इसलिए उपलब्धि और अनुपलब्धि के भेद से हेतु के दो भेद हैं। उनमें विधि को साध्य करने में उपलब्धि हेतु के छह भेद हैं और प्रतिषेध को साध्य करने में भी छह भेद हैं।
अनुपलब्धि के प्रतिषेध को सिद्ध करने में सात भेद हैं और विधि के सिद्ध करने में तीन भेद सुव्यवस्थित हैं। उन सभी हेतुओं में अविनाभाव नियम निश्चयरूप एक लक्षण के बल से गमकत्व-सिद्ध है अर्थात् ये सभी हेतु अविनाभाव नियमरूप निश्चित एक लक्षण के बल से अपने-अपने साध्य को सिद्ध करने वाले हैं।
शंका-अदृश्यानुपलब्धि हेतु से अभाव को सिद्ध करने में संशय ही बना रहेगा ?
समाधान-नहीं, इस प्रकार से तो उपलब्धि हेतु से अपने चैतन्य के अभाव में भी संशय का प्रसंग आ जावेगा।
दूसरी बात यह है कि बहिरंग और अंतरंग निरंश तत्त्व प्रमाण की पदवी पर आरोहण नहीं कर सकता है। क्रम और अक्रम से अनेक स्वभाव वाले बहिरंग और अंतरंगरूप चेतन-अचेतन तत्त्व में प्रमाण की प्रवृत्ति होती है इसलिए प्रमाण से बाधित विषय वाला होने से बौद्ध के द्वारा परिकल्पित सभी सत्त्व आदि हेतु अकिंचित्कर अभाव विरुद्ध ही हो जाते हैं। इस तरह उनके मन में अनुमान को प्रमाणता वैâसे हो सकेगी ?
विशेषार्थ-किसी भी वस्तु के अभाव को अनुपलब्धि कहते हैं। उसके दो भेद हैं-दृश्यानुपलब्धि और अदृश्यानुपलब्धि। दिखने योग्य पदार्थ के अभाव को दृश्यानुपलब्धि और नहीं दिखने योग्य पदार्थ के अभाव को अदृश्यानुपलब्धि कहते हैं। जैसे-कमरे में पुस्तक थी, किसी ने वहाँ से हटा दी तब उस कमरे में पुस्तक की दृश्यानुपलब्धि है तथा कमरे में भूत था, चला गया, उस भूत के अभाव को या पर की आत्मा, ज्ञान, व्याधि आदि भी दिखने योग्य नहीं है, उनके अभाव को अदृश्यानुपलब्धि कहते हैं।
यहाँ बौद्ध दृश्यानुपलब्धि को ही मानता है उसके एकांत का निराकरण करने के लिए श्री भट्टाकलंक देव ने कहा कि अन्य के चैतन्य आदि अदृश्य हैं, उनका अभाव लौकिक जन भी मानते हैं। उनके श्वांस आदि को नहीं देखकर कह देते हैं कि इनमें से जीव निकल गया है अन्यथा उसको जलाने वाले को पापी, मनुष्यघाती कहना पड़ेगा परन्तु ऐसा तो है नहीं, इसलिए अदृश्यानुपलब्धि भी सिद्ध है।
पुन: किसी ने कहा कि नदीपूर आदि कार्य देखकर मेघ वर्षा आदि कारण को जानना ठीक है किन्तु किसी कार्य के अभाव में कारण को जानना असंभव है। तब श्री वृत्तिकार आचार्य ने कहा कि ऐसा नहीं है, देखो! अश्रद्धान रूप कार्य के अभाव में मिथ्यात्व रूप कारण का अभाव जाना जाता है तथा मुख का कड़ुवापन आदि के अभाव में पित्त ज्वर आदि के अभाव को जाना जाता है। बस! हेतु में साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित होना चाहिए।
अनंतर हेतु के बाईस भेद किये हैं-
परीक्षामुख गं्रथ में श्री माणिक्यनंदी आचार्य ने इनका स्पष्टीकरण किया है-
हेतु के उपलब्धि और अनुपलब्धि से दो भेद हैं। उपलब्धि के दो भेद हैं-अविरुद्धोपलब्धि और विरुद्धोपलब्धि। अनुपलब्धि के भी दो भेद हैं-अविरुद्धानुपलब्धि और विरुद्धानुपलब्धि।
अविरुद्धोपलब्धि के व्याप्य, कार्य, कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर के भेद से छह भेद हैं-(१) शब्द परिणामी होता है क्योंकि वह किया हुआ है, यह अविरुद्धव्याप्योपलब्धि का उदाहरण है।
(२) इस प्राणी में बुद्धि है क्योंकि बुद्धि के कार्य, वचन आदि पाये जाते हैं, यह अविरुद्ध कार्योपलब्धि है। (३) यहाँ छाया है क्योंकि छत्र मौजूद हैं, यह अविरुद्ध कारणोपलब्धि है। (४) एक मुहूर्त के बाद रोहिणी नक्षत्र का उदय होगा क्योंकि कृत्तिका का उदय हो रहा है, यह पूर्व चरोपलब्धि है। (५) एक मुहूर्त के पहले भरणी नक्षत्र का उदय हो चुका है क्योंकि कृत्तिका का उदय हो रहा है, यह उत्तर चरोपलब्धि है। (६) इस बिजौरे में रूप है क्योंकि रस पाया जाता है यह सद्चरोपलब्धि का उदाहरण है।
विरुद्धोपलब्धि के भी ऐसे ही छह भेद हैं-(१) यहाँ शीत स्पर्श नहीं है क्योंकि उससे विरुद्ध अग्नि की व्याप्य उष्णता मौजूद है, यह विरुद्ध व्याप्योपलब्धि का उदाहरण है। (२) यहाँ शीत स्पर्श नहीं है क्योंकि उससे विरुद्ध अग्नि का कार्य धूम मौजूद है यह विरुद्ध कार्योपलब्धि है। (३) इस जीव में सुख नहीं है क्योंकि उससे विरुद्ध दुख का शल्य मौजूद है, यह विरुद्ध कारणोपलब्धि है। (४) एक मुहूर्त के बाद रोहिणी का उदय नहीं होगा क्योंकि उसके विरुद्ध अश्विनी नक्षत्र के पूर्वचर रेवती नक्षत्र का उदय हो रहा है, यह विरुद्ध पूर्वचरोपलब्धि है। (५) एक मुहूर्त के पहले भरणी का उदय नहीं हुआ है क्योंकि अभी पुण्य का उदय हो रहा है, यह विरुद्ध उत्तरचरोपलब्धि है। (६) इस दीवाल में उस तरफ के भाग का अभाव नहीं है क्योंकि इस तरफ का भाग दिख रहा है, यह विरुद्ध सहचरोपलब्धि का उदाहरण है।
अविरुद्धानुपलब्धि के प्रतिषेध में सात भेद हैं-स्वभाव, व्यापक, कार्य, कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर। (१) इस भूतल पर घट नहीं है क्योंकि वह दिखता नहीं है, यह अविरुद्ध स्वभावानुपलब्धि है। (२) यहाँ सीसम नहीं है क्योंकि उसके व्यापक वृक्ष का अभाव है, यह अविरुद्ध व्यापकानुपलब्धि है।
(३) यहाँ बिना सामर्थ्य रुकी अग्नि नहीं है क्योंकि धूम नहीं पाया जाता है, यह अविरुद्ध कार्यानुपलब्धि है। (४) यहाँ धूम नहीं है क्योंकि अग्नि नहीं है, यह अविरुद्ध कारणानुपलब्धि है। (५) एक मुहूर्त बाद रोहिणी का उदय नहीं होगा क्योंकि अभी कृत्तिका का उदय नहीं हुआ है, यह अविरुद्ध पूर्वचरानुपलब्धि है (६) एक मुहूर्त पहले भरणी का उदय नहीं हुआ था क्योंकि अभी कृतिका का उदय नहीं हुआ है, यहाँ अविरुद्ध उत्तरचरोपलब्धि हेतु है। (७) इस तराजू में ऊँचापन नहीं है क्योंकि नीचेपन का अभाव है, यह अविरुद्ध सहचरोपलब्धि हेतु है।
विरुद्धानुपलब्धि के विधि में तीन भेद हैं-कार्य, कारण और स्वभाव। (१) इस प्राणी में कोई रोग है क्योंकि नीरोग चेष्टा नहीं पायी जाती है, यह विरुद्ध कार्यानुपलब्धि है। (२) इस प्राणी में दुख है क्योंकि इष्ट संयोग का अभाव है, यह विरुद्ध कारणानुपलब्धि है। (३) वस्तु अनेकांतात्मक है क्योंकि उसमें नित्य आदि एकांत स्वरूप का अभाव है, यह विरुद्ध स्वभावानुपलब्धि हेतु का उदाहरण है।इस प्रकार से हेतु के बाईस भेदों का वर्णन करके आचार्य ने कहा है कि गुरु परम्परा से और भी जो हेतु संभव हो सकते हों, उनका पूर्वोक्त साधनों में ही अंतर्भाव करना चाहिए।
उत्थानिका-स्याद्वादियों के यहाँ भी अनेकांतात्मक तत्त्व प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध होने से अनुमान प्रमाण की विफलता का प्रसंग आ जाता है, इस प्रकार की आशंका होने पर आचार्य अगली कारिका को कहते हैं-
अन्वयार्थ-(वीक्ष्याणुपारिमांडल्य क्षण भंगाद्यवीक्षणं) स्थूल के अणुओं की गोलाई और क्षण-क्षण में नाश होना आदि दिखते नहीं हैं (स्वसंविद्विषयाकार विवेकानुपलम्भवत्) जैसे स्वसंवेदन के विषयाकार के भेद की उपलब्धि नहीं होती है।।७।।
अर्थ-वीक्ष्य-देखने योग्य स्थूल के अणु-सूक्ष्म अवयवों की गोलाई, और क्षणभंग-क्षण-क्षण में नाश होना आदि इनका अवीक्षण-प्रत्यक्ष से उपलब्धि नहीं होती है। जैसे-स्वसंवेदन के विषयाकार-घटपटादि आकार के भेद पृथक्करण की उपलब्धि नहीं होती है अर्थात् अणु की गोलाई आदि सूक्ष्म वस्तुएँ और क्षण-क्षण में पदार्थों का नाश होना आदि प्रत्यक्ष ज्ञान से नहीं दिखता है जैसे कि ज्ञान से उसमें होने वाले घटाकार को अलग करने की उपलब्धि नहीं होती है।।७।।
तात्पर्यवृत्ति-उपलब्धि लक्षण प्राप्त स्थूल को ‘वीक्ष्य’ कहते हैं। उसके सूक्ष्म अवयवों को ‘अणु’ कहते हैं। उन अणुओं का वर्तुलाकार परिमंडल कहलाता है। ये अणु परस्पर में भिन्न-भिन्न रहते हैं। क्षण-क्षण में भंग-नाश होना क्षण भंग है अर्थात् एक समय में नष्ट हो जाना। क्षणभंगादि में आदि शब्द से कार्य-कारण की सामर्थ्य आदि को लेना चाहिए। इनका अवीक्षण-प्रत्यक्ष से उपलब्ध न होना अर्थात् निश्चित ही सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष से वेक्षणभंग आदि नहीं दिखते हैं किन्तु उसके द्वारा स्थिर स्थूल साधारण आकार ही देखा जाता है। योगी प्रत्यक्ष ही उनको (क्षणवर्ती पर्यायों को) देखनें में समर्थ होता है इसलिए वहाँ-उस सूक्ष्म परमाणु आदि के आकार को और क्षणिक आदि को जानने में अनुमान ही जागता-प्रगट होता है। वही उनके निर्णय की सामर्थ्य रखता है।
सत्त्वात्, प्रमेयत्वात्, अर्थक्रियाकारित्वात् इत्यादि हेतुओं में कथंचित् अनेक, अनित्यादि धर्म व्याप्य होने से उनका अविनाभाव प्रसिद्ध है। इस प्रकृत अर्थ में दृष्टांत देते हैं-जैसे स्वसंवेदन के विषयाकार-घटादि आकार से विवेक-व्यावृत्ति की उपलब्धि नहीं होती है अर्थात् प्रत्यक्ष से ग्रहण नहीं होता है। जिस प्रकार आप सौगत के यहाँ ज्ञान के स्वरूप प्रतिभासन में बाह्य अर्थाकार का अभाव, विद्यमान होने से भी प्रतिभासित नहीं होता है क्योंकि उस ज्ञान में उस प्रकार के सामर्थ्य का अभाव है। उसी प्रकार बहिरंग-अंतरंग, अणु के वर्तुलाकार आदि प्रत्यक्ष से प्रतिभासित नहीं होते हैं, क्योंकि वैसी शक्ति का अभाव है इसलिए अनेकांत मत में अनुमान सफल है, यह अर्थ हुआ।
भावार्थ-‘अदृश्यपरचित्तादे’ इत्यादि कारिका की टीका में श्री अभयचंद्रसूरि ने अंत में कहा कि बौद्ध के यहाँ प्रमाण से बाधित विषय के होने से ‘सर्वं क्षणिकं सत्त्वात्’ इत्यादि अनुमानों में हेतु अकिंचित्कर या विरुद्ध ही हैं इसलिए उनके मत में अनुमान प्रमाण नहीं बनता है। तब उसने भी कह दिया कि आप स्याद्वादियों के यहाँ भी अनेकांतात्मक तत्त्व प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है पुन: आपके यहाँ भी अनुमान प्रमाण मानना व्यर्थ ही रहा।
तब आचार्यदेव ने उत्तर दिया कि आपके द्वारा मान्य अणु आदि के आकार और क्षण-क्षण का विनाश भी तो प्रत्यक्ष से ही नहीं दिख रहा है। उसको जानने के लिए अनुमान की आवश्यकता है ही है।
अर्थात् बौद्ध का कहना है कि प्रत्येक दिखने योग्य स्थिर स्थूल घट आदि वस्तु में जितने भी परमाणु हैं वे प्रत्येक वर्तुलाकार हैं और परस्पर में भिन्न-भिन्न हैं तथा प्रत्येक पदार्थ एक क्षण ठहरता है। अनंतर क्षण में ही नष्ट हो जाता है तथा कार्य और कारण की शक्ति भी दिखती नहीं है।
आचार्यों का कहना है कि इन अदृश्य वस्तुओं के जानने के लिए अनुमान प्रमाण मानना बहुत जरूरी है क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञान से उन सूक्ष्मादि का प्रतिभासन नहीं होता है प्रत्युत् स्थिर, स्थूल आदि का और अनेक क्षण रहने वाली वस्तु का ही ज्ञान होता है।
उत्थानिका-बौद्ध के मत में ‘अनुपलब्धि हेतु मत सिद्ध होवे किन्तु कार्य हेतु और स्वभाव हेतु ये दो हेतु होवेंंगे परन्तु वे दोनों हेतु भी नहीं घटते हैं, आचार्य ऐसा कहते हैं-
अन्वयार्थ-(बहिरंत: च अनंशं) बहिरंग और अंतरंग निरंश तत्त्व (अप्रत्यक्षं) प्रत्यक्ष नहीं है (तत् अभासनात्) क्योंकि वह प्रतिभासित नहीं होता है पुन: (तत्स्वभाव: क: हेतु:) उस अनंश का कौन स्वभाव हेतु (स्यात्) होगा (तत्कार्यं किं) और उसका क्या कार्य होगा (यत: अनुमा) कि जिससे अनुमान (स्यात्) हो सके अर्थात् नहीं हो सकता है।।८।।
अर्थ-बहिरंग और अंतरंग अनंश तत्त्व प्रत्यक्ष का विषय नहीं है क्योंकि उस अनंश का प्रतिभास नहीं होता है पुन: उस अनंश का कौन सा स्वभाव हेतु होगा और उसका क्या कार्य होगा कि जिससे अनुमान हो सके।।८।।
तात्पर्यवृत्ति-सौगत के द्वारा परिकल्पित जो बाह्य-अचेतन और अंतरंग-चेतन वस्तुएं हैं जो कि निरंश हैं वे प्रत्यक्ष के ज्ञान का विषय नहीं हैं। यहाँ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के विभाग को अंश कहते हैं उनसे निष्क्रांत-रहित वस्तु निरंश कहलाती है।
प्रश्न-ये निरंश चेतन-अचेतन आदि क्यों प्रमाण के विषय नहीं हैं ?
उत्तर-क्योंकि वह निरंशपना प्रतिभासित नहीं होता है अर्थात् अनुभव में नहीं आता है। द्रव्य, क्षेत्र आदि के विभाग से रहित चेतन अथवा अचेतन तत्त्व प्रत्यक्षज्ञान में प्रतिभासित होते हैं। उस ज्ञान में नित्यानित्यादि अनेक अंशों में व्यापी होने रूप वस्तु की प्रतीति होती है इसलिए प्रत्यक्ष से असिद्ध उस निरंश वस्तु का कौन स्वभाव-धर्म हेतु हो सकेगा अर्थात् कोई भी स्वभाव हेतु नहीं होगा क्योंकि जो प्रमाण से असिद्ध है वह अहेतु है-हेतु नहीं हो सकता है।
और उस निरंश का क्या कार्य है जो कि हेतु हो सके क्योंकि सर्वथा निरंश और अपरिणामी में कार्य कारण भाव का अभाव है। ‘प्यतोऽनुमा’-कि जिससे अनुमान हो सके यह आक्षेप वचन है अर्थात् किसी प्रकार से भी अनुमान नहीं बन सकता है इसलिए सौगत के मत में अनुमान, प्रमाणता को नहीं प्राप्त होता है। अनुपपत्ति होने से अर्थात् इनके यहाँ अनुमान प्रमाण घटित नहीं होता है।
भावार्थ-बौद्ध ने चेतन-अचेतन सभी वस्तुओं को द्रव्यक्षेत्रादि अंश भागों से रहित निरंश माना है अतएव आचार्य कहते हैं कि उस निरंश का स्वभाव तो क्या है और कार्य भी क्या है ? उसमें कुछ स्वभाव मानें तो अंश कल्पना हो जायेगी और उसका कुछ कार्य मानें तो कार्य-कारण भाव से भी अंशकल्पना हो जाती है और जब उसका स्वभाव तथा कार्य सिद्ध नहीं हुआ, तब स्वभाव हेतु कार्य हेतु के बिना अनुमान का होना सुतरां असंभव है जैसे कि बंध्या के पुत्र के बिना उसको आकाश के फूलों की माला पहनाना असंभव है।
उत्थानिका-और दूसरी बात यह है कि अनुमान विकल्पात्मक है वह सौगत के मत में सिद्ध ही नहीं हो सकता है, ऐसा प्रतिपादन करते हैं-
अन्वयार्थ-(बहि: अंत: च) बहिरंग और अंतरंग पदार्थ में (विकल्पाविकल्पात्मा) विकल्परूप और अविकल्पस्वरूप (निश्चयात्मा धी:) अनुमान ज्ञान (किं पुन: स्वत: सिद्ध्येत्) क्या पुन: स्वत: सिद्ध हो सकता है (परतोऽपि) पर से भी (क्या पुन: सिद्ध हो सकता है ?) (अनवस्थिते:) क्योंकि अनवस्था आती है।।९।।
अर्थ-बाह्य विषय में विकल्पात्मक और अंतरंग विषय में-स्वरूप में अविकल्पात्मक ऐसा निश्चयात्मा-अनुमान ज्ञान क्या पुन: स्वत: सिद्ध हो सकता है ? अर्थात् नहीं। और पर से भी नहीं सिद्ध हो सकता है क्योंकि अनवस्था आ जाती है अर्थात् आपके यहाँ अनुमान ज्ञान पर-घटादि को जानने में विकल्पस्वरूप है और स्वरूप में निर्विकल्प है, ऐसा अनुमानज्ञान स्वत: स्वसंवेदन से अथवा पर से विकल्पांतर सिद्ध नहीं हो सकता है।।९।।
तात्पर्यवृत्ति-अनुमान ज्ञान को निश्चयात्मा कहते हैं। विकल्प को व्यवसाय निश्चय और अविकल्प को अव्यवसाय कहते हैं। बाह्य-घट पटादि के विषय में विकल्पात्मक और अंत:स्वरूप में निर्विकल्पात्मक अनुमान ज्ञान पुन: वैâसे सिद्ध हो सकता है अर्थात् सिद्ध नहीं हो सकता है।
प्रश्न-वैâसे सिद्ध नहीं होता है ?
उत्तर-स्वत: अर्थात् स्वसंवेदन से सिद्ध नहीं होता है ? क्योंकि वह स्वसंवेदन निर्विकल्प होने से विकल्प को विषय नहीं करता है। ‘‘सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनं स्वसंवेदनम्’’ अर्थात् सभी ज्ञान क्षणों का स्वरूप संवेदन ही स्वसंवेदन है ऐसा आप बौद्धों का वचन है। केवल स्वत: ही नहीं किंतु पर से भी वैâसे सिद्ध होगा ? अर्थात् पर-विकल्पांतर से भी सिद्ध नहीं होता है।
प्रश्न-पर से क्यों नहीं सिद्ध होता है ?
उत्तर-अनवस्था आ जाने से सिद्ध नहीं होता है अर्थात् विकल्पात्मक अनुमान को सिद्ध करने के लिए एक दूसरा विकल्प ज्ञान लाये, पुन: उसकी सिद्धि के लिए तीसरा विकल्पज्ञान लाना पड़ेगा क्योंकि वह भी विकल्प को विषय न करने से स्वत: सिद्ध नहीं है और उस तीसरे को सिद्ध करने के लिए पुन: एक विकल्पांतर की कल्पना करनी पड़ेगी। इस प्रकार से बहुत दूर जाकर कहीं पर भी उपरति न होने से अनवस्था आ जाती है इसलिए अनुमान की सिद्धि न होने से बौद्ध के द्वारा कल्पित प्रमाण की संख्या (दो) का नियम भी वैâसे घटित हो सकेगा, अर्थात् नहीं हो सकेगा यह भाव हुआ।
भावार्थ-बौद्धों का कहना है कि अनुमान ज्ञान निश्चयात्मक है और वह बाह्य पदार्थों का निश्चय करता है किन्तु अपने स्वरूप में निर्विकल्प है। यहाँ आचार्य कहते हैं कि ऐसा अनुमान ज्ञान स्वत: तो सिद्ध नहीं हो सकता है क्योंकि स्वसंवेदन में तो वह निर्विकल्प ही रहा तथा पर से सिद्धि मानने से तो उस पर की सिद्धि पर से पुन: पर की सिद्धि पर से मानते चलिए, कहीं भी विराम न होने से अनवस्था आ जाती है अत: आप बौद्धों के यहाँ अनुमान ज्ञान के सिद्ध न होने से आपके द्वारा मान्य प्रमाण की दो संख्या का नियम समाप्त हो जाता है।
उत्थानिका-आप जैन के यहाँ भी प्रमाण के दो विध का नियम नहीं टिकता है क्योंकि आपने उपमान नाम के एक भिन्न प्रमाण को संगृहीत नहीं किया है। इस प्रकार से कहने वाले नैयायिक आदि की व्यव्ास्था को आ़ड़े हाथ लेते हुए उनके मत में भी संख्या के नियम को विघटित करते हैं-
अन्वयार्थ-(प्रसिद्धार्थ साधर्म्यात् साध्यसाधनं) प्रसिद्ध अर्थ की सदृशता से साध्य को सिद्ध करने वाला (उपमानं) उपमान है। पुन: (वैधर्म्यात्) विसदृशता से (होने वाला साध्य का ज्ञान (तत् किं प्रमाणं स्यात्) वह क्या प्रमाण होगा ? (संज्ञिप्रतिपादनं) तथा संज्ञी-वाच्य का प्रतिपादन करने वाला ज्ञान-संज्ञा-संज्ञी का संबंध ज्ञान (तत् किं प्रमाणं स्यात्) वह क्या प्रमाण होगा ?।।१०।।
अर्थ-‘प्रसिद्ध अर्थ की सदृशता से साध्य को सिद्ध करने वाला ज्ञान उपमान प्रमाण है।’ तब तो उस प्रसिद्ध अर्थ की विसदृशता से होने वाला साध्य का ज्ञान कौन सा प्रमाण होगा ? तथा संज्ञी-वाच्य का प्रतिपादन करने वाला-संज्ञा और संज्ञी का संबंध ज्ञान भी कौन सा प्रमाण होगा ? अर्थात् इनको भी पृथक् प्रमाण मानने पड़ेंगे। तब आपकी प्रमाण संख्या का व्याघात हो जावेगा इसलिए उपमान को भी पृथक् मत मानिये।।१०।।
तात्पर्यवृत्ति-यहाँ पर ‘यत्’ इस पद का अध्याहार करना चाहिए। प्रसिद्ध प्रमाण से निश्चित गोरूप अर्थ के सादृश्य धर्म से उत्पन्न हुआ साध्य-ज्ञेयरूप उस सादृश्य धर्म से विशिष्ट गवयलक्षण को सिद्ध करता है अर्थात् ‘गाय के सदृश गवय है’ इस प्रकार का जो ज्ञान है वह उपमान नाम का भिन्न प्रमाण है। यदि आप नैयायिक इस तरह उपमान को भिन्न प्रमाण स्वीकार करते हैं तब तो आपको उस गाय के रूप से वैधर्म्य से प्रसिद्ध हुई अर्थ की विसदृशता से उत्पन्न हुआ और साध्य को सिद्ध करने वाला जो ज्ञान है वह ‘गाय से विलक्षण महिष है’ इस प्रकार का ज्ञान कौन सा प्रमाण है ? अर्थात् उसका क्या नाम है ? इसको भी आप उपमान ही नहीं कह सकते क्योंकि उसके लक्षण का अभाव है। इसे आप प्रत्यक्ष आदि प्रमाण भी नहीं कह सकते, क्योंकि यह भिन्न विषय वाला है और भिन्न सामग्री से उत्पन्न हुआ है।
उसी प्रकार से संज्ञी-वाच्य प्रतिपादन करना, विवक्षित संज्ञा के विषय रूप से संकलन करना; जैसे-‘यह वृक्ष है’। ऐसा ज्ञान, वह भी किस नाम वाला प्रमाण होगा ? अर्थात् उपमान प्रमाण को पृथक् मानने से तो आपको अनेकों प्रमाण मानने पड़ेंगे। संज्ञा और संज्ञी (नाम-नाम वाले) के संबंध का ज्ञान अप्रमाण भी नहीं है अन्यथा आगम प्रमाण का लोप हो जावेगा और उपमान भी अप्रमाण हो जावेगा।
भावार्थ-नैयायिक उपमान को एक पृथक् प्रमाण मानता है किन्तु आचार्यों का कहना है कि इस तरह तो विसदृश धर्म आदि के निमित्त से हुए ज्ञानों को आप भिन्न -भिन्न प्रमाण मानते चलिए, यह दूषण दिया है। वास्तव में हम जैनों के यहाँ तो इस उपमान आदि प्रमाणों को प्रत्यभिज्ञान प्रमाण में गर्भित किया है और सादृश्य प्रत्यभिज्ञान आदि नाम दिये हैं इसलिए हमारे यहाँ कोई दूषण नहीं आता है।
उत्थानिका-इसी उपर्युक्त कथन का ही समर्थन करते हैं-
अन्वयार्थ-(यत:) जिस ज्ञान से (प्रत्यक्षार्थान्तरापेक्षा) प्रत्यक्ष से भिन्न अर्थ की अपेक्षा रखने वाला (संबंध प्रतिपत्) वाच्य-वाचक भावरूप संबंध का ज्ञान होता है (चेत् तत् प्रमाणं न) यदि वह ज्ञान प्रमाण नहीं है, तो (तथा सर्वं उपमानं कुत:) उसी प्रकार से सभी उपमान प्रमाण वैâसे होंगे ?।।११।।
अर्थ-जिस ज्ञान से प्रत्यक्षार्थान्तर की अपेक्षा करने वाले संबंध का ज्ञान होता है यदि वह ज्ञान प्रमाण नहीं है तब उसी प्रकार से सभी उपमान प्रमाण वैâसे होंगे ?।।११।।
भावार्थ-यदि आप उपमान को एक पृथक् प्रमाण मानते हो तो वाच्य-वाचक के संबंध का ज्ञान आदि जितने भी जोड़रूप ज्ञान होंगे, सभी को प्रमाण मानना पड़ेगा।
तात्पर्यवृत्ति-जिस ज्ञान से प्रत्यक्ष अर्थांतर-उससे भिन्न अर्थ की अपेक्षा करने वाला वाच्य-वाचक भावरूप संबंध का ज्ञान होता है अर्थात् प्रकृत शब्द लक्षण से भिन्न अर्थ अर्थांतर है, ‘वृक्षादि’ प्रत्यक्ष अर्थांतर हैं, उनकी अपेक्षा जिस ज्ञान को है, वह प्रत्यक्ष अर्थांतर की अपेक्षा वाला ज्ञान कहलाता है। वह ज्ञान यदि प्रमाण न होवे, तब तो सभी नैयायिक, मीमांसक आदि के द्वारा कल्पित सभी उपमान वैâसे प्रमाण हो सकते हैं ? क्योंकि दोनों जगह कोई अंतर नहीं है। सादृश्य संबंधी ज्ञान प्रमाण है किन्तु वाच्य वाचक संबंधी ज्ञान प्रमाण नहीं है, इस प्रकार का अंतर तो है नहीं। इसलिए संज्ञा और संज्ञी का संकलन-जोड़ रूप ज्ञान भी एक भिन्न प्रमाण हो ही जायेगा इसलिए आप लोगों के द्वारा मान्य प्रमाण की संख्या का नियम वैâसे बनेगा ?
उत्थानिका-न केवल ये ही प्रमाणांतर है अपितु अन्य भी हैं, ऐसा दिखलाते हैं-
अन्वयार्थ-(इदं अल्पं महत्) यह अल्प है, बहुत है, (दूरं आसन्नं) दूर है, निकट है, (प्रांशुं वा न इति) यह दीर्घ है अथवा दीर्घ नहीं है-ह्रस्व है, इस प्रकार (व्यपेक्षात:) अपेक्षा से (समक्षे अर्थे) प्रत्यक्ष अर्थ में (विकल्प:) जो विकल्प हैं (साधनांतरं) वे प्रमाणांतर हैं।।१२।।
अर्थ-यह अल्प है, यह बहुत है, यह दूर है, यह निकट है, यह दीर्घ है, यह दीर्घ नहीं है, इस प्रकार अपेक्षा से प्रत्यक्ष अर्थ में जो विकल्प-निश्चय हैं वे सभी प्रमाणांतर हैं।।१२।।
तात्पर्यवृत्ति-यह इससे अल्प है, यह इससे महान् है, यह इससे दूर है, यह इससे आसन्न है, यह इससे दीर्घ है, यह इससे दीर्घ नहीं है। यहाँ कारिका में ‘वा’ शब्द परस्पर समुच्चय अर्थ में है। किस विषय में ? प्रत्यक्ष पदार्थ में व्यपेक्षा से-विरुद्ध-प्रतिपक्ष की अपेक्षा से कथंचित अजहद्वृत्ति-कथंचित् अपने स्वभाव को न छोड़ते हुए जो विकल्प-निश्चय होता है, वह भिन्न प्रमाण है।
इस प्रकार अल्प महत्व आदि का जोड़रूप ज्ञान पर के द्वारा मान्य प्रमाण की संख्या के नियम को विघटित कर देता है।
शंका-आप स्याद्वादियों के यहाँ भी इस प्रकार प्रमाण की संख्या का विधान वैâसे नहीं होता है ?
समाधान-हमारे यहाँ तो परोक्ष के भेदरूप प्रत्यभिज्ञान में सादृश्य संकलन आदि सभी का अंतर्भाव हो जाता है।
शंका-अर्थापत्ति को प्रमाणांतर मानना ही चाहिए , क्योंकि उसका कहीं पर भी अंतर्भाव नहीं हो सकता है ?
समाधान-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि अनुमान में उसका अंतर्भाव हो जाता है। नदीपूर आदि से अनंतर वृष्टि आदि के अविनाभावी रूप से लिंगत्व है और लिंग से उत्पन्न हुआ ज्ञान अनुमान है।
शंका-पक्षधर्मत्व का अभाव होने से उसको लिंगपना नहीं है ?
समाधान-नहीं, पक्ष में जिसका धर्म नहीं है ऐसा अपक्ष धर्म वाला भी हेतु समर्पित है। गम्य गमक भाव निमित्तक ही अविनाभाव है, अन्य नहीं है और वह अविनाभाव यहाँ भी है इसलिए अर्थापत्ति अनुमान ही है। इस कथन से अभाव भी एक भिन्न प्रमाण है’ ऐसा मानने वालों का भी खंडन कर दिया गया है क्योंकि प्रत्यक्षादि प्रमाण में ही भावाभावात्मक वस्तु को विषय करने से वैसा व्यवहार होता है। ऐसा तो है नहीं कि भाव को ग्रहण करने वाला प्रमाण अथवा अभाव को विषय करने वाला प्रमाण कोई हो क्योंकि उससे अर्थक्रिया नहीं हो सकती है।
यदि अभाव स्वतंत्र होता तब तो उसको ग्रहण करने वाला एक भिन्न प्रमाण कल्पित करना ही चाहिए। उसमें ‘घट नहीं है’ इस प्रकार भाव के आश्रित की उपलब्धि होती है। भाव को ग्रहण करने वाले के द्वारा ही उसका ग्रहण होता है।
दूसरी बात यह है कि भावग्राहक ज्ञान से अभावग्राहक ज्ञान अन्य ही है। ऐसा मानने पर तो सामान्य ग्राहक ज्ञान से विशेष ग्राहक ज्ञान और नित्यत्वग्राहक ज्ञान से अनित्यत्वग्राहक ज्ञान भी भिन्न-भिन्न प्रमाण ही हो जावेंगे और इस प्रकार से तो कहीं पर भी अवयवी की सिद्धि नहीं हो सकेगी इसलिए ‘अभाव’ नाम का कोई भिन्न प्रमाण नहीं है क्योंकि उसके विषय का अभाव है, केशों में मच्छर ज्ञान के समान। इसलिए यहाँ यह सुस्थित हो गया कि ‘स्मृति आदि ज्ञान परोक्ष हैं क्योंकि वे अविशद ज्ञान हैं और इसी परोक्ष में ही सकल अस्पष्ट ज्ञानों का अंतर्भाव हो जाता है।
भावार्थ-यह छोटा है, यह बड़ा है। इन दोनों ज्ञानों में एक-दूसरे की अपेक्षा है। जैसे-आंवले की अपेक्षा बेल बड़ा है और बेल की अपेक्षा आंवला छोटा है, यहाँ अपेक्षा से होने वाला ज्ञान भी संकलन-जोड़रूप है इसे भी एक अलग प्रमाण कहना चाहिए। वैसे ही दूर-निकट के जोड़रूप, ह्रस्व-दीर्घ के जोड़रूप, आदि अनेकों भिन्न-भिन्न प्रमाण मानने चाहिए और उनके नाम बताने चाहिए। तब आप नैयायिक, मीमांसक आदि की मान्य संख्या खत्म हो जाती है तब उन लोगों ने कहा कि यह दोष तो आप जैनों को भी संभव है, किन्तु आचार्य ने कहा कि हमारे यहाँ परोक्ष के अंतर्गत एक प्रत्यभिज्ञान प्रमाण है जिसमें ये सभी भेद सम्मिलित हो जाते हैं।
मीमांसक ने कहा कि ‘अर्थापत्ति’ को तो अलग प्रमाण मानना ही पड़ेगा। अर्थापत्ति-इसके होने पर होना, नहीं होने पर नहीं होना, जैसे-देवदत्त मोटा है किन्तु दिवस में नहीं खाता है, मतलब रात्रि में खाता है, इसे अर्थापत्ति कहते हैं। यह अनुमान में अंतर्भूत है क्योंकि इस अर्थापत्ति के बिना अनुमान होता ही नहीं है।
पुन: मीमांसक ने अभाव को एक स्वतंत्र प्रमाण मानना चाहा तब आचार्य ने कहा कि यदि भाव के विपक्षी अभाव का ग्राहक एक अभाव प्रमाण है तो नित्य के विपक्षी अनित्य आदि को ग्राहक प्रमाण भी मानना पड़ेगा। किन्तु ऐसा तो है नहीं अत: प्रत्यक्ष आदि प्रमाण ही भाव और अभावरूप सभी वस्तुओें को ग्रहण करने वाले हैं इसलिए जितने भी अस्पष्ट ज्ञान हैं वे सभी परोक्ष प्रमाण में शामिल हैं।
श्लोकार्थ-श्री भट्टाकलंकदेवरूपी चंद्रमा से प्रगट हुई किरणों के द्वारा विशदेतर-परोक्ष प्रमाण का स्पर्श किया गया है-स्पष्ट हुआ है। इस प्रमाण के भेद में श्री अभयचंद्रसूरि की वाणी प्रतिभासित करने वाली क्यों नहीं होगी ? अर्थात् श्री अकलंकदेव ने परोक्ष प्रमाण का स्पष्टरूप से वर्णन किया है, मेरे द्वारा बनाई गई तात्पर्यवृत्ति से आप सभी लोगों को उस प्रमाण का प्रतिभास-ज्ञान हो जावेगा।।१।।
इस प्रकार श्री अभयचंद्रसूरि कृत लघीयस्त्रय की स्याद्वादभूषण
नामक तात्पर्यवृत्ति में परोक्ष प्रमाण का वर्णन करने
वाला तृतीय परिच्छेद पूर्ण हुआ।