‘‘जो पाँच प्रकार के आचारों का स्वयं आचरण कहते हैं और दूसरे साधुओं से आचरण कराते हैं वे ‘आचार्य’ कहलाते हैं। जो चौदह विद्याओं के पारंगत, ग्यारह अंग के धारी अथवा आचारांगमात्र के धारी हैं अथवा तत्कालीन स्वसमय और परसमय में पारंगत हैं, मेरू के समान निश्चल, पृथ्वी के समान सहनशील, समुद्र के समान दोषों को बाहर फैक देने वाले और सात प्रकार के भय से रहित हैं, देश, कुल और जाति से शुद्ध हैं, जो शिष्यों के संग्रह और उन पर अनुग्रह करने में कुशल हैं, सूत्र के अर्थ में विशारद हैं, यशस्वी हैं, तथा सारण-आचरण, वारण-निषेध और शोधन-व्रतों की शुद्धि करने वाली क्रियाओं में उद्युक्त (उद्यमशील) हैं वे ही आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं।” संघ के आचार्य जब सल्लेखना ग्रहण के सम्मुख होते हैं तब वे अपने योग्य शिष्य को विधिवत् चतुर्विधसंघ के समक्ष आचार्यपद देकर नूतन पिच्छिका समर्पित कर देते हैं और ऐसा कहते हैं कि ‘‘आज से प्रायश्चित्त शास्त्र का अध्ययन करके शिष्यों को दीक्षा, प्रायश्चित्त आदि आचार्य का कार्य तुम्हें करना है।” उस समय गुरू उस आचार्य को छत्तीस गुणों के पालन का उपदेश देते हैं।
आचार्य के छत्तीण गुण-आचारवत्त्व आदि ८, १२ तप, १० स्थितिकल्प और ६ आवश्यक ये छत्तीस गुण होते हैं।
आचारवत्त्व आदि ८ गुण-आचारवत्त्व, आधारवत्त्व, व्यवहारपटुता, प्रकारकत्व, आयापायदर्शिता, उत्पीलन, अपरिस्रवण और सुखावहन। आचारवत्त्व-आचार के पांच भेद हैं-
दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार।
दर्शनाचार-जीवादि पदार्थों का श्रद्धान करना अथवा सम्यक्त्व को पचीस मलदोष रहित-निर्दोष करना यह दर्शनाचार है।
दर्शनशुद्धि के आठ भेद हैं- नि:शंकित-तत्त्वों में शंका नहीं करना।
नि:कांक्षित-उभयलोक संबंधी भोगों की आकांक्षा नहीं करना।
निर्विचिकित्सा-अस्नानव्रत, नग्नता आदि में अरूचि नहीं करना। अमूढ़दृष्टि-मूढ़ता या मिथ्या परिणामों से रहित होना। उपगूहन-चतुर्विध संघ के दोषों का आच्छादन करना।
स्थितिकरण-रत्नत्रय से च्युत होने वाले को उपदेशादि द्वारा स्थिर करना।
वात्सल्य-साधर्मियों में अकृत्रिम स्नेह रखना।
प्रभावना-‘‘दान, पूजन, व्याख्यान, वाद, मंत्र, तंत्र, आदि से मिथ्यामतों का निरसन कर अर्हंत के शासन को प्रकाशित करना१।” ‘‘ये नि:शंकित आदि आठ गुण हैं इन्हें दर्शनशुद्धि कहते हैं। इनके विपरीत इतने ही अतिचार हो जाते हैं। ज्ञानाचार-जिससे आत्मा का यथार्थ स्वरूप जाना जाता है, जिससे मनोव्यापार रोका जाता है और जिससे आत्मा कर्ममल से रहित होती है वही सम्यग्ज्ञान है। उसको आठ भेद सहित पालन करना ज्ञानाचार है।