भव्यात्माओं! भगवान ऋषभदेव का दीक्षा लेने के बाद जब छह माह का योग पूर्ण हो गया, तब वे यतियों-मुनियों की आहार विधि बतलाने के उद्देश्य से शरीर की स्थिति के लिये निर्दोष आहार हेतु निकल पड़े। महामेरू भगवान ऋषभदेव ईर्यापथ से गमन कर रहे हैं, अनेकों ग्राम-नगर-शहर आदि में पहुँच रहे हैं। उन्हें देखकर मुनियों की चर्या को न जानने वाली प्रजा बड़े उमंग के साथ सन्मुख आकर उन्हें प्रणाम करती है।
उनमें से कितने ही लोग कहने लगते हैं कि हे देव! प्रसन्न होइये और कहिये क्या काम है ? हम सब आपके किंकर हैं, कितने ही भगवान के पीछे-पीछे हो लेते हैं। अन्य कितने ही लोग बहुमूल्य रत्न लाकर भगवान के सामने रख देते हैं और कहते हैं कि हे नाथ! प्रसन्न होइये, तुच्छ भेंट स्वीकार कीजिये, कितने ही सुन्दरी और तरुणी कन्याओं को सामने करके कहते हैं कि प्रभो! आप इन्हें स्वीकार कीजिये, कितने ही लोग वस्त्र, भोजन, माला आदि अलंकार ले-लेकर उपस्थित हो जाते हैं।
कितने ही लोग प्रार्थना करते हैं कि प्रभो! आप आसन पर विराजिये, भोजन कीजिये इत्यादि इन सभी निमित्तों से प्रभु की चर्या में क्षण भर के लिए विघ्न पड़ जाता है पुनः वे आगे बढ़ जाते हैं। इस प्रकार से जगत को आश्चर्य में डालने वाली गूढ़ चर्या से विहार करते हुए भगवान के छह माह व्यतीत हो जाते हैं। एक दिन रात्रि के पिछले भाग में हस्तिनापुर के युवराज श्रेयांस कुमार सात स्वप्न देखते हैं।
प्रसन्नचित्त होेते हुए प्रात: राजा सोमप्रभ के पास पहुँचकर निवेदन करते हैं कि हे भाई! आज मैंने उत्तम-उत्तम सात स्वप्न देखे हैं सो आप सुनें- प्रथम ही सुवर्णमय सुमेरू पर्वत देखा है, दूसरे स्वप्न में जिनकी शाखाओं पर आभूषण लटक रहे हैं, ऐसा कल्पवृक्ष देखा है, तृतीय स्वप्न में ग्रीवा को उन्नत करता हुआ सिंह देखा है, चतुर्थ स्वप्न में अपने सींग से किनारे को उखाड़ता हुआ बैल देखा है, पंचम स्वप्न में सूर्य और चंद्रमा देखे हैं, छठे स्वप्न में लहरों से लहराता हुआ और रत्नों से शोभायमान समुद्र देखा है और सातवें स्वप्न में अष्ट मंगल द्रव्य को हाथ में लेकर खड़ी हुई ऐसी व्यंतर देवों की मूर्तियाँ देखी हैं।
सो इनका फल जानने की मुझे अतिशय उत्कंठा हो रही है। भाई के स्वप्नों को सुनते हुए राजा सोमप्रभ कुछ अकल्पित ही श्रेष्ठ फलों की कल्पना करते हुए पुरोहित की तरफ देखते हैं कि पुरोहित निवेदन करता है- ‘हे राजकुमार! स्वप्न में सुमेरू पर्वत के देखने से यह स्पष्ट ही प्रकट हो रहा है कि जिसका मेरू पर्वत पर अभिषेक हुआ है ऐसा कोई देव आज अवश्य ही अपने घर आयेगा और ये अन्य स्वप्न भी उन्हीं के गुणों की उन्नति को सूचित कर रहे हैं।
आज उन भगवान के प्रति की गई विनय के द्वारा हम लोग अतिशय पुण्य को प्राप्त करेंगे। आज हम लोग जगत में बड़ी भारी प्रशंसा, प्रसिद्धि और संपदा के लाभ को प्राप्त करेंगे, इस विषय में कुछ भी संदेह नहीं है और कुमार श्रेयांस तो स्वयं ही इन स्वप्नों के रहस्य को जानने वाले हैं। इस तरह से पुरोहित के वचनों से प्रसन्न हुए दोनों भाई स्वप्न की और भगवान की कथा करते हुए बैठे ही थे कि इतने में योगिराज भगवान ऋषभदेव ने हस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया।
उस समय भगवान के दर्शनों की इच्छा से चारों तरफ अतीव भीड़ इकट्ठी हो गई। कोई कहने लगे-देखो-देखो, आदिकर्ता भगवान ऋषभदेव हम लोगों का पालन करने के लिए यहाँ आए हैं, चलो जल्दी चलकर उनके दर्शन करें और भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करें। कोई कह रहे थे कि संसार का कोई एक पितामह है ऐसा हम लोग मात्र कानों से सुनते थे सो आज प्रत्यक्ष में उनके दर्शन हो रहे हैं। अहो! इन भगवान के दर्शन करने से नेत्र सफल हो जाते हैं, इनका नाम सुनने से कान सफल हो जाते हैं और इनका स्मरण करने से अज्ञानी जीवों के भी अन्तःकरण पवित्र हो जाते हैं।
कोई कहने लगे ओहो! ये भगवान् तीन लोक के स्वामी होकर भी सब कुछ छोड़कर इस तरह अकेले ही क्यों विहार कर रहे हैं ? कोई स्त्री बच्चे को दूध पिलाते हुए भी अपने से अलग कर धाय की गोद में छोड़कर भगवान के दर्शन के लिए दौड़ पड़ी, कोई स्त्री कहने लगी सखी! भोजन करना बन्द कर, जल्दी उठ और यह अघ्र्य हाथ में ले, अपन चलकर जगतगुरु भगवान की पूजा करेंगे। इत्यादि कोलाहल के बीच से निकलते हुए भगवान मनुष्यों से भरे हुए नगर को सूने वन के समान जानते हुए निराकुल छोड़कर चाँद्रीचर्या का आश्रय लेकर विहार कर रहे हैं। इसी बीच सिद्धार्थ नाम का द्वारपाल आकर गद्गद वाणी से बोलता है- ‘महाराज! तीन जगत् के गुरू भगवान् ऋषभदेव स्वयं ही अकेले इधर आ रहे हैं।’
इतना सुनते ही राजा सोमप्रभ और राजकुमार श्रेयांस दोनों ही भाई सेनापति और मंत्रियों के साथ तत्क्षण ही उठ पड़े और राजमहल के आंगन तक बाहर आ गए। दोनोें भाइयों ने दूर से ही भगवान को नमस्कार किया। उनके चरणों में अघ्र्य सहित जल समर्पित किया। भगवान के मुख कमल को देखते ही कुमार श्रेयांस को अपने कई भवों का जातिस्मरण हो आया, उनको रोमांच हो गया। ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो मेरे घर में तीन लोक की सम्पदा ही आ गई है-उन्हें आहार देने की सारी विधि याद आ गई। शीघ्र ही पड़गाहन विधि को करते हुए भगवान की तीन प्रदक्षिणाएँ दीं।
अन्दर ले गये, उन्हेें उच्च आसन पर बैठने के लिए निवेदन किया- ‘भगवन्! उच्च आसन पर विराजमान होइये।’ पुन: प्रभु के चरणों का प्रक्षालन करके मस्तक पर गंधोदक चढ़ाकर अपना जीवन धन्य माना और अष्टद्रव्य से पूजा की। पुन: पुन: प्रणाम करके मन, वचन, काय की शुद्धि का निवेदन किया, पुनः आहार जल की शुद्धि का निवेदन करके भक्ति से हाथ जोड़कर बोले-, ‘नाथ! यह प्रासुक इक्षुरस है इसे ग्रहण कर मुझे कृतार्थ कीजिए।’ भगवान ने उस समय खड़े होकर अपने दोनों हाथों की अंजुली बनाई और उसमें आहार लेना शुरू किया।
राजकुमार श्रेयांस भगवान के हाथ की अंजुली में इक्षुरस दे रहे हैं। राजा सोमप्रभ और रानी लक्ष्मीमती भी प्रभु के करपात्र में इक्षुरस देते हुए अपने आप को धन्य समझ रहे हैं। इसी बीच गगनांगण में देवों का समूह एकत्रित हो गया और रत्नों की वर्षा करने लगा, मंदार पुष्पों को बरसाने लगा, मंदसुगंध पवन चलने लगी, दुंदभि बाजे-बजने लगे और ‘अहोदान, महादान’ आदि ध्वनि से आकाशमंडल शब्दायमान हो गया। इस समय दोनों भाइयों ने अपने आपको बहुत ही कृतकृत्य माना क्योंकि कृतकृत्य हुए भगवान ऋषभदेव स्वयं ही उनके घर को पवित्र करने वाले हैं।
उस समय दान की अनुमोदना करने वाले बहुत से लोगों ने भी परम पुण्य को प्राप्त किया था। भगवान ऋषभदेव आहार ग्रहण कर वन की ओर प्रस्थान कर गये। राजा सोमप्रभ और श्रेयांस भी कुछ दूर तक भगवान के पीछे-पीछे गये पुन: भगवान को हृदय में धारण किये हुए ही वापस लौटते समय उन्हीं के गुणों की चर्चा करते हुए और प्रभु के पद से चिन्हित पृथ्वी को भी नमस्कार करते हुए आ गये। उस समय पूरे हस्तिनापुर में एक ही चर्चा थी कि राजकुमार श्रेयांस को प्रभु को आहार देने की विधि कैसे मालूम हुई? यह आश्चर्यमयी दृश्य देवों के हृदय को भी आश्चर्यचकित कर रहा था।
देवों ने भी मिलकर राजा श्रेयांस की बड़े आदर से पूजा की। भरत महाराज भी वहाँ आ गये और आदर सहित राजकुमार श्रेयांस से बोले- ‘हे महादानपते! कहो तो सही, तुमने भगवान के अभिप्राय को कैसे जाना ? हे कुरुराज! आज तुम हमारे लिए भगवान के समान ही पूज्य हुए हो, तुम दानतीर्थ की प्रवृत्ति करने वाले हो और महापुण्यवान हो, इसलिये मैं तुमसे यह सब पूछ रहा हूँ कि जो सत्य हो, वह अब मुझसे कहो।’
इस प्रकार सम्राट के पूछने पर श्रेयांस कुमार बोलते हैं- राजन्! जिस प्रकार प्यासा मनुष्य सुगंधित स्वच्छ शीतल जल के सरोवर को देखकर प्रसन्न हो उठता है वैसे ही भगवान के अतिशय रूप को देखकर मेरी प्रसन्नता का पार नहीं रहा कि मुझे उसी निमित्त से जातिस्मरण हो आया जिससे मैंने भगवान का अभिप्राय जान लिया।’
‘वह क्या? मुझे भी सुनाओ।’ ‘महाराज! आज से आठवें भव पूर्व विदेह क्षेत्र की पुंडरीकिणी नगरी के राजा वङ्काजंघ और रानी श्रीमती ने बड़े ही प्रेम से वन में चारण ऋद्धिधारी युगल मुनियों को आहार दान दिया था। उस समय राजा के मंत्री, सेनापति, पुरोहित और सेठ भी आहार दान की अनुमोदना कर रहे थे और पास में कुछ ही दूर से देखते हुए नेवला, वानर, व्याघ्र और सूकर ये चार पशु भी आहार देखकर प्रसन्नमन होते हुए उसकी अनुमोदना कर रहे थे।
आहार होने के अनंतर कंचुकी ने कहा- राजन् ! ये दोनोें मुनि आपके ही युगलिया पुत्र हैं। यह सुनकर महाराज वङ्काजंघ को अतीव हर्ष हुआ। वे उनके चरणों के निकट बैठकर अपनी रानी श्रीमती के, अपने, मंत्री आदि चारों के तथा नेवला आदि चारों के भी पूर्व भव पूछने लगे।
मुनिराज ने भी अपने दिव्य अवधिज्ञान के द्वारा क्रम-क्रम से सभी के पूर्व भव सुना दिये; अनंतर बतलाया कि- आप इस भव से आठवें भव में जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की अयोध्या नगरी में राजा नाभिराय की महारानी मरूदेवी की कुक्षि से प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के रूप में अवतार लेंगे। आपकी रानी श्रीमती का जीव हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ का भाई श्रेयांस कुमार होगा।
आपके ये मंत्री आदि आठों जीव भी अब से लेकर आठ भव तक आपके साथ सम्बन्ध स्थापित करते हुए आपके तीर्थंकर के भव में आपके ही पुत्र होवेंगे और उसी भव से मोक्ष की प्राप्ति करेंगे। हे चक्रवर्तिन्! आप उस समय राजा वङ्काजंघ के मतिवर नाम के महामंत्री थे, सो इस भव में भगवान के ही पुत्र होकर चक्रवर्ती हुए हो।
उस समय के राजा वङ्काजंघ के जो आनंद नाम के पुरोहित थे; उन्हीं का ही जीव आज आपके भाई बाहुबली हुए हैं जो कि कामदेव हैं। अकंपन सेनापति का जीव ही आपका भाई ऋषभसेन हुआ है जो कि आज पुरिमतालपुर नगर का अधीश्वर है, धनमित्र सेठ का जीव आपका अनंतविजय नाम का भाई है।
दान की अनुमोदना से ही उन्नति करने वाले व्याघ्र का जीव आपका अनंतवीर्य नाम का भाई है, शूकर का जीव अच्युत नाम का भाई है, वानर का जीव वीर नाम का भाई है और नेवला का जीव वरवीर नाम का भाई है अर्थात् राजा वङ्काजंघ के आहार दान के समय जो मतिवर मंत्री आदि चार लोग दान की अनुमोदना कर रहे थे और जो व्याघ्र आदि चारों जीव अनुमोदना कर रहे थे।
वे दान की अनुमोदना के पुण्य से ही क्रम-क्रम से मनुष्य के और देवों के सुखों का अनुभव करके अब इस भव में तीर्थंकर के पुत्र होकर महापुरुष के रूप में अवतीर्ण हुए हैं और सब इसी भव से प्रभु के तीर्थ से ही मोक्षधाम को प्राप्त करेंगे। मैं भी भगवान का गणधर होकर अंत में मोक्षधाम को प्राप्त करूँगा। सम्राट भरत! यह दान की महिमा अचिन्त्य है, अद्भुत है और अवर्णनीय है। देव भी इसकी महिमा को नहीं कह सकते हैं पुनः साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या है?
राजन्! जो दाता, दान, देय और पात्र इनके लक्षणों को समझकर सत्पात्र में दान देता है वह निश्चित ही मोक्ष का अधिकारी हो जाता है। देखो! इस आहारदान के बिना मोक्षमार्ग चल नहीं सकता है; अतः आहार, औषधि, शास्त्र और अभय इन चारों दानों में भी आहारदान ही सर्वश्रेष्ठ है और वही शेष दानों की भी पूर्ति कर सकता है।’
इस प्रकार से विस्तृत भवावली और अपना तथा भगवान ऋषभदेव का व राजकुमार श्रेयांस के कई भवों तक पारस्परिक सम्बन्ध सुनकर भरत चक्रवर्ती अत्यधिक प्रसन्न हुए और बोले- ‘कुरुवंशशिरोमणे! भगवान ऋषभदेव जैसा ना तो कोई उत्तम सत्पात्र होगा और न आप जैसा महान दातार होगा, न आप जैसी नवधाभक्ति की विधि ही होगी, न आपके जैसा उत्तम फल को प्राप्त करने का अधिकारी ही हर कोई बन सकेगा। आप इस युग में ‘दानतीर्थ के प्रथम प्रवर्तक’ कहलाओगे।
युग-युग तक आपकी अमर कीर्ति यह भारत वसुन्धरा गाती ही रहेगी।’ ‘इत्यादि प्रकार से राजकुमार श्रेयांस का सत्कार करके राजा भरत अयोध्या नगरी की तरफ प्रस्थान कर गये। जिस दिन भगवान का आहार हुआ था उस दिन वैशाख सुदी तृतीया थी अत: उस दान के प्रभाव से ही वह ‘अक्षय तृतीया’ इस नाम से आज तक इस भारत भूमि में प्रचलित है क्योंकि जहाँ पर भगवान का आहार होता है वहाँ पर उस दिन भोजनशाला में सभी वस्तु ‘अक्षय’ हो जाती है अत: इसका यह नाम सार्थक हो गया है ।
तथा वह दिन इतना पवित्र हो गया कि आज तक भी बिना मुहूर्त देखे-शोधे भी बड़े से बड़े मांगलिक कार्य इस अक्षय तृतीया के दिन प्रारम्भ कर दिये जाते हैं। सभी सम्प्रदाय के लोग भी इस दिन को सर्वोत्तम मुहूर्त मानते हैं, इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है। यह है आहार दान का माहात्म्य! जो कि सभी की श्रद्धा करने योग्य है।