जब मादक अलसायी गंधें, मन प्राणों में भर जाती हैं।
जिस वय में कचनारी आँखें, दहकर और निखर जाती हैं।।
जब सपनों के राजकुंवर, निद्रा में पुलकित कर जाते हैं।
जब वायु के मलय झकोरे, तन-मन सुरभित कर जाते हैं।।
जब नयनों में केवल मण्डप-फैरों के सपने आते हैं।
जिस वय में बस बिन्दिया, कंगन, पायल ही मन को भाते हैं।।
उस वय में तुमने ध्यान चुना, मैं कोटिश: वंदन करता हूँ।
हे दिव्य विभूति! ज्ञानमती, तुमको अभिनंदन करता हूँ।।
जिस वय में तुलसी का दीपक, जग भर से न्यारा लगता है।
जिस वय में सूखा मौसम भी, फागुन सा प्यारा लगता है।।
जब चर्चा की वस्तू केवल, गजरे-कजरे रह जाते हैं।
जब कानों के पास पपीहे ‘‘पीहू-पीहू’’ कह जाते हैं।।
माला-मनका नहीं हाथ में, जब केवल दर्पण होता है।
जिस वय में बस हल्दी, मेहंदी, रोली का चिंतन होता है।।
उस वय तुमने धर्म चुना, मैं कोटिश: वंदन करता हूँ।
हे दिव्य-विभूति! ज्ञानमती, तुमको अभिनंदन करता हूँ।।
जिस वय में ये हृदय-‘घर हो’ ऐसे सपने बुन लेता है।
जिस वय में मन परिवार की, जिम्मेदारी चुन लेता है।।
जिस वय में सपना होता है, घर-आंगन फुलवारी महके।
जिस वय में इच्छा होती है, आँचल में किलकारी चहके।।
जिस वय में मन के आले में, तृष्णा का दीपक जलता है।
जब ‘‘मेरा घर-मेरा ही सुख’, मेरा ही मेरा चलता है।।
उस वय में तुमने त्याग चुना, मैं कोटिश: वंदन करता हँ।
हे दिव्य-विभूति! ज्ञानमती, तुमको अभिनंदन करता हूँ।।
ओ ममता की शिलालेख! स्नेह-विटप! ओ काव्य-कलश!
हे सद्ग्रन्थों के अक्षयपात्र! हे काव्य-गर्भ! हे गीत सरस।।
ओ चिरयौवन की तुमुलनाद! ओ कालजयी तप की सरिता!
हे अमरवल्लरी संयम की, हे क्षमाशीलता की सरिता!!
तुम हो विराट, मैं क्षुद्र! तुम्हें, मैं व्यक्त नहीं कर पाऊँगा।
तुम शब्दातीत, अचर, तुमको, अभिव्यक्त नहींr कर पाऊँगा।।
बस बारम्बार तुम्हें मन से, मैं कोटिश: वंदन करता हॅूं।
हे दिव्य-विभूति! ज्ञानमती, तुमको अभिनंदन करता हूँ।।