कमलों में जिनमंदिर(त्रिलोकसार ग्रंथ से)
अथ तेषां पर्वतानां नामादिकं गाथाद्वयेनाह- हिमवं महादिहिमवं णिसहो णीलो य रुम्मि सिहरी य। मूलोवरि समवासा मणिपासा जलणिहिं पुट्ठा।।५६५।।
हिमवान् महादिहिमवान् निषध: नीलश्च रुक्मी शिखरी च। मूलोपरि समव्यासा मणिपाश्र्वा जलनिधिं स्पृष्टा:।।५६५।।
हिमवं। हिमवान् महाहिमवान् निषधो नीलश्च रुक्मी शिखरी च, एते सर्वे मूलोपरि समानव्यासा: मणिमयपाश्र्वा जलनिधिं स्पृष्टा:।।५६५।।
हेमज्जुणतवणीया कमसो वेलुरियरजदहेममया। इगिदुगचउचउदुगइगिसयतुंगा होंति हु कमेण।।५६६।।
हेमार्जुनतपनीया: क्रमश: वैडूर्यरजतहेममया:। एकद्विकचतुश्चतुद्र्विवैâकशततुङ्गा भवन्ति हि क्रमेण।।५६६।।
हेम। हेमवर्ण: अर्जुनवर्ण: श्वेत इत्यर्थ:। तपनीयवर्ण: कुक्कटचूडछविरित्यर्थ:, वैडूर्यवर्ण: मयूरकण्ठच्छविरित्यर्थ:, रजतवर्ण: हेममय: एते क्रमश: तेषां पर्वतानां वर्णा: एकशत: द्विशत: चतु:शत: चतु:शत: द्विशत: एकशत: क्रमेण तेषामुत्सेधा भवन्ति।।५६६।।
इदानीं हिमवदादिकुलपर्वतानामुपरिस्थितह्रदानां नामान्याह:- पउममहापउमा तिगिंछा केसरि महादिपुंडरिया। पुंडरिया य दहाओ उवरिं अणुपव्वदायामा।।५६७।।
पद्मो महापद्म: तिगिञ्छा: केसरि: महादिपुण्डरीक:। पुण्डरीकश्च ह्रदा उपरि अनुपर्वतायामा:।।५६७।।
पउम। पद्मो महापद्मस्तिगिञ्छ: केसरी महापुण्डरीक: पुण्डरीक इत्येते ह्रदास्तेषामुपरि पर्वतानुवत्र्यायामास्तिष्ठन्ति।।५६७।।
अथ तेषां ह्रदानां व्यासादिकं प्रतिपादयन् तत्रस्थाम्बुजानां स्वरूपं निरूपयति- वासायामोगाढं पणदसदसमहदपव्वदुदयं खु। कमलस्सुदओ वासो दोविय गाहस्स दसभागो।।५६८।।
व्यासायामागाधा: पञ्चदशदशमहतपर्वतोदया: खलु। कमलस्योदय: व्यास: द्वावपि गाधस्य दशभागौ।।५६८।।
वासा। तेषां ह्रदानां व्यासायामागाधा यथासंख्यं पञ्चगुणितदशगुणितदशमभाग हततत्तत्पर्वतोदया: १०० । २०० । ४०० । ४०० । २०० । १०० खल। व्या. ५००·आ. १००० वे. १० तत्रस्थकमलस्योदयव्यासौ तु द्वावपि तत्तद्ध्रदानां गाधदशमभागौ ज्ञातव्यौ।।५६८।।
अथ तेषां कमलानां विशेषस्वरूपं गाथाद्वयेनाह- णियगंधवासियदिसं वेलुरियविणिम्मिउच्चणालजुदं। एक्कारसहस्सदलं णववियसियमत्थि दहमज्झे।।५६९।।
निजगन्धवासितदिशं वैडूर्यविनिर्मितोच्चनालयुतम्। एकादशसहस्रदलं नवविकसितमस्ति ह्रदमध्ये।।५६९।।
णिय। निजगन्धवासितदिशं वैडर्यूविनिर्मितोच्चनालयुतं एकादशोत्तरसहस्रदलं नवविकसितं पृथ्वीसाररूपं कमलं तेषां ह्रदानां मध्ये अस्ति।।५६९।।
कमलदलजलविणिग्गयतुरियुदयं वास कण्णियं तत्थ। सिरिरयणगिहं दिग्घति कोसं तस्सद्धमुभयजोगदलं।।५७१।।
कमलदलजलविनिर्गततुर्योदय: व्यास: कर्णिकाया: तत्र। श्रीरत्नगृहं दैघ्र्यत्रिकं कोश: तस्यार्धमुभययोगदलं।।५७१।।
कमल। कमलोत्सेधार्धमेव नालस्य जलविनिर्गति: कमलचतुर्थांश एव उदयव्यासौ कर्णिकाया:। तत्र श्रीदेवताया: रत्नमयं गृहमस्ति तस्य दैघ्र्यत्रिकं दैघ्र्यव्यासोदया: यथासंख्यं क्रोशप्रमाणं तस्यार्धं तयोरुभययोर्योगार्धं च स्यात्।।५७१।।
अथ एतदनुगुणं प्रक्षेपगाथामाह- दहमज्झे अरविंदयणालं बादालकोसमुव्विट्ठं। इगिकोसं बाहल्लं तस्स मुणालं ति रजदमयं।।५७०।। हृदमध्ये अरविन्दकनालं द्वाचत्वारिंशत्कोशोत्सेधम्। एकक्रोशं बाहल्यं तस्य मृणालं त्रि: रजतमयम्।।५७०।।
दह। ह्रदमध्येरविन्दस्य नालं द्वाचत्वारिंशत्क्रोशोत्सेधं एकक्रोशबाहल्यं तस्य मृणालं तु त्रिक्रोशबाहल्यं रजतमयं स्यात्।।५७०।।
अथ तन्निवासिनीनां देवीनां नामानि तासां स्थितिपूर्वकं तत्परिवारं चाह- सिरिहिरिधिदिकित्तीवि य बुद्धीलच्छी य पल्लठिदिगाओ। लक्खं चत्तसहस्सं सयदहपण पउमपरिवारा।।५७२।।
श्री ह्री धृति: कीर्ति: अपि च बुद्धि: लक्ष्मी: च पल्यस्थितिका:। लक्षं चत्वारिंशत्सहस्रं शतदशपञ्च पद्मपरिवार:।।५७२।।
सिरि। श्रीह्रीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्याख्या देव्य: पल्यस्थितिका: एवं लक्षं चत्वारिंशत्सहस्राणि शतं दश पञ्च प्रमाणानि कमलस्य परिवारपद्मानि १४०११५।।५७२।।
अथ परिवारकमलस्थितं श्रीदेवीनां परिवारं गाथाचतुष्टयेनाह- आइच्चचंदजदुपहुदीओ तिप्परीसमग्गिजमणिरुदी। बत्तीसताल अडदाल सहस्सा कमलममरसमं।।५७३।।
आदित्यचन्द्रजतुप्रभृतय: त्रिपारिषदा: अग्नियमनैऋत्यां। द्वात्रिंशत् चत्वािंरशत् अष्टचत्वारिंशत्सहस्राणि कमलानि अमरसमानि।।५७३।।
आइच्च। आदित्यचन्द्रजतुप्रभृतयस्त्रय: पारिषद्देवा: क्रमेणाग्नियमनैर्ऋत्यां दिशि तिष्ठन्ति तेषां संख्या द्वात्रिंशत्सहस्राणि चत्वारिंशत्सहस्राणि अष्टचत्वा-रिंशत्सहस्राणि भवन्ति कमलानि चामरसमानि।।५७३।।
आणीयगेहकमला पच्छिमदिसि सग गयस्सरहवसहा। गंधव्वणच्चपत्ती पत्तेयं दुगुणसत्तकक्खजुदा।।५७४।।
आनीकगेहकमलानि पश्चिमदिशि सप्त गजाश्वरथवृषभा:। गन्धर्वनृत्यपत्तय: प्रत्येकं द्विगुणसप्तकक्षयुता।।५७४।।
आणीय। आनीकदेवानां गेहकमलानि सप्त पश्चिमायां दिशि संति ते आनीका: गजाश्वरथवृषभगन्धर्वनृत्यपदातय इति सप्तापि प्रत्येकं वक्ष्यमाणस्वसामानिकसम ४००० प्रथमानीकात् द्विगुणगुणसप्तकक्षयुता:।।५७४।।
उत्तरदिसि कोणदुगे सामाणियकमल चदुसहस्समदो। अब्भंतरे दिसं पडि पुह तेत्तियमंगरक्खपासादं।।५७५।।
अब्भंतरदिसि विदिसे पडिहारमहत्तरट्ठसयकमलं। मणिदलजलसमणालं परिवारं पउममाणद्धं।।५७६।।
उत्तरदिशि कोणद्विके सामानिककमलानि चतु:सहस्रमत:। अभ्यन्तरे दिशं प्रति पृथक् तावन्मात्राङ्गरक्षप्रासादा:।।५७५।।
अभ्यन्तरदिशि विदिशि प्रतिहारमहत्तराणामष्टशतकमलानि। मणिदलजलसमनालं परिवारं पद्ममानार्धम्।।५७६।।
उत्तर। उत्तरदिग्भागस्थितवायव्यैशानकोणद्वये सामानिकदेवानां कमलानि चतु:सहस्राणि सन्ति अतोऽभ्यन्तरे प्रतिदिशं पृथक्-पृथक् तावन्मात्रा ४००० ङ्गरक्षप्रासादा: स्यु:।।५७५।।
अब्भंतर। तेभ्य: अभ्यन्तरदिशि १४ विदिशि च १३ प्रत्येकमेवं सति प्रतिहारमहत्त-राणामष्टोत्तरशतकमलानि मणिमयदलानि जलोत्सेधसमनालानि सन्ति परिवारपद्म-विशेषस्वरूपं सर्वं मुख्यपद्मप्रमाणार्धं स्यात्।।५७६।।
सिरिगिहदलमिदरगिहं सोहिंम्मदस्स सिरिहिरिधिदीओ। कित्ती बुद्धी लच्छी ईसाणहिवस्स देवीओ।।५७७।।
श्रीग्रहदलमितरगृहं सौधर्मेन्द्रस्य श्रीह्रीधृतय:। कीर्तिबुद्धिलक्ष्म्य: ईशानाधिपस्य देव्य:।।५७७।।
सिरि। श्रीगृहव्यासादिप्रमाणार्धं इतरगृहव्यासादिप्रमाणं स्यात्। श्रीह्रीधृतय: सौधर्मेन्द्रस्य देव्य: कीर्तिबुद्धिलक्ष्म्य: ईशानाधिपस्य देव्य: स्यु:।।५७७।।
कमलों में जिनमंदिर
सुमेरु पर्वतों की दक्षिण दिशा से प्रारंभ कर क्रमश: भरतादि सात क्षेत्र हैं। जिनमें बीच-बीच में वुल पर्वतों के कारण अन्तर है। अर्थात् इन क्षेत्रों के अन्तराल में कुल पर्वत हैं। यथा-भरत और हैमवत के बीच में हिमवान् पर्वत है। हैमवत और हरि के बीच में महाहिमवान्, हरि और विदेह के बीच निषध, विदेह और रम्यक के बीच में नील, रम्यक और हैरण्यवत के बीच में रुक्मी तथा हैरण्यवत और ऐरावत के बीच में शिखरिन् पर्वत हैं। दो गाथाओं द्वारा उन कुलाचलों के नामादि कहते हैं-
गाथार्थ –हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरिन् ये छह कुल पर्वत मूल में व ऊपर समान व्यास-विस्तार से युक्त हैं। मणियों से खचित इनके दोनों पाश्र्वभाग समुद्रों का स्पर्श करने वाले हैं।।५६५।।
विशेषार्थ- # हिमवान् # महाहिमवान् # निषध # नील # रुक्मी # शिखरिन् ये छह कुलाचल पर्वत हैं। दीवाल सदृश इन कुलाचलों का व्यास-चौड़ाई नीचे से ऊपर तक समान है। इन कुलाचलों के दोनो पाश्र्वभाग मणिमय हैं और समुद्रों को स्पर्श करने वाले हैं। जम्बूद्वीप में कुलाचलों के दोनों पाश्र्वभाग लवणसमुद्र को स्पर्श करते हैं। धातकीखण्ड में लवणोदधि और कालोदधि को स्पर्श करते हैं किन्तु पुष्करार्धद्वीप में कालोदधि और मानुषोत्तर पर्वत को स्पर्श करते हैं।
गाथार्थ –इन कुलाचलों का वर्ण क्रमश: हेम (स्वर्ण) अर्जुन (चाँदी सदृश श्वेत) तपनीय (तपाये हुए स्वर्ण सदृश) वैडूर्य मणि (नीला) रजत (श्वेत) और हेम (स्वर्ण) सदृश है। इनकी ऊँचाई का प्रमाण भी क्रमश: एक सौ, दो सौ, चार सौ, चार सौ, दो सौ और एक सौ योजन है।।५६६।।
विशेषार्थ –हिमवान् पर्वत का वर्ण स्वर्ण सदृश और ऊँचाई १०० योजन (४००००० मील) है। महाहिमवान् का अर्जुन अर्थात् श्वेत वर्ण तथा ऊँचाई २०० योजन (८००००० मील) है। निषध पर्वत का वर्ण तपनीय तपाये हुए स्वर्ण समान तथा ऊँचाई ४०० योजन (१६००००० मील) है। नील पर्वत का वर्ण वैडूर्य (पन्ना) अर्थात् मयूर कण्ठ सदृश नीला है, इसकी ऊँचाई ४०० योजन है। रुक्मी पर्वत का वर्ण रजत अर्थात् श्वेत तथा ऊँचाई २०० योजन है। इसी प्रकार शिखरिन् पर्वत का वर्ण स्वर्ण सदृश एवं ऊँचाई १०० योजन है। हिमवत् आदि कुलाचलों पर स्थित सरोवरों के नाम कहते हैं-
गाथार्थ – हिमवत् आदि पर्वतों पर क्रमश: पद्म, महापद्म, तिगिञ्छ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक ये छह सरोवर पर्वतों के सदृश हीनाधिक आयाम वाले हैं।।५६७।। उन सरोवरों के व्यासादिक का प्रतिपादन करते हुए वहाँ स्थित कमलों का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ – पर्वतों के (अपने-अपने) उदय (ऊँचाई) को पाँच से गुणित करने पर द्रहों का व्यास, दस से गुणित करने पर द्रहों का आयाम और दस से भाजित करने पर द्रहों की गहराई प्राप्त होती है। द्रहों में रहने वाले कमलों का व्यास एवं उदय ये दोनों भी द्रहों की गहराई के दसवें भाग प्रमाण हैं।।५६८।।
विशेषार्थ – उन सरोवरों का व्यास, आयाम और गहराई का प्रमाण अपने-अपने पर्वतों की ऊँचाई के प्रमाण को क्रमश: ५ और १० से गुणित करने पर तथा १० से भाजित करने पर प्राप्त होता है तथा सरोवरों में स्थित कमलों का व्यास और उदय भी सरोवरों की गहराई के दसवें भाग प्रमाण है यथा-हिमवान् पर्वत की ऊँचाई १०० योजन है। अत: उस पर स्थित पद्मद्रह की लम्बाई (१००²१०)·१००० योजन, चौड़ाई (१००²५)·५०० योजन और गहराई (१००´१०)·१० योजन प्रमाण है। इस पद्मद्रह में रहने वाले कमल की ऊँचाई एवं चौड़ाई दोनों (१०´१०)· एक-एक योजन प्रमाण है।
(२) महाहिमवान पर्वत की ऊँचाई २०० योजन है अत: उस पर स्थित महापद्म सरोवर की लम्बाई (२००²१०)·२००० योजन, चौड़ाई (२००²५)·१००० योजन और गहराई (२००´१०)·२० योजन प्रमाण है। इस द्रह में रहने वो कमल की ऊँचाई और व्यास दोनों (२०´१०)·२ योजन प्रमाण है। निषध पर्वत की ऊँचाई ४०० योजन है अत: उस पर रहने वाले तिगिञ्छ द्रह की लम्बाई (४००²१०)·४००० योजन, चौड़ाई (४००²५)·२००० योजन और गहराई (४००´१०)·४० योजन प्रमाण है। इसमें स्थित कमल की ऊँचाई और व्यास दोनों (४०´१०)·४ योजन प्रमाण है। दो गाथाओं द्वारा उन कमलों के विशेष स्वरूप को कहते हैं-
गाथार्थ –अपनी सुगंध से सुवासित की हैं दिशाएँ जिसने, तथा जो वैडर्यूमणि से निर्मित ऊँची नाल से संयुक्त है ऐसा एक हजार ग्यारह पत्रों से युक्त नवविकसित कमल के सदृश पृथ्वीकायिक कमल सरोवर के मध्य में है।।५६९।।
विशेषार्थ – प्रथम पद्म सरोवर के मध्य में जो कमल है, वह पृथ्वी स्वरूप है, उसकी नाल ऊँची और वैडूर्यमणि से बनी हुई है। उसके पत्रों की संख्या १०११ है और उसका आकार नवविकसित कमल सदृश है।
गाथार्थ – कमल का अर्ध उत्सेध जल के बाहर निकला हुआ है। कमल की कर्णिका की ऊँचाई और चौड़ाई कमल के उदय और व्यास का चतुर्थांश है। उस कर्णिका पर श्री देवी का रत्नमय गृह है, उसकी दीर्धता, व्यास और उदय ये तीनों क्रमश: एक कोश, अर्ध कोश और दोनों के योग का अर्ध भाग अर्थात् (१±१/२·३/२´२)· पौन कोश प्रमाण है।।५७१।।
विशेषार्थ – कमल के उत्सेध का अर्ध प्रमाण अर्थात् १/२ योजन नाल जल से ऊपर निकली हुई है। कर्णिका का उदय और व्यास कमल के उदय और व्यास का चतुर्थांश है। अर्थात् कमल का उदय और व्यास एक-एक योजन प्रमाण है, अत: कर्णिका का उदय और व्यास (१´४)·१/४· एक-एक कोश प्रमाण है। इसी कर्णिका पर श्री देवी का रत्नमय गृह है, जिसकी लम्बाई एक कोश, चौड़ाई १/२ कोश और ऊँचाई ३/४ (पौन) कोश प्रमाण है। कमल का विस्तार बताने वाली प्रक्षेप गाथा-
गाथार्थ – पद्मद्रह के मध्य में कमलनाल की ऊँचाई ४२ कोस और मोटाई एक कोस प्रमाण है। उसका मृणाल तीन कोस मोटा और रजतवर्ण का है।।५७०।।
विशेष – पद्मद्रह की गहराई १० योजन है। गाथा ५७० में कहा गया है कि कमलनाल जल से अर्ध योजन प्रमाण ऊपर है, इसी से यह सिद्ध होता है कि कमल नाल की कुल ऊँचाई १० (१/२) योजन है, तभी तो वह सरोवर की १० योजन की गहराई को पार करती हुई आधा योजन जल से ऊपर है। यही बात प्रक्षेप गाथा (५७०) कह रही है। इस गाथा में नाल की ऊँचाई ४२ कोश कही गई है, जिसके १० (१/२) योजन होते हैं। कमल, कमलनाल एवं कमलकर्णिका के उत्सेधादि का चार्ट आगे पृ. ५१ पर देखें। कमलों पर निवास करने वाली देवियों के नाम, आयु और उनके परिवार के संबंध में कहते हैं-
गाथार्थ – श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये छहों देवाङ्गनाएँ एक-एक पल्य की आयु वाली हैं। ये देवांगनाएँ पद्मादि द्रह संबंधी कमलों पर निवास करती हैं। उन्हीं पद्मादि द्रहों में एक-एक कमल के १, ४०, ११५ परिवार कमल हैं। उन परिवार कमलों में स्थित श्री देवी के परिवार का प्रमाण चार गाथाओं द्वारा कहते हैं-
गाथार्थ – आदित्य, चन्द्र और जतु हैं आदि में जिनके ऐसे तीन प्रकार के पारिषद देव (मूल कमल की) आग्नेय, दक्षिण और नैऋत्य दिशा में रहते हैं। इनका प्रमाण क्रमश: बत्तीस हजार, चालीस हजार और अड़तालीस हजार है। इनके कमल देवाङ्गना के कमल सदृश ही हैं।।५७३।।
विशेषार्थ – आदित्य नामक देव है प्रमुख जिसमें ऐसे आभ्यन्तर परिषद् के ३२००० देवों के ३२००० भवन श्री देवी के कमल की आग्नेय दिशा में है। ये एक-एक भवन एक-एक कमल पर बने हुए हैं। इसी प्रकार चन्द्र नामक देव है प्रमुख जिसमें ऐसे मध्य परिषद् के ४०००० देवों के ४०००० कमलों पर ४०००० ही भवन श्री देवी के कमल की दक्षिण दिशा में स्थित हैं तथा जतु नामक देव है। प्रमुख जिसमें ऐसे बाह्य परिषद् के ४८००० देवों के ४८००० कमलों पर ४८००० ही भुवन हैं, जो पद्म द्रह की श्री देवी के कमल की नैऋत्य दिशा में स्थित हैं। इन सभी देवों के भवन जिन कमलों पर स्थित हैं, वे कमल श्री देवी के कमल सदृश ही हैं।
गाथार्थ – हाथी, घोड़ा, रथ, बैल, गन्धर्व, नृत्यकी और पयादे इन सात अनीकों के अपने-अपने भवनों सहित सात कमल श्री देवी के कमल की पश्चिम दिशा में स्थित हैं। प्रत्येक अनीक सात-सात कक्षाओं से युक्त है। (प्रथम कक्ष के प्रमाण से) द्वितीयादि कक्षों के देवों का प्रमाण दूना-दूना है।।५७४।।
विशेषार्थ – हाथी, घोड़ा, रथ, बैल, गन्धर्व, नृत्यकी और पयादा ये सात प्रकार के अनीक हैं। इन सात अनीकों के सात भवन सात कमलों पर हैं और वे कमल श्री देवी के कमल की पश्चिम दिशा में स्थित हैं। प्रत्येक अनीक सात-सात कक्षाओं से युक्त है। आगे कही जाने वाली सामानिक देवों की ४००० संख्या प्रमाण ही प्रथम अनीक की प्रथम कक्षा का प्रमाण है, इसके आगे यह प्रमाण दूना-दूना होता गया है। श्री देवी की ७ अनीकों के सम्पूर्ण प्रमाण का चार्ट आगे पृ. ५१ पर देखें।
गाथार्थ – उत्तर दिशा के दोनों कोनों में अर्थात् ऐशान और वायव्य में सामानिक देवों के चार हजार कमल हैं, इन कमलों के भीतरी भाग में (मूल कमल की ओर) चारों दिशाओं में चार-चार हजार ही तनुरक्षकों के कमल हैं। अर्थात् उन पार्थिव कमलों पर भवन बने हुए हैं। उन अङ्गरक्षकों के कमलों के अभ्यन्तर भाग में (मूल कमल की ओर) चारों दिशाओं एवं चारों विदिशाओं में प्रतीहार महत्तरों के एक सौ आठ कमल हैं। ये सब परिवार कमल मणियों से रचित हैं। इन सबके व्यासादि का प्रमाण पद्म (मूल) कमल के प्रमाण से अर्ध-अर्ध है। परिवार कमलों के नाल की ऊँचाई जल की गहराई के सदृश ही है।।५७५-५७६।।
विशेषार्थ – उत्तर दिशा के दोनों कोण अर्थात् मूल कमल की ऐशान और वायव्य दिशा में सामानिक देवों के कुल ४००० कमल हैं। इनसे अभ्यन्तर अर्थात् मूल कमल की ओर पृथक्-पृथक् चारों दिशाओं में चार-चार हजार अङ्गरक्षकों के कमल हैं। इनके भी अभ्यन्तर भाग में अर्थात् मूल कमल की ओर चारों दिशाओं में १४, १४ और विदिशाओं में १३,१३ इस प्रकार प्रतिहार महत्तरों के कुल १०८ कमल हैं। सभी परिवार कमल मणिमय हैं और इन प्रत्येक कमलों पर परिवार देवों के एक-एक ही मणिमय भवन बने हुए हैं। इन परिवार कमलों का सम्पूर्ण (विशेष) स्वरूप अर्थात् व्यासादिक का प्रमाण प्रधान पद्म के प्रमाण से आधा-आधा है। इनके नाल की ऊँचाई सरोवर की गहराई के प्रमाण ही है।
अर्थात् नाल जल के बराबर ऊँची है, जल से ऊपर नहीं है। इस प्रकार श्री देवी का अवस्थान और उनके परिवार कमलों की कुल संख्या का प्रमाण एवं चित्रण निम्न प्रकार है- श्री देवी के सम्पूर्ण परिवार कमलों का प्रमाण-अङ्गरक्षक १६०००±सामानिक ४०००±अभ्यन्तर पारिषद ३२००० ± मध्यम पारिषद ४०००० ± बाह्य पारिषद ४८००० ± प्रातिहार १०८ और ± ७ अनीक ·१४०११५ परिवार कमल हैं यदि इनमें सातों कक्षाओं का प्रमाण जोड़ दिया जावे, तो कुल परिवार समूह का प्रमाण (३५५६०००±१४०११५)·३६९६११५ प्राप्त होता है। हिमवान् से लेकर निषध पर्वत पर्यन्त कमलों का विष्कम्भ और उत्सेध आदि दूने-दूने प्रमाण वाला है। परिवार कमलों का प्रमाण भी दूना-दूना है। श्री आदि देवियों के भवनों का व्यास आदि एवं परिवार कमलों के प्रमाण का चार्ट आगे पृ. ५२ पर देखें। यह उपर्युक्त प्रमाण मात्र महाकमलों का है। प्रकीर्णक आदि क्षुद्र कमलों का प्रमाण अत्यधिक है। उन कमल पुष्पों पर जितने भवन कहे गये हैं, उतने ही वहाँ नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित जिनमंदिर भी हैं। ति. पं. ४ । १६९२।।
गाथार्थ – श्री देवी के गृह का जितना व्यासादि है, परिवारदेवों के गृहों के व्यास आदि का प्रमाण उससे आधा-आधा है। श्री, ह्री और धृति ये तीन सौधर्मेन्द्र की देवकुमारियाँ हैं तथा कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये तीन ईशानेन्द्र की देवकुमारियाँ हैं।।५७७।