श्रीभद्रबाहु: श्रीचंद्रो जिनचंद्रो महामुनि:। गृद्धपिच्छगुरु: श्रीमान् लोहाचार्यो जितेन्द्रिय:।।६७।।
एलाचार्य: पूज्यपाद: सिंहनंदी महाकवि:। जिनसेनो वीरसेनो गुणनंदी महातपा:।।६८।।
समंतभद्र: श्रीकुम्भ: शिवकोटि: शिवंकर:। शिवायनो विष्णुसेनो गुणभद्रो गुणाधिक:।।६९।।
अकलंको महाप्राज्ञ: सोमदेवो विदांवर:। प्रभाचंद्रो नेमिचंद्र इत्यादिमुनिसत्तमै:।।७०।।
यच्छास्त्रं रचितं नूनं तदेवादेयमन्यवै:। विसंघ्यं रचितं नैव प्रमाणं साध्वपि स्पुटम्।।७१।।
पूर्वाचार्यवच: श्रीमत्सर्वज्ञवचनोपमम्। तज्जानन्ननगारोऽत्र पूज्य: स्यादखिलैर्जनै:।।७२।।(नीतिसार)
श्री इंद्रनंदि आचार्य कहते हैं- ‘‘श्री भद्रबाहु, श्रीचंद्र, जिनचंद्र, गृद्धपिच्छाचार्य, लोहाचार्य, एलाचार्य, पूज्यपाद, सिंहनंदी, जिनसेन, वीरसेन, गुणनंदी, समंतभद्र, श्रीकुम्भ, शिवकोटि, शिवायन, विष्णुसेन, गुणभद्र, अकलंकदेव, सोमदेव, प्रभाचंद्र और नेमिचंद्र इत्यादि मुनिपुंगवों के द्वारा रचित शास्त्र ही ग्रहण करने योग्य हैं। इनसे अतिरिक्त (सिंह, नंदि, सेन और देवसंघ इन चार संघ के आचार्यों से अतिरिक्त) विसंघ्य अर्थात् परम्पराविरुद्ध जनों के द्वारा रचित ग्रंथ अच्छे होकर भी प्रमाण नहीं हैं क्योंकि परम्परागत पूर्वाचार्यों के वचन सर्वज्ञ भगवान के वचनों के सदृश हैं। उन्हीं से ज्ञान प्राप्त करता हुआ अनगार साधु अखिल जनों में पूज्य होता है।’’ इस कथन से षट्खंडागमसूत्र तथा कषायपाहुड़ ग्रंथ और उनकी धवला, जयधवलाटीका, तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, रत्नकरंड-श्रावकाचार, भगवती आराधना, महापुराण, उत्तरपुराण, यशस्तिलकचंपू, न्यायकुमुदचंद्र, गोम्मटसार, समयसार आदि ग्रंथ पूर्णतया प्रमाणीक सिद्ध हो जाते हैं।