गुरुदेव प्रथम पट्टाचार्य श्री वीरसागर महाराज के मुख से सुना है कि किसी समय श्री कुन्दकुन्दचार्यदेव भगवान सीमंधर स्वामी के समवसरण का ध्यान कर रहे थे, तभी एक देव ने आकर उन्हें अपने विमान में बिठाकर विदेह क्षेत्र में श्री सीमंधर भगवान के समवसरण में पहुँचा दिया।
जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्ववाणेण।
ण विबोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति।।४२।। (दर्शनसार)
वि.सं. ९९० में विद्यमान देवसेन आचार्य ने दर्शनसार में इनके विदेहगमन की बात कही है। यथा- ‘‘यदि पद्मनंदी स्वामी श्री सीमंधर स्वामी के दिव्यज्ञान से सम्बोधन न प्राप्त करते तो श्रमण सुमार्ग को कैसे जानते।’’ श्री जयसेनाचार्य ने पंचास्तिकाय प्राभृत के प्रारंभ में कहा है-
अथ श्रीकुमारनन्दिसिद्धान्तदेवशिष्यै: प्रसिद्धकथान्यायेन पूर्वविदेहं गत्वा वीतरागसर्वज्ञश्रीमंदरस्वामीतीर्थंकरपरमदेवं दृष्ट्वा तन्मुखकमलवनिर्गत-दिव्यवाणीश्रवणावधारितपदार्थाच्छुद्धात्मतत्त्वादिसारार्थं गृहीत्वा पुनरप्यागतै: श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवै: पद्मनन्द्याद्यपराभिधेयैरन्तस्तत्त्वबहिस्तत्त्वगौणमुख्य-प्रतिपत्त्यर्थं अथवा शिवकुमारमहाराजादिसंक्षेपरुचिशिष्यप्रतिबोधनार्थं विरचिते पञ्चास्तिकायप्राभृतशास्त्रे यथाक्रमेणाधिकारशुद्धिपूर्वकं तात्पर्यार्थव्याख्यानं कथ्यते।
यह कथा प्रसिद्ध है कि श्री कुमारनन्दि सिद्धान्तदेव के शिष्य श्रीमत् कुन्दकुन्दाचार्य देव जिनके पद्मनंदि आदि (ऐलाचार्य, वक्रग्रीव, गृद्धपिच्छ) नाम भी प्रसिद्ध हैं, पूर्वविदेह में गए। वहाँ वीतराग सर्वज्ञ श्रीमंदरस्वामी तीर्थंकर परमदेव के दर्शन किये तथा उनके मुखकमल से प्रगट दिव्यवाणी को सुन करके व उससे पदार्थों को समझकर शुद्ध आत्मीकतत्त्व सार अर्थ ग्रहण किया फिर लौटकर उन्होंने अंतरंगतत्त्व बहिरंगतत्त्व को गौण या मुख्यपने बताने के लिए अथवा शिवकुमार महाराज को आदि लेकर संक्षेप रुचि के धारक शिष्यों को समझाने के लिए इस पंचास्तिकाय प्राभृत शास्त्र को रचा। इसी ग्रंथ का तात्पर्य अर्थरूप व्याख्यान यथाक्रम से अधिकारों की शुद्धि के साथ किया जाता है। (पंचास्तिकाय प्राभृत, पृ. ३, ४) श्री श्रुतसागर सूरि ने भी षट्प्राभृत की टीका में प्रत्येक प्राभृत की समाप्ति में विदेहगमन की बात कही है। यथा-
इति श्री पद्मनन्दि कुन्दकुन्दाचार्य-वक्रग्रीवाचार्यैलाचार्यगृद्धपिच्छाचार्य- नामपञ्चकविराजितेन सीमन्धरस्वामि ज्ञानसम्बोधित-भव्य-जीवेन श्रीजिनचन्द्रसूरि- भट्टारक-पट्टाभरणभूतेन कलिकाल-सर्वज्ञेन विरचिते षट्प्राभृते ग्रन्थे सर्वमुनि-मण्डलीमण्डितेन कलिकाल गौतमस्वामिना श्रीमल्लिभूषणेन भट्टारकेणानुमतेन सकलविद्वज्जनसमाजसम्मानितेनोभयभाषा-कवि-चक्रवर्तिना श्रीविद्यानन्दि-गुर्वन्तेवासिना सूरिवरश्रीश्रुतसागरेण विरचिता चरणप्राभृतटीका द्वितीया।
इस प्रकार श्री पद्मनन्दी, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य और गृद्धपिच्छाचार्य इन पाँच नामों से सुशोभित, सीमन्धर स्वामी के ज्ञान से भव्यजीवों को सम्बोधित करने वाले श्री जिनचन्द्रसूरि भट्टारक के पट्ट के आभरणस्वरूप, कलिकाल सर्वज्ञ कुन्दकुन्दाचार्य के द्वारा विरचित षट्पाहुड़ ग्रंथ में समस्त मुनियों के समूह से सुशोभित, कलिकाल के गौतमस्वामी श्री मल्लिभूषण भट्टारक के द्वारा अनुमत, सकल विद्वत्समाज के द्वारा सन्मानित, उभय-भाषा-संबंधी कवियों के चक्रवर्ती श्री विद्यानन्द गुरु के शिष्य सूरिवर श्रीश्रुतसागर के द्वारा विरचित चारित्र-पाहुड़ की टीका सम्पूर्ण हुई। (अष्टपाहुड़ पृ॰ १०५, संस्कृत,हिंदीटीका)