पंचवर्णी ‘ह्रीं’ बीजाक्षर के जाप्य से, ध्यान से व पूजन से सर्वमनोरथ सफल होते हैं, सर्वरोग, शोक व भूतप्रेत आदि की बाधायें भी दूर हो जाती हैं, यह अतिशयकारी मंत्र है। इस ‘ह्रीं’ बीजाक्षर में चौबीसों तीर्थंकर विराजमान हैं। ह्रीं की प्रतिमा बनवाकर प्रतिष्ठित कराकर मंदिर में विराजमान कर ध्यान करना चाहिये।
अर्हदाख्यः सवर्णान्तः सरेफो बिंदुमण्डितः। तुर्यस्वरसमायुक्तो बहुध्यानादिमालितः।।१९।।
एकवर्णं द्विवर्णं च त्रिवर्णं तुर्यवर्णकं। पंचवर्णं महावर्णं सपरं च परापरं।।२०।।
अस्मिन् बीजे स्थिताः सर्वे वृषभाद्या जिनोत्तमाः। वर्णैर्निजैर्निजैर्युक्ता ध्यातव्यास्तोत्र संगताः।।२१।।
नादश्चन्द्रसमाकारो बिंदुर्नीलसमप्रभः। कलारुणसमासांतः स्वर्णाभः सर्वतोमुखः।।२२।।
शिरः संलीन ईकारो विनीला वर्णतः स्मृतः। वर्णानुसारिसंलीनं तीर्थकृन्मण्डलं नमः।।२३।।
चन्द्रप्रभपुष्पदन्तौ नादस्थितिसमाश्रितो। बिन्दुमध्यगतौ नेमिसुव्रतौ जिनसत्तमौ।।२४।।
पद्मप्रभवासुपूज्यौ कलापदमधिश्रितो। शिरईस्थितिसंलीनौ सुपाश्र्वपाश्र्वौ जिनोत्तमौ।।२५।।
शेषास्तीर्थंकराः सर्वे हरस्थाने नियोजिताः। मायाबीजाक्षरं प्राप्ताश्चतुर्विंशतिरर्हतां।।२६।।
गतरागद्वेषमोहाः सर्वपापविवर्जिताः। सर्वदा सर्वलोकेषु ते भवन्तु जिनोत्तमाः।।२७।।
पद्यानुवाद (शंभु छंद) जो सांत सरेफ बिन्दुमंडित, चौथे स्वर से युत होता है। वह ‘ह्रीं’ बीज ध्यानादि योग्य, अर्हंत नाम का होता है।।१९।।
यह श्वेत वर्ण है श्याम वर्ण है, लाल वर्ण औ नील वर्ण। औ पीतवर्ण भी है उत्तम, सर्वोत्तम माना महावर्ण।।२०।।
इस ह्रीं बीज में स्थित हैं, निज निज वर्णों से युक्त सभी। वृषभादि जिनेश्वर इस स्तोत्र में, स्थित ध्यानयोग नित भी।।२१।।
सित अर्ध चंद्रसम नाद बिन्दु, नीली मस्तक है लाल वर्ण। सब तरफ हकार स्वर्णसम ‘है’, ईकार कहा है हरित वर्ण।।२२।।
इस तरह ‘ह्रीं’ है पंचवर्ण, उन उन वर्णों के तीर्थंकर। उस उस थल में स्थापित कर, उन सबको नमन करो सुखकर।।२३।।
श्री चंद्रप्रभ औ पुष्पदंत, शशिसदृश नाद में स्थित हैं। श्री नेमिनाथ औ मुनिसुव्रत, बिंदू के मध्य विराजित हैं।।२४।।
श्री पद्मप्रभू औ वासुपूज्य, मस्तक के मध्य अधिष्ठित हैं। श्री जिनसुपाश्र्व औ पाश्र्वनाथ, ईकार वर्ण के आश्रित हैं।।२५।।
सोलह तीर्थंकर शेष सभी, ह औ रकार में राजित हैं। माया बीजाक्षर ह्रीं मध्य, चौबीसों जिनवर आश्रित हैं।।२६।।
ये रागद्वेष औ मोह रहित, सब पाप रहित चौबिस जिनवर। सम्पूर्ण लोक में भव्यों के, हेतू होवें वे नित सुखकर।।२७।।