आत्मा ही सुख और दु:ख को उत्पन्न करनेवाली है ओर उनका क्षय करनेवाली भी है। सन्मार्ग पर चलने वाली अपनी मित्र है और उन्मार्ग पर चलने वाली आत्मा अपनी शत्रु है।
आत्मा वास्तव में मन, वचन और कायरूप त्रिदंड से रहित, द्वंद—रहित एकाकी, ममत्व, रहित निष्कल (शरीर—रहित), परद्रव्यालम्बन से रहित वीतराग, निर्दोष मोहशून्य तथा निर्भय है।
इन्द्रिय समूह को आत्मा के रूप में स्वीकार करनेवाला, उन्हीं में आसक्त रहने वाला, बहिरात्मा है। आत्मा को देह से भिन्न समझनेवाला अन्तआत्मा है। कर्म के आवरण को मुक्त करने वाला आत्मा परमात्मा है।
यह आत्मा ही वैतरणी (स्वर्ग की नदी) है और यही कूट शाल्मली वृक्ष है। यही कामदुहा धेनु (सब इच्छाओं को पूर्ण करने वाली गाय) है और यही नंदन वन है।
ज्ञान दर्शन स्वरूप मेरी आत्मा ही शाश्वत तत्त्व है। उससे भिन्न जितने भी राग, द्वेष, कर्म, शरीर आदि भाव है, वे सब संयोगजन्य बाह्य भाव हैं, अत: वास्तव में मेरे अपने नहीं है।
अपनी आत्मा का ही दमन करो क्योंकि आत्मा ही दुर्दभ्य है। अपनी आत्मा पर विजय पाने वाला ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है।
हे प्राणी! अपनी आत्मा के साथ ही युद्ध कर। बाहरी शत्रुओं से युद्ध करने से क्या लाभ? आत्म को आत्मा के द्वारा जीतने वाला व्यक्ति सुख पाता है।
हे पुरुष! तू ही तेरा मित्र है। बाहर क्यों मित्र की खोज करता है? हे पुरुष! अपनी आत्मा को ही वश में कर। ऐसा करने से तू सभी दु:खों से मुक्त होगा।
सरल आत्मा की ही शुद्धि होती है। शुद्ध हृदय में ही धर्म टिकता है। जिस तरह घी से अभिषिक्त अग्नि दिव्य प्रकाश को प्राप्त होता है, उसी प्रकार शुद्ध आत्मा तेज से उद्दीप्त होती हुई परम निर्वाण को प्राप्त होती है।
मैं स्वयं ही संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा (इच्छाओं ) का दमन करूँ, बजाय इसके कि अन्य लोग बंधन और वध के द्वारा मेरा दमन करें।