अस्मिन् बीजे स्थिता: सर्वे ऋषभाद्या जिनोत्तमा:।
वर्णैर्निजैर्निजैर्युक्ता, ध्यातव्यास्तत्र संगता:।।
नादश्चन्द्रसमाकारो, बिंदुर्नीलसमप्रभ:।
कलारुणसमा: सांत: स्वर्णाभ: सर्वतोमुख:।।
शिर:संलीन ईकारो, विनीलो वर्णत: स्मृत:।
वर्णानुसारि सलीनं तीर्थकृन्मंडलं नम:।।
चन्द्रप्रभपुष्पदन्तौ, नादस्थितसमाश्रितौ।
बिंदुमध्यगतौ नेमिसुव्रतौ जिनसत्तमौ।।
पद्मप्रभवासुपूज्यौ कलापदमधिश्रितौ।
शिर ईस्थितिसंलीनौ, पार्श्वपार्श्वौ जिनोत्तमौ।।
शेषास्तीर्थंकरा: सर्वे, रहस्थाने नियोजिता:।
मायाबीजाक्षरं प्राप्ताश्चतुर्विंशतिरर्हतम्।।
(ऋषिमण्डल स्तोत्र से उद्धृत)
अर्थ-इस ह्रीं बीजाक्षर में ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थंकर स्थित हैं, वे अपने-अपने वर्णों से युक्त हैं उनका ध्यान करना चाहिए। इस ह्री ह्रीं में जो नाद ( ॅ) है वह चन्द्र के समान आकार व वर्ण वाला है, जो बिन्दु (.) है वह नील मणि की प्रभा वाली है। जो कला (-) है वह लाल वर्ण की है और जो ‘ह’ वर्ण है वह स्वर्ण के समान आभा वाला है। शिर के ऊपर जो ( ी ) ईकार है, वह हरित वर्ण का है। इस तरह उन-उन वर्ण वाले तीर्थंकर देव उन-उन वर्ण के स्थानों में स्थित हैं उन सबको मेरा नमस्कार होवे।
चन्द्रप्रभ और पुष्पदंत श्वेत वर्ण वाले होने से ये दोनों नाद ( ॅ) में स्थित हैं। नेमिनाथ और मुनिसुव्रत भगवान नील वर्ण वाले हैं अत: वे बिन्दु (.) में विराजमान हैंं। पद्मप्रभ तथा वासुपूज्य देव लाल वर्ण वाले होने से वे कला (-) में विराजमान हैं तथा सुपार्श्व और पार्श्वनाथ भगवान् हरित वर्ण के हैं अत: वे शिर के ऊपर स्थित ईकार ( ी ) में स्थित हैं तथा शेष सोलह तीर्थंकर सुवर्ण के समान छवि वाले होने से र् और ह् (ह्र) में स्थापित किये गये हैं। इस प्रकार ये चौबीसों ही तीर्थंकर इस माया बीजाक्षर (ह्री ँ) को प्राप्त हो गये हैं। अर्थात् चौबीसों ही तीर्थंकर इस बीजाक्षर रूप को प्राप्त हो गये हैं।
-गणिनी आर्यिका ज्ञानमता