हिन्दी साहित्य में पदों का विशेष महत्व है। इस भाषा के प्राय: सभी भक्त एवं सन्त कवियों ने पद साहित्य का निर्माण किया है। कबीरदास, सूरदास, मीरा, तुलसीदास जैसे महाकवियों ने भक्तिपरक, आध्यात्मिक एवं शृंगार परक पद लिखकर हिन्दी साहित्य का ही महत्व नहीं बढ़ाया किन्तु उनके माध्यम से जन-जन में भक्ति एवं आध्यात्म की भावना को कूट-कूट कर भरने का प्रयास किया है। वैष्णव कवियों के समान जैन कवियों ने भी हिन्दी में अनगिनत पदों की रचना करके हिन्दी साहित्य की श्री वृद्धि में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। लेकिन जैन कवियों ने पदों की रचना मुख्यत: प्राणी मात्र को एवं विशेषत: मानव को जाग्रत रखने एवं उसे कुमार्ग से हटाकर सम्यक् मार्ग पर लगाने के लिए की है। कवि पहले अपने जीवन को सुधारता है इसलिए बहुत से पद उसने अपने आपको सम्बोधित करते हुए लिखे हैं। उसे परमात्मा की भक्ति की ओर इसलिए प्रेरित करता है कि उसके अवलम्बन से उसे सुमार्ग मिल जावे तथा वह भी स्वयं परमात्मा बनने की दिशा की ओर आगे बढ़ सके। यह तो वह जानता है कि मुक्तात्मा न तो किसी को कुछ दे सकते हैं और न किसी से कुछ ले सकते हैं। फिर भी जैन कवियों ने परमात्मा की भक्ति में पर्याप्त संख्या में पद लिखे हैं। वे वैष्णव एवं सूफी कवियों के समान सगुण व निर्गुण के चक्कर में नहीं पड़े क्योंकि उनका रूप तो शुद्ध निर्विकल्प दशा का है। तीर्थंकर अवस्था में यद्यपि उनके अनेक वैभवों की कल्पना की है फिर भी उन्हें शरीराश्रित कहकर अधिक महत्व नहीं दिया है। जैन कवियों ने अपने हिन्दी पदों में सरसता, संगीतात्मकता एवं भावप्रवणता को सबसे अधिक महत्व दिया है। उन्होंने पदोें की रचना भक्ति विह्वल होकर की है लेकिन उस भक्ति में भी संयत होकर चले हैं। वैराग्यमूलक पद लिखने में तथा जगत का सही चित्रण करने में उन्हें काफी सफलता मिली है। इन कवियों द्वारा निर्मित पदों को हम भक्ति परक पद, अध्यात्मिक पद, दार्शनिक पद एवं सैद्धान्तिक पद, शृंगार एवं विरहात्मक पद एवं समाज चित्रण वाले पदों में विभाजित कर सकते हैं। जैन कवियों द्वारा रचित पदों की संख्या ५ हजार से कम नहीं हैं। दो हजार पद तो हमारे संग्रह में हैं और अभी सैकड़ों गुटकों में पद लिखे हुए मिलते हैं जिनका संकलन करना शेष है। इन पदों में तीर्थंकरों पर भी अच्छी संख्या में पद मिलते हैं। इन तीर्थंकरों में ऋषभदेव, नेमिनाथ, पाश्र्वनाथ एवं महावीर पर सबसे अधिक पद लिखे गये हैं। हिन्दी में भगवान महावीर पर १०० से भी अधिक पद मिलते हैं। जो विभिन्न कवियों द्वारा निबद्ध हैं। इन कवियों में भट्टारक शुभचन्द्र, जयसागर, हर्षकीर्ति, द्यानतराय, समय सुन्दर, जिनहर्ष, दौलत राम, बलदेव, देवाषह्न, नयनसुरण, सुरेन्द्र कीर्ति, नवलराम आदि कवियों के नाम प्रमुख हैं। इन कवियों के पदों के आधार पर पूरे महावीर के जीवन का परिज्ञान हो सकता है। अधिकांश पद भक्तिपरक हैं और तीर्थंकर महावीर के महान् व्यक्तित्व के दर्शन कराने वाले हैं इन पदों में वीर, महावीर, सन्मति जैसे नामों का प्रयोग किया हुआ मिलता है। पदों की भाषा हिन्दी एवं राजस्थानी, व्रज एवं पंजाबी मिश्रित हिन्दी सभी हैं। कुछ पदों में रागों का उल्लेख किया हुआ है। इन रागों में कन्नड़ी, कान्हरों, सोरठ, जंगला, बिलावन, खमावच आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इन रागों से पता चलता है कि स्वयं पद निर्माता कवि भी अच्छे संगीतज्ञ एवं रागविशेषज्ञ थे वे स्वयं गाते होंगे तथा वे इसी तरह संगीत के माध्यम से भगवान महावीर का स्तवन स्मृति पाठ की अन्य पाठकों से आशा करते थे। जैन कवियों ने महावीर स्वामी को सृष्टि का कत्र्ताधर्ता नहीं मानते हुए भी उनसे अपने दुःख-दर्द को मिटाने की प्रार्थना की है तथा कुछ अन्य कवियों ने अपने को भव सागर में तारने की कामना की है। कुछ कवियों ने महावीर का समवसरण आने पर उनकी वंदना के लिए चलने का आग्रह किया है तथा कुछ कवियों ने अपने आपको ही उनके चरणों में समर्पित कर दिया है। प्रस्तुत पेपर में मैंने विभिन्न जैन कवियों द्वारा प्रस्तुत उनके जीवन की विचित्र घटनाओं को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। राजस्थानी जैन कवि बलदेव ने भगवान महावीर के जन्म का वर्णन करते हुए लिखा है कि महावीर के पिता राजा सिद्धार्थ एवं माता त्रिशला रानी थी। कुण्डलपुर में उनका जन्म हुआ था तथा देवों ने आकर जन्मोत्सव मनाया था-
आज महावीर स्वामी बन्दू मन लायके।।
सिद्धारथ राजा पिता त्रिशलादे राणी माता।
कुण्डलपुर में जन्म उत्सव कीनो इन्द्र आयके।।१।।
सुर नर मुनिजन करत सेव है प्रभु देवाधिदेव।
गणधरादि ध्याय के गुणानुवाद गायके।।२।।
अपने एक पद ‘‘सिद्धारथ राजा दरयारे बटत बधाई रंग भरी हो’’ में राजस्थान के दूसरे कवि महाचंद ने भगवान महावीर के जन्म लेने के पश्चात् कुण्डलपुर में घर-घर में उत्सव मनाया गया। उनके जन्म लेने के पूर्व १५ महीनों तक नगर में रत्नों की वर्षा होती रही। आकाश स्वच्छ एवं निर्मल हो गया और जन्म होते ही समस्त विश्व ने सुख का अनुभव किया। राजा सिद्धारथ ने अपार दान देकर याचकों की भावना पूरी की-
सिद्धारथ राजा दरबारे बजत बधाई रंग भरी हो।।
त्रिशला देवी ने सुत जायो वर्धमान जिनराज बरी हो।।
कुण्डलपुर में घर-घर द्वारे हो रही आनन्द घरी होे।।
रत्नन की वर्षा को होते पन्द्रह मास भये सगरी हो।
आज गगन दिश निरमल दीखत पुष्प वृष्टि गंधोद झरी हो।।
जन्मत जिनके जग सुक्ख पाया दरि गये सब दुख टरी हो।
अन्तर मुहूर्त नारकी सुखिया, ऐसे अतिशय जन्मधरी हो।।
दान देय नृप ने बहुतेरो जाचिक जन-जन हर्ष करी हो।
ऐसे वीर जनेश्वर चरणो ‘‘बुध महाचन्द्र’’ जु सीस धरी हो।।
महावीर की शिशु अवस्था पूरी हुई और बचपन आया और लगे अपने ही साथियों के साथ खेलने। राजाराम कवि ने अपने एक पद ‘‘त्रिशला के आंगन में खेले वद्र्धमान’’ में उनकी बालक्रीड़ा का बहुत सुन्दर वर्णन किया है। वे अपने साथियों के साथ खेलते हुए ऐसे लगते हैं जैसे नवोदित सूर्य हो। यही नहीं उनकी वाणी भी सबको आकृष्ट करने वाली है तथा इन्द्र स्वयं भी उनकी प्रशंसा करते हुए नहीं थकते हैं-
त्रिशला के आंगन में खेले वर्धमान। खेलै वर्धमान खेलै वर्धमान।।
सुन्दर सुरति अभिनव नव भान। मंगल मूरति गुण गण पान।।१।।
बाल सखा एकट्ठे भये आन। डोलत बोलत मधुरी वान।।२।।
क्रीड़ा करत अनेक विधान। सुरपति ताके करत बखान।।३।।
नाचै अपछर किंनर गान। ‘राजा राम’ चाहै दरसन ध्यान।।४।।
मोती कवि ने तो ‘‘घुघरू बाजत झनन नन नननन’’ पद में मातात्रिशला की गोद में खेलते हुए शिशु महावीर का स्तवन किया है तथा बालपन की मुद्रा के दर्शन करके उनके चरणों में साष्टांग नमस्कार किया है-
घुघरू बाजत झनन नन नननन।।
त्रिशला माता की गोद मै जी आबत है ते सन नन नन नन।।१।।
अष्ट द्रव्य ले पूजन आयौ गावत हैं ते तन नन नन नन।।२।।
‘मोती’ बालपने की मुद्रा देत ढोक चरन न नन नन नन।।३।।
महावीर बालक से युवा हुए और अवसर पाकर संयत व्रत धारण किया तथा तपस्या करके घातिया कर्मों का घात करके वैâवल्य प्राप्त किया। इसी घटना का एक कवि ने अपने पद में निम्न प्रकार वर्णन किया है-
स्वामी भेटै महावीर आज आनन्द भर्या। श्री त्रिशला रानी के नन्दन वरघैमान सुख दया।।
ओसर पाये संजम व्रत लीनो। गिरसम धीरज धरया।। घातीया घात अस्ट करम खय वै केवल पया।।
देवा ब्रह्म कवि के एक पद में इसके बाद होने वाली घटना का वर्णन मिलता है। पद के अनुसार वैवल्य प्राप्ति के पश्चात् महावीर ने महान विद्वान् ब्राह्मण गौतम को अपना प्रमुख गणधर बनाया तथा बौद्ध धर्म को मानने वाले राजा श्रेणिक को अपने धर्म में दीक्षित किया-
स्वामी महावीर उपगार कीयो। उपगार कियौ प्रतिपाल कीयौ।। गौतम ब्राह्मण मान कियो अति।
जाकू गणधर थापि लियो।। बौध मती छो राजा श्रेणिक। ताकू साचां ग्यान दीयो।।
इसके पश्चात् देवा ब्रह्म ने पुन: अपने एक ‘‘महावीर जी ग्यान बतावै, मुनि गौतम समझायौ’’ में दिव्यध्वनि के बाद की स्थिति को प्रस्तुत किया है। समवसरण में राजा श्रेणिक प्रश्न करते हैं। भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि खिरती है तथा गौतम गणधर उसका अर्थ स्पष्ट करते हैं। देवा ब्रह्म ने अपने एक पद में इसी घटना का वर्णन प्रस्तुत किया है-
महावीर जी ग्यान बतावै, मुनि गौतम समझायो। राजा श्रेणिक की पूछणा लागो जी, जीव स्वरूप बतावो।।
महाकवि द्यानतराय ने महावीर के समवसरण की महिमा का निम्न शब्दों में वर्णन प्रस्तुत किया है-
हे री सखी महावीर जिनराय चलो जिन वंदीए।। विपुलाचल पर्वत सौ आए समौसरण भौ भाय।।
मुसावलि गाय सिंघ सु प्रीत करै मन लाय।। गौतम रिणा से गणधर जाके। सेवत सुरनर पाँव।।
भूपति सहित चेलना राणी अंगि-अंगि हुलसाय।। द्यानत प्रभु जी को दरसण देखत मनवांछित फल पाय।।
इसी तरह पंडित महाचंद ने भी समवसरण की महिमा का एक पद में वर्णन किया है। जिसके अनुसार समवसरण में देव, मनुष्य तिर्यञ्च सभी अपने-अपने स्थानों में बैठते हैं और धर्म श्रवण करते हैं। जहाँ महावीर का समवसरण जाता है वहाँ वसंत ऋतु आ जाती है और चारों ओर फल-फूलों से लदे हुए वृक्ष दिखलाई देते हैं। यहीं नहीं समवसरण में एक ही स्थान पर सिंह और गाय, चूहा और बिल्ली, सर्प और नेवला अपने परस्पर में बैर भाव को छोड़कर धर्मोपदेश सुनने लगते हैं-
विपुलाचल शिखर आजि और रूप राजै।
आये जिन वद्र्धमान समवसरण युत महान।।
सुर नर तिर्यंच आनि निज स्थान विराजै।।१।।
षट ऋतु फल फूल सवै फलिये इक काल। अबै दाडिम अरु दाख फवै आम्र पुंग ताजै।।२।।
सिंह गौवत्स हेत मूषक माजरि पेत न्योला। अरू नागकेत बैर रहित छाजै।।३।।
सुणियो अतिशय प्रवीन श्रेणिक नृप धर्म लीन। कर में वसु द्रव्य कीन पूजन के काजै।।४।।
कीनूं बहु पुन्य जिन तय करिवै रैन दिनै। पंडित महाचन्द्र तिनै देखे महाराजै।।५।।
भगवान महावीर के निर्वाण कल्याणक का भट्टारक सुरेन्द्र कीर्ति ने बहुत ही सुन्दर एवं विस्तृत वर्णन किया है। राग भैरू में निर्मित उनका यह पद अत्यधिक रोचक है। उनका निर्वाण कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के अंतिम प्रहर एवं अमावस्या के प्रात: हुआ। उस समय स्वाति नक्षत्र था। निर्वाण महोत्सव में चार प्रकार के देव शामिल हुए और अग्नि कुमार देवों के मुकुट से निकली हुई अग्नि से उनके पावन शरीर का दाह संस्कार सम्पन्न हुआ। उनकी भस्मी को सभी ने मस्तक पर लगाया-
महावीर प्रभु निरवाण सिधारे। पावापुर कमल जुत सरमध्य भारे।।
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशि पछिले रात पहर अमावस उख कारे।
स्वाति नक्षत्र सिद्धारथ नृप सुत प्रियकारनि कुखि उजयारे।।१।।
चतुरनि काय सुरपति सब आए पंच कल्याण सब विधि करारे।
अगनि कुमार मुकुट वह्नि चन्दन प्रमुख सुगंधि मध्य तनु जारे।।२।।
इसके बाद की घटना का नयन कवि ने अपने पद में वर्णन किया है। निर्वाण के पश्चात् पावापुर में प्रत्येक घर में दीपक जलाये गये तथा सभी से सम्पूर्ण देश के प्रत्येक गाँव एवं नगर में उस दिन पूजन की प्रथा आरंभ हुई-
वीर जिनेश्वर आजि शिवालै, पहुँचे भवि जन तारि कृपाले।।
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशि का निशि, एक घड़ी अवशेष सुकालै।।१।।
इन्द्रादिक निर्वाण कल्याणक, कीनू उत्सव सहित विशालै।।
पावापुर मैं घरि घरि मंगल, दीपक ज्योति भई तमगालैै।।२।।
तब तै देश-देश पुर-पुर में, प्रतिवर्ष पूजन थायन चालै।।
शिव मारग की सरधा कारन, है नीको यह पंचम कालै।।३।।
लेकिन १७वीं शताब्दी में होने वाले जगराम कवि ने अपने एक पद में महावीर के निर्वाण कल्याणक का जो वर्णन किया है वह अत्यधिक श्लाघनीय है-
महावीर जिन मुक्ति पधारे। तब सुर नर मिलि आये सारे।।
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशि कारे। पिछली निसि वैइक घटि कारे।।१।।
पावापुर में घरि-घरि द्वारे। दीपक ज्योति भये उजियारे।।
नर-नारी वंदन को चालै। पूजन की कर मोदक धारे।।२।।
इस प्रकार इन पदों में महावीर के सम्पूर्ण जीवन को संजोया जा सकता है लेकिन हिन्दी पदों में जैन कवियों ने महावीर के जीवन की घटनाओं पर ही प्रकाश नहीं डाला है किन्तु भक्तिवश होकर द्यानतराय जैसे कवि ने ‘अब मोहे तार लेहु महावीर’’ पद में महावीर के गुणों का वर्णन करते हुए उनसे तार लेने की प्रार्थना की है। पूरा पद निम्न प्रकार है जिसमें आप देखेंगे कि कवि ने कितने भावपूर्ण शब्दों में भगवान महावीर का स्तवन किया है-
अब मोहे तार लेहु महावीर।। सिद्धारथ नंदन जग वंदन-पाप निकन्दन धीर।।१।।
ज्ञानी ध्यानी दानी जानी, बानी गहन गंभीर। मोक्ष के कारण दोष निवारण, रोष विदारण वीर।।२।।
समता सूरत आनन्द पूरत, तुरत आयह पीर। बालयती द्रढ़वती समकिती, रुख दावानल नीर।।३।।
गुण अनन्त भगवंत अंत नहीं, शशि कपूर हिम हीर। ‘द्यानत’ एकहू गुण हम पावें, दूर करै भवभीर।।४।।
कविवर दौलतराम अपने आध्यात्मिक एवं भक्ति परक पदों के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्होंने महावीर के स्तवन में दो बहुत ही अर्थ भरे पद लिखे हैं और महावीर का गुणानुवाद किया है। वे अनन्त सुख के धनी हैं, भ्रम तम को नाश करने वाले हैं। जिन्होंने दो प्रकार के धर्म ‘निश्चय और व्यवहार’ का निरूपण किया है जो मोक्ष को देने वाला है-
जय शिव कामिनी वीर भगवंत अनन्त सुखकार हैं।
विधिगिरि गंजन बुधमन रंजन भ्रमतम भंजन भाकर हैं।
जिन उपदेश्यो दुविध धर्म जो सो सुर सिद्धि रमाकर हैं।
भवि उर कुमुदनि मोहन भवतय हरन अनूप निशाकार हैं।।
अपने दूसरे पदों में भी इसी तरह मंगल शब्दों में महावीर की वंदना की है जो निम्न प्रकार है-
वंदो अदभुत चन्द्र वीर जिन छवि चकोर चितहारी।
सिद्धारथ नृप कुल नभ मंडन, खंडन भ्रमतम हारी।
परमानंद जलधि विस्तारन, पाप ताप छय कारी।।१।।
उदित निरन्तर त्रिभुवन अंतर कीरति किरन पसारी दोष मलंक कलंक अंटकित मोह राहु निरवारी।।२।।
कर्मावरन-पयोद अरोधित बोधित शिवमग चारी। गणधरादि मुनि उडुगन सेवत, नित पूनम तिथि धारी।।३।।
अखिल अलोकाकाश-उलंघन जासु ज्ञान उजियारी ‘‘दौलत’’ मनसा-कुमुदनि मोदन जयो चरम जगतारी।।४।।
१८वीं शताब्दी में होने वाले जिनहर्ष कवि ने राजस्थानी-भाषा में एक अच्छा पद लिखा है जिसमें संसार के दुखों की अनभिज्ञता प्रगट की है तथा भगवान महावीर की एक मात्र शरण की याचना की है-
में जाण्यु वहीं भवदुष अइसउ रे होई। मोर मगन माया में घूतऊ, निज भवहारे दोइ।।१।।
जनम मरण ग्रभवास असुचिमइ, रहिवनु सहिपनु सोइ। भूष त्रिषा परवश बध बंधन, टारि सके नहीं कोइ।।२।।
छेदन भेदन कुंभी पाचन, वर वैतरिणी तोइ। कोई छुराई सक्यु नहीं ज्वर दुष, मइ सर भरीया रोइ।।३।।
सवहि सगाई जगत ठगाई, स्वारथ के सब लोइ। एक जिनहरष ‘चरम जिनवर’ कुं, सरण हीया मइ ढोइ।।४।।
इसी कवि ने अपने एक अन्य पद में भगवान महावीर से स्पष्ट शब्दों में प्रार्थना की है तथा अपने आपको बतलाकर चरणों में नमन किया है-
मुनि जिनवर चउवीसमा जी, सेवक नी अरदास। तुझ आगलि बालक परइ रे, हुँ तउ करूँ वेरवास रे।।१।।
जिनजी अपराधी नइ रे तारि तु तउ करूणा रसभर्युं जी, तु उ सुहनइ हितकार रे।। हुँ
अवगुण नउ ओरड़ऊ जी, गुण तउ नहीं लव लेस। परगुण देखी नवि सकु जी, किम संसार तरेसि रे।।२।।
इस प्रकार जैन कवियों द्वारा निर्मित हिन्दी पदों में भगवान महावीर का सम्पूर्ण जीवन मिलता है। जो साहित्य एवं इतिहास की दृष्टि में अत्यधिक महत्वपूर्ण है। अभी तो बीसों कवियों के हिन्दी पदों का संकलन करना शेष है जिनमें और भी विस्तृत सामग्री प्राप्त हो सकती है।