिलती है कि आपस में सबको मिलकर रहना चाहिए। न मालूम किसके पुण्ययोग से घर में सुख-शांति और समृद्धि होती है।
सुलोचना जयकुमार- महाराज सोम के पुत्र जयकुमार भरत चक्रवर्ती के प्रधान सेनापति हुए। उनकी धर्म परायणशील शिरोमणि धर्मपत्नी सुलोचना की भक्ति के कारण गंगा नदी के मध्य आया हुआ उपसर्ग दूर हुआ। रोहिणी व्रत की कथा का घटनास्थल भी यही हस्तिनापुर तीर्थ है। जम्बूद्वीप की रचना- अनेक घटनाओं की श्रृंखला के क्रम में एक और मजबूत कड़ी के रूप में जुड़ गई जम्बूद्वीप की रचना। इस रचना ने विस्मृत हस्तिनापुर को पुनः संसार के स्मृति पटल पर अंकित कर दिया। न केवल भारत के कोने-कोने में अपितु विश्वभर में जम्बूद्वीप रचना के दर्शन की चर्चा रहती है। जैन जगत में ही नहीं प्रत्युत्त वर्तमान दुनिया में पहली बार हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप रचना का विशाल खुले मैदान पर भव्य निर्माण हुआ है, जो कि गणिनी र्आियका ज्ञानमती माताजी के ज्ञान व उनकी प्रेरणा का प्रतिफल है। सन् १९६५ में श्रवणबेलगोल स्थत भगवान बाहुबली के चरणों में ध्यान करते हुए इन्हें तेरहद्वीप रचना के दिव्य दर्शन हुए थे, उसमें से एकमात्र जम्बूद्वीप को बीस वर्ष के पश्चात् यहाँ हस्तिनापुर में आकर साकार रूप प्राप्त हुआ। वर्तमान में जम्बूद्वीप रचना दर्शन के निमित्त से ही लाखों जैन-जैनेतर दर्शनार्थी हस्तिनापुर आने का सौभाग्य प्राप्त करते हैं। तेरहद्वीप की स्वर्णिम रचना -पुनश्च उस पूरी तेरहद्वीप रचना का निर्माण भी पूज्य माताजी की प्रेरणा से जम्बूद्वीप तीर्थ परिसर में एक विशाल गोलाकार जिनालय के अन्दर हुई है। उसमें पंचमेरु पर्वत सहित ४५८ अकृत्रिम चैत्यालय, १७० समवसरण एवं ८२१ देवभवन आदि में कुल २१२७ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं। इस स्वर्णिम रचना के दर्शन करके भक्तगण अभूतपूर्व आल्हाद का अनुभव करते हैं। हस्तिनापुर आने वाले सभी दर्शर्नािथयों के मुख से एक स्वर से यही कहते हुए सुनने में आता है कि हमें तो कल्पना भी नहीं थी कि इतनी आकर्षक जम्बूद्वीप एवं तेरहद्वीप की रचना बनी होगी, ऐसा लगता है मानो यहाँ स्वर्ग ही उतर आया हो। तीन लोक की अद्वितीय रचना- करणानुयोग ग्रंथ के अनुसार पूज्य माताजी ने हस्तिनापुर की धरती पर तीन लोक की रचना भी बनाने की प्रेरणा दी, जिसके फलस्वरूप ५६ फुट उत्तुंग वह रचना भी बनकर तैयार हो गई है। इसमें अधोलोक में ७ नरक के साथ-साथ प्रथम पृथ्वी के खर-पंक भाग में भवनवासी देवों के जिनमंदिर, मध्यलोक में अकृत्रिम मंदिरों एवं ऊध्र्वलोक में स्वर्ग की रचना, इन्द्रों के महल-मंदिर आदि तथा लोक के अग्रभाग पर अर्ध चन्द्राकार सिद्धशिला का रूपक दर्शाया गया है। पूज्य माताजी ने जम्बूद्वीप आदि रचनाओं के निर्माण की प्रेरणा तो दी ही, साहित्य निर्माण के क्षेत्र में भी अद्भुत र्कीितमान स्थापित किया है। अढ़ाई हजार वर्ष में दिगम्बर जैन समाज में ज्ञानमती माताजी पहली आर्यिका माता हैं, जिन्होंने गंथों की रचना की है। अब से पहले के लिखे जितने भी ग्रंथ उपलब्ध होते हैंं वे सब पुरुष वर्ग के द्वारा लिखे गये हैं, आचार्यों ने लिखे, मुनियों ने लिखे या पंडितों ने लिखे। किसी र्आियका माता द्वारा लिखा एक भी ग्रंथ किसी ग्रंथ भंडार में देखने में नहीं आया। पूज्य ज्ञानमती माताजी ने त्याग और संयम को धारण करते हुए एक-दो नहीं २५० से भी अधिक छोटे-बड़े गंथों का सृजन किया। न्याय, व्याकरण, सिद्धांत, अध्यात्म आदि विविध विषयों के ग्रंथों की टीका आदि की। भाqक्तपरक पूजाओं के निर्माण में उल्लेखनीय कार्य किया है। इन्द्रध्वज विधान, कल्पदु्रम विधान, सर्वतोभद्र विधान, जम्बूद्वीप विधान जैसी अनुपम कृतियों का सृजन किया। सभी वर्ग के व्याक्तयों को दृष्टि में रखकर माताजी ने विभिन्न रुचि के साहित्य की रचनाएँ की। प्राचीन र्धािमक कथाओं को उपन्यास की शैली में लिखा है। अब तक माताजी की कृतियों का प्रकाशन विभिन्न भाषाओं में दस लाख से अधिक मात्रा में हो चुका है। पूज्य माताजी की लेखनी अभी भी चलती रहती है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव द्वारा रचित समयसार की आचार्य अमृतचंद्र एवं आचार्य जयसेनकृत संस्कृत टीकाओं का हिन्दी अनुवाद किया। जो कि काफी समय पूर्व छपकर जन-जन के हाथों में पहुँच चुका है। इसी प्रकार उन्होंने षट्खण्डागम सूत्रग्रंथ की सोलहों पुस्तकों की ‘‘सिद्धान्तचिंतामणि’’ नामक सरल संस्कृत टीका भी ३१०७ पृष्ठों में पूर्ण करके समाज को प्रदान किया है। प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी द्वारा क्रमश: उनकी हिन्दी टीकाएँ लिखी जा रही हैं और वे भी यथाक्रम प्रकाशित हो रहे हैं। अन्य प्रकाशन कार्य भी सतत चल रहा है। अनेक निर्माणात्मक एवं साहित्यिक, ऐतिहासिक कृतियों से समन्वित ऐसे दानतीर्थ हस्तिनापुर क्षेत्र का दर्शन महान् पुण्य फल को देने वाला है। यह तीर्थक्षेत्र युगों-युगों तक पृथ्वी तल पर धर्म की वर्षा करता रहे, यही मंगल भावना है।
हस्तिनापुर नगरी भगवान शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ तीन तीर्थंकरों की जन्मभूमि है। इससे पूर्व युग की आदि में सर्वप्रथम भगवान ऋषभदेव को राजा श्रेयांस ने नवधाभक्तिपूर्वक पड़गाहन कर इक्षुरस का आहार दिया था। तभी से अक्षयतृतीया पर्व मनाया जाता है। ऐसी अनेक ऐतिहासिक घटनाएँ इस पावन तीर्थ से सम्बद्ध हैं। रक्षाबंधन पर्व, महाभारत का युद्ध, रोहिणी व्रत की कथा, मनोवती की दर्शन कथा आदि अनेक पौराणिक कथानक इस धरती से ही प्रसिद्ध हुए हैं। प्राचीन समय से यहाँ भगवान शांतिनाथ का मंदिर निर्मित था किन्तु जब पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से यहाँ जम्बूद्वीप की रचना का निर्माण हुआ, तब से वहाँ की काया ही पलट गई और विश्व के कोने-कोने में हस्तिनापुर का नाम प्रचलित हो गया। पूज्य अभयमती माताजी ने अपनी लेखनी से इस पुस्तक के माध्यम से यहाँ का प्राचीन इतिहास लिखा है। साथ ही हस्तिनापुर तीर्थ की पूजा, यहाँ की घटनाओं से संबंधित रक्षाबंधन पूजा, विष्णुकुमार महामुनि पूजा, पंचमेरु पूजा, नंदीश्वर पूजा, समवसरण पूजा आदि को लिखकर तीर्थ के प्रति अपने भक्ति सुमन अर्पित किये हैं। भगवान शांतिनाथ चालीसा, भजन, आरती भी प्रकाशित हैं। इस पुस्तक के द्वारा तीर्थ की सभी प्राचीन घटनाओं से परिचित हों यही उद्देश्य लेकर पूज्य अभयमती माताजी ने यह पुस्तक पाठकों तक पहुँचाई है। भगवान शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ तीर्थंकरत्रय भगवान हमें शांति प्रदान करें, यही मंगल भावना है।
मध्यलोक अकृत्रिम जिन मंदिर निर्माणाधीन: पूज्य माताजी की प्रेरणा से जहाँ जम्बूद्वीप रचना का खुले रूप में निर्माण हुआ है। वहीं उनकी पुरानी रूपरेखानुसार सन् १९९० में तेरह द्वीप के ४५८ अकृत्रिम जिनबिम्बों की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई थी पुनः एक विशाल जिनमंदिर का निर्माण लगभग ५ फरवरी १९९३ से प्रारंभ हुआ। मंदिर का निर्माण लगभग पूर्ण हो गया है। अतः उसके अन्दर शास्त्रीय विधि से मध्यलोक के तेरह द्वीपों की सुन्दर अकृत्रिम रचना बनते ही समस्त जिन प्रतिमाएं उसमें विराजमान होंगी और सन् १९६५ में की गई पूज्य माताजी की ध्यान साधना साकार रूप लेकर देश के समक्ष आएगी।
सन् १९७४ में जब से हस्तिनापुर की धरा पर परमपूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी ने जम्बूद्वीप रचना का शिलान्यास करवाया, तब से तो वहाँ की ख्याति देश-विदेश में फैल गई है। १०१ फुट ऊँचे सुमेरु पर्वत से समन्वित जम्बूद्वीप की रचना में विराजमान २०५ जिनबिम्ब जहाँ श्रद्धालुओं के पापक्षय में निमित्त हैं, वहीं गंगा-सिंधु आदि नदियाँ, हिमवन आदि पर्वत, भरत-ऐरावत आदि क्षेत्र, लवण समुद्र जनमानस के लिए मनोरंजन के साधन भी हैं। बिजली-फौव्वारों की तथा हरियााली की प्राकृतिक शोभा देखने हेतु दूर-दूर से लोग जाकर वहाँ स्वर्ग सुख जैसी अनुभूति करते हैं। जम्बूद्वीप के उस परिसर में कमल मंदिर ध्यानमंदिर, तीनमूर्ति मंदिर, शान्तिनाथ मंदिर, वासुपूज्य मंदिर, ॐ मंदिर, सहस्रकूट मंदिर, विद्यमान बीस तीर्थंकर मंदिर, भगवान ऋषभदेव मंदिर, ऋषभदेव कीर्तिस्तंभ, ऐतिहासिक कैलाशपर्वत भवन , ज्ञानमती कला मंदिर, जम्बूद्वीप पुस्तकालय, णमोकार महामंत्र बैंक आदि हैं जो भक्तों को भक्ति और ध्यान अध्ययन की प्रेरणा प्रदान करते हैं।
मेले-हस्तिनापुर तीर्थ पर वर्ष में दिगम्बर-श्वेताम्बर समाज के कई मेले आयोजित होते हैं। जिनमें से कार्तिक पूर्णिमा का मेला सर्वप्रमुख है जिसमें जैन समाज से अतिरिक्त अजैन समाज भी भारी संख्या में पहुँचकर गंगा स्नान करता है इसलिए इस मेले को ‘‘गंगास्नान मेला’’ के नाम से भी जाना जाता है। इसी प्रकार चैत्र कृष्णा एकम (होली मेला), अक्षयतृतीया , ज्येष्ठ वदी चौदस ये हस्तिनापुर के प्रमुख मेले हैं तथा समय-समय पर अन्य आयोजन भी वहाँ होते ही रहते हैं। वर्तमान में हस्तिनापुर पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की तपःसाधना का केन्द्र बनकर संसार की दृष्टि में बस गया है। उनके पावन सानिध्य में केन्द्रीय एवं प्रादेशिक स्तर के अनेक उच्चकोटि के राजनेता पधार चुके हैं यही कारण है कि मेरठ कमिश्नरी का प्रशासन जम्बूद्वीप के नाम से ही श्रद्धावनत है और वहाँ के लघु संकेत पर समस्त सुविधाएं देने को तैयार रहता है।
जम्बूद्वीप के प्रमुख द्वार तक प्रतिदिन दिल्ली और मेरठ की १०-१५ रोडवेज बसें सुबह से शाम तक यात्रियों को लाती और वहाँ से ले जाती हैं। वहाँ उतर कर कल्पवृक्ष द्वार में घुसते ही हर नर-नारी के मुँह से सर्वप्रथम यही निकलता है कि-‘‘ऐसा लगता है स्वर्ग में आ गए’’। पुनः वहाँ भ्रमण करने के पश्चात् वे लोग परिसर की स्वच्छता का गुणगान करते नहीं थकते हैं। पूरे स्थल पर कहीं कागज का एक टुकड़ा भी पड़ा नहीं दिखता जो वहाँ के सौन्दर्य में बाधक हो। इन सबसे प्रभावित होकर ही उत्तरप्रदेश सरकार के पर्यटन विभाग ने जम्बूद्वीप रचना के चित्र से हस्तिनापुर की पहचान बनाते हुए विभाग द्वारा प्रकाशित फोल्डर में लिखा है- jambudweep is the…….has today blossomed into a man-made heaven of unparallel superlatives and natural wonders. हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र पर पहुँचने वाले प्रत्येक तीर्थयात्री के लिए जम्बूद्वीप स्थल पर लगभग २०० कमरे हैं जिनमें से अधिकतर डीलक्स फ्लैट और अनेक कोठियाँ भी आधुनिक सुविधायुक्त हर समय तैयार रहते हैं। आवास सुविधा के साथ-साथ शुद्ध निःशुल्क विशाल भोजनालय अपने अतिथियों की सुबह से शाम तक सेवा में तत्पर हैं। जगह-जगह पानी की सुविधा हेतु जलपरी, वाटरकूलर, हैण्डपम्प, नल आदि उपलब्ध हैं। इन सबके अतिरिक्त वहाँ नित्य ही नवनिर्माण का कार्य चालू रहता है। सुन्दर पक्की सड़के, हरे-हरे लॉन, फूलों के उद्यान, झूले, नाव, खेल के मैदान, बच्चों की रेल, ऐरावत हाथी आदि परिसर की शोभा में चार चाँद लगाते हैं। कभी-कभी बिजली न होने पर यात्री देर रात तक रुककर जम्बूद्वीप के लाइट-फव्वारे की शोभा देखकर ही वापस जाने की इच्छा रखते हैं।
यह भी देखे हस्तिनापुर तीर्थ पूजा हस्तिनापुर में आये हुए यात्री भगवान् की पूजा अर्चना करते हैं : Hastinaapura. Name of the country of king somprabh & brother shreyans, where Lord Rishabhdev took first food intake after one year’s fasting. The birth place of Tirthankars (Jaina Lords) shantinath kunthunath, Arahnath and two Chakravatirs (emperors). Presently a great pilgrimage place with the construction of Jambudvip constructed on the inspiration of Ganini Aryika Shri Gyanmati Mataji. कुरुजांगल देष की राजधानी। राजा सोमप्रभ एवं उनके भाई श्रेयांस ने यहाॅ भगवान वृषभदेव के एक वर्ष निराहार रहने के पश्चात् इक्षु रस के द्वारा प्रथम, आहार कराया था। तीर्थकर शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ, चक्रवर्ती सुभौम व सनत्कुमार की जन्म नगरी। वर्तमान मे यहाॅ पर गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से जम्बूद्वीप नामक भव्य तीर्थ का निर्माण किया गया है जिसमे जंबूद्वीप, कमलमंदिर आदि अनेक सुन्दर रचनाएं निर्मित है।