इसी जम्बूद्वीप में विदेहक्षेत्र के अंतर्गत ‘गंधिला’ नाम का देश है। अपने इस भरतक्षेत्र के सदृश वहाँ पर भी मध्य में विजयार्ध पर्वत है, जिसकी दक्षिण-उत्तर दोनों ही श्रेणियों में विद्याधर लोग निवास करते हैं। इस पर्वत की उत्तर श्रेणी में ‘अलका’ नाम की सुन्दर नगरी है। वहाँ पर ‘महाबल’ नाम के राजा धर्मनीतिपूर्वक प्रजा का पालन करते थे। उनके महामति, संभिन्नमति, शतमति और स्वयंबुद्ध ये चार मंत्री थे। विद्याधरों के पास तीन प्रकार की विद्याएँ हुआ करती हैं-जातिविद्या, कुल विद्या और साधितविद्या। मातृपक्ष से प्राप्त विद्या जातिविद्या है। पितृपक्ष से प्राप्त विद्या कुलविद्या है एवं मंत्रादि से सिद्ध की हुई विद्या साधितविद्या है। इन विद्याओं के बल से वे अनेक प्रकार के रूप, महल, नगर, वस्तु आदि बना लेते हैं और भोगोपभोग सामग्री से अधिक सुखी रहते हैं। विद्या के बल से यत्र-तत्र मानुषोत्तर पर्वत तक विहार करते रहते हैं। मेरु आदि पर्वतों पर जाकर भक्ति, पूजा, वंदना करके महान् पुण्य बंध किया करते हैं। किसी दिन राजा महाबल की जन्मगाँठ का उत्सव हो रहा था, विद्याधरों के राजा महाबल सिंहासन पर बैठे हुए थे। उस समय वे चारों तरफ में बैठे हुए मंत्री, सेनापति, पुरोहित, सेठ तथा विद्याधर आदि जनों से घिरे हुए, किसी को स्थान, मान, दान देकर, किसी के साथ हँसकर, किसी से संभाषण आदि कर सभी को संतुष्ट कर रहे थे। उस समय राजा को प्रसन्नचित्त देखकर स्वयंबुद्ध मंत्री ने कहा-हे राजन् ! जो आपको यह विद्याधरों की लक्ष्मी प्राप्त हुई है, उसे केवल पुण्य का ही फल समझिए। ऐसा कहते हुए मंत्री ने अहिंसामयी सच्चे धर्म का विस्तृत विवेचन किया। यह सुनकर महामति नाम के मिथ्यादृष्टि मंत्री ने कहा कि हे राजन्! इस जगत् में आत्मा, धर्म और परलोक नाम की कोई चीज नहीं है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार भूतों के मिलने से ही चैतन्य की उत्पत्ति हो जाती है। जन्म लेने से पहले और मरने के पश्चात् आत्मा नाम की कोई चीज नहीं है इसलिए आत्मा की और परलोक की चिंता करना व्यर्थ है। जो लोग वर्तमान सुख को छोड़कर परलोकसंबंधी सुख चाहते हैं, वे दोनों लोकों के सुख से च्युत होकर व्यर्थ ही क्लेश उठाते हैं। अनंतर संभिन्नमति मंत्री बोलने लगा कि हे राजन! यह सारा जगत् एक विज्ञान मात्र है क्योंकि यह क्षणभंगुर हैं। जो-जो क्षणभंगुर होते हैं वे सब ज्ञान के ही विकार हैं। ज्ञान से पृथक् चेतन-अचेतन आदि कोई भी पदार्थ नहीं है। यदि पदार्थों का अस्तित्व मानो तो वे नित्य होना चाहिए परन्तु संसार में कोई भी पदार्थ नित्य नहीं दिखते हैं, सब एक-एक क्षण में ही नष्ट हो जाते हैं अतः परलोक में सुख प्राप्ति हेतु धर्मकार्य का अनुष्ठान करना बिल्कुल ही व्यर्थ है। इसके बाद शतमति मंत्री अपनी प्रशंसा करता हुआ नैरात्म्यवाद को पुष्ट करने लगा। उसने कहा कि यह समस्त जगत् शून्यरूप है, इसमें नर, पशु, पक्षी, घट, पट आदि जो भी चेतन-अचेतन पदार्थ दिख रहे हैं वे सर्व मिथ्या हैं। भ्रांति से ही वैसा प्रतिभास होता है जैसे कि इंद्रजाल और स्वप्न में दिखने वाले पदार्थ मिथ्या ही हैं, भ्रांतिरूप ही हैं। आत्मा-परमात्मा तथा परलोक की कल्पना भी मिथ्या ही है अतः जो पुरुष परलोक के लिए तपश्चरण आदि अनुष्ठान करते हैं, वे यथार्थ ज्ञान से रहित हैं। इन तीनों मंत्रियों के सिद्धान्तों को सुनकर स्वयंबुद्ध मंत्री ने अपने सम्यग्ज्ञान के बल से उनका बलपूर्वक खंडन करके स्याद्वाद सिद्धान्त को सत्य सिद्ध कर दिया तथा राजा महाबल के पूर्वजों का पुण्य चरित्र भी सुनाते हुए धर्म और धर्म के फल का महत्व बतलाया। इस प्रकार स्वयंबुद्ध मंत्री के उदार और गंभीर वचनों से समस्त सभा प्रसन्न हो गई। किसी समय स्वयंबुद्ध मंत्री सुमेरु पर्वत की वंदना को गया था। वहाँ वंदना करते हुए सौमनसवन के पूर्व दिशा के चैत्यालय में बैठ गया। अकस्मात् ही पूर्व विदेह से युगमंधर भगवान् के समवसरणरूपी सरोवर के मुख्य हंसस्वरूप आकाश में चलने वाले आदित्यगति और अरिंजय नाम के दो मुनिराज वहाँ आ गये। बुद्धिमान् मंत्री ने उनकी पूजा-स्तुति आदि करके उपदेश श्रवण किया। अनंतर प्रश्न किया कि हे भगवन्! हमारा महाबल स्वामी भव्य है या अभव्य? आदित्यगति मुनिराज ने कहा-हे मंत्रिन् ! तुम्हारा स्वामी भव्य ही है। वह इससे दशवें भव में भरत क्षेत्र का प्रथम ‘तीर्थंकर’ होगा। पश्चिम विदेह के गंधिला देश में सिंहपुर नगर है। वहाँ के राजा श्रीषेण के जयवर्मा और श्रीवर्मा नाम के दो पुत्र थे। उनमें से छोटा श्रीवर्मा माता-पिता और सभी को अतिशय प्रिय था, अतः राजा ने उसे ही राज्यभार सौंप दिया और बड़े पुत्र की उपेक्षा कर दी। इस घटना से जयवर्मा ने पूर्वकृत पापों की निंदा करते हुए विरक्त होकर स्वयंप्रभ गुरु से जिन-दीक्षा ले ली। वह मुनि नव दीक्षित था। एक दिन आकाश मार्ग से जाते हुए महीधर विद्याधर का वैभव देखकर विद्याधर के भोगों का निदान कर लिया अर्थात् ‘ये विद्याधर के भोग मुझे अगले भव में प्राप्त हों’ ऐसा भाव कर लिया। उसी समय बामी से निकलकर एक भयंकर सर्प ने उसे डस लिया। वह मुनिराज मरकर के आपके राजा महाबल हुए हैं। पूर्व में भोगों की इच्छा से आज भी उसे भोगों में आसक्ति अधिक है किन्तु अभी आपके वचनों से वह शीघ्र ही विरक्त होगा। आज रात को उसने स्वप्न देखा है कि तीन मंत्रियों ने उसे जबरदस्ती कीचड़ में गिरा दिया और तुमने मंत्रियों की भत्र्सना करके राजा को सिंहासन पर बिठा कर अभिषेक किया है। अनंतर दूसरे स्वप्न में अग्नि की एक ज्वाला को क्षीण होते हुए देखा है। अभी वह तुम्हारी ही प्रतीक्षा में बैठा है, अतः तुम शीघ्र ही जाकर उसके पूछने के पहले ही स्वप्नों को फल सहित बतलाओ। मंत्री स्वयंबुद्ध ने तत्क्षण ही जाकर राजा को बताया कि प्रथम स्वप्न का फल भविष्य में विभूतिसूचक है एवं द्वितीय स्वप्न का फल यह है कि आपकी आयु एक माह की शेष रह गई है। अब शीघ्र ही धर्म को धारण करो और बहुत कुछ विस्तृतरूप में धर्म का उपदेश दिया। राजा महाबल ने विरक्तचित्त होकर अपने पुत्र अतिबल को राज्य देकर घर के उद्यान के जिनमंदिर में आठ दिन तक आष्टाह्निक महायज्ञ पूजन किया। अनन्तर सिद्धकूट चैत्यालय में जाकर गुरु की साक्षीपूर्वक जीवनपर्यन्त के लिए चतुराहार का त्याग करके विधिवत् सल्लेखना ग्रहण कर ली। मंत्री को सल्लेखना कराने में निर्यापकाचार्य बनाकर सन्मान किया। शरीर से निर्मम हो बाह्य-अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर वह मुनि के सदृश प्रायोपगमन संन्यास में स्थिर हो गया। इस सन्यास में स्वकृत-परकृत उपकार की अपेक्षा नहीं रहती है। कठिन तपश्चर्या करते हुए महाबल विद्याधर ने शरीर को अतिशय क्षीण करके पंच परमेष्ठियों का स्मरण करते हुए अत्यन्त निर्मल परिणामों को प्राप्त हो गया। मांस, रक्त के सूख जाने पर महाबल शरीर को छोड़कर ऐशान स्वर्ग में श्रीप्रभ विमान में ‘ललितांग’ नामक उत्तम देव हो गया। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से धर्म की सहायता करने वाले मंत्री ने अन्त तक अपने मंत्रीपने का कार्य किया। वास्तव में हितैषी बन्धु, मंत्री, पत्नी, पुत्र, मित्र वे ही हैं जो मोक्षमार्ग में लगाते हैं किन्तु आजकल तो ये परिकर लोग धर्म से हटाकर विषयों में फसाने में ही सच्ची हितैषिता समझते हैं। पूर्वकाल में भी ऐसे लोग थे जो कि धर्म से छुटाकर पाप मार्ग में या विषयों में लगाकर अपना प्रेम व्यक्त करते थे किन्तु ऐसे लोग कम थे और आज भी ऐसे लोग हैं जो अपने कुटुम्बियों को हितकर धर्म मार्ग में-त्याग मार्ग में लगाकर प्रसन्न होते हैं परन्तु ऐसे लोग विरले ही हैं।