हिमवंतसरिसदीहा तडवेदी दोण्णि होंति भूमितले।
वे कोसा उत्तुंगा पंचधणुस्सदपमाणवित्थिण्णा१।।१६२९।।
जोयणदलविक्खंभो उभए पासेसु होदि वणसंडो।
बहुतोरणदारजुदा वेदी पुव्विल्लवेदिएहिं समा।।१६३०।।
खुल्लहिमवंतसिहरे समंतदो पउमवेदिया दिव्वा।
वणभवणवेदिसव्वं पुव्वं पिव एत्थ वत्तव्वं।।१६३१।।
सिद्धहिमवंतवूडा भरहइलागंगवूडसिरिणामा।
रोहीदासा सिधू सुरहेमवदं च वेसमणं।।१६३२।।
उदयं भूमुहवासं मज्झं पणुवीस तत्तियं दलिदं।
सुहभूमिजुदस्सद्धं पत्तेक्वं जोयणाणि वूडाणं।।१६३३।।
एक्कारस पुव्वादी समवट्टा वेदिएहिं रमणिज्जा।
वेंतरपासादजुदा पुव्वे वूडम्मि जिणभवणं।।१६३४।।
आयामो पण्णासं वित्थारो तद्दलं च जोयणया।
पणहत्तरिदलमुदओ तिहारजुदस्स जिणणिकेदस्स।।१६३५।।
पुव्वमुहदारउदओ जोयणया अट्ठ तद्दलं रुंदं।
रुंदसमं तु पवेसं ताणद्धं दक्खिणुत्तरदुवारे।।१३३६।।
अट्ठेव य दीहत्तं दीहच्चउभाग तत्थ वित्थारं।
चउजोयणउच्छेहो देवच्छंदो जिणणिवासे।।१६३७।।
सिहासणादिसहिया चामरकरणागजक्खमिहुणजुदा।
पुरुजिणपडिमा तुंगा अट्ठत्तरसयधणुप्पमाणाओ।।१३३८।।
सिरिदेवी सुददेवी सव्वाणसणक्कुमारजक्खाणं।
रूवाणि अट्ठमंगल देवच्छंदम्मि चेट्ठंति।।१६३९।।
लंबंतकुसुमदामा पारावयमोरवंठणिहवण्णा।
मरगयपवालवण्णा विदाणणिवहा विरायंति।।१६४०।।
भंभामुयंगमद्दलजयघंटावंसतालतिवलिजुदा।
पहुपडहसंखकाहलसुरदुंदुभिसद्दगंभीरा।।१६४१।।
जिणपुरदुवारपुरदो पत्तेक्वं वदणमंडवा दिव्वा।
पणवीसजोयणाइं वासो विउणाइ आयामो।।१६४२।।
अट्ठ च्चिय जोयणया अदिरित्ता होदि ताण उच्छेहो।
अभिसेयगीदअवलोयणाण वरमंडवा य तप्पुरदो।।१६४३।।
चउगोउराणि सालत्तिदयं वीहिसु माणथंभा य।
णवथूवा तह वणधयचित्तक्खोणीओ जिणणिवासेसुं।।१६४४।।
सव्वे गोउरदारा रमणिज्जा पंचवण्णरयणमया।
वाउलतोरणजुत्ता णाणाविहमत्तवारणया।।१६४५।।
बहुसालभंजियािह सुरकोकिलबरहिणादिपक्खीिह।
महुररवेिह सहिदा णच्चंताणेयधयवडायािह।।१६४६।।
एलातमालवल्लीलवंगवंकोलकदलिपहुदीिह।
णाणातरुरयणेिह उज्जाणवणा विराजंति।।१६४७।।
कल्हारकमलवंदलणीलुप्पलकुमुदकुसुमसंछण्णा।
जिणउज्जाणवणेसुं पोक्खरणीवाविवरवूवा।।१६४८।।
णंदादीअ तिमेहल तिपीढपुव्वाणि धम्मचक्काणिं।
चउवणमज्झगयािण चेदियरुक्खाणि सोहंति।।१६४९।।
सेसेसुं वूडेसुं वेंतरदेवाण होंति पासादा।
चउतोरणवेदिजुदा णाणाविहरयणणिम्मविदा।।१६५०।।
हेमवदभरहहिमवंतसेसमणणामधेयवूडेसुं।
णियवूडणामदेवा सेसे णियवूडणामदेवीओ।।१६५१।।
बहुपरिवारेिह जुदा चेट्ठंते तेसु देवदेवीओ।
दसधणुउच्छेहतणू सोहिंम्मदस्स ते य परिवारा।।१६५२।।
ताणं बरपासादा सकोसइगितीसजोयणारुंदा।
दोकोससट्ठिजोयणउदया सोहंति रयणमया।।१६५३।।
पायारवलहिगोउरधवलामलवेदियािह परियरिया।
देवाण होंति णयरा दसप्पमाणेसु वूडसिहरेसुं।।१६५४।।
धुव्वंतधयवडाया गोउरदारेिह सोहिदा विउला।
वरवज्जकवाडजुदा उववणपोक्खरणिवाविरमणिज्जा।।१६५५।।
कमलोदरवण्णणिहा तुहारससिकिरणहारसंकासा।
वियसियचंपयवण्णा णीलुप्पलरत्तकमलवण्णा य।।१६५६।।
वज्जिंदणीलमरगयकक्केयणपउमरायसंपुण्णा।
जिणभवणेहि सणाहा को सक्कइ वण्णिदुं सयलं।।१६५७।।
भूमितल पर हिमवान् पर्वत के सदृश लम्बी उसकी दो तटवेदियाँ हैं। ये वेदियाँ दो कोस ऊँची और पाँच सौ धनुषप्रमाण विस्तार से युक्त हैं।१६२९।।
उत्सेध कोस २। विस्तार दण्ड ५००। पर्वत के दोनों पाश्र्वभागों में अर्ध योजनप्रमाण विस्तार से युक्त वनखण्ड है तथा पूर्वोक्त वेदियों के समान बहुत तोरणद्वारों से संयुक्त वेदी है।।१६३०।।
यो० १/२। क्षुद्र हिमवान् पर्वत के शिखर पर चारों तरफ पद्मरागमणिमय दिव्य वेदिका है। वन, भवन और वेदी आदि सबका, पहले के समान यहाँ पर भी कथन करना चाहिये।।१६३१।।
सिद्ध, हिमवान्, भरत, इला, गंगा, श्री, रोहितास्या, सिन्धु, सुरा, हैमवत और वैश्रवण, इस प्रकार ये ग्यारह उस पर्वत के ऊपर कूट हैं।।१६३२।।
इनमें से प्रत्येक कूट की ऊँचाई पच्चीस योजन, भूविस्तार भी इतना अर्थात् पच्चीस योजन, मुखविस्तार पच्चीस का आधा अर्थात् साढ़े बारह योजन और मध्यविस्तार भूमि एवं मुख के जोड़ का अर्धभाग मात्र है।।१६३३।।
उत्सेध यो. २५। भूव्यास २५। मुखव्यास २५/२। मध्यव्यास ५०/२ ± २५/२´२ · यो. १८, को. ३। पूर्वादिक्रम से ये ग्यारह कूट समान गोल, वेदियों से रमणीय और व्यन्तरों के भवनों से संयुक्त हैं। इनमें से पूर्व कूट पर जिनभवन है।।१६३४।।
तीन द्वारों से संयुक्त इस जिनभवन की लम्बाई पचास योजन, विस्तार इसका आधा अर्थात् पच्चीस योजन और ऊँचाई पचहत्तर योजन के अर्धभाग प्रमाण अर्थात् साढ़े सैंतीस योजन है।।१६३५।।
आयाम ५०। विस्तार २५। उत्सेध ७५/२। द्वार ३। उपर्युक्त तीन द्वारों से पूर्वमुख द्वार की ऊँचाई आठ योजन, विस्तार इससे आधा अर्थात् चार योजन और विस्तार के समान प्रवेश भी चार योजनमात्र है। शेष दक्षिण और उत्तर द्वार की लम्बाई आदि पूर्व द्वार से आधी है।।१६३६।।
पूर्वमुखद्वार-उत्सेध ८। विस्तार ४। प्रवेश ४। द. उ. द्वार-उत्सेध ४। विस्तार २। प्रवेश २। जिनभवन में आठ योजन लंबा तथा लम्बाई के चतुर्थभाग मात्र विस्तार से संयुक्त और चार योजन ऊँचा ऐसा देवच्छंद है।।१६३७।।
वहाँ पर सिहासनादि से सहित, हाथ में चमरों को लिए हुए नागयक्षयुगल से संयुक्त और एक सौ आठ धनुषप्रमाण ऊँची उत्तम जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं।।१६३८।।
देवच्छंद के भीतर श्रीदेवी, श्रुतदेवी तथा सर्वाह्व और सनत्कुमार यक्षों की मूर्तियाँ एवं आठ मंगलद्रव्य स्थित हैं।।१६३९।।
वहाँ पर लटकती हुई पुष्पमालाओं से संयुक्त और कबूतर व मयूर के कंठसदृश तथा मरकत एवं मूंगा जैसे वर्ण वाले चँदोवों के समूह शोभायमान हैं।।१६४०।।
प्रत्येक जिनपुरद्वार के आगे भंभा (भेरी), मृदंग, मर्दल, जयघंटा, कांस्यताल और तिवली से संयुक्त तथा पटुपटह, शंख, काहल और सुरदुन्दुभि बाजों के शब्दों से गम्भीर ऐसे दिव्य मुखमण्डप हैं। इन मण्डपों का विस्तार पच्चीस योजन और लम्बाई इससे दूनी अर्थात् पचास योजन मात्र है।।१६४१-१६४२।।
२५। ५०। इन मण्डपों की ऊँचाई आठ योजन से अधिक है। इनके आगे अभिषेक, गीत और अवलोकन के उत्तम मण्डप हैं।।१६४३।।
जिनभवनों में चार गोपुर, तीन प्राकार, वीथियों में मानस्तम्भ, नौ स्तूप, वनभूमि, ध्वजाभूमि और चैत्यभूमि होती है।।१६४४।।
पाँच वर्ण के रत्नों से निर्मित सब गोपुरद्वार पुतलीयुक्त तोरणों से सहित और नाना प्रकार के मत्तवारणों से रमणीय हैं।।१६४५।।
इसके अतिरिक्त ये गोपुरद्वार बहुत सी शालभंजिकाओं (पुतलियों) एवं मधुर शब्द करने वाले सुरकोकिल और मयूर आदिक पक्षियों सहित तथा नाचती हुई अनेक ध्वजा-पताकाओं से संयुक्त हैं।।१६४६।।
वहाँ के उद्यानवन इलायची, तमालवल्ली (शाल), लौंग, कंकोल (शीतल चीनी का वृक्ष) और केला इत्यादि नाना वृक्ष-रत्नों से शोभायमान हैं।।१६४७।।
जिनगृह के उद्यानवनों में कल्हार, कमल, कन्दल, नीलकमल और कुमुद के फूलों से व्याप्त पुष्करिणी, वापी और उत्तम कूप हैं।।१६४८।।
चारों वनों के मध्य में स्थित तीन मेखलायुक्त नन्दादिक वापिकाएँ, तीन पीठों से सहित धर्मचक्र और चैत्यवृक्ष शोभायमान हैं।।१६४९।।
शेष कूट पर चार तोरण वेदियों से सहित और नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित व्यन्तर देवों के भवन हैं।।१६५०।।
हैमवत, भरत, हिमवान् और वैश्रवण नामक वूकूट पर अपने-अपने वूकूट के नामक देव तथा शेष वूकूट पर अपने-अपने वूकूट के नाम की देवियाँ रहती हैं ।।१६५१।।
इन वूकूट पर बहुत परिवार और दश धनुषप्रमाण ऊँचे शरीर से युक्त जो देव-देवियाँ स्थित हैं, वे सौधर्म इन्द्र के परिवाररूप हैं ।।१६५२।।
इन व्यन्तर देव-देवियों के रत्नमय भवन विस्तार में इकतीस योजन एक कोस और ऊँचाई में बासठ योजन दो कोसप्रमाण होते हुए शोभायमान हैं।।१६५३।।
दश वूकूट के शिखरों पर प्राकार, बलभी (छज्जा), गोपुर और धवल निर्मल वेदिकाओं से व्याप्त देवों के नगर हैं।।१६५४।।
ये देवों के नगर उड़ती हुई ध्वजापताकाओं से सहित, गोपुरद्वारों से शोभित, विशाल, उत्तम वङ्कामय कपाटों से युक्त और उपवन, पुष्करिणी एवं वापिकाओं से रमणीय हैं।।१६५५।।
इन नगरों से कितने ही कमलोदरवर्ण के सदृश वर्ण वाले, कितने ही तुषार, चन्द्रकिरण एवं हार के सदृश, कितने ही विकसित चम्पक जैसे वर्ण वाले और कितने ही नील व रक्तकमल के सदृश वर्ण वाले हैं।।१६५६।।
उपर्युक्त नगर वङ्कामणि, इन्द्रनीलमणि, मरकतमणि, कक्रेतन (रत्नविशेष) और पद्मरागमणियों से परिपूर्ण तथा जिनभवनों से सनाथ हैं। इनका पूरा वर्णन करने के लिए कौन समर्थ हो सकता है ?।।१६५७।।