रचयित्री-आर्यिका चन्दनामती
-शंभु छंद-
सब बीजाक्षर में ह्रीं एक, बीजाक्षर पद कहलाता है।
यह एक अक्षरी मंत्र सभी, जिनवर का ज्ञान कराता है।।
चौबिस जिनवर से युक्त ह्रीं, की प्रतिमा अतिशयकारी है।
इसका अर्चन वंदन भव्यों के, लिए सदा हितकारी है।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं प्रतिमे! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं प्रतिमे! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं प्रतिमे! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथाष्टक-
तर्ज-साजन मेरा……
ह्रीं को मेरा नमस्कार है, चौबिस जिनवर से जो साकार है।
पूजन से होता बेड़ा पार है, प्रतिमा में ऐसा चमत्कार है।।
माया में डूबा यह संसार है, तुझमें ही ज्ञान का भण्डार है।
मुझको भी ज्ञान का आधार है, कर दो प्रभु मेरी नैय्या पार है।।
चरणों में डालूँ जल की धार है, चौबिस जिनवर को नमस्कार है।।ह्रीं.।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं जिनप्रतिमायै जलं निर्वपामीति स्वाहा।
दुनिया का राग तजकर आ गया, तेरा विराग मुझको भा गया।
तेरे गुणों की सौरभ पा गया, मेरा दिल तुझमें ही समा गया।।
चंदन तो पूजन का प्रकार है, चर्चूं तव पद में बारम्बार मैं।।ह्रीं.।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं जिनप्रतिमायै चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रियसुख में मैं अब तक लीन था, आतम के ज्ञान से विहीन था।
शाश्वत सुख को न अब तक पा सका, तेरा अनुभव न मुझको आ सका।
अक्षयसुख का तू भण्डार है, अक्षत चढ़ाऊँ तेरे द्वार मैं।।ह्रीं.।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं जिनप्रतिमायै अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चौबीसों जिनवर जग को छोड़कर, संयम लिया सबसे मुख मोड़कर।
इनमें ही पाँच बालयति हुए, आतम में रमकर मुक्तिपति हुए।।
पुष्पों से पूजा मनहार है, कामारिविजयी का भण्डार है।।ह्रीं.।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं जिनप्रतिमायै पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
कितने ही व्यंजन मैंने खाए हैं, लेकिन न तृप्ती कर पाए हैं।
तुमने क्षुधा का नाश कर दिया, आतम का स्वाद तुमने चख लिया।।
क्षुधरोग नाशन हेतु आज मैं, नैवेद्य से भर लाया थाल मैं।।ह्रीं.।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं जिनप्रतिमायै नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विद्युत के दीपक जग में जलते हैं, रात्रि का अंंधकार हरते हैं।
मोह अन्धेरा नहीं हरते हैं, पुद्गल पर्यायों से उलझते हैं।।
दीपक मैंं लाया तेरे द्वार है, आरति करूँ मैं बारम्बार है।। ह्रीं.।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं जिनप्रतिमायै दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मों से निर्मित यह संसार है, दुर्लभ इससे हो जाना पार है।
मानव ही इसमें ऐसा प्राणी है, वर सकती जिसको शिवरानी है।।
धूप जलाऊँ तेरे द्वार है, भक्ती की महिमा अपरम्पार है।।ह्रीं.।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं जिनप्रतिमायै धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
मनवांछितफल की सिद्धी हेतु मैं, फिरता हूँ मारा मारा देव मैं।
तेरी शरण में जब से आ गया, इच्छित फल को ही मानो पा गया।।
फल से ही मुक्ती फल साकार है, तेरे चरणों में नमस्कार है।।ह्रीं.।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं जिनप्रतिमायै फलं निर्वपामीति स्वाहा।
आठों ही द्रव्यों को सजाया है, सोने की थाली भर कर लाया मैं।
तेरे ही जैसे गुण को पाऊँ मैं, चरणों में अर्घ्य को चढ़ाऊँ मैं।।
जलफल आठों ही शुचिसार हैं, चौबिस जिनवर को नमस्कार है।।ह्रीं.।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं जिनप्रतिमायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यमुना सरिता का नीर लाया मैं, ह्रीं प्रतिमा के पास आया मैं।
चौबिस जिनवर की पावन छाया में, जग में भी रहकर शांति पाया मैं।।
कंचनझारी में जल की धार है, शान्तीधारा से बेड़ा पार है।
शान्तये शांतिधारा।
जग में न जाने कितने फूल हैं, उनमें ही भ्रमण निज की भूल है।
उनका उपयोग मैं न कर सका, अपना शृंगार ही बस कर सका।।
पुष्पों की अंजलि तेरे द्वार है, आत्मा का यही शृंगार है।।
ह्रीं को मेरा नमस्कार है, चौबिस जिनवर से जो साकार है।
पूजन से होता बेड़ा पार है, प्रतिमा में ऐसा चमत्कार है।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
तर्ज-नागिन……….
जय जय प्रभुवर, चौबिस जिनवर, से सहित ह्रीं सुखकार है,
मनवांछित फल मिल जाता है।।
वर्तमान के चौबीसों तीर्थंकर इसमें राजें।
जिनका जैसा वर्ण वहीं पर, सब जिनबिम्ब विराजें।।प्रभूजी……
बीजाक्षर है, एकाक्षर है, यह ह्रीं मंत्र शुभसार है,
मनवांछित फल मिल जाता है।।१।।
प्रथम कला में लाल वर्ण के, दो जिनराज सुशोभें।
पद्मप्रभु अरु वासुपूज्य का, लालवरण मन मोहे।।प्रभूजी……
इन ध्यान धर लो, प्रभु ज्ञान कर लो,
ये परमशांति आधार हैं, मनवांछित फल मिल जाता है।।२।।
हरित वर्ण ईकार के अन्दर, पार्श्वसुपार्श्व विराजें।
मरकत मणिसम हैं वे सुन्दर, अनुपम छवियुत छाजें।।प्रभूजी……
इनको यजते, पातक भगते, सब कर्म कटें दुखकार हैं,
मनवांछित फल मिल जाता है।।३।।
अर्धचन्द्र में श्वेत वर्ण के, पुष्पदंत चन्द्रप्रभ।
नीलवर्ण की गोलबिन्दु में, नेमिनाथ मुनिसुव्रत।।प्रभूजी……
ऐसे जिनवर की, ऐसे प्रभुवर की, करूँ पूजन बारम्बार मैं,
मनवांछित फल मिल जाता है।।४।।
ऋषभ-अजित-संभव-अभिनन्दन, सुमतिनाथशीतल हैं।
श्रेयो-विमल-अनंत-धर्मजिन, शांति-कुंथ-अर प्रभ हैं।।प्रभूजी……
मल्लिनाथ यज लो, नमिनाथ भज लो,
श्रीवीर इन्हीं के साथ हैं, मनवांछित फल मिल जाता है।।५।।
ये सोलह तीर्थंकर पीले, स्वर्ण समान दिपे हैं।
स्वर्णिम ह्र के बीच सोलहों, बीज समान दिखे हैं।।प्रभूजी……
ध्यान साधन का, ज्ञान पावन का, यह पंचवर्णि आकार है,
मनवांछित फल मिल जाता है।।६।।
पल दो पल अपने जीवन में, ह्रीं का ध्यान लगाएँ।
शुभ्र ध्यान का अवलम्बन ले, अशुभ विकल्प भगाएँ।।प्रभूजी……
मिलती सुगती, ‘‘चन्दनामती’’, इस ह्रीं बीज आधार से,
मनवांछित फल मिल जाता है।।७।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वितह्रींजिनप्रतिमायै जयमाला पूर्णार्घ्यं……।
-दोहा-
रागद्वेष के चक्र से, मुक्ति चहें यदि भव्य।
निश्चित ही इस ह्रीं में, लीन करो मन शक्य।।
।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिः।।