(तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ से)
हिमवंतयस्स मज्झे पुव्वावरमायदो य पउमदहो।
पणसयजोयणरुंदो तद्दुगुणायामसोहिल्लो।।१६५८।।
हिमवान पर्वत के मध्य में पूर्व-पश्चिम लंबा, पांच सौ योजन विस्तार से सहित और इससे दुगुणी अर्थात् एक हजार योजन प्रमाण लंबाई से शोभायमान पद्म नामक द्रह है।।१६५८।।
५००।१०००। विष्कंभ ५००। आयाम १०००।
दसजोयणाणि गहिरो चउतोरणवेदिणंदणवणेहिं।
सहिदो वियसिअकुसुमेहिं सुहसंचयरयणरचिदेहिं।।१६५९।।
यह पद्मद्रह दश योजन गहरा तथा चार तोरण, वेदियों नन्दनवनों, और शुभसंचय युक्त रत्नों से रचे गये विकसित फूलों से सहित है।।१६५९।।
वेसमणणामकूडो ईसाणे होदि पंकयदहस्स।
सिरिणिचयणामकूडो सिहिदिसभागम्हि णिद्दिट्ठो।।१६६०।।
इस पंकजद्रह के ईशानकोण में वैश्रमण नामक कूट और आग्नेय दिशा में श्रीनिचय नामक कूट निर्दिष्ट किया गया है।।१६६०।।
खुल्लहिमवंतकूडो णइरिदिभागम्मि तस्स णिद्दिट्ठो।
पच्छिमउत्तरभागे कूडो एरावदो णाम।।१६६१।।
उसके नैऋत्य भाग में क्षुद्रहिमवान् कूट और पश्चिमोत्तर भाग में ऐरावत नामक कूट कहा गया है।।१६६१।।
सिरिसंचयकूडो तह भाए पउमद्दहस्स उत्तरए।
एदेहिं कूडेहिं हिमवंतो पंचसिहरिणामजुदो।।१६६२।।
पद्मद्रहके उत्तर भाग में श्रीसंचय नामक कूट स्थित है। इन पांच कूट से हिमवान् पर्वत ‘पंचशिखरी’ इस नाम से संयुक्त है।।१६६२।।
उववणवेदीजुत्ता वेंतरणयरेहिं होंति रमणिज्जा।
सव्वे कूडा एदे णाणाविहरयणणिम्मविदा।।१६६३।।
नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित ये सब कूटपवन-वेदियों से सहित और व्यन्तरों के नगरों से रमणीय हैं।।१६६३।।
उत्तरदिसाविभागे जलम्मि पउमद्दहस्स जिणकूडो।
सिरिणिचयं वेरुलियं अंकमयं अच्छरीय रुचगं च।।१६६४।।
सिहरीउप्पलकूडा पदाहिणा होंति तस्स सलिलम्मि।
तडवणवेदीहिं जुदा वेंतरणयरेहिं सोहिल्ला।।१६६५।।
पद्मद्रह के जल में उत्तर दिशा की ओर से प्रदक्षिण रूप में जिनवूकूटश्रीनिचय, वैडूर्य, अंकमय, आश्चर्य, रुचक, शिखरी और उत्पलवूकूटये कूटसके जल में तटवेदियों और वन-वेदियों से सहित होते हुए व्यन्तर-नगरों से शोभायमान हैं।।१६६४-६५।।
उदयं भूमुहवासं मज्झं पणवीस तत्तियं दलिदं।
मुहभूमिजुदस्सद्धं पत्तेक्वं जोयणाणि कूडाणं।।१६६६।।
उन वूकूट में से प्रत्येक कूट ऊंचाई पच्चीस योजन, भूविस्तार भी इतना अर्थात् पच्चीस योजन, मुखविस्तार पच्चीस योजन के अर्धभागप्रमाण और मध्यविस्तार भूमि तथा मुख के जोड़ का अर्धभाग मात्र है।।१६६६।।
२५।२५।२५/२।७५/४। २५ । २५ । २५/२ । ७५/४ ।
दहमज्झे अरिंवदयणालं बादालकोसमुव्विद्धं।
इगिकोसं बाहल्लं तस्स मुणालं ति रजदमयं।।१६६७।।
तालाब के मध्य में ब्यालीस कोस ऊंचा और एक कोस मोटा कमल का नाल है। इसका मृणाल रजतमय और तीन कोस बाहल्य से युक्त है।।१६६७।।
को ४२, बा को १। उत्सेध को. ४२, बा. को. १।
कंदो यरिट्ठरयणं णालो वेरुलियरयणणिम्मविदो।
तस्सुवरिं दरवियसियपउमं चउकोसमुव्विद्धं।।१६६८।।
उस कमल का कन्द अरिष्टरत्नमय और नाल वैडूर्यमणि से निर्मित है। इसके ऊपर चार कोस ऊँचा किंचित् विकसित पद्म है।।१६६८।।
चउकोसरुंदमज्झं अंते दोकोसमहव चउकोसा।
पत्तेक्वं इगिकोसं उस्सेद्दायामकण्णिया तस्स।।१६६९।।
उसके मध्य में चार कोस और अन्त में दो अथवा चार कोस विस्तार है। उसकी कर्णिका की ऊँचाई और आयाम में से प्रत्येक एक कोस मात्र है।। १६६९।।
को ४ । २ । को ४ । को १। को. ४ । २ । ४ । को. १।
अहवा दोद्दो कोसा एक्कारसहस्सपत्तसंजुत्ता।
तक्कण्णिकाय उवरिं वेरुलियकवाडसंजुत्तो।।१६७०।।
अथवा, कर्णिका की ऊंचाई और लम्बाई दो-दो कोस मात्र है। यह कमलकर्णिका ग्यारह हजार पत्तों से संयुक्त है। इस कर्णिका के ऊपर वैडूर्यमणिमय कपाटों से संयुक्त और उत्तम स्फटिकमणि से निर्मित कूटरों में श्रेष्ठ भवन है। इसकी लम्बाई एक कोस, विस्तार अर्ध कोस प्रमाण और ऊंचाई एक कोस के चार भागों में से तीन भाग मात्र है।।१६७०-१६७१।।
को २ को २। को १ । १/२ । ३/४।
कूडागारमहारिहभवणो वरफलिहरयणणिम्मविदो।
आयामवासतुंगा कोसं कोसद्धतिचरणा कमसो।।१६७१।।
अथवा, कर्णिका की ऊंचाई और लम्बाई दो-दो कोस मात्र है। यह कमलकर्णिका ग्यारह हजार पत्तों से संयुक्त है। इस कर्णिका के ऊपर वैडूर्यमणिमय कपाटों से संयुक्त और उत्तम स्फटिकमणि से निर्मित कूटरों में श्रेष्ठ भवन है। इसकी लम्बाई एक कोस, विस्तार अर्ध कोस प्रमाण और ऊंचाई एक कोस के चार भागों में से तीन भाग मात्र है।।१६७०-१६७१।।
को १ । १/२ । ३/४ ।
तसंसि सिरियादेवी भवणे पलिदोवमप्पमाणाऊ।
दस चावाणिं तुंगा सोहिंम्मदस्स सहदेवी।।१६७२।।
इस भवन में एक पल्योपमप्रमाण आयु की धारक और दश धनुष ऊंची श्री नामक सौधर्म इन्द्र की सहदेवी निवास करती हैं।।१६७२।।
सिरिदेवीए होंति हु देवा सामाणिया य तणुरक्खा।
परिसत्तिदयाणीया पइण्णअभियोगकिब्बिसिया।।१६७३।।
श्री देवी के सामानिक, तनुरक्ष, तीनों प्रकार के पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक जाति के देव हैं।। १६७३।।
ते सामाणियदेवा विविहंजणभूसणोहिं कयसोहा।
सुपसत्थविउलकाया चउस्सहस्सयपमाणा य।।१६७४।।
विविध प्रकार के अंजन और भूषणों से शोभायमान तथा सुप्रशस्त एवं विशालकाय वाले वे सामानिक देव चार हजार प्रमाण हैं।। १६७४ ।।
४०००।
ईसाणसोममारुददिसाण भागेसु पउमउवरिम्मि।
सामाणियाण भवणा होंति सहस्साणि चत्तारि।।१६७५।।
ईशान, सोम (उत्तर) और वायव्य दिशाओं के भागों में पद्मों के ऊपर उन सामानिक देवों के चार हजार भवन हैं।। १६७५ ।।
४०००।
सिरिदेवीतणुरक्खा देवा सोलससहस्सया ताणं।
पुव्वादिसु पत्तेक्वं चत्तारिसहस्सभवणाणि।।१६७६।।
श्री देवी के तनुरक्षकदेव सोलह हजार हैं। इनके पूर्वादिक दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में चार हजार भवन है।। १६७६ ।।
४ ४००० · १६०००।
अब्भंतरपरिसाए आइच्चो णाम सुरवरो होदि।
बत्तीससहस्साणं देवाणं अहिवई धीरो।।१६७७।।
अभ्यन्तर परिषद् में बत्तीस हजार देवों का अधिपति धीर आदित्य नामक उत्तम देव है।। १६७७।।
पउमद्दहपउमोवरि अग्गिदिसाए भवंति भवणाइं।
बत्तीससहस्साइं ताणं वररयणरइदाइं।।१६७८।।
पद्मद्रह के कमलों के ऊपर आग्नेय दिशा में उन देवों के उत्तम रत्नों से रचित बत्तीस हजार भवन हैं।। १६७८ ।।
३२०००।
पउमम्मि चंदणामो मज्झिमपरिसाए अहिवई देओ।
चालीससहस्साणं सुराण बहुयाणसत्थाणं।।१६७९।।
पद्मद्रह पर मध्यम परिषद् के बहुत यान और शस्त्रयुक्त चालीस हजार देवों का अधिपति चन्द्र नामक देव है।। १६७९ ।।
३२०००।
अडदालसहस्साणं सुराण सामी समुग्गयपयाओ।
बाहिरपरिसाए जदुणामो सेवेदि सिरिदेविं।।१६८०।।
बाह्य परिषद् के अड़तालीस हजार देवों का स्वामी प्रतापशाली जतु नामक देव श्रीदेवी की सेवा करता है।। १६८०।।
४८०००।
णइरिदिसाए ताणं अडदालसहस्ससंखपासादा।
पउमद्दहमज्झम्मि य सुतुंगतोरणदुवाररमणिज्जा।। १६८१।।
नैऋतदिशा में उन देवों के उन्नत तोरणद्वारों से रमणीय अड़तालीस हजार भवन पद्मद्रह के मध्य में स्थित हैं।। १६८१ ।।
४८०००।
कुंजरतुरयमहारहगोवइगंधव्व-णट्टदासाणं ।
सत्त यणीया सत्तहि कच्छाहिं तत्थ संजुत्ता।।१६८२।।
कुंजर, तुरंग, महारथ, बैल, गन्धर्व, नर्तक और दास, इनकी सात सेनाएँ हैं। इनमें से प्रत्येक सात कक्षाओं से सहित है।।१६८२।।
पढमाणीयपमाणं सरिसं सामणियाण सेसेसुं।
विउणा विउणा संखा छस्सु वणीएसु पत्तेयं।।१६८३।।
प्रथम अनीक का प्रमाण सामानिक देवों के सदृश है। शेष छः सेनाओं में से प्रत्येक का प्रमाण उत्तरोत्तर दूना-दूना है।।१६८३।।
कुंजरपहुदितणूहिं देवा विकिरंति विमलसत्तिजुदा।
मायालोहविहीणा णिच्चं सेवंति सिरिदेविं।।१६८४।।
निर्मल शक्ति से संयुक्त देव हाथी आदि के शरीरों की विक्रिया करते और माया एवं लोभ से रहित होकर नित्य ही श्रीदेवी की सेवा करते हैं।। १६८४।।
सत्ताणीयाण घरा पउमद्दहपच्छिमप्पएसम्मि ।
कमलकुसुमाण उवरिं सत्त च्चिय कणयणिम्मविदा।।१६८५।।
सात अनीक देवों के सात घर पद्मद्रह के पश्चिम प्रदेश में कमल कुसुमों के ऊपर सुवर्ण से निर्मित हैं।। १६८५।।
अट्ठुत्तरसयमेत्तं पडिहारा मंतिणो य दूदा य ।
बहुविहवरपरिवारा उत्तमरूवाइं विणयजुत्ताइं।। १६८६।।
उत्तम रूप व विनय से संयुक्त और बहुत प्रकार के उत्तम परिवार से सहित ऐसे एक सौ आठ प्रतीहार, मंत्री एवं दूत हैं।। १६८६।।
अट्ठुत्तरसयसंखा पासादा ताणं पउमगब्भेसुं ।
दिसविदिसविभागठिदा दहमज्झे अधियरमणिज्जा।। १६८७।।
उनके अतिशय रमणीय एक सौ आठ भवन द्रह के मध्य में कमलों पर दिशा और विदिशा के विभागों में स्थित हैं।। १६८७।।
होंति पइण्ण्यपहुदी ताणं चउणं वि पउमपुप्पेसुं।
उच्छिण्णो कालवसा तेसुं परिमाणउवएसो।।१६८८।।
पद्मपुष्पों पर स्थित जो प्रकीर्णक आदिक देव हैं, उन चारों के प्रमाण का उपदेश कालवश नष्ट हो गया है।। १६८८।।
कमला अकिट्टिमा ते पुढविमया सुन्दरा य इगिलक्खं।
चालीससहस्साणिं एक्कसयं सोलसेहिं जुदं।।१६८९।।
वे सब अकृत्रिम पृथिवीमय सुन्दर कमल एक लाख चालीस हजार एक सौ सोलह हैं।। १६८९।।
१४०११६। एवं महापुराणं परिमाणं ताण होदि कमलेसुं ।
खुल्लयपुरसंखाणं को सक्कइ कादुमखिलेणं।।१६९०।।
इस प्रकार कमलों के ऊपर स्थित उन महानगरों का प्रमाण (एक लाख चालीस हजार एक सौ सोलह) है। इनके अतिरिक्त क्षुद्रपुरों की पूर्णरूप से गिनती करने के लिए कौन समर्थ हो सकता है ?।। १६९०।।
पउमदहे पुव्वमुहा उत्तरगेहा हवंति सव्वे वि।
ताणभिमुहा वि सेसा खुल्लयगेहा जहाजोग्गं।।१६९१।।
पद्मद्रह में सब ही उत्तम गृह पूर्वाभिमुख हैं और शेष क्षुद्रगृह यथायोग्य उनके सम्मुख स्थित हैं।। १६९१।।
कमलकुसुमेसु तेसुं पासादा जेत्तिया समुद्दिट्ठा ।
तेत्तियमेत्ता होंति हु जिणगेहा विविहरयणमया।।१६९२।।
उन कमल पुष्पों पर जितने भवन कहे गए हैं, उतने ही वहां विविध प्रकार के रत्नों से निर्मित जिनगृह भी हैं।। १६९२।।
भिंगारकलसदप्पणबुब्बुदघंटाधयादिसंपुण्णा ।
जिणवरपासादा ते णाणाविहतोरणदुवारा।।१६९३।।
वे जिनेन्द्र प्रासाद नाना प्रकार के तोरण द्वारों से सहित और झारी, कलश, दर्पण, बुद्बद्, घंटा एवं ध्वजा आदि से परिपूर्ण हैं।। १६९३।।
वरचामरभामंडलछत्तत्तयकुसुमवरिसपहुदीहिं ।
संजुत्ताओ तेसुं जिणवरपढिमाओ राजंति।।१६९४।।
उन जिनभवनों में उत्तम चमर, भामण्डल, तीन छत्र और पुष्पवृष्टि आदि से संयुक्त जिनेन्द्र प्रतिमाएँ विराजमान हैं।। १६९४।।