स्व एवं पर के अन्तरंग व बाह्य प्राणों का हनन करना हिंसा है। जहां रागादि तो स्वहिंसा है। और षट्काय जीवों को मारना या कष्ट देना पर हिंसा है। परहिंसा भी स्वहिंसा पूर्वक होने के कारण परमार्थ से स्वहिंसा ही है। पर निचली भूमिका की प्रत्येक प्रवृत्ति में परहिंसा न करने का विवेक रखना भी अत्यन्त आवश्यक है।