श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतम्
(गणिनी आर्यिका ज्ञानमती-विरचित-स्याद्वादचन्द्रिकाटीका-सहितम्)
(स्याद्वादचंद्रिका टीका)
-शार्दूलविक्रीडित-
सिद्धेः साधनमुत्तमं जिनपतेः श्रीपादपद्मद्वयम्, भव्यानां भवदावदाहशमने मेघं सुधावर्षणम्।
ज्ञानानन्दकरं सुबोधजननं प्रत्यूहविध्वंसनम्, भक्त्याहं प्रणमाम्यसौ जिनपतिर्मे स्यात्सदा सिद्धये।।१।।
सिद्धि के लिए साधन, श्रेष्ठ, भव्यों के संसार दावाग्नि दाह को शांत करने में अमृत की वर्षा करने वाले मेघस्वरूप, ज्ञान और आनन्द को करने वाले, सम्यग्ज्ञान को प्रगट करने वाले और विघ्नसमूह को नष्ट करने वाले ऐसे जिनेन्द्रदेव के श्रीचरणकमलयुगल को मैं भक्ति से नमस्कार करता हूँ। वे श्री जिनेन्द्रदेव सदा मेरी सिद्धि के लिए होवें।।१।।
-अनुष्टुप-
वन्दे वागीश्वरीं नित्यं जिनवक्त्राब्जनिर्गताम्।
वाक्शुद्ध्यै नयसिद्ध्यै च, स्याद्वादामृतगर्भिणीम् ।।२।।
सप्तद्र्धियुतयोगीशान्, गौतमादिगणेशिनः।
भक्त्या पुनः पुनर्नौमि, श्रुतवारिधिपारगान् ।।३।।
श्रीकुन्दकुन्दयोगीन्द्रश्चित्तपकड़ेरुहे मम।
स्थेयात्तावद्धि यावच्च, स्वात्मसिद्धिर्न मे भवेत् ।।४।।
भेदाभेदत्रिरत्नानां, व्यक्त्यर्थमचिरान्मयि।
सेयं नियमसारस्य, वृत्तिर्विव्रियते मया।।५।।
अथ निर्विकारशुद्धात्मतत्त्वप्रतिपादनमुख्यत्वेन निरवद्यनियमानुष्ठाननिपुणविनेयजनप्रतिबोधनार्थं भगवद्भिः श्रीकुन्दकुन्ददेवैर्निर्मितेऽस्मिन् नियमसारप्राभृतग्रन्थे यथाक्रमेणाधिकारशुद्धिपूर्वकं पातनिकासहितं व्याख्यानं कथ्यते।
तद्यथा-प्रथमतस्तावद् ‘णमिऊण जिणं वीरं’ इत्यादिपाठक्रमेण नियमशब्दवाच्यरत्नत्रयस्यावयवं सम्यक्त्वं तस्य विषयभूतजीवाजीवद्रव्यप्रतिपादनपरैः सप्तत्रिंशत्सूत्रैरधिकारद्वयेन व्यवहारसम्यक्त्वप्ररूपणा। ततः परम् अष्टादशसूत्रैरेके-नाधिकारेण सम्यग्ज्ञानप्ररूपणा। तदनु एकविंशति-सूत्रैश्चतुर्थाधिकारेण
जिनेन्द्रदेव के मुखकमल से निकली हुई और स्याद्वादरूपी अमृत को अपने गर्भ में धारण करने वाली ऐसी वागीश्वरी नामक सरस्वती देवी की मैं अपने वचन की शुद्धि और नयों की सिद्धि के लिए वंदना करता हूँ।।२।।
सात ऋद्धियों से सहित महायोगीश्वर, श्रुतसमुद्र के पारंगत ऐसे श्री गौतम स्वामी आदि गणधर देवों को मैं भक्तिपूर्वक पुनः पुन: नमस्कार करता हूँ।।३।।
मेरे हृदयकमल में श्रीकुन्दकुन्द योगिराज तब तक विराजमान रहें, जब तक कि मुझे आत्मा की सिद्धि न हो जावे।।४।।
मुझमें भेदरत्नत्रय और अभेदरत्नत्रय शीघ्र ही व्यक्त हों। इसी उद्देश्य से मेरे द्वारा यह ‘नियमसार’ ग्रन्थ की तात्पर्यवृत्ति टीका लिखी जा रही है।।५।।
अब निर्विकार शुद्ध आत्मतत्त्व को प्रतिपादन करने की मुख्यता रखते हुए, निर्दोष रत्नत्रय के पालन में निपुण ऐसे शिष्यों को प्रतिबोधित करने हेतु भगवान् श्रीकुंदकुंददेव के द्वारा निर्मित इस ‘नियमसार’ नामक प्राभृत ग्रंथ में यथाक्रम से अधिकारों की शुद्धिपूर्वक भूमिकासहित अर्थात् प्रत्येक अधिकारों की भूमिका बताने वाला यह व्याख्यान किया जा रहा है।
उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-
इस ग्रंथ में सर्वप्रथम ‘‘णमिऊण जिणं वीरं’’ इत्यादि गाथा पाठ के क्रम से ‘नियम’ शब्द से वाच्य जो रत्नत्रय है, उसका वर्णन करेंगे। उस रत्नत्रय का एक अवयव जो
व्यवहारचारित्रप्ररूपणा। तदनन्तरं व्यवहाररत्नत्रयावष्टम्भेन साध्या द्वयशीतिसूत्रैरधिकारसप्तकेन निश्चयप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानालोचनाप्रायश्चित्तपरमसमाधिपरमभक्त्यावश्यकनिर्युक्तिसंज्ञाभिः निश्चय-चारित्रप्ररूपणा, इत्येकादशाधिकारैः मार्गप्रतिपादनम्। तत्पश्चात् निश्चयचारित्रस्य फलभूता एकोन-त्रिंशत्सूत्रैद्र्वादशमाधिकारेण परमार्हन्त्यसिद्धावस्थाप्रतिपादनपरा निर्वाणप्ररूपणा। इति समुदायेन सप्ताशीत्युत्तरशतसूत्रैद्र्वादश महाधिकारा ज्ञातव्याः।
तत्रादौ जीवाधिकारे पाठक्रमेणान्तराधिकाराः कथ्यन्ते। तद्यथा-‘णमिऊण’ इत्यादिनमस्कारसूत्रमादिं कृत्वा चतुःसूत्राणि नियमशब्दार्थपीठिकाव्याख्यानमुख्यत्वेन, तदनन्तरं ‘अत्तागम’ इत्यादिसूत्रमादिं कृत्वा सूत्रपञ्चकं सम्यक्त्वलक्षणतद्विषयाप्तागमतत्त्वनिरूपणमुख्यत्वेन, पुनश्च दशसूत्राणि गुणपर्ययसहितजीवद्रव्यप्रतिपादनप्रधानत्वेन कथयन्तीति त्रिभिरन्तराधिकारैः सम्यक्त्वस्य विषयभूते प्रथमजीवाधिकारे समुदायपातनिका।
सम्यक्त्व है, उसके विषयभूत जीव और अजीव इन दो द्रव्यों को प्रतिपादित करने वाली ऐसी सैंतीस गाथाओं द्वारा दो अधिकारों से व्यवहारसम्यक्त्व का वर्णन किया जावेगा। इसके बाद अठारह गाथाओं द्वारा एक अधिकार-तृतीय अधिकार से सम्यग्ज्ञान का वर्णन किया जावेगा। पुनः इक्कीस गाथाओं द्वारा चौथे अधिकार से व्यवहारचारित्र का वर्णन होगा। इसके बाद व्यवहाररत्नत्रय के अवलम्बन से जो साध्य है, ऐसे निश्चयप्रतिक्रमण, निश्चयप्रत्याख्यान, निश्चय आलोचना, निश्चय प्रायश्चित्त, परमसमाधि, परमभक्ति और निश्चय आवश्यकनिर्युक्ति इन नामों वाले निश्चयचारित्र का वर्णन बयासी गाथाओं द्वारा सात अधिकारों में किया जावेगा। इन ११ अधिकारों तक मार्ग का प्रतिपादन है। तत्पश्चात् निश्चयचारित्र के फलस्वरूप ऐसी अर्हन्त अवस्था और सिद्ध अवस्था का वर्णन उनतीस गाथाओं द्वारा अंतिम बारहवें अधिकार में करते हुए निर्वाण का कथन किया जावेगा। इस प्रकार समुदाय से एक सौ सत्तासी (१८७) गाथाओं के द्वारा बारह महा अधिकार कहे गये हैं, ऐसा जानना।
इन बारह अधिकारों में से अब पहले जीवाधिकार में पाठ क्रम से अन्तराधिकार कहते हैं। उसका स्पष्टीकरण-‘णमिऊण’ इत्यादि नमस्कार गाथा को आदि लेकर चार गाथा तक नियम शब्द का अर्थ करते हुए पीठिका व्याख्यान की मुख्यता है। इसके बाद ‘अत्तागम’ इत्यादि गाथासूत्र को आदि करके पाँच गाथासूत्रों में सम्यग्दर्शन का लक्षण और उसके विषयभूत आप्त, आगम तथा तत्त्वों के कथन की मुख्यता है। पुनः दस गाथायें गुणपर्यायों सहित जीवद्रव्य की प्रधानता को कहती हैं। इस प्रकार इन तीन अंतराधिकारों से सम्यग्दर्शन और उसके विषयभूत जीवाधिकार में समुदाय पातनिका हुई।
अब इस नियमसार ग्रंथ के प्रारंभ में गाथासूत्र के पूर्वार्ध द्वारा निर्विघ्न शास्त्र की पूर्णता आदि हेतु से मंगल के लिए इष्टदेवता को नमस्कार करते हुए और गाथासूत्र के उत्तरार्ध द्वारा
अथ तावच्छास्त्रस्यादौ गाथायाः पूर्वार्धेन निर्विघ्नशास्त्रपरिसमाप्त्यादिहेतुना मङ्गलार्थमिष्टदेवतान-मस्कारमुत्तरार्धेन च नियमसारग्रन्थव्याख्यानं चिकीर्षवः श्रीकुन्दकुन्ददेवाः सूत्रमिदमवतारयन्ति-
णमिऊण जिणं वीरं अणंतवरणाणदंसणसहावं। वोच्छामि णियमसारं केवलिसुदकेवलीभणिदं।।१।।
नत्वा जिनं वीरं अनन्तवरज्ञानदर्शनस्वभावम्। वक्ष्यामि नियमसारं केवलिश्रुतकेवलिभणितम्।।१।।
-शेर छंद-
जो जिन अनंत ज्ञान औ दर्शन स्वभाव युत। करके नमन उन वीर का मैं भक्ति भाव युत।।
जिनकेवली श्रुतकेवली ने जिसको कहा है। उस नियमसार को कहूँगा जो कि महा है।।१।।
स्याद्वादचन्द्रिका टीका-‘णमिऊण’ इत्यादिपदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते। णमिऊण-नत्वा। वंश ? वीरं-अन्तिमतीर्थज्र्रं। कथंभूतं ? जिणं-जिनं। पुनरपि कथंभूतं ? अणंतवरणाणदंसणसहावं-अनन्तवरज्ञानदर्शनस्वभावं। एवं पूर्वार्धेन नमस्कारं कृत्वापरार्धेन प्रतिज्ञां कुर्वन्ति। वोच्छामि-वक्ष्यामि। वंश ? णियमसारं-नियमसारं। कथंभूतं ? केवलिसुदकेवलिभणिदं-केवलिश्रुत-केवलिभणितं इति क्रियाकारकसम्बन्धः।
इतो विस्तरः-वि विशिष्टा ई लक्ष्मीः अन्तरङ्गानन्तचतुष्टयविभूतिबहिरङ्गसमवसरणादिरूपा च सम्पत्तिः, तां राति ददातीति वीरः। अथवा विशिष्टेन ईर्ते सकलपदार्थसमूहं प्रत्यक्षीकरोतीति वीरः। यद्वा
नियमसार ग्रंथ के व्याख्यान को करने की इच्छा रखते हुए श्रीकुंदकुंददेव प्रथम गाथासूत्र को अवतरित करते हैं-
अन्वयार्थ-(अणंतवरणाणदंसणसहावं) अनंतवर ज्ञान दर्शन स्वभाववाले (जिणं वीरं) जिन वीर को (णमिऊण) नमस्कार करके (केवलिसुदकेवलीभणिदं) केवली श्रुतकेवली द्वारा कहे गये (णियमसारं) नियमसार ग्रंथ को (वोच्छामि) कहूँगा।
स्याद्वादचन्द्रिका टीका-‘णमिऊण’ इत्यादि गाथा का पदखण्डना रूप से व्याख्यान करते हैं। नमस्कार करके। किनको? वीर को-अन्तिम तीर्थंकर को। वे वैâसे हैं? जिन हैं। पुनः वैâसे हैं? अनंतवर ज्ञानदर्शन स्वभावी हैं। इस प्रकार गाथा के पूर्वार्ध से नमस्कार करके गाथा के उत्तरार्ध से प्रतिज्ञा करते हैं। कहूँगा। किसको? नियमसार को। यह कैसा है? केवली और श्रुतकेवली द्वारा कथित है। इस तरह यहाँ क्रियाकारक संबंध हुआ।
अब इसका विस्तार करते हैं-
‘वि’ विशिष्ट ‘ई’ लक्ष्मी, अर्थात् अंतरंग अनंत चतुष्टय विभूति और बहिरंग समवसरण आदि संपत्ति, यही विशेष लक्ष्मी है। इसको जो देते हैं वे ‘वीर’ हैं। अथवा जो विशेष रीति से ‘ईर्ते’ अर्थात् जानते हैं-संपूर्ण पदार्थों को प्रत्यक्ष करते हैं, वे वीर हैं। अथवा वीरता करते हैं-शूरता करते हैं-विक्रमशाली हैं अर्थात् कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते हैं, वे वीर हैं। ये वीर भगवान्, श्रीवर्धमान, सन्मति, अतिवीर और महतिमहावीर इन पाँच नामों से प्रसिद्ध श्रीसिद्धार्थ महाराज के पुत्र अंतिम तीर्थंकर हैं।
वीरयते शूरयते विक्रामति कर्मारातीन् विजयते इति वीरः श्रीवर्धमानः सन्मतिनाथोऽतिवीरो महतिमहावीर इति पञ्चाभिधानैः प्रसिद्धः सिद्धार्थस्यात्मजः पश्चिमतीर्थंकर इत्यर्थः। अथवा ‘कटपयपुरस्थवर्णैर्नव नव पञ्चाष्टकल्पितैः क्रमशः। स्वरञनशून्यं संख्यामात्रोपरिमाक्षरं त्याज्यम्’।। इति सूत्रनियमेन वकारेण चतुरज्रे र शब्देन च द्व्यज्र्स्तथा ‘अज्रनां वामतो गतिः’ इति न्यायेन चतुर्विंशत्यज्र्ेन (२४) वृषभादिमहावीर-पर्यन्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणामपि ग्रहणं भवति।
अनन्तभवप्रापणहेतून् समस्तमोहरागद्वेषादीन् जयतीति जिनः। उक्तं च श्रीपूज्यपाददेवैः-
जितमदहर्षद्वेषा जितमोहपरीषहा जितकषायाः। जितजन्ममरणरोगा जितमात्सर्या जयन्तु जिनाः।।
अनन्तौ च तौ वरौ सर्वोत्तमौ ज्ञानदर्शनस्वभावौ यस्यासौ अनन्तवरज्ञानदर्शनस्वभावस्तम् उपलक्षणमात्रमेतत्,तेन अनन्तसौख्यमनन्तवीर्यं चापि परिगृह्येते। तेनैतदुत्तंकं भवति-यः अनन्तचतुष्टयेन युक्तो जिनो वीरस्तं नमस्कृत्य वक्ष्यामि कथयिष्यामि नियमसारम्। नियमशब्दोऽत्र रत्नत्रयानुष्ठानेषु वर्तते।
अथवा वीर शब्द का चौथा अर्थ करते हैं-‘कटपय’ इत्यादि श्लोक का अर्थ है। क से झ तक अक्षरों में से क्रम से १ आदि से ९ तक अंक लेना। ट से ध तक भी क्रम से १ से ९ तक अंक लेना। पवर्ग से क्रमशः ५ तक अंक लेना और ‘य र ल व श ष स ह’ इन आठ से क्रमशः ८ तक अंक लेना। इनमें जो स्वर आ जावें या ञ और न आवें तो उनसे शून्य (०) लेना। इस सूत्र के नियम से ‘वीर’ शब्द के वकार से ४ का अंक और रकार से २ का अंक लेना। तथा ‘अज्रनां वामतो गतिः’ इस सूत्र के अनुसार अज्रें को उल्टे से लिखना होता है। इसलिए ‘२४’ अज्र् आ गया। वीर शब्द के इस २४ अंक से आदिनाथ से लेकर महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों का भी ग्रहण हो जाता है। जिससे चौबीसों तीर्थंकरों को भी नमस्कार किया गया है, यह समझना।
अनंतभवों को प्राप्त कराने में कारण ऐसे संपूर्ण मोह, राग, द्वेष आदि को जीतते हैं, वे ‘जिन’ कहलाते हैं।
श्री पूज्यपादस्वामी ने कहा है-
जिन्होंने मद, हर्ष और द्वेष को जीत लिया है, मोह और परीषहों को जीत लिया है, कषायों को जीत लिया है, मात्सर्य को जीत लिया है और जन्ममरण रोगों को जीत लिया है, वे ‘जिन’ कहलाते हैं। ऐसे जिनदेव सदा जयशील होवें।
जिनका ज्ञान-दर्शन स्वभाव अनंत और सर्वोत्तम है, ऐसे जिनेन्द्रदेव वीर भगवान् को यहाँ नमस्कार किया है। यहाँ पर ‘ज्ञानदर्शन’ ये दो उपलक्षणमात्र हैं, अतः इसी कथन से अनंतसुख और अनंतवीर्य को भी ग्रहण किया गया समझना चाहिए। इससे अर्थ यह हुआ कि ‘जो अनंतचतुष्टय से युक्त जिन वीर हैं, उनको नमस्कार करके मैं नियमसार को कहूँगा। यहाँ पर
अतः नियमसार इत्यनेन भेदाभेदरत्नत्रयस्वरूपकथनाय प्रतिज्ञा सूचिता भवति। विंश विशिष्टं तं? केवलिनः सर्वज्ञदेवाः, श्रुतं च तद् द्वादशाङ्गरूपं तेषां केवलिनः सकलश्रुतधरा इत्यर्थः। प्राकृतलक्षणबलात् केवलीशब्ददीर्घत्वं। केवलिभिः श्रुतकेवलिभिश्च यो भणितः स केवलि-श्रुतकेवलिभणितस्तम्, सर्वज्ञदेवैः गणधरदेवादिभिश्च यः कथितो नियमस्य सारो रत्नत्रयस्य स्वरूपं तमेवाहं कथयामीत्यर्थः। एतेन ग्रन्थकारैः स्वकर्तृत्वं निराकृत्याप्तकर्तृत्वं ख्यापितम्। किमर्थं ? कर्तृप्रामाण्याद्वचनप्रमाणमिति ज्ञापनार्थम्।
अत्रानन्तज्ञानादिगुणस्मरणरूपभाव-नमस्कारोऽशुद्धनिश्चयनयेन, नत्वेति वचनात्मकद्रव्यनमस्कारो व्यवहारनयेन, शुद्धनिश्चयेन तु स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव इति नयार्थो ग्राह्यः। आद्यौ द्वौ नमस्कारौ षष्ठगुणस्थानपर्यन्तम्१, किन्तु शुद्धनिश्चयनयेन यो नमस्कारः, स तु आ सप्तमगुणस्थानात् क्षीणकषायं यावत् । इत: परं नमस्कारार्हा एव भवन्ति।
ग्रन्थोऽप्ययमन्वर्थनामा। अन्वर्थनाम विंश? यादृशं नाम तादृशोऽर्थः, यथा दहतीति दहनोऽग्निरित्यर्थः,
नियम’ शब्द रत्नत्रय के अनुष्ठान में लिया गया है। इसलिए ‘नियमसार’ इस शब्द से भेदरत्नत्रय और अभेदरत्नत्रय इन दोनों का स्वरूप कहने की प्रतिज्ञा की गई है।
यह नियमसार ग्रंथ किन विशेषताओं से सहित है? यह नियम का सार अर्थात् रत्नत्रय का स्वरूप केवली सर्वज्ञदेव और द्वादशांग श्रुत के धारी श्रुतकेवली गणधर देव आदि के द्वारा कथित है। इसी को मैं कहूँगा।
इस कथन से यहाँ पर ग्रंथकार श्री कुंदकुंद देव ने स्वकर्तृत्व-स्वयं के द्वारा कल्पित का निराकरण करके आप्तकर्तृत्व-सर्वज्ञदेव द्वारा भाषित है, यह बतला दिया है।
ऐसा क्यों?
क्योंकि कर्ता की प्रमाणता से ही वचन में प्रमाणता आती है। इस बात को बतलाने के लिए ही ग्रंथकार ने यह ग्रंथ ‘‘केवली श्रुतकेवली द्वारा कहा गया है’’ उसी को मैं कहूँगा। यह बात कही है।
यहाँ पर अनंतज्ञान आदि गुणों के स्मरणरूप भावनमस्कार किया गया है, वह अशुद्ध निश्चय से है। ‘नत्वा’ इस शब्द के द्वारा जो वचनात्मक नमस्कार है, वह व्यवहारनय की अपेक्षा से है। शुद्ध निश्चयनय से तो अपनी आत्मा में ही आराध्य-आराधक भाव है। इस प्रकार नयों का अर्थ ग्रहण करना चाहिए। इनमें से आदि के दो नमस्कार तो छठे गुणस्थान तक होते हैं तथा शुद्ध निश्चयनय से जो नमस्कार किया जाता है वह सातवें गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान पर्यंत होता है। उसके आगे तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवली अर्हंत भगवान् और गुणस्थान से परे सिद्ध भगवान् हैं, वे तो नमस्कार के योग्य ही होते हैं।
यह ग्रंथ भी अन्वर्थ नामवाला है। अन्वर्थ क्या है? जिसका जैसा नाम हो वैसा ही अर्थ हो, उसे अन्वर्थनामक या सार्थक नामवाला कहते हैं। जैसे ‘दहतीति दहनः अग्निः’ जो जलाती है
तथैवास्मिन् ग्रन्थे नियमस्य रत्नत्रयस्य सारः शुद्धावस्था समीचीनावस्था वा वण्र्यते इति। तात्पर्यमिदम्-अनन्तगुणसमन्वितं वीरजिनं नमस्कृत्य सर्वज्ञदेवादिभिः कथितं नियमसारम् अहं कथयामि। संबन्धाभिधेयप्रयोजनान्यप्यत्र ज्ञातव्यानि, व्याख्यानं वृत्तिग्रन्थो व्याख्येयं तत्प्रतिपादकसूत्रमिति तयोः सम्बन्धो व्याख्यानव्याख्येयसंबन्ध:। सूत्रमभिधानं सूत्रार्थोऽभिधेयस्तयोः संबन्धोऽभिधानाभिधेयसंबन्धः। व्यवहारनिश्चयरत्नत्रयावलम्बनेन शुद्धात्मपरिज्ञानं प्राप्तिर्वा प्रयोजनमित्यभिप्रायः।।१।।
आत्मने हितं तत्प्राप्त्युपायश्च इत्थं द्वैविध्यं प्रतिपादयन्ति भगवन्तः-
मग्गो मग्गफलं त्ति य दुविहं जिणसासणे समक्खादं।
मग्गो मोक्खउवायो तस्य फलं होइ णिव्वाणं।।२।।
मार्गो मार्गफलमिति च द्विविधं जिनशासने समाख्यातम्।
मार्गो मोक्षोपायः तस्य फलं भवति निर्वाणम्।।२।।
मारग व मार्गफल ये दो प्रकार हैं यहाँ। जिनदेव के शासन में ये गणधर ने है कहा।।
जो मोक्ष का उपाय है वो मार्ग कहाया। उसका है फल निर्वाण यह ऋषियों ने बताया।।२।।
स्याद्वादचंद्रिका टीका-मग्गो मग्गफलं त्ति य दुविहं-मार्गः मार्गफलम् इति च द्विविधम्। क्व कथितमेतत् ? जिणसासणे समक्खादं-जिनशासने समाख्यातम्। को मार्गः विंश च तत्फलं ? मग्गो मोक्खउवायो तस्स फलं णिव्वाणं होइ-मार्गः मोक्षोपायः, तस्य फलं निर्वाणं भवति इति क्रियाकारकसम्बन्धः।
वह दहन-अग्नि है। उसी प्रकार से इस ग्रंथ में नियम का सार अर्थात् रत्नत्रय की शुद्धावस्था या समीचीन अवस्था को कहा गया है।
तात्पर्य यह हुआ कि ‘अनंत गुणों से समन्वित वीर जिनेंद्र को नमस्कार करके सर्वज्ञ देव आदि के द्वारा कथित नियमसार को मैं कहूँगा। इस ग्रंथ में संबंध, अभिधेय और प्रयोजन को भी जानना चाहिए। यहाँ वृत्ति ग्रंथ अर्थात् टीकावचन व्याख्यान है और उसके प्रतिपादक गाथा सूत्र व्याख्येय हैं। इन दोनों का जो संबंध है, वह व्याख्यान-व्याख्येय संबंध है। गाथा-सूत्र अभिधान हैं और उन सूत्रों का अर्थ अभिधेय है। इन दोनों का संबंध अभिधान-अभिधेय संबंध है। व्यवहार-निश्चय रत्नत्रय के अवलंबन से शुद्ध आत्मा का ज्ञान होना या शुद्ध आत्मा की प्राप्ति हो जाना ही इस ग्रंथ का प्रयोजन है। यह अभिप्राय हुआ।
अब यहाँ भगवान् कुन्दकुन्दददेव आत्मा का हित और उसकी प्राप्ति का उपाय इन दो प्रकार को बतलाते हैं-
अन्वयार्थ-(जिणसासणे) जिन शासन में (मग्गो य मग्गफलं ति) मार्ग और मार्ग का फल ये दो प्रकार (समक्खादं) कहे गये हैं। (मोक्खउवायो मग्गो) मोक्ष की प्राप्ति का उपाय मार्ग है और (तस्स फलं णिव्वाणं होइ) उसका फल निर्वाण है।
स्याद्वादचन्द्रिका टीका- मार्ग और मार्ग का फल ये दो प्रकार हैं। यह कहाँ कहा है? जिन शासन में कहा है। मार्ग क्या है और उसका फल क्या है? मोक्ष का उपाय मार्ग है और उसका फल निर्वाण है। यह क्रियाकारक संबंध हुआ।
इतो विस्तरः–मागर्यते अन्विष्यते येन स्वेष्टस्थानं वस्तु वा स मार्गः, मोक्षस्य प्राप्त्युपायः। तेन मार्गेण गत्वा उपायं कृत्वा यल्लभ्यते तदेव फलम् तत्तु निर्वाणमेव। इति शब्दोऽत्र प्रकारार्थे। एवं प्रकारेण द्विविधं जिनेंद्रदेवस्य शासने समाख्यातं वर्णितम् । वैसे? गणधरादिदेवैः-इत्यर्थः।
अयं मार्गः षष्ठगुणस्थानादारभ्य कथञ्चिद् देशसंयमबलेन पञ्चमगुणस्थानादप्यारभ्य वा द्वादशम-गुणस्थानान्त्यपर्यन्तम् अथवा चतुर्दशमगुणस्थानान्त्यसमयपर्यन्तमेव१। तत उपरि मोक्ष इति ज्ञातव्यः।
तात्पर्यमिदम्-स्वात्मोपलब्धिस्वरूपो मोक्षः। तत्प्राप्त्यर्थं नित्यनिरञ्जननिर्विकारनिज-शुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धान-ज्ञानानुष्ठानरूपाभेदरत्नत्रयम्, तत्साधनभूतमष्टाङ्गसम्यग्दर्शनमष्टविधसम्यग्ज्ञानं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्रमिति समुदायरूपेण भेदरत्नत्रयं तदुभयमपि मार्ग इति ज्ञात्वा शक्त्यनुसारेण तदुपरि गन्तव्यम्। किञ्च मोक्ष एव उपादेयः, साक्षात् तदुपायभूतम-भेदरत्नत्रयमुपादेयं तत्साधनरूपेण भेदरत्नत्रयमप्युपादेयमेव।।२।।
अब आगे विस्तार करते हैं-जिसके द्वारा अपना इष्ट स्थान अथवा इष्ट वस्तु खोजी जाती है वह मार्ग है। अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति का उपाय। यहाँ मृग् धातु ढूँढने अर्थ में है, उससे ही मार्ग शब्द बना है। इस मार्ग से चलकर अर्थात् उपाय को करके जो प्राप्त किया जाता है, वही उस मार्ग का फल है, वह निर्वाण-मोक्ष ही है। गाथा में जो ‘इति’ शब्द है, वह प्रकार अर्थ को सूचित करता है। जिनेंद्रदेव के शासन में गणधरदेव आदि ने मार्ग और उसका फल ये दो प्रकार ही कहे हैं।
यह मार्ग छठे गुणस्थान से शुरू होकर बारहवें गुणस्थान के अंतिम समय पर्यंत रहता है। अथवा कथंचित् देशसंयम के बल से पंचमगुणस्थान से भी प्रारंभ होकर बारहवें तक रहता है। अथवा चौदहवें गुणस्थान के अंतिम समय पर्यंत२ भी यह रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग माना गया है। उसके ऊपर तो मोक्ष ही है जो कि उस मार्ग का फल है, ऐसा समझना।
यहाँ तात्पर्य यह है कि अपने आत्मा की उपलब्धिस्वरूप मोक्ष है। नित्य निरंजन निर्विकार निज शुद्ध आत्मा का सम्यक् श्रद्धान्, उसी का ज्ञान और उसी में अनुष्ठान रूप जो अभेद रत्नत्रय है, वही उस मोक्ष की प्राप्ति का उपाय है पुन: अष्टांग सम्यग्दर्शन, अष्टविध सम्यग्ज्ञान और तेरह प्रकार का चारित्र, ये तीनों समुदाय रूप से भेद रत्नत्रय हैं। ये अभेद रत्नत्रय के लिए साधन हैं। ये दोनों भेद-अभेद रत्नत्रय भी मोक्ष मार्ग हैं, ऐसा समझकर शक्ति के अनुसार इन पर चलना चाहिए। दूसरी बात यह है कि मोक्ष ही उपादेय है, उसके लिए साक्षात् उपाय अभेद रत्नत्रय है वह उपादेय है और उसके लिए भी साधनभूत जो भेद रत्नत्रय है, वह भी उपादेय ही है।
अथ नियमसारशब्दस्यान्वर्थमर्थं तस्य लक्षणं च सूचयन्तो भगवन्तः प्राहुः-
णियमेण य जं कज्जं तं णियमं णाणदंसणचरित्तं।
विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं।।३।।
नियमेन च यत्कार्य स नियमो ज्ञानदर्शनचारित्रम्।
विपरीतपरिहारार्थं भणितं खलु सारमिति वचनम् ।।३।।
जो करने योग्य है नियम से वोहि नियम है। वो ज्ञान दर्श औ चरित्र रूप धरम है।।
विपरीत के परिहार हेतु सार शब्द है। अतएव नियम से ये नियमसार सार्थ है।।३।।
स्याद्वादचंद्रिका टीका–णियमेण य जं कज्जं तं णियमं-नियमेन च निश्चयेनैव यत्कार्यं यत्कर्तुं योग्यम् अवश्यंकरणीयं सः नियमः। तत्किम् ? णाणदंसणचरित्तं-ज्ञानदर्शनचारित्रम् खलु सारमिदि वयणं विवरीयपरिहरत्थं भणिदं-खलु सारमिति वचनं विपरीतपरिहारार्थं भणितम्। खलु निश्चयेन तेन सह सार इति वचनं यत्प्रोत्तंâ वर्तते तद् विपरीतस्य मिथ्यात्वस्य परिहारार्थं निराकरणार्थमेव। मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रमपि मोक्षमार्गो मा भूयात् इति हेतोः, सम्यक्शब्दप्रयोजनार्थं वा। तथा च सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रमेव मोक्षमार्ग इति। वैसे भणितम् ? चतुज्र्ञानधारिगणधरदेवैः-इत्यर्थः।
अस्य नियमसारग्रन्थस्य सार्थकमिदं नामकरणम्। प्रमत्तसंयतगुणस्थानात् प्रारभ्यायोगकेवलिपर्यन्ताः संयता नियमसारा भवन्ति क्षीणकषायान्ता वा, भेदाभेदरत्नत्रयानुष्ठानत्वाद् नियमशब्देन वाच्यस्याधारत्वाच्च। तर्हि मुनीनामेवास्य ग्रन्थस्याध्ययनेऽधिकारो न तु देशव्रतिनामसंयतसम्यग्दृष्टीनां च ? सत्यमुत्तंक भवता, मुख्यवृत्त्या
अब श्रीकुंदकुंद भगवान् नियमसार शब्द का अन्वर्थ अर्थ और उसका लक्षण कहते हैं-
अन्वयार्थ-(णियमेण य जं कज्जं) नियम से ही जो कार्य करने योग्य है, (तं णियमं णाणदंसणचरित्तं) वह नियम ज्ञान-दर्शन और चारित्र है। (विवरीय परिहरत्थं) विपरीत का परिहार करने के लिए (खलु सारं इदि वयणं भणिदं) निश्चय से इसमें ‘सार’ यह वचन कहा गया है।
स्याद्वादचन्द्रिका-निश्चय से ही जो कार्य करने योग्य है, अर्थात् अवश्यकरणीय है, वह ‘नियम’ है। वह ज्ञान दर्शन चारित्र ही है और नियम के साथ जो ‘सार’ शब्द का प्रयोग है, वह निश्चित ही उसमें मिथ्यात्व के निराकरण के लिए ही है। मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र भी मोक्ष के मार्ग न हो जावें, अथवा इन ज्ञान-दर्शन-चारित्र में सम्यक् शब्द को लगाने के लिए यह ‘सार’ शब्द है। जैसे कि-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही मोक्षमार्ग है। यह किसने कहा है? चार ज्ञानधारी गणधरदेवों ने कहा है, यहाँ ऐसा समझना। यह इस ‘नियमसार’ ग्रंथ का सार्थक नाम है। प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगकेवली गुणस्थान पर्यंत सभी संयत-मुनिराज ‘नियमसार’ होते हैं। अथवा छठे गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय-नामक बारहवें गुणस्थान तक के सभी साधु नियमसार हैं, क्योंकि वे भेद-अभेद रत्नत्रय का अनुष्ठान कर रहे हैं और नियम शब्द से वाच्य विषय के आधारभूत हैं।
शंका-तब तो मुनियों को ही इस ग्रंथ को पढ़ने का अधिकार है, किन्तु देशव्रती और असंयत सम्यग्दृष्टियों को नहीं है?
समाधान-आपने ठीक ही कहा है, मुख्यरूप से तो मुनियों को ही अधिकार है, किन्तु गौण रूप से छठे गुण स्थान से नीचे वाले श्रावक भी पढ़ सकते हैं। क्योंकि सागार-गृहस्थ भी मुनि धर्म के अनुरागी ही हैं। सागारधर्मामृत में कहा भी है- अर्हंतदेव और परिपूर्ण चारित्रधारी मुनियों को नमस्कार कर उनके धर्म के अनुरागी ऐसे श्रावकों का धर्म मैं कहूँगा। दूसरी बात यह है कि निश्चय चारित्र की प्रधानता वाले इस शास्त्र को पढ़कर श्रावकों को भी श्रद्धान करना चाहिए कि ‘जब हमें दोनों प्रकार का भी यह मार्ग प्राप्त हो जावेगा तभी हम धन्य होंगे और पुण्यवान् होंगे’ इस प्रकार भावना भी भाते रहना चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि नियम से जो करने योग्य कर्तव्य है, वह नियम शब्द से वाच्य है, वह दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही है। इनसे विपरीत मिथ्यादर्शनादि भी मोक्षमार्ग न हो जावें, इसलिए इस नियम के साथ ‘सार’ शब्द कोे कहा है। अब दूसरे प्रकार से नियम का लक्षण और उसका फल कहते हुए तथा भेदरत्नत्रय की सफलता को भी दिखलाते हुए श्री कुन्दकुन्द भगवान् कहते हैं- अन्वयार्थ-(मोक्खउवायो णियमं) मोक्ष का उपाय नियम है, (परमणिव्वाणं तस्स फलं हवदि) परमनिर्वाण उसका फल है,
तु संयतानामेव किन्तु गौणवृत्त्या तदधस्तनगुणस्थानवर्तिनामपि। किं च, सागारा अपि तद्धर्मरागिणः सन्त्येव।
उक्तं च सागारधर्मामृते-
अथ नत्वार्हतोक्षूणचरणान् श्रमणानपि।
तद्धर्मरागिणां धर्मः सागाराणां प्रणेष्यते१।।१।।
अन्यच्च निश्चयचारित्रप्रधानमिदं शास्त्रमधीत्य श्राववैâरपि श्रद्धातव्यम्, यदास्माभिद्र्विविधोऽपि मार्गो लप्स्यते, तदैव वयं धन्याः पुण्यवन्तश्च भविष्याम इति भावनापि भावयितव्या।
तात्पर्यमिदम्-नियमेन यत्कार्यं कर्तव्यं वर्तते स नियमशब्दवाच्यः, तत्तु ज्ञानदर्शनचारित्रमेव। तस्माद् विपरीतमपि मोक्षमार्गो न स्यात्, अतस्तेन सह सारमिति वचनम् उच्यते।।३।।
अधुना प्रकारान्तरेण नियमस्य लक्षणं तस्य फलं च कथयन्तो भेदरत्नत्रयस्य साफल्यमपि प्रकटयन्तः श्रीकुन्दकुन्दभगवन्त प्राहुः-
णियमं मोक्खउवायो तस्स फलं हवदि परमणिव्वाणं।
एदेसिं तिण्हं पि य पत्तेयपरूवणा होदि।।४।।
शंका-तब तो मुनियों को ही इस ग्रंथ को पढ़ने का अधिकार है, किन्तु देशव्रती और असंयत सम्यग्दृष्टियों को नहीं है?
समाधान-आपने ठीक ही कहा है, मुख्यरूप से तो मुनियों को ही अधिकार है, किन्तु गौण रूप से छठे गुण स्थान से नीचे वाले श्रावक भी पढ़ सकते हैं। क्योंकि सागार-गृहस्थ भी मुनि धर्म के अनुरागी ही हैं।
सागारधर्मामृत में कहा भी है-
अर्हंतदेव और परिपूर्ण चारित्रधारी मुनियों को नमस्कार कर उनके धर्म के अनुरागी ऐसे श्रावकों का धर्म मैं कहूँगा।
दूसरी बात यह है कि निश्चय चारित्र की प्रधानता वाले इस शास्त्र को पढ़कर श्रावकों को भी श्रद्धान करना चाहिए कि ‘जब हमें दोनों प्रकार का भी यह मार्ग प्राप्त हो जावेगा तभी हम धन्य होंगे और पुण्यवान् होंगे’ इस प्रकार भावना भी भाते रहना चाहिए।
तात्पर्य यह हुआ कि नियम से जो करने योग्य कर्तव्य है, वह नियम शब्द से वाच्य है, वह दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही है। इनसे विपरीत मिथ्यादर्शनादि भी मोक्षमार्ग न हो जावें, इसलिए इस नियम के साथ ‘सार’ शब्द कोे कहा है।
अब दूसरे प्रकार से नियम का लक्षण और उसका फल कहते हुए तथा भेदरत्नत्रय की सफलता को भी दिखलाते हुए श्री कुन्दकुन्द भगवान् कहते हैं-
अन्वयार्थ-(मोक्खउवायो णियमं) मोक्ष का उपाय नियम है, (परमणिव्वाणं तस्स फलं हवदि) परमनिर्वाण उसका फल है, (एदेसिं तिण्हं पि य पत्तेयपरूवणा होदि) इन तीनों नियमो में से अब प्रत्येक का वर्णन करते हैं।
मोक्षोपायस्तस्य फलं भवति परमनिर्वाणम्।
एतेषां त्रयाणामपि च प्रत्येकप्ररूपणा भवति।।४।।
निर्वाण प्राप्ति का उपाय नियम कहाता।
होता उसी का फल परम निर्वाण सुहाता।।
दर्शन व ज्ञान चरित तीन रत्न अनुपम।
प्रत्येक का आचार्य यहाँ करते निरूपण।।४।।
णियमं मोक्खउवायो तस्स फलं परमणिव्वाणं हवदि-नियमो मोक्षोपायस्तस्य फलं परमनिर्वाणं भवति। ‘‘ननु मार्गो मोक्षोपायस्तस्य फलं निर्वाणमिति द्वितीयसूत्रे प्रोक्तम्, अत्र तु ‘नियमो मोक्षोपायस्तस्य फलं निर्वाणं’’ कथमेतत् ? उच्यते, तत्र मार्गस्य प्राधान्यम्, अत्र तु नियमस्य प्राधान्यम्, एतदेवान्तरं न चान्यत्। किञ्च मार्ग एव नियमो नियम एव मार्ग इति। तृतीयगाथासूत्रेऽपि तदेव लक्षणं यन्मार्गस्य। यथा-‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’ इति।
इतो विस्तरः-कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः१, अनन्तचतुष्टयाभिव्यक्तिस्वभावो वा। उक्तं च श्रीब्रह्मदेवसूरिणा-
‘‘यद्यपि सामान्येन निरवशेषनिराकृतकर्ममलकलज्र्स्याशरीरस्यात्मनः आत्यन्तिकस्वाभाविका-चिन्त्याद्भुतानुपमसकलविमलकेवलज्ञानाद्यनन्तगुणास्पदमवस्थान्तरं मोक्षो भण्यते, तथापि विशेषेण भावद्रव्यरूपेण द्विधा भवति। सर्वस्य द्रव्यभावरूपमोहनीयादिघातिचतुष्टयकर्मणः क्षयहेतुर्निश्चयरत्नत्रयात्मककारणसमयसाररूपो
स्याद्वादचन्द्रिका-नियम से मोक्ष का उपाय लेना और उसका फल परम निर्वाण है। दूसरी गाथा में मोक्ष के उपाय को मार्ग कहा है और उसका फल निर्वाण कहा है। यहाँ चतुर्थ गाथा में नियम को मोक्ष का उपाय कहा है और उसके फल को निर्वाण कहा है। इन दोनों कथन में इतना ही अंतर है कि वहाँ मार्ग की प्रधानता है और यहाँ पर नियम शब्द की प्रधानता है। दूसरी बात यह है कि मार्ग ही नियम है और नियम ही मार्ग है। तीसरी गाथा में भी नियम शब्द का वही लक्षण किया है, जो कि मार्ग का है। जैसे कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों का समुदाय ही मोक्षमार्ग है।
अब विस्तार करते हैं-
संपूर्ण कर्मों से छूट जाना मोक्ष है। अथवा अनंत चतुष्टयस्वभाव की प्रकटता हो जाना भी मोक्ष है।
श्रीब्रह्मदेव-सूरि ने कहा भी है-
यद्यपि संपूर्ण कर्ममल कलंक के दूर हो जाने पर शरीररहित आत्मा की आत्यंतिक, स्वभाविक, अचिन्त्य, अद्भुत और अनुपम ऐसे सकल विमल केवलज्ञान आदि अनंत गुणों के स्थानरूप एक अवस्था विशेष का हो जाना ‘मोक्ष’ कहा गया है, फिर भी वह मोक्ष भेदरूप से भावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष की अपेक्षा दो प्रकार का है-संपूर्ण द्रव्यभावरूप मोहनीय आदि
य आत्मनः परिणामः स भावमोक्षः१। अयोगिचरमसमये टज्रेत्कीर्णशुद्धबुद्धैकस्वभाव परमात्मनः आयुरादिशेषाघाति-कर्मणामपि य आत्यन्तिकपृथग्भावो विश्लेषो स द्रव्यमोक्ष इति२।’’
अतो ज्ञायते आर्हन्त्यावस्थावाप्तिर्भावमोक्षः सिद्धावस्थावाप्तिद्र्रव्यमोक्ष इति।
नियमो मोक्षोपायो यद्यपि व्यवहारनयेन क्षीणकषायान्त्यसमयपरिणामस्तथाप्यघातिकर्मवशेन केवलिनामपि चारित्रगुणेषु आनुषङ्गिकदोषाः संभवन्ति। तथा च व्युपरतक्रियानिवृत्तिलक्षणं ध्यानमपि उपचारेण तत्र कथ्यते। अतो निश्चयनयेनायोगकेवलिनामन्त्यसमयपरिणामोऽपि रत्नत्रयस्वरूपमोक्षमार्ग एव।
उक्तं च श्रीविद्यानन्दमहोदयैः-
‘‘निश्चयनयादयोगकेवलिचरमसमयवर्तिनो रत्नत्रयस्य मुक्तेर्हेतुत्वव्यवस्थितेः।’’
अस्मान्निर्णीयते चतुर्दशमगुणस्थानावसानं यावद् मार्गस्ततः परं मार्गफलमिति।
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां समुदय एव मार्गो न व्यस्तानाम् ।
उक्तं च भट्टाकलकद्देवैः-
चार घातिया कर्मों के क्षय में हेतु, निश्चयरत्नत्रयात्मक कारणसमयसार रूप जो आत्मा का परिणाम है, वह भावमोक्ष है। अयोगकेवली भगवान् जो कि टंकोत्कीर्ण शुद्धबुद्ध एक स्वभाववाले परमात्मा हैं, उनके उस चौदहवें गुणस्थान के अंतिम समय में आयु, वेदनीय, नाम और गोत्र इन चारों अघातिया कर्मों का भी अत्यंतरूप से पृथक् हो जाना द्रव्य मोक्ष है। इस कथन से यह जाना जाता है कि अर्हंत अवस्था को प्राप्त कर लेना भावमोक्ष है और सिद्ध अवस्था की प्राप्ति हो जाना द्रव्यमोक्ष है।
यह नियम नाम से जो मोक्ष का उपाय है, अर्थात् रत्नत्रय है, वह यद्यपि व्यवहारनय से क्षीणकषायी मुनि के अंतिम समय का परिणाम है, फिर भी अघाति कर्म के निमित्त से केवली भगवंतों के चारित्र गुणों में आनुषंगिक दोष संभव हैं तथा व्युपरतक्रियानिवृत्ति नाम का चौथा शुक्ल ध्यान भी उनके वहाँ पर उपचार से कहा गया है, इसलिए निश्चयनय से अयोगिकेवलियों का अंतिम समय का परिणाम भी रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग ही है।
आचार्य श्री विद्यानंद महोदय ने कहा भी है-
‘‘निश्चयनय से अयोगकेवली का अंतिमसमयवर्ती रत्नत्रय मुक्ति का हेतु है, यह बात व्यवस्थित है।’’
इस कथन से यह निर्णीत होता है कि चौदहवें गुणस्थान के अंत तक ‘मार्ग’ है और उसके आगे मार्ग का फल है। क्योंकि सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों का समुदाय ही मार्ग है, इनमें से एक-दो का कम होना नहीं है।
श्री भट्ट अकलज्र्देव ने भी कहा है-
‘‘त्रयमेतत् संगतं मोक्षमार्गो नैकशो द्विशो वा इति। नहि त्रितयमन्तरेण मोक्षप्राप्तिरस्ति रसायनवत् । तथा न मोक्षमार्गज्ञानादेव मोक्षेणाभिसम्बन्धो दर्शनचारित्राभावात्। न च श्रद्धानादेव, मोक्षमार्गज्ञान-पूर्वक्रियानुष्ठानाभावात्। न च क्रियामात्रादेव, ज्ञानश्रद्धानाभावात्। यतः क्रिया ज्ञानश्रद्धानरहिता निःफलेति।
यदि च ज्ञानमात्रादेव क्वचिदर्थसिद्धिर्दृष्टा साभिधीयताम् ? न चासावस्ति। अतो मोक्षमार्गत्रितयकल्पना ज्यायसीति१।’’
प्रवचनसारशास्त्रेऽपि तथैव दृश्यते-
‘‘ण हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्थेसु।
सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वादि ।।२३७।।
टीकायां च-श्रद्धानशून्येनागमजनितेन ज्ञानेन तदविनाभाविना श्रद्धानेन च संयमशून्येन न तावत्सिद्ध्यति। असंयतस्य च यथोदितात्मप्रतीतिरूपं श्रद्धानं यथोदितात्मतत्त्वानुभूतिरूपं ज्ञानं वा विंâ कुर्यात् ? ततः संयमशून्यात् श्रद्धानात् ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्धिः। अत आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानाम् अयौगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटेतैव१।’’
‘‘ये तीनों ही मिलकर मोक्षमार्ग हैं, एक-एक अथवा दो-दो से मोक्ष मार्ग नहीं है। क्योंकि इन तीनों के बिना मोक्षप्राप्ति नहीं है, रसायन के समान। मोक्षमार्ग रूप ज्ञान से ही मोक्ष का संबंध नहीं है, क्योंकि दर्शन और चारित्र का अभाव है। श्रद्धान मात्र से भी मोक्ष नहीं है, क्योंकि मोक्षमार्ग का ज्ञान और उस पूर्वक क्रिया के अनुष्ठान का अभाव है। क्रिया-मात्र से भी मोक्ष नहीं है क्योंकि उसमें ज्ञान और श्रद्धान का अभाव है। बात यह है कि ज्ञान और श्रद्धान से रहित क्रिया निष्फल ही है। यदि आपने कहीं पर जानने मात्र से ही प्रयोजन की सिद्धि देखी हो तो कहिए? अर्थात् ज्ञान मात्र से कहीं पर भी कार्य की सिद्धि नहीं देखी जाती है अतः मोक्षमार्ग के तीन अवयवों की कल्पना-व्यवस्था उत्कृष्ट ही है।’’
प्रवचनसार गं्रथ में भी ऐसा ही देखा जाता है-
‘यदि पदार्थों का श्रद्धान नहीं है, तो वह आगम के ज्ञानमात्र से सिद्ध नहीं होगा और पदार्थों का श्रद्धान करते हुए भी यदि वह असंयत है, तो भी निर्वाण को प्राप्त नहीं कर सकता।’
इसकी टीका में श्री अमृतचंद्रसूरि कहते हैं-
श्रद्धान से शून्य ऐसे आगमजनित ज्ञान से कोई भी मनुष्य सिद्ध नहीं होगा, वैसे ही ज्ञान और श्रद्धान से सहित भी कोई यदि संयम से शून्य है, तो भी वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकेगा। क्योंकि जो असंयत है, उसका आगम कथित आत्मा की प्रतीतिरूप श्रद्धान अथवा आगम में कथित आत्मतत्त्व की अनुभूतिरूप ज्ञान भी क्या कर सकेंगे? इसलिए संयम से रहित श्रद्धान से अथवा ज्ञान से सिद्धि नहीं है। अतः आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयत अवस्था-
एतत्कथनात् षष्ठगुणस्थानादेव मोक्षमार्गो न चाधस्तात्। अथवा देशसंयतानामपि मार्गो विद्यते। यथा च प्रोक्तं श्रीजयसेनाचार्येण पञ्चास्तिकायटीकायाम् –
‘‘वीतरागसर्वज्ञप्रणीतजीवादिपदार्थविषये सम्यक् श्रद्धानं ज्ञानं चेत्युभयं गृहस्थतपोधनयोः समानम्, चारित्रंं तपोधनानामाचारादिचरणग्रन्थविहितमार्गेण प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानयोग्यं पञ्चमहाव्रतपञ्चसमितित्रिगुप्ति-षडावश्यकादिरूपम्, गृहस्थानां पुनरुपासकाध्ययनग्रन्थविहितमार्गेण पञ्चमगुणस्थानयोग्यं दानशीलपूजोपवासादिरूपं दार्शनिकव्रतिकाद्येकादशनिलयरूपं वा इति व्यवहारमोक्षमार्गलक्षणम्१।।’’
अत्रापि श्रीअमृतचन्द्रसूरिभिर्यतीनामेव मोक्षमार्गो वर्णितो न तु गृहस्थानाम्।
एतस्माल्लक्ष्यते-असंयतसम्यग्दृष्टीनां मोक्षमार्गो नास्ति, चारित्राभावात्। अस्ति चेत्, उपचारेणैव। विंâ च, ये केचित् स्वयं श्रद्धानशून्या रत्नत्रयमध्ये केनचिदेकेन द्वाभ्यां वा मार्गो मन्यन्ते ते मिथ्यादृष्टयः। ये च त्रयाणां समुदय एव मोक्षमार्ग इति मत्वा श्रद्दधते ते सम्यग्दृष्टयः।
अथवा प्रमत्ताप्रमत्तमुनीनामपि मोक्षमार्गो व्यवहारनयेनैव परम्परया कारणत्वात्। निश्चयनयेन तु
सकल चारित्र ये तीनों यदि एक साथ नहीं हैं, तो उनके ‘मोक्षमार्ग’ नहीं बनता।’’
इस कथन से छठे गुणस्थान से मुनियों के ही मोक्षमार्ग होता है, इसके नीचे नहीं है। अथवा देशव्रती श्रावकों के भी मोक्षमार्ग माना है। जैसा कि श्री जयसेनाचार्य ने पंचास्तिकाय ग्रंथ की टीका में कहा है-
‘‘वीतराग सर्वज्ञप्रणीत जीवादि पदार्थों का सम्यक् श्रद्धान और ज्ञान ये दोनों रत्न गृहस्थ और तपोधनमुनि इन दोनों में समान हैं। विंâतु जो चारित्र है, वह मुनियों के तो आचारग्रंथ आदि चारित्रग्रंथों में कहे गये मार्गरूप से छठे और सातवें गुणस्थान के योग्य होता है जो कि पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति और छह आवश्यक क्रिया आदि रूप है। पुनः गृहस्थों का चारित्र उपासकाध्ययन नामक ग्रंथ में कहे गये मार्ग के अनुसार पंचमगुणस्थान के योग्य होता है, जो कि दान, शील, पूजा और उपवास इन चार धर्मरूप है अथवा दर्शन, व्रत आदि ग्यारह प्रतिमा से ग्यारहस्थानरूप है। यह सब व्यवहार मोक्षमार्ग का लक्षण है।’’
इस पंचास्तिकाय ग्रंथ में इसी गाथा की टीका करते हुए श्री अमृतचंद्र सूरि ने यहाँ पर भी यतियों के ही मोक्षमार्ग कहा है, गृहस्थों के नहीं।
इन प्रकरणों से यह बात लक्षित होती है, कि असंयत सम्यग्दृष्टियों के मोक्षमार्ग नहीं है, क्योंकि उनके चारित्र का अभाव है और यदि मानों भी तो उपचार से ही है।
दूसरी बात यह है कि जो स्वयं तो श्रद्धान से शून्य हैं और इन रत्नत्रय में से किसी एक से या किन्हीं भी दो से मोक्षमार्ग मानते हैं, वे मिथ्यादृष्टि हैं और जो ‘इन तीनों का समुदाय ही मोक्षमार्ग है’ ऐसा मान कर श्रद्धान करते हैं, वे सम्यग्दृष्टि हैं।
अथवा छठे-सातवें गुणस्थावर्ती प्रमत्त-अप्रमत्त मुनियों के भी मोक्षमार्ग व्यवहारनय से ही है
अयोगिनां चरमसमयवर्तिरत्नत्रयपरिणामो मोक्षमार्गः, साक्षात् मोक्षप्राप्तिहेतुत्वात्। भावमोक्षापेक्षया अध्यात्मभाषया वा क्षीणकषायान्त्यसमयपरिणामोऽपि चेति१।
तात्पर्यमेतत्-चिच्चैतन्यचमत्कारस्वरूपनिजपरमात्मतत्त्वस्य रुचिस्तस्यैव ज्ञानं तत्रैवावस्थानं चैतदभेदरत्नत्रयस्वरूप-निश्चयमोक्षमार्गमुपादेयं कृत्वा भेदरत्नत्रयरूपव्यवहारमोक्षमार्ग आश्रयणीयः। तच्छक्त्यभावे देशचारित्रमवलम्बनीयं महाव्रतस्य च भावना कर्तव्या। स्तोकव्रतग्रहणाभावे सम्यक्त्वं दृढीकुर्वता सता विकलचारित्रस्य भावना विधातव्या। किं च, क्रममनतिक्रम्यैव भावना भवनाशिनी भवति।
अधुनात्र ग्रन्थे एदेसिं तिण्हं पि य पत्तेयपरूपणा होदि-एतेषां त्रयाणामपि च प्रत्येकप्ररूपणा भवति। श्रीकुन्दकुन्ददेवाः स्वयमेव अग्रे रत्नत्रयस्य पृथक्-पृथक् निरूपणं करिष्यन्तीति।।४।।
एवं नमस्कारपूर्वकं ग्रन्थप्रतिज्ञारूपेण प्रथमं सूत्रम्, अस्मिन् ग्रन्थे मार्ग-मार्ग-फलयोराख्यानमस्तीति कथयित्वा तयोर्लक्षणत्वेन द्वितीयं सूत्रम्, पुनः नियमशब्दस्य व्याख्यां कृत्वा सारशब्दस्य प्रयोजनसूचनत्वेन तृतीयं सूत्रम्, ततो नियमतत्फलयोः स्वरूपं निरूप्य नियमं भेदस्वरूपेण निरूपयामीति प्रतिज्ञारूपेण चतुर्थ सूत्रम्, इति चतुर्भिः सूत्रैः प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः।
क्योंकि वह परंपरा से कारण है। निश्चयनय से तो अयोग केवलियों का अंतिमसमयवर्ती रत्नत्रय परिणाम ही मोक्षमार्ग है, क्योंकि वह साक्षात्-अनंतर क्षण में मोक्ष को प्राप्त कराने वाला है। अथवा भावमोक्ष की अपेक्षा से अध्यात्म भाषा में क्षीणकषायवर्ती मुनि का अंतिम समयवर्ती परिणाम भी मोक्षमार्ग है।
तात्पर्य यह निकला कि चित् चैतन्य चमत्कारस्वरूप अपनी आत्मा ही परमात्मतत्त्व है, उसका श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में स्थिरतारूप चारित्र, यह अभेदरत्नत्रय का स्वरूप है। यही निश्चय-मोक्षमार्ग है। इसको उपादेय करके भेदरत्नत्रयस्वरूप व्यवहार मोक्षमार्ग का आश्रय लेना चाहिए। यदि मुनि बनने की शक्ति नहीं है, तो अणुव्रती आदि बनकर देशचारित्र का अवलम्बन लेना चाहिए और महाव्रतों की भावना करनी चाहिए।
यदि अणुव्रत भी नहीं ले सके हैं, तो सम्यक्त्व को दृढ़ रखते हुए देशचारित्र की भावना करनी चाहिए, क्योंकि क्रम का उल्लंघन न करते हुए ही की गई भावना भव का नाश करने वाली होती है।
अब इस ग्रंथ में इन तीनों की भी प्रत्येक की अलग-अलग प्ररूपणा करते हैं। अर्थात् श्रीकुन्दकुन्ददेव स्वयं ही आगे सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों का पृथक्-पृथक् वर्णन करेंगे।
इस प्रकार नमस्कारपूर्वक ग्रंथ की प्रतिज्ञारूप से प्रथम गाथासूत्र हुआ। इसी ग्रंथ में मार्ग और मार्ग का फल कहा गया है, ऐसा कहकर उनका लक्षण बताते हुए दूसरा गाथासूत्र हुआ। पुनः नियम शब्द की व्याख्या करके सार शब्द का प्रयोजन सूचित करते हुए तीसरा गाथा सूत्र हुआ। इससे आगे नियम और उसके फल का लक्षण बतलाकर ‘नियम को भेदरूप से चतुर्थं कहूँगा’ ऐसी प्रतिज्ञा रूप से चौथा गाथासूत्र है। इन चार गाथा सूत्रों से यह पहला अन्तराधिकार समाप्त हुआ।
तदनन्तरं व्यवहारसम्यक्त्वस्वरूपं तस्य विषयभूताप्तागम-तत्त्वानां लक्षणं तेषां नामानि प्रतिपादयन्तीति पञ्चभिः सूत्रैद्र्वितीयान्तराधिकारे समुदायपातनिका।
इदानीं गाथायाः पूर्वार्धेन नियमस्याद्यवयवभूतसम्यक्त्वस्योत्तरार्धेन च तस्य विषयभूताप्तस्य लक्षणं निरूपयन्ति भगवन्तः श्रीकुन्दकुन्ददेवाः-
अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं।
ववगयअसेसदोसो सयलगुणप्पा हवे अत्तो।।५।।
आप्तागमतत्त्वानां श्रद्धानाद्भवति सम्यक्त्वम्।
व्यपगताशेषदोषः सकलगुणात्मा भवेदाप्तः।।५।।
सत्यार्थ आप्त आगम औ तत्त्व बताये। बस इनके हि श्रद्धान से सम्यक्त्व कहाये।।
संपूर्ण दोष रहित सकल गुण से युक्त जो। जो आत्मा है आप्त वीतराग द्वेष जो।।५।।
अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो सम्मत्तं हवेइ-आप्तागमतत्त्वानां श्रद्धानात् सम्यक्त्वं भवति। आप्तश्चागमश्च तत्त्वानि च आप्तागमतत्त्वानि तेषां श्रद्धानं रुचिः प्रतीतिर्विश्वासस्तस्मात् सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनं भवति।एतद्व्यवहारसम्यक्त्व-स्याख्यानं तदाधारेण निश्चयनयात् निजशुद्धबुद्धपरमा-नन्दमयात्मनि रुचिः श्रद्धानं निश्चयसम्यक्त्वम्। इदं साध्यं व्यवहारं साधनं च, तत एवाचार्यैः प्राग्व्यवहारसम्यक्त्वस्वरूपमुक्तम्। अथ क आप्तो यस्य श्रद्धानात् सम्यक्त्वं भवति, स एव तावदुच्यताम् ? ववगयअसेसदोसो सयलगुणप्पा
इसके अनंतर आगे व्यवहारसम्यक्त्व का स्वरूप और उसके विषयभूत आप्त, आगम और तत्त्वों का लक्षण, उनके नाम प्रतिपादित करेंगे। इस प्रकार पाँच गाथासूत्रों का दूसरा अन्तराधिकार है, यह समुदायपातनिका हुई।
अब भगवान् श्री कुन्दकुन्ददेव गाथा के पूर्वार्ध से नियम के प्रथम अवयवभूत ऐसे सम्क्त्व का और उत्तरार्ध से उसके विषयभूत आप्त का लक्षण कहते हैं-
अन्वयार्थ-(अत्तागमतच्चाणं) आप्त, आगम और तत्वों के (सद्दहणादों सम्मत्तं हवेइ) श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है। (ववगदअसेसदोसो) समस्त दोषों से रहित (सयलगुणप्पा) सकल गुणों से सहित आत्मा (अत्तो हवे) आप्त है।
स्याद्वादचन्द्रिका टीका-आप्त, आगम और तत्त्व, इनका श्रद्धान करना, इनमें रुचि, प्रतीति और विश्वास रखना ही सम्यग्दर्शन है। यह व्यवहार सम्यक्त्व का कथन है। इसके आधार से निश्चयनय से अपनी शुद्ध-बुद्ध परमानंदमय परमात्मा में रुचिरूप श्रद्धान होना निश्चयसम्यक्त्व है। यह साध्य है और व्यवहारसम्यक्त्व साधन है। इसीलिए यहाँ आचार्यदेव ने पहले व्यवहार सम्यक्त्व का स्वरूप कहा है।
अत्तो हवे-व्यपगताशेषदोषः सकलगुणात्मा आप्तो भवेत्व्यपगता निर्गता अशेषाश्च ते दोषाः यस्मात् स व्यपगताशेषदोषः शारीरिकमानसिकागन्तुकनानाविधदुःखकारणजातिजरामरणादिनिखिलदोषैर्विमुक्तो यः कश्चिदात्मा स एव आप्तः। पुनः कथम्भूतः? सकलगुणात्मा सकलाश्च ते गुणास्त एव आत्मा स्वभावो यस्यासौ एव आप्तो भवेत् देवो भवितुमर्हेत् ।
तद्यथा-आगमभाषया स्वपौरुषात् घातिकर्माणि निहत्य यः कश्चित् कर्मभूभृद्भेदित्वात् वीतरागत्वं विश्वतत्त्वज्ञातृत्वात् सर्वज्ञत्वं मोक्षमार्गनेतृत्वात् हितानुशास्तृत्वं समासाद्य अर्हन् परमात्मा भवति स एवाप्तः। अध्यात्मभाषया तु निर्विकल्पस्व-संवेदनज्ञानपरिणतनिर्विकल्पसमाधिरूपाभेदरत्नत्रयलक्षणकारणसमय-सारेण समुत्पन्नसकलविमलकेवलज्ञानदर्शनसुख-वीर्यानन्तचतुष्टयाभिव्यक्तिरूपकार्यसमयसारः स एवाप्तः।
शुद्धनिश्चयेन सर्वे संसारिजीवा अनन्तचतुष्टयस्वभावत्वात् आप्ता एव। अतः कारणात् ममात्मा वर्तमानकालेऽपि शक्तिरूपेण आप्तः परमार्थदेवः परमात्मा अस्मिन् देहदेवालये तिष्ठतीति मत्वा तत्त्वविचारकाले त्रिसन्ध्यं सामायिककाले वा अर्हत्स्व-रूपोऽहम् आप्तोऽहं, सर्वज्ञोऽहं, वीतरागोऽहम् वीतदोषोऽहम्, इति चिन्तनीयम्। तथा शेषकाले आप्तस्वरूपजिनेन्द्रदेवस्य प्रतिमायाः सन्निधौ तस्यार्हत्परमेष्ठिनो भक्तिः स्तुतिर्वन्दना
शंका-आप्त कौन हैं? जिनके श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है, पहले उन्हीं का कथन कीजिए?
समाधान-सर्वदोषरहित और सर्वगुणें सहित आत्मा ही आप्त है। शारीरिक, मानसिक, आगन्तुक रूप नाना प्रकार के दुःख हैं, उनके कारण ऐसे जन्म, जरा, मरण आदि संपूर्ण दोषों से विमुक्त जो कोई आत्मा है, वही आप्त है तथा जिनके संपूर्ण गुणस्वभाव प्रगट हो चुके हैं, वे ही आप्तदेव हो सकते हैं।
इसी का स्पष्टीकरण-आगमभाषा में जो कोई भी महापुरुष अपने पुरुषार्थ के बल से घातिकर्मों को नष्ट कर कर्मपर्वतों का भेदन करके वीतरागता को, सर्वतत्त्वों को जान लेने से सर्वज्ञता को और मोक्षमार्ग के नेता होने से हित के उपदेशिता को अर्थात् इन वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी रूप तीनों गुणों को प्राप्त करके अर्हंत परमात्मा हो चुके हैं, वे ही आप्त-सच्चे देव कहलाते हैं। अध्यात्म भाषा में निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान से परिणत निर्विकल्प समाधिरूप अभेदरत्नत्रय लक्षण जो कारणसमयसार है, उसके बल से उत्पन्न हुए सकल विमल केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य इन अनंतचतुष्टय की प्रकटता से जो कार्य समयसार हो चुके हैं, वे ही आप्त हैं, ऐसा समझना।
शुद्ध निश्चयनय से सभी संसारी जीव अनंतचतुष्टय स्वभाववाले होने से आप्त ही हैं। इस कारण मेरी आत्मा वर्तमानकाल में भी शक्तिरूप से आप्त है, सच्चा देव है, परमात्मा है, जो कि इस शरीररूपी देवालय में रह रहा है, ऐसा मानकर तत्त्व विचार के काल मेंं अथवा तीनों संध्या के सामायिक काल में ‘‘मैं अर्हत्स्वरूप हूँ, मैं आप्त हूंँ, मैं सर्वज्ञ हूँ, मैं वीतराग हूँ, मैं दोषरहित हूँ’’, ऐसा चिंतवन करना चाहिए तथा अन्य काल में आप्त भगवान् ऐसे जिनेंद्रदेव की
उपासना आराधना च विधातव्याः। विंच, आप्तस्वरूपेण स्वस्यात्मा साध्यः, इमे चाप्ताः साधनभूताः। अतः साधनावलम्ब-नेनैव साध्यः साधनीयः। गुणस्थानविवक्षायां व्यक्तरूपेणाप्तस्त्रयोदशमगुणस्थाने, शक्तिरूपेण सर्वेष्वपि संसारिजीवेषु। कारणरूपेणाभेदरत्नत्रयपरिणतसंयतेषु कारणकारणरूपेण भेदरत्नत्रयाराधकेषु आचार्योपाध्यायसाधुषु परम्पराकारणेन चतुर्थपञ्चमगुणस्थानवर्तिष्वपि आप्तो१ विराजते इति विज्ञेयः।
तात्पर्यमेतत्-आप्तादिश्रद्धानं सम्यक्त्वम् । आप्तश्च दोषैर्मुक्तो गुणैर्युक्तः, तमेवाप्तमुपादेयं कृत्वा शक्तिरूपेण स्वस्यात्मानमपि तत्सदृशं मत्वा तावदयमाप्त आराधनीयो यावदात्माप्तो न भवेत् ।।५।।
अथ गतदोष आप्त इति कथितस्तर्हि के ते दोषा येभ्यः स व्यपगतः, इत्याशज्रयां ब्रुवन्त्याचार्याः-
छुहतण्हभीरुरोसो, रागो मोहो चिंता जरा रुजा मिच्चू।
सेदं खेद मदो रइ, बिम्हिय णिद्दा जणुव्वेगो।।६।।
क्षुधा तृष्णा भयं रोषो रागो मोहश्चिन्ता जरा रुजा मृत्युः।
स्वेदः खेदो मदो रतिः विस्मयनिद्रे जन्मोद्वेगो।।६।।
क्षुध् प्यास भीति रोष राग मोह व चिंता। मद खेद पसीना जरा व रोग व निद्रा।।
विस्मय रति उद्वेग जन्ममरण कहाये। ये दोष अठारह सभी के पास बताये।।६।।
छुहतण्हभीरूरोसो रागो मोहो चिंता जरा रुजा मिच्चू सेदं खेद मदो रइ बिम्हिय णिद्दा जणुव्वेगो-
प्रतिमा के सानिध्य में बैठकर उन्हीं अर्हंत परमेष्ठी की भक्ति, स्तुति, वंदना, उपासना और आराधना करना चाहिए, क्योंकि आप्तस्वरूप से अपनी आत्मा साध्य है और ये आप्तदेव साधनभूत हैं, अतः साधन के अवलम्बन से ही साध्य को सिद्ध करना चाहिए।
गुणस्थान की विवक्षा में व्यक्तरूप से आप्त तेरहवें गुणस्थान में है और शक्तिरूप से सभी संसारी जीवों में है। वह आप्त कारणरूप से अभेदरत्नत्रय से परिणत शुद्धोपयोगी मुनियों में है, कारणकारणरूप से भेदरत्नत्रय के आराधक आचार्य, उपाध्याय साधुओं में है और परंपरा कारणरूप से चतुर्थ-पंचम गुणस्थानवर्ती गृहस्थों में भी विराजमान है, ऐसा जानना चाहिए।
तात्पर्य यह निकला कि आप्त आदि का श्रद्धान सम्यक्त्व है और आप्त दोषों से रहित, गुणों से सहित हैं। उन्हीं आप्त को उपादेय करके शक्तिरूप से अपनी आत्मा को भी उनके सदृश मानकर तब तक इन आप्त की आराधना करनी चाहिए जब तक कि यह अपनी आत्मा आप्त न हो जावे।
‘दोषरहित आप्त हैं’ ऐसा कहने पर वे दोष कौन से हैं, जिनसे रहित वे आप्त हैं, ऐसी आशंका होने पर आचार्य कहते हैं-
अन्वयार्थ-(छुहतण्हभीरूरोसो) भूख, प्यास, भय, क्रोध, (रागो मोहो चिंता जरा रुजा मिच्चू) राग, मोह, चिंता, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, (सेदं खेद मदो रइ बिम्हिय णिद्दा जणुव्वेगो) पसीना, खेद, मद, रति, विस्मय, निद्रा, जन्म और अरति ये दोष हैं।
क्षुधातृषाभयरोषरागमोहचिंताजरारुजामृत्युस्वेदखेदमदरतिविस्मयनिद्राजन्मोद्वेगाभिधानाष्टदशदोषा यस्य न सन्ति स एव आप्तः सर्वेषां भव्यजीवानामुपास्य इति।
इतो विस्तरः-इमेऽष्टादश महादोषाः, नैते जीवस्वभावाः, यद्यपि अशुद्धनयेन सर्वसंसारिजीवेषु दुश्यन्ते, तथापि ‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’ इति वचनात् शुद्धनयाभिप्रायेण तेषामपि न सन्ति। किञ्च, एते औपाधिकभावा एव।
उक्तं च श्रीविद्यानन्दमहोदयैः-
‘‘द्विविधो ह्यात्मनः परिणामः, स्वाभाविक आगन्तुकश्च। तत्र स्वाभाविकोऽनन्तज्ञानादिरात्मस्वरूपत्वात्। मलः पुनरज्ञानादिरागन्तुकः कर्मोदयनिमित्तकत्वात्१।’’
तथा च अमी सर्वे दोषा व्यक्तरूपेण षष्ठगुणस्थानपर्यन्तं सप्तमाद्येकादशमपर्यन्तमव्यक्तरूपेण सत्त्वरूपेण वा सन्ति न च ततः परम् । यथा सयोगकेवली भगवान् एभिर्दोषैर्विमुक्तः सन् निर्दोष आप्त इति गीयते तथा सम्यग्दृष्टिभिरपि निश्चयनयेन स्वस्यात्मा निर्दोष इति चिन्तनीयो व्यवहारनयावलम्बनेन च सर्वेषां दोषाणां रागद्वेषमोहा एव मूलकारणम् इति मत्वा सम्यक्श्रद्धानेन वीतरागपरमानन्दपीयूष
स्याद्वादचंद्रिका टीका-भूख, प्यास, भय, क्रोध, राग, मोह, चिंता, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, पसीना, खेद, मद, रति, आश्चर्य, निद्रा, जन्म और अरति ये अठारह दोष जिनमें नहीं हैं, वही सर्व भव्य जीवों का उपास्य आप्त है।
इसका विस्तार करते हैं-वे अठारह महादोष हैं, ये जीव के स्वभाव नहीं हैं। यद्यपि अशुद्धनय से ये दोष सभी संसारी जीवों में दिख रहे हैं, फिर भी ‘‘सभी जीव शुद्धनय से शुद्ध हैं।’’ इस वचन के अनुसार शुद्धनय के अभिप्राय से ये संसारी जीवों में नहीं हैं।
दूसरी बात यह है कि ये औपाधिक भाव हैं। इस बात को श्री विद्यानंद महोदय ने कहा है-
‘‘आत्मा के परिणाम दो प्रकार के हैं-स्वाभाविक और आगन्तुक। उनमें से अनंतज्ञान आदि गुण स्वाभाविक परिणाम हैं, क्योंकि वे आत्मा के स्वरूप हैं, किन्तु अज्ञान आदि जो मल हैं, वे आगन्तुक हैं, क्योंकि वे कर्म के उदय से हुए हैं।’’
अब गुणस्थानों में घटित करते हैं-ये सभी दोष प्रगटरूप से छठे गुणस्थान तक पाये जाते हैं। आगे सातवें गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें पर्यंत अव्यक्त-अप्रगटरूप हैं, अथवा सत्तारूप से हैं। इसके आगे तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान में तथा उससे परे सिद्धों में नहीं हैं।
जिस प्रकार सयोगीकेवली गुणस्थान में अर्हंत भगवान् इन दोषों से रहित होते हुए निर्दोष ‘आप्त’ कहलाते हैं, उसी प्रकार से सम्यग्दृष्टि श्रावकों-मुनियों को भी ‘निश्चयनय से मेरा आत्मा निर्दोष है’ ऐसा चिंतवन करते रहना चाहिए और व्यवहारनय का अवलंबन लेकर ऐसा मानना चाहिए कि इन अठारहों दोषों के मूलकारण राग, द्वेष और मोह ये तीन दोष ही हैं। पुनः
पिपासाभावनां भावयद्भिः यथायोग्यं चारित्रमादाय रागादयः परिहरणीयाः।।६।।
अष्टादशदोषरहितो यः कश्चिदाप्तस्तस्य किं नाम ? इति उच्यते भगवद्भिः-
णिस्सेसदोसरहिओ, केवलणाणाइपरमविभवजुदो।
सो परमप्पा उच्चइ, तव्विवरीओ ण परमप्पा।।७।।
निःशेषदोषरहितः केवलज्ञानादिपरमविभवयुतः।
स परमात्मोच्यते तद्विपरीतो न परमात्मा।।७।।
जो इन सभी दोषों से रहित देव वही है। कैवल्य ज्ञान आदि परम विभवमयी है।।
परमात्मा वो ही कहा जाता है भुवन में। जो इनसे भिन्न वो नहीं परमात्मा जग में।।७।।
यः कश्चिदात्मा णिस्सेसदोसरहिओ-निःशेषदोषरहितः अष्टादशदोषान्तर्गतानन्तदोषास्तेभ्यः शून्यः। पुनश्च कथम्भूतः? केवलणाणाइपरमविभवजुदो-केवलज्ञानादिपरमविभवयुतः केवलज्ञानमादौ येषां ते केवलज्ञानादयस्ते च परमाः सर्वोत्कृष्टाश्च विभवा गुणविभूतयस्तैर्युतः। स को नामधेयः? सो परमप्पा उच्चइ-सः परमात्मा उच्यते परमश्चासौ आत्मा परमात्मा इति कथ्यते। यश्च-तव्विवरीओ-तद्विपरीतः सर्वदोषसहितः केवलज्ञानादिगुणरहितश्च सः परमप्पा ण-परमात्मा न कथ्यते। वैसे? गणधरदेवादिभिः इति।
इतो विस्तरः-कोऽपि महामुनिः क्षपकश्रेणिमारुह्य सूक्ष्मसांपरायगुणस्थाने ‘अनन्तदोषाशयविग्रहो ग्रहो विषङ्गवान् मोहमयः१’’ इति वचनात् मोहनीयकर्मशत्रुं निपात्य वीतरागो भूत्वा क्षीणकषायान्त्यसमये
ऐसा मान करके सम्यक् श्रद्धानपूर्वक वीतराग परमानंद अमृत को पीने की इच्छा रूप भावना को भाते हुए अपनी योग्यता के अनुसार चारित्र को ग्रहण करके रागादि दोषों का परिहार करना चाहिए।
अठारह दोष रहित जो कोई आप्त हैं, उनका क्या नाम है ? सो ही भगवान कुन्दकुन्ददेव कहते हैं-
अन्वयार्थ-(णिस्सेसदोसरहिओ) जो संपूर्ण दोषों से रहित हैं, (केवलणाणाइ-परमविभवजुदो) केवलज्ञान आदि परम वैभव से सहित हैं, (सो परमप्पाउच्चइ) वे परमात्मा कहलाते हैं (तव्विवरीओ परमप्पा ण), इनसे विपरीत परमात्मा नहीं है।
जो कोई अठारह दोषों के अंतर्गत अनन्त दोषों से शून्य हैं और केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि सर्वोत्कृष्ट संपूर्ण गुणरूपी वैभव से सहित हैं, वे परम आत्मा, परमात्मा कहलाते हैं। इनसे विपरीत-जन्ममरण आदि सर्व दोषों से सहित और केवलज्ञान आदि गुणों से रहित परमात्मा नहीं कहला सकते, ऐसा श्री गणधर देव आदि ने कहा है।
अब इसका विस्तार करते हैं-कोई भी महामुनि क्षपक श्रेणी में आरोहण करके सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में ‘अनंत दोषों के स्थानरूप शरीर को धारण करने वाला, जो दुःखदायी मोहमयी