समवसरण में राजते, ज्ञानज्योति से पूर्ण।
शांति–कुंथु–अर नाथ को, वंदत ही दु:ख चूर्ण।।१।।
श्री आदिनाथ को सर्वप्रथम, इक्षूरस का आहार दिया।
श्रेयांस नृपति ने, यहाँ तभी से, दान तीर्थ यह मान्य हुआ।।
देवों ने पंचाश्चर्य किया, रत्नों की वर्षा खूब हुई।
वैशाख सुदी अक्षय तृतिया, यह तिथि भी सब जग पूज्य हुई।।२।।
श्री शांति–कुंथु–अर तीर्थंकर, इन तीनों के इस तीरथ पर।
हुए गर्भ-जन्म-तप-ज्ञान चार, कल्याणक इस ही भूतल पर।।
अगणित देवी देवों के संग, सौधर्म इंद्र तब आये थे।
अतिशय कल्याणक पूजा कर, भव-भव के पाप नशाये थे।।३।।
आचार्य अकंपन के संघ में, मुनि सात शतक जब आये थे।
उन पर बलि ने उपसर्ग किया, तब जन-जन मन अकुलाये थे।।
श्री विष्णुकुमार मुनीश्वर ने, उपसर्ग दूर कर रक्षा की।
रक्षाबंधन का पर्व चला, श्रावण सुदि पूनम की तिथि थी।।४।।
गंगा में गज को ग्राह ग्रसा, तब सुलोचना ने मंत्र जपा।
द्रौपदी सती का चीर बढ़ा, सतियों की प्रभु ने लाज रखा।।
श्रेयांस सोमप्रभ जयकुमार, आदीश्वर के गणधर होकर।
शिव गये अन्य नरपुंगव भी, पांडव भी हुए इसी भू पर।।५।।
राजा श्रेयांस ने स्वप्ने में, देखा था मेरु सुदर्शन को।
सो आज यहाँ इक सौ इक फुट, उत्तुंग सुमेरू बना अहो।।
यह जंबूद्वीप बना सुंदर, इसमें अठहत्तर जिनमंदिर।
इक सौ तेइस हैं देवभवन, उसमें भी जिनप्रतिमा मनहर।।६।।
जो भक्त भक्ति में हो विभोर, इस जम्बूद्वीप में आते हैं।
उत्तुङ्ग सुमेरू पर चढ़कर, जिन वंदन कर हर्षाते हैं।।
फिर सब जिनगृह को अर्घ चढ़ा, गुण गाते गद्गद हो जाते।
वे कर्म धूलि को दूर भगा, अतिशायी पुण्य कमा जाते।।७।।
श्री आदिनाथ, भरतेश और, बाहूबलि तीन मूर्ति अनुपम।
श्री शांति कुंथु अर चक्रीश्वर, तीर्थंकर की मूर्ती निरुपम।।
वर कल्पवृक्ष महावीर प्रभू का, जिनमंदिर अतिशोभित है।
यह कमलाकार बना सुन्दर, इसमें जिनप्रतिमा राजित हैं।।८।।
जय शांति कुंथु अर तीर्थेश्वर, जय हो समस्त जिनभवनों की।
जय जय हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र, जय जय हो सम्मेदाचल की।।
जय जंबूद्वीप तेरहों द्वीप, तीनलोक जिन प्रतिमा की।
जय भीम, युधिष्ठिर, अर्जुन और सहदेव नकुल पांडव मुनि की।।९।।
तीर्थक्षेत्र की वंदना, हरे सकल दुख दोष।
‘ज्ञानमती’ संपत्ति दे, भरे आत्मसुख कोष।।१०।।
चौबीस तीर्थंकर को वंदूं माँ सरस्वती को नमन करूँ ।
गणधर गुरु के सब साधु के श्री चरणों में नित शीश धरूँ ।।
इस युग में कुंदकुंदसूरी, का अन्वय जगत् प्रसिद्ध हुआ ।
इसमें सरस्वती गच्छ बलात्कार गण अतिशायि समृद्ध हुआ ।।१।।
इस परम्परा में साधु मार्ग, उद्धारक दिग्अंबर धारी ।
आचार्य शांतिसागर चारित्र—चक्रवर्ती पद के धारी ।।
इन गुरु के पट्टाधीश हुये, आचार्य वीरसागर गुरुवर ।
इनकी मैं शिष्या गणिनी—ज्ञानमती आर्यिका प्रथित भू पर ।।२।।
मैंने जिनवर की भक्तीवश, बहुतेक विधान रचे सुन्दर ।
इन्द्रध्वज, कल्पद्रुम विधान, सर्वतोभद्र पूजा मनहर ।।
यह ‘‘श्री जिनेन्द्रस्तुतिसंग्रह’’, रचना जिन भक्तीगंगा है ।
सज्ज्ञानमती केवल करने में, एक अकेली समरथ है ।।३।।
हस्तिनापुर में जंबूद्वीप आदिक , रचनाएँ जगमान्य हुईं ।
भक्तीप्रधान इस युग में तो, भक्तों को अतिशय मान्य हुईं ।।
श्री जिनेन्द्रस्तुतिसंग्रह, भव्यों को अतिशय प्रिय होवे ।
जब तक जिनधर्म रहे जग में, तब तक भक्तों का अघ धोवे ।।४।।
देव, शास्त्र, गुरु भक्ति से, तीन रत्न हों प्राप्त ।
पढ़ो पढ़ावों भव्यजन, हों अनंत गुण प्राप्त ।।५।।
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