पदस्थ ध्यान कैसे प्रारंभ करें?-सर्वप्रथम आप शुद्धमन से शुद्धवस्त्र धारण कर किसी एकांत स्थान अथवा पार्व जैसे खुले स्थान पर पद्मासन, अर्धपद्मासन अथवा सुखासन से बैठ जाएँ। शरीर पर पहने हुए वस्त्रों के अतिरिक्त समस्त परिग्रह को त्यागकर स्वाधीनता का अनुभव करते हुए तन-मन में शिथिलता का सुझाव दें और हाथ जोड़कर प्रार्थना करें-
तर्ज-मैं चंदन बनकर तेरे………………..
‘हे प्रभु! मैं अपने आतम, में ऐसा रम जाऊँ। संसार के बंधन से, मैं मुक्त हो जाऊँ।। हे प्रभु.।। संकल्प विकल्पों का यह, सागर संसार है। सागर की तरंगों से अब, मैं ऊपर उठ जाऊँ।। हे प्रभु.।।१।। दु:खों की पर्वतमाला, कब टूट पड़ेगी मुझ पर। उस पर्वत पर हे भगवन्! मैं कैसे चढ़ पाऊँ।। हे प्रभु.।।२।। आतम सुख के अमृत में, मैं डूब गया अब स्वामी। उसका आस्वादन लेकर, ‘‘चन्दनामती’’ सुख पाऊँ।। हे प्रभु.।।३।।
इसके पश्चात् बाएँ हाथ की हथेली पर दाहिने हाथ की हथेली रखकर, आँखें कोमलता से बंद करके भगवान के समान शान्तमुद्रा में बैठ जाएं और ॐकार का नाद करते हुए निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुए आत्मशांति का अनुभव करें- ॐ अर्हत्स्वरूपोऽहं ॐ तीर्थस्वरूपोऽहं ॐ जिनस्वरूपोऽहं ॐ सिद्धस्वरूपोऽहं ॐ आत्मस्वरूपोऽहं। पुन: अपनी अन्तर्यात्रा प्रारंभ कर दें, इस यात्रा का लक्ष्य बिन्दु है-ॐ बीजाक्षर।कल्पना कीजिए कि मेरे ठीक सामने केशरिया वर्ण का एक ‘‘ॐ’’ मंत्र विराजमान है। इसी ॐ पर मन को केन्द्रित करें, ॐ के प्रत्येक अवयव में केशरिया रंग भरा हुआ देखें। अनुभव करें…..मन को बाहर न जाने दें…..शिथिलता का सुझाव देते हुए ध्यान की अगली शृँखला में प्रवेश करें और चिन्तन करें कि-
‘‘ॐ’’ यह प्रणवमंत्र है, यह पंचपरमेष्ठीवाचक मंत्र समस्त द्वादशांग का वाचक है। इसमें यथास्थान पाँचों परमेष्ठियों को विराजमान करते हुए उनके दर्शन करें-ॐ के अंदर प्रथम सिरे पर ‘‘अरिहंत’’ भगवान को देखें और ‘‘णमो अरिहंताणं’’ पद का स्मरण करते हुए भावों से ही अरिहंत परमेष्ठी को नमन करें और आगे चलें अर्धचन्द्राकार सिद्धशिला पर, जहाँ सिद्ध भगवान विराजमान हैं। आठों कर्मों से रहित, निराकार-अशरीरी सिद्ध भगवान की प्रतिमा पर मन को एकाग्र करते हुए आप ‘‘णमो सिद्धाणं’’ पद का स्मरण करें और उन्हें नमन करते हुए अपने मनवांछित कार्य की सिद्धि करें। पुनश्च तीसरे परमेष्ठी आचार्य देव हैं, उनके दर्शन करने के लिए ॐ के मध्यभाग पर मन को लाएं और चिन्तन करें कि पिच्छी-कमण्डलु से सहित एक दिगम्बर मुनिराज यहाँ विराजमान हैं, ये ही चतुर्विध संघ के नायक आचार्यपरमेष्ठी कहलाते हैं। इनके चरणों में श्रद्धापूर्वक नमन (भावों से ही) करें और ‘‘णमो आइरियाणं’’ पद का मानसिक उच्चारण करते हुए ‘‘ॐ’’ की मात्रा अर्थात् बड़े ऊ के आकार में लिखा गया जो ओकार है उसमें चतुर्थ उपाध्याय परमेष्ठी को दिगम्बर मुनि मुद्रा मेें अध्ययन-अध्यापन करते हुए देखें। इनके दर्शन से अज्ञान का नाश एवं ज्ञान का विकास होगा, ‘‘णमो उवज्झायाणं’’ के उच्चारणपूर्वक उनके चरणों में नमस्कार करें और अंतिम परमेष्ठी सर्वसाधुओं के दर्शन करने हेतु ‘‘ॐ’’के निचले भाग में अपनी यात्रा का पड़ाव डालें। पुन: चिन्तन करें कि यहाँ सामायिक अवस्था में लीन महान सन्त-साधु विराजमान हैं, जो संसार-शरीर-भोगों से पूर्ण विरक्त हैं। उनके दर्शन करते हुए मन को केन्द्रित कर दें उनकी वीतरागी मुद्रा पर और निम्न पंक्तियाँ पढ़ते हुए तल्लीन हो जायें ताकि मन कहीं बाहर न जाने पावे-
हे गुरुवर! तेरी प्रतिमा ही, तेरा अन्तर दर्शाती है। यह नग्न दिगम्बर मुद्रा ही, प्राकृतिक रूप दर्शाती है।।
अर्थात् जिनकी काया से ही बिना कुछ बोले भी मोक्षमार्ग का दिग्दर्शन हो रहा है ऐसे साधुपरमेष्ठी के चरणों में नतमस्तक होकर ‘‘णमो लोए सव्वसाहूणं’’ का उच्चारण करें और अपनी आत्मा में ये विलक्षण आध्यात्मिक ऊर्जा की प्राप्ति का अनुभव करें। दो मिनट के लिए मन को यहीं स्थिर कर दें, शरीर में शिथिलता एवं शांति का सुझाव दें, पुनश्च- परमेष्ठियों की शक्ति से समन्वित अनन्तशक्तिमान् ॐ मंत्र के चारों ओर एक गोलाकार से निकलती हुई सूर्य की किरणों का दर्शन करें अर्थात् एक सूर्य बिम्ब में विराजमान ॐ बीजाक्षर पर चित्त को केन्द्रित करें, तब सूर्य जैसा प्रकाश मन-मस्तिष्क में भरता महसूस होगा एवं उस समय अनुभव करें- ‘‘मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ, मुझे कोई रोग नहीं है’’ (तीन बार इस वाक्य को बोलें) पुन: महामंत्र के स्मरणपूर्वक तीन बार दीर्घ श्वासोच्छ्वास लें और आँखों को अभी बंद रखते हुए निम्न श्लोक का उच्चारण करें-
इस मंगलपाठ के अनन्तर हाथ जोड़कर पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करते हुए आँखें खोलें। इस प्रकार पदस्थ ध्यान में ॐ बीजाक्षर की यह संक्षिप्त ध्यान प्रक्रिया बतलाई गई है। आगे इसी तरह से ह्रीं, क्लीं, अर्हं, असिआउसा आदि बीजाक्षरों को भी अपने उत्तमांगों में स्थापित करके इनका ध्यान भी किया जा सकता है।