प्रश्न—समयसार अधिकार के मंगलाचरण में किनको नमस्कार किया हुआ है ?
उत्तर—वंदित्तु देवदेवं तिहुअणमहिदं च सव्व सिद्धाणं। वोच्छामि समयसारं सुण संखेवं जहावुत्तं।।८९४।। समयसार अधिकार के मंगलाचरण में त्रिभुवन से पूजित अरहंत देव सर्व और सिद्धों को नमस्कार किया हुआ है। प्रश्न—समयसार किसे कहते हैं ? उत्तर—सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्र और तप का नाम समय है और इनका सार चारित्र है।
प्रश्न—श्रमण शीघ्र ही सिद्धि को कैसे प्राप्त कर सकते हैं ?
उत्तर—दव्वं खेत्तं कालं भावं च पडुच्च संघडणं। जत्थ हि जददे समणो तत्थ हि सिद्धिं लहुंलहइ।।८९५।। श्रमण जहाँ पर भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और संहनन की अपेक्षा करके उद्यम करते हैं, वहाँ पर सिद्धि को शीघ्र ही प्राप्त कर सकते हैं। जिस किसी स्थान में भी मुनि यदि शरीर शुद्धि और आहार शुद्धि का आश्रय लेकर, रात्रि आदि में गमन नहीं करने रूप काल शुद्धि एवं असंयम आदि के परिहार रूप भाव शुद्धि का आश्रय लेकर के तथा शरीर संहनन आदि को भी समझकर चारित्र का अच्छी तरह पालन करते हैं तो वे चाहें बहुज्ञानी हो या अल्पज्ञानी, सिद्धि को शीघ्र ही प्राप्त कर लेते हैं। जिस कारण से ऐसी बात है उसी हेतु से यह समयसार रूप चारित्र द्रव्य क्षेत्र आदि के आश्रय से सावधानी पूर्वक धारण किया जाता है। इसलिए द्रव्यकल, क्षेत्रबल, कालबल और भावबल का आश्रय लेकर तपश्चरण करना चाहिए। तात्पर्य यही है कि जिस तरह से वात पित्त कफ आदि कुपित नहीं हो, वैसा प्रयत्न करना चाहिए, यही सार—समयसार का सारभूत कथन है।
प्रश्न—वैराग्य ही मय का सार कैसे है ?
उत्तर—धीरो वइरग्गपरो थोवं हि य सिक्खिदूण सिज्झदि हु। ण य सिज्झदि वेरग्गविहीणो पढिदूण सव्वसत्थाइं।।८९६।। धीर, वैराग्य में तत्पर मुनि निश्चित्त रूप से थोड़ी भी शिक्षा पाकर सिद्ध हो जाते हैं किन्तु वैराग्य से हीन मुनि सर्व शास्त्रों को पढ़कर भी सिद्ध नहीं हो पाते हैं।
प्रश्न— सम्यक चारित्र के आचरण हेतु किस प्रकार का उपदेश है ?
उत्तर—भिक्खं चर वस रण्णे थोवं जेमेहि मा बहू जंप। दु:खं सह जिण णिद्दा मेत्तिं भावेहि सुट्ठु वेरग्गं।।८९७।। अव्ववहारी एक्को झाणे एयग्गमणो भवे णिरारंभो। चत्तकसायपरिग्गह पयत्तचेट्ठो असंगो य।।८९८।। हे मुनि ! तुम भिक्षावृत्ति से भोजन करो, वन में रहो, अल्प भोजन करो, बहुत मत बोलो, दु:ख सहन करो, निद्रा को जीतो, एवं मैत्री तथा दृढ़ वैराग्य की भावना करो। हे साधो ! तुम लोक व्यवहार से रहित होओ, ज्ञान दर्शन को छोड़कर अन्य कुछ भी मेरा नहीं है ऐसी एकत्व की भावना भाओ। धर्मध्यान और शुक्लध्यान में एकाग्र चित्त होओ। अंतरंग और बहिरंग परिग्रह को छोड़ो। सर्वथा सावधानीपूर्वक क्रियाएँ करो तथा किसी के साथ भी संगति मत करो।
प्रश्न—मुख्य रूप से चारित्र ही प्रधान क्यों है ?
उत्तर—थोवह्यि सिक्खिदे जिणइ बहुसुदं जो चरित्तसंपुण्णो। जो पुण चरित्तहीणो िंक तस्स सुदेण बहुएण।।८९९।। जोे चरित्र से परिपूर्ण है वह थोड़ा शिक्षित होने पर भी बहुश्रुतधारी को जीत लेता है किन्तु जो चारित्र से रहित है उसके बहुत से श्रुत से भी क्या प्रयोजन ?
प्रश्न— भवसागर तिरने का उपाय बताइए ?
उत्तर—णिज्जावगो य णाणं वादो झाणं चरित्त णावा हि। भवसागरं तु भविया तरंति तिहिसण्णिपायेण।।९००।। खेवटिया ज्ञान है, वायु ध्यान है और नौका चारित्र है। इन तीनों के संयोग से ही भव्य जीव भवसागर को तिर जाते हैं।
प्रश्न—किस कारण से मोक्ष की प्राप्ति होती है ?
उत्तर— णाणं पयासओ तओ सोधओ संजमो य गुत्तियरो। तिण्हं पि य संपजोगे होदि हु जिणसासणे मोक्खो।।९०१।। ज्ञान प्रकाशक है, तप शोधक है, और संयम रक्षक है। इन तीनों के मिलने पर ही जिनशासन में मोक्ष की प्राप्ति होती है।
प्रश्न—ज्ञान, लिंग अथवा तप इनमें से एक—एक के द्वारा मोक्षफल मिल सकता है ?
उत्तर—णाणं करणविहीणं लिंगग्गहणं च संजमविहूणं। दंसणरहिदो य तवो जो कुणइ णिरत्थयं कुणइ।।९०२।। क्रिया रहित ज्ञान, संयम रहित वेषधारण और सम्यक्त्व रहित तप को जो करते हैं सो व्यर्थ ही है।
प्रश्न—सम्यग्ज्ञान आदि से युक्त तप और ध्यान का माहात्म्य बताइए ?
उत्तर—तवेण धीरा विधुणंति पावं अज्झप्पजोगेण खवंति मोहं। संखीणमोह्य धुदरागदोसा ते उत्तमा सिद्धिगदिं पयंति।।९०३।। धीर मुनि तप से पाप नष्ट करते हैं, अध्यात्मयोग से मोह का क्षय करते हैं। पुन: वे उत्तम पुरुष मोह रहित और राग द्वेष रहित होते हुए सिद्धगति को प्राप्त कर लेते हैं।
प्रश्न—ध्यान का माहात्म्य बताइए ?
उत्तर—लेस्साझाण तवेण य चरियविसेसेण सुग्गई होइ। तह्या इदराभावे झाणं संभावए धीरो।।९०४।। लेश्या, ध्यान और तप के द्वारा एवं चर्या विशेष के द्वारा सुगति की प्राप्ति होती है इसलिए अन्य के अभाव में धीर मुनि ध्यान की भावना करें।
प्रश्न— सम्यग्दर्शन का माहात्म्य बताइए ?
उत्तर—सम्मत्तादो णाणं णाणादो सव्वभावउवलद्धी। उवलद्धपयत्थो पुण सेयासेयं वियाणादि।।९०५।। सम्यक्त्व से ज्ञान होता है, ज्ञान से सभी पदार्थों का बोध होता है और सभी पदार्थों को जानकर पुरुष हित–अहित जान लेते हैं।
प्रश्न—श्रेय—अश्रेय का माहात्म्य बताइए ?
उत्तर—सेयासेयविदण्हू उद्धुददुस्सील सीलवं होदि। सीलफलेणब्भूदयं तत्तो पुण लहदि णिव्वाणं।।९०६।। श्रेय—पुण्य और अश्रेय—पाप के ज्ञाता दु:शील का ्नााश करके शीलवान होते हैं, पुन: उस शील के फल के अभ्युदय तथा निर्वाण पद को प्राप्त कर लेते हैं।
प्रश्न—सम्यक चारित्र ही सुगति का कारण क्यों हैं दुष्टान्त दीजिए ?
उत्तर—सव्वं पि हु सुदणाणं सुट्ठु सुगुणिदं पि सुट्ठु पढिदं पि। समणं भट्टचरित्तं ण हु सक्को सुग्गइं णेदुं।।९०७।। जदि पडदि दीवहत्थो अवडे िंक कुणदि तस्स सो दीवो। जदि सिक्खिऊण अणयं करेदि िंक तस्स सिक्खफलं।।९०८।। अच्छी तरह पढ़ा हुआ भी और अच्छी तरह गुना हुआ भी सारा श्रुतज्ञान निश्चित रूप से भ्रष्टचारित्र श्रमण को सुगति प्राप्त कराने में समर्थ नहीं है। यदि दीपक हाथ में लिये हुए मनुष्य गर्त में गिरता है तो उसके लिए भी दीपक क्या कर सकता है ? यदि कोई शिक्षित होकर भी अन्याय करता है तो उसके लिए शिक्षा का फल क्या हो सकता है ?
प्रश्न—चारित्र की शुद्धि किन कारणों से होती है ?
उत्तर—पिंडं सेज्जं उवधिं ऊग्गमउप्पायणेसणादीहिं। चारित्तरक्खण्ट्ठं सोधणयं होदि सुचरित्तं।।९०९।। चारित्र की रक्षा के लिए उद्गम, उत्पादन और एषणा आदि के द्वारा आहार वसतिका और उपकरण का शोधन करता हुआ सुचारित्र सहित होता है।
प्रश्न—जिस लिंग से वह चारित्र अनुष्ठित किया जाता है, उस लिंग का भेद और स्वरूप बताइए ?
उत्तर—अच्चेलक्कं लोचो वोसट्ट सरीरदा य पडिलिहणं। एसो हु लिंगकप्पो चदुव्विधो होदि णायव्वो।।९१०।। नग्नत्व, लोच, शरीर संस्कार हीनता और पिच्छिका यह चार प्रकार का लिंग भेद जानना चाहिए।
प्रश्न—श्रमण कल्प के कितने भेद हैं नाम निर्देश करें ?
उत्तर—अच्चेलक्कुद्देसियसेज्जाहररायपिंड किदियम्मं। वद जेट्ठ पडिक्कमणं मासं पज्जो समणकप्पो।।९११।। अचेलकत्व : वस्त्रादि का अभाव। औद्देशिक त्याग : उद्देश्य करके भोजन न करें, अर्थात् उद्देश्य से होने वाले दोष का परिहार करना अनौद्देशिक है। शय्यागृह त्याग : मेरी वसतिका में जो ठहरे हैं उन्हें मैं आहारदान आदि दूँगा अन्य को नहीं। इस प्रकार के अभिप्राय से दिये हुए दान को न लेना शय्यागृह त्याग है। राजपिण्ड त्याग : राजा के यहाँ आहार का त्याग करना। गरिष्ठ, इन्द्रियों में उत्तेजना उत्पन्न करने वाले आहार का त्याग करना। कृतिकर्म : वन्दना आदि क्रियाओं के करने में उद्यम करना। व्रत : अिंहसा आदि व्रत कहलाते हैं। उन व्रतों से आत्मा की भावना करना अर्थात् उन व्रतों के साथ संवास करना। प्रतिक्रमण : सात प्रकार के प्रतिक्रमणों द्वारा आत्म भावना करना। मास : वर्षायोग ग्रहण से पहले एकमास पर्यन्त रहकर वर्षाकाल में वर्षायोग ग्रहण करना तथा वर्षायोग को समाप्त करके पुन: एक मास तक अवस्थान करना चाहिए। अथवा ऋतु-ऋतु में (दो माह की एक ऋतु) अर्थात् प्रत्येक ऋतु में एक-एक मास तक रहना चाहिए और एक-एक मास तक विहार करन चाहिए। ऐसा यह ‘मास’ नाम का श्रमणकल्प है। अथवा वर्षाकाल में वर्षायोग ग्रहण करना और चार-चार महिनों में नन्दीश्वर करना सो यह मास श्रमणकल्प है। पर्या : पर्युपासन को पर्या कहते हैं। निषद्य का स्थान और पंचकल्याणक स्थानों को उपासना करना पर्या है।
प्रश्न—पिच्छिका—प्रतिलेखन के कितने गुण हैं नाम बताइए ?
उत्तर—रजसेदाणमगहणं मद्दव सुकुमालदा लहुत्तं च। जत्थेदे पंचगुणा तं पडिलिहणं पसंसंति।।९१२।। धूलि को ग्रहण नहीं करना एक गुण है, पसीना ग्रहण नहीं करना दूसरा गुण है, चक्षु में फिराने पर भी पीड़ा नहीं करना अर्थात् मृदुता तीसरा गुण है, सुकुमारता चौथा गुण है अर्थात् यह देखने योग्य, सुन्दर और कोमल है, तथा उठाने में या किसी वस्तु को परिर्मािजत करने आदि में हल्की है अत: इसमें लघुत्व है जो पाँचा गुण है। जिस प्रतिलेखन में ये पाँच गुण पाये जाते हैं उस मयूरपंखों के प्रतिलेखन—पिच्छिका के ग्रहण करने को ही गणधर देव आदि आचार्यगण प्रशंसा करते हैं और ऐसा प्रतिलेखन ही वे स्वीकार करते हैं।
प्रश्न— चक्षु से भी तो प्रर्मािजत किया जा सकता है तब पिच्छिका धारण करना किसलिए अनिवार्य है ?
उत्तर—सुहुमा हु संति पाणा दुप्पलेक्खा अक्खिणो अगेज्झाहु। तह्या जीवदयाए पडिलिहणं धारए भिक्खू।।९१३।। बहुत से द्वीन्द्रिय आदि जीव तथा एकेन्द्रिय जीव अत्यन्त सूक्ष्म होने से दिखाई नहीं देते हैं, चर्म चक्षु से ग्रहण नहीं किये जा सकते हैं। उन जीवों की दया हेतु व प्राणी संयम पालन हेतु मुनिराज मयूरपंखों की पिच्छिका ग्रहण करें।
प्रश्न—प्रत्येक क्रिया में साधु को पिच्छिका की क्यों आवश्यकता है ?
उत्तर—उच्चारं पस्सवणं णिसि सुत्तो उट्ठिदो हु काऊण। अप्पडिलिहिय सुवंतो जीववहं कुणदि णियदं तु।।९१४।। जो साधु रात्रि में सोते से जाग कर अंधेरे में पिच्छिका के अभाव में परिमार्जन किये बिना मल—मूत्र कफ, आदि विसर्जन करके या करवट आदि बदलकर पुन: सो जाता है वह निश्चित ही जीवों को परितापन आदि पीड़ा पहुँचा देता है।
प्रश्न—पिच्छि लघु क्यों होनी चाहिए ?
उत्तर—ण य होदि णयणपीडा अिंच्छ पि भमाडिदे दु पडिलेहे। तो सुहुमादी लहुओ पडिलेहो होदि कायव्वो।।९१५।। मयूर पिच्छ के प्रतिलेखन को आँखों में डालकर फिराने पर भी व्यथा नहीं होती है। इसलिए सूक्ष्मत्व आदि से युक्त लघु प्रमाण वाली ही पिच्छिका जीव—दया के लिए लेनी चाहिए।
प्रश्न—प्रतिलेखन के स्थान बताइए ?
उत्तर—ठाणे चंकमणादाणे णिक्खेवे सयणआसण पयत्ते। पडिलेहणेण पडिलेहिज्जइ लिंगं च होइ सपक्खे।।९१६।। ठहरने में, चलने में, ग्रहण करने में, रखने में, सोने में, बैठने में साधु प्रतिलखेन से प्रयत्नपूर्वक परिमार्जन करते हैं क्योंकि यह उनके अपने (मुनि) पक्ष का चिन्ह है।
प्रश्न—पिच्छि निर्दोष कैसे है बताइए ?
उत्तर— कार्तिक मास में मोर के पंख स्वयं झड़ जाते हैं, वे जीवघात करके नहीं लाये जाते हैं अत: ये पंख सर्वथा निर्दोष हैं और अत्यन्त कोमल हैं। जिस प्रकार से आहार की शुद्धि की जाती है अर्थात् उद्गम, उत्पादन आदि दोषों से रहित आहार लिया जाता है उसी प्रकार से उपकरण आदि की भी शुद्धि करनी चाहिए।
प्रश्न—पिच्छि चिन्ह से युक्त मुनि के आचरण का फल बताइए ?
उत्तर—पोसह उवहोपक्खे तह साहू जो करेदि णावाए। णावाए कल्लाणं चादुम्मासेण णियमेण।।९१७।। जो साधु चातुर्मासिक उपवास और सांवत्सरिक उपवास के साथ कृष्ण चतुर्दशी तथा शुक्ल चतुर्दशी को हमेशा उपवास करते हैं वे कल्याण रूप परमसुख के भागी होते हैं अथवा जो साधु बिना बाधा के कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष में उपवास करते हैं फिर भी वे चातुर्मासिक नियम से ‘कल्याण’ नामक प्रायश्चित्त को प्राप्त होते हैं अथवा नहीं भी प्राप्त होते हैं, ऐसा सम्बन्ध करना।
ठाणणिसिज्जागमणे जीवाणं हंति अप्पणो देहं। दसकत्तरिठाणगदं णिपिच्छे णत्थि णिव्वाणं।। कुन्द. मूला.
अर्थात् जो मुनि अपने पास पिच्छिका नहीं रखता है वह कायोत्सर्ग के समय , बैठने के समय, आने जाने के समय अपनी देह की क्रिया से जीवों का घात करता है अत: उसे मुक्ति नहीं मिलती। मुनि के लिए बिना पिच्छिका के दश पग से अधिक गमन करने पर प्रायश्चित्त का विधान है।
प्रश्न—जो साधु पिच्छि से शोधन नहीं करते हैं उन्हें कौन—सा प्रायश्चित्त है ?
उत्तर—पिंडोवधिसेज्जाओ अवसोधिय जो य भुंजदे समणो। मूलट्ठाणं पत्तो भुवणेसु हवे समणपोल्लो।।९१८।। तस्स ण सुज्झइ चरियं तवसंजमणिच्चकालपरिहीणं। आवासयं ण सुज्झइ चिरपव्वइयो वि जइ होई।।९१९।।
जो मुनि आहार, उपकरण, वसतिका आदि को बिना शोधन किये अर्थात् उद्गम—उत्पादन आदि दोषों से रहित न करके सेवन करते हैं वे मूलस्थान को प्राप्त करते हैं अर्थात् गृहस्थ हो जाते हैं और लोक में यतिपने से हीन माने जाते हैं। उसके तप और संयम में निरन्तर हीन चारित्र शुद्ध नहीं होता है इसलिए चिरकाल से दीक्षित हो तो भी उनके आवश्यक तक शुद्ध नहीं होते हैं।
प्रश्न—निरतिचार रूप से अहिंसा व्रतादि मूलगुणों का पालन करना श्रेष्ठ क्यों है ?
उत्तर—मूलं छित्ता समणो जो गिण्हादी य बाहिरं जोगं। बाहिरजोगा सव्वे मूलविहूणस्स विंâ करिस्संति।।९२०।। हंतूण य बहुपाणं अप्पाणं जो करेदि सप्पाणं। अप्पासुअसुहवंâखी मोक्खंकंखी ण सो समणो।।९२१।।
जो श्रमण मूल का घात करके बाह्य योग को ग्रहण करता है उस मूल गुणों से हीन के वे सभी बाह्य योग क्या करेंगे ? जो बहुत से प्राणियों का घात करके अपने प्राणों की रक्षा करता है, अप्रासुक में सुख का इच्छुक वह श्रमण मोक्ष सुख का इच्छुक नहीं है। अत: चारित्र का पालन श्रेष्ठ है।
प्रश्न—अहिंसा व्रत पालन नहीं होने से जो दोष लगते हैं उन्हें दृष्टान्त द्वारा बताइए ?
उत्तर—एक्को वावि तयो वा सीहो वग्घो मयो व खादिज्जो। जदि खादेज्ज स णीचो जीवयरासिं णिहंतूण।।९२२।।
कोई सिंह अथवा व्याघ्र या अन्य हिंस्र प्राणी एक अथवा दो या तीन अथवा चार मृगों का भक्षण करते हैं तो वे हिंस्र प्राणी पापी कहलाते हैं। तब फिर जो अध: कर्म के द्वारा तमाम जीव समूह की विराधना करके आहार लेते हैं वे अधम क्यों नहीं हैं ? अर्थात् अधम ही हैं।
प्रश्न—प्राणियों का घात करने से किसका घात होता है ?
उत्तर—आरंभे पाणिवहो पाणिवहे होदि अप्पणो हु वहो। अप्पा ण हु हंतव्वो पाणिवहो तेण मोत्तव्वो।।९२३।।
पकाने आदि क्रियाओं के आरम्भ में जीवों का घात होता है और उससे आत्मा का घात होता है अर्थात् निश्चित ही नरक—तिर्यंच गति के दुख भोगना पड़ते हैं। और, आत्मा का घात करना ठीक नहीं हैं अतएव प्राणियों की हिंसा का त्याग कर देना चाहिए।
प्रश्न— अध: कर्म युक्त आहार लेकर तपस्या करते हैं तो वह वैâसे निरर्थक है ?
उत्तर—जो ठाणमोणवीरासणेहिं अत्थदि चउत्थछट्ठेहिं। भुंजदि आधाकम्मं सव्वे वि णिरत्थया जोगा।।९२४।। किं काहदि वणवासो सुण्णागारो य रुक्खमूलो वा। भुंजदि आधाकम्मं सव्वे वि णिरत्थया जोगा।।९२५।। किं तस्स ठाणमोणं किं काहदि अब्भोवगासमादावो। मोत्तिविहूणो समणो सिज्झदि ण हु सिद्धिवंâखो वि।।९२६।। जह वोसरित्तु कत्तिं विसं ण वोसरदि दारुणो सप्पो। तह को वि मंदसमणो पंच दु सूणा ण वोसरदि।।९२७।।
जो मुनि कायोत्सर्ग करते हैं, मौन धारण करते हैं, वीरासन आदि नाना प्रकार के आसन से कायक्लेश करते हैं, उपवास बेला, तेला आदि करते हैं किन्तु अध:कर्म से र्नििमत आहार ग्रहण कर लेते हैं उनके वे सभी योग अनुष्ठान और उत्तरगुण व्यर्थ ही हैं। जो अध:कर्म युक्त आहार लेते हैं उनका वन में रहना, शून्य स्थान में रहना, अथवा वृक्ष के नीचे ध्यान करना क्या करेगा ? उनके सभी योग निरर्थक हैं। उसके कायोत्सर्ग और मौन क्या करेंगे ? क्योंकि मैत्रीभाव से रहित वह श्रमण मुक्ति का इच्छुक होते हुए भी मुक्त नहीं होगा। जिस प्रकार क्रूर सर्प कांचुली को छोड़कर के भी विष को नहीं त्यागता है, उसी प्रकार मन्द चारित्रवाला श्रमण पंचसूना को नहीं छोड़ता है।
प्रश्न—पंचसूना का नाम बताइए ?
उत्तर—कंडणी पीसणी चुल्ली उदकुंभं पमज्जणी। बीहेदव्वं णिच्चं ताहिं जीवरासी से मरदि।।९२८।।
मूसल आदि खंडनी, चक्की, चूल्हा, पानी भरना और बुहारी ये पाँच सूना हैं। हमेशा ही इनसे डरना चाहिए क्योंकि इनसे जीवसमूह मरते हैं।
प्रश्न—पुनरपि विशेष रीति से अध:कर्म के दोष बताइए ?
उत्तर—जो भुंजदि आधाकम्मं छज्जीवाणं घायणं किच्चा। अबुहो लोल सजिब्भो ण वि समणो सावओ होज्ज।।९२९।। पयण व पायणं वा अणुमणचित्तो ण तत्थ बीहेदि। जेमंतो वि सघादी ण वि समणो दिट्ठिसंपण्णो।।९३०।। ण हु तस्स इमो लोओ ण वि परलोओ उत्तमट्ठभट्टस्स। लिंगग्गहणं तस्स दु णिरत्थयं संजमेण हीणस्स।।९३१।। पायछित्तं आलोयणं च काऊण गुरुसयासह्यि। तं चेव पुणो भुंजदि आधाकम्मं असुहकम्मं।।९३२।। जो जत्थ जहा लद्धं गेण्हदि आहारमुवधिमादीयं। समणगुणमुक्कजोगी संसारपवड्ढओ होइ।।९३३।। पयणं पायणमणुमणणं सेवंतो ण वि संजदो होदि। जेमंतो वि य जह्या ण वि समणो संजमो णत्थि।।९३४।।
जो षट्काय के जीवों का घात करके अध: कर्म से बना आहार लेता है वह अज्ञानी लोभी जिह्वेन्द्रिय का वशीभूत श्रमण नहीं रह जाता, वह तो श्रावक हो जाता है। जो पकाने या पकवाने में अथवा अनुमोदना में अपने मन को लगाता है उनसे डरता नहीं है वह आहार करते हुए भी स्वघाती है, सम्यक्त्व सहित श्रमण नहीं है। उस उत्तमार्थ से भ्रष्ट के यह लोक भी नहीं है और परलोक भी नहीं है। संयम से हीन उसका मुनि वेष ग्रहण करना व्यर्थ है। जो गुरु के पास आलोचना और प्रायश्चित्त करके पुन: वही अशुभ क्रियारूप अध: कर्म युक्त आहार करता है उसका इहलोक और परलोक नहीं है। जो जहाँ जैसा भी मिला वहाँ वैसा ही आहार, उपकरण आदि ग्रहण कर लेता है तो वह मुनि के गुणों से रहित हुआ संसार को बढ़ाने वाला है। पकाना, पकवाना, और अनुमति देना—ऐसा करता हुआ वह संयत नहीं है। वैसा आहार लेता हुआ भी उस कारण से वह श्रमण नहीं है और न संयमी ही है।
प्रश्न— चारित्र से हीन मुनि का बहुत श्रुतज्ञान भी निरर्थक कैसे है ?
उत्तर—बहुगं पि सुदमधीदं किं काहदि अजाणमाणस्स। दीवविसेसो अंधे णाणविसेसो वि तह तस्स।।९३५।।
चारित्र का आचरण नहीं करने वाले उपयोग से रहित मुनि का पढ़ा गया बहुत—सा श्रुत भी क्या करेगा? जैसे नेत्रहीन मनुष्य के लिए दीपक कुछ भी नहीं करता है वैसे ही चारित्र से हीन मुनि के लिए ज्ञान विशेष भी कुछ नहीं कर सकता है।
प्रश्न— परिणाम के निमित्त से शुद्धि होती है इसका स्पष्टीकरण करें ?
उत्तर—आधाकम्मपरिणदो फासुगदव्वे दि बंधगो भणिदो। सुद्धं गवेसमाणो आधाकम्मे वि सो सुद्धो।।९३६।।
प्रासुक द्रव्य के होने पर भी जो साधु अध: कर्म के भाव से परिणत है। वह बन्ध को करने वाला हो जाता है, ऐसा आगम में कहा है। यदि पुन: कोई शुद्ध आहार का अन्वेषण करते भी अध: कर्म से युक्त आहार मिल गया तो भी वह शुद्ध है क्योंकि उसके परिणाम शुद्ध हैं। अर्थात् उद्गम आदि दोषों से रहित आहार की खोज में भी मिला अध: कर्म से युक्त सदोष आहार, यदि उसे मालूम नहीं है तो निर्दोष है।
प्रश्न— भाव दोष के भेद बताइए ?
उत्तर—भावुग्गमोय दुविहो पसत्थपरिणाम अप्पसत्थोत्ति। सुद्धे असुद्धभावो होदि उवट्ठावणं पायच्छित्तं।।९३७।।
भावोद्गम—भावदोष के दो भेद हैं—प्रशस्त परिणाम और अप्रशस्त परिणाम। उनमें से यदि शुद्ध वस्तु में अशुद्ध भाव करता है तो उसे उपस्थापना नाम का प्रायश्चित होता है।
प्रश्न— प्रासुक दान का फल बताइए ?
उत्तर—फासुगदाणं फासुगउवधिं तह दो वि अत्तसोधीए। जो देदि जो य गिण्हदि दोण्हं पि महप्फलं होई।।९३८।।
जो प्रासुक दान या प्रासुक उपकरण या दोनों को भी आत्मशुद्धि से देता है और ग्रहण करता है उन दोनों को ही महाफल होता है।
प्रश्न— चर्या आहारशुद्धि का व्याख्यान विस्तार से क्यों किया है ?
उत्तर—जोगेसु मूलजोगं भिक्खाचरियं च वण्णियं सुत्ते। अण्णे य पुगो जोगा विण्णाणविहीणएहिं कया।।९३९।।
सम्पूर्ण मूलगुणों में और उत्तर गुणों में प्रधानव्रत भिक्षा शुद्धि है। आहार की शुद्धिपूर्वक जो थोड़ा भी तप किया जाता है वह शोभन है। भिक्षाशुद्धि को त्यागकर जो मुनि योगादिक करते हैं वे विज्ञानरहित होकर चारित्ररहित किये हैं ऐसा समझना चाहिये। उनको परमार्थ का ज्ञान नहीं है ऐसा समझना चाहिए। आहारशुद्धि सहित थोड़ा भी योगादिक आचरण करना अच्छा है आत्महितकारक है और आहारशुद्धि से रहित होकर त्रिकालयोगादिक धारण करने पर भी आत्महित नहीं होता है।
प्रश्न— आहार—चर्या शुद्धि की प्रशंसा किस प्रकार करते हैं ?
उत्तर—कल्लं कल्लं पि वरं आहारो परिमिदो पसत्थो य। ण य खमण पारणाओ बहवो बहुसो बहुविधो य।।९४०।।
परिमित और प्रशस्त आहार प्रतिदिन भी लेना श्रेष्ठ है किन्तु चर्या शुद्धि रहित अनेक उपवास करके अनेक प्रकार की पारणाएँ श्रेष्ठ नहीं हैं।
प्रश्न— शुद्धयोग क्या है ?
उत्तर—मरणभयभीरुआणं अभयं जो देदि सव्व्जीवाणं। तं दाणाण वि दाणं तं पुण जोगेसु मूलजोगं पि।।९४१।।
जो मुनि मरण के भय से भीरु सभी जीवों को अभयदान देता है उसका अभयदान सर्वदानों में श्रेष्ठ है और सभी योगों में प्रधान योग है।
प्रश्न— गुणस्थान की अपेक्षा से चारित्र का माहात्म्य दृष्टान्त द्वारा निरूपण करें ?
उत्तर—सम्मादिट्ठिस्य वि अवरिदस्स ण तवो महागुणो होदि। होदि हु हत्थिण्हाणं चुंदच्छिदकम्म तं तस्स।।९४२।।
व्रत रहित सम्यग्दृष्टि का भी तप महागुणकारी नहीं है क्योंकि वह हाथी के स्थान के समान है। जैसे हाथी स्नान करके पुन: सूँड से धूली को लेकर अपने ऊपर डाल देता है उसी प्रकार तप के द्वारा कर्मों का अंश निर्जीण हो जाने पर भी असयंत के असंयम के कारण बहुत से कर्मों का आस्रव होता रहता है। जैसे लकड़ी में छेद करने वाले वर्मा की रस्सी उसमें छेद करते समय एक तरफ से खुलती और दूसरी तरफ से बंधती रहती है उसी प्रकार से असयंत जन का तपश्चरण एक तरफ से कर्मों को नष्ट करता और असंयम द्वारा दूसरी तरफ से कर्मों को बाँधता रहता है। अर्थात् मंथन चर्मपालिका के समान वह तप संयमहीन तप होता है।
प्रश्न— शोभन क्रियाओं के संयोजन से कर्मक्षय होता है, ऐसा दृष्टान्त के द्वारा पुष्टि करें ?
उत्तर—वेज्जादुरभेसज्जापरिचार य संपदा जहारोग्गं। गुरुसिस्सरयणसाहण संपत्तीए तहा मोक्खो।।९४३।।
वैद्य, रोगी, औषधि और वैयावृत्त्य करने वाले—इनके संयोग से रोगी के रोग का अभाव हो जाता है वैसे ही गुरु—आचार्य, वैराग्य में तत्पर शिष्य, अंतरंग साधन सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय तथा बाह्य साधन पुस्तक, पिच्छिका, कमण्डलु आदि के संयोग से ही मोक्ष होता है।
प्रश्न— उपर्युक्त दृष्टान्त को दाष्र्टान्त में घटित करें ?
उत्तर—आइरिओ वि य वेज्जो सिस्सो रोगी दु भेसजं चरिया। खेत्त बल काल पुरिसं णाऊण सणिं दढं कुज्जा।।९४४।।
आचार्य देव वैद्य हैं, शिष्य रोगी है, औषधि निर्दोष भिक्षा चर्या है, शीत, उष्ण, आदि सहित प्रदेश क्षेत्र हैं, शरीर की सामथ्र्य आदि बल है, वर्षा आदि काल हैं एवं जघन्य, मध्यम, तथा उत्कृष्ट भेद रूप पुरुष होते हैं। इन सभी को जानकर आकुलता के बिना आचार्य शिष्य को चर्या रूपी औषधि का प्रयोग कराए। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार वैद्य रोगी को आरोग्य हेतु औषधि प्रयोग कराकर स्वस्थ कर देता है।
प्रश्न— मोक्ष यात्रा के लिए आहार कैसा होना चाहिए, द्रव्य शुद्धि बताइए ?
उत्तर—भिक्खं सरीरजोग्गं सुभत्तिजुत्तेण फासुयं दिण्णं। दव्वपमाणं खेत्तं कालं भावं च णादूण।।९४५।। णवकोडीपडिसुद्धं फासुय सत्थं च एसणासुद्धं। दसदोसविप्पमुक्कं चोद्दसमलवज्जियं भुंजे।।९४६।। आहारेदु तवस्सी विगिंदगालं विगदगालं विगदधूमं च। जत्तासाहणमेत्तं जवणाहारं विगदरागो।।९४७।।
सुभक्ति से युक्त श्रावक के द्वारा जो दिया गया है, अपने शरीर के योग्य है, प्रासुक है, नवकोटि से परिशुद्ध है, निर्दोष है, निन्दा आदि दोषों से रहित होने से प्रशस्त है, जो एषणा समिति से शुद्ध है, दश दोषों से र्विजत है एवं चौदह मल दोषों से रहित है ऐसे आहार को साधु द्रव्य प्रमाण, क्षेत्र, काल एवं भाव को जानकर ही ग्रहण करें। अंगार दोष और धूम दोष रहित, मोक्ष यात्रा के लिए साधनमात्र और क्षुधा का उपशामक आहार वीतराग तपस्वी ग्रहण करें। आसक्ति से युक्त आहार लेना अंगार दोष है और निन्दा करते हुए आहार लेना धूम दोष है। साधु इन दोषों से रहित आहार लेते हैं।
प्रश्न— साधु संयम का पालन करते हुए, व्यवहार शुद्धि का पालन जुगुप्सा परिहार किस प्रकार करते हैं ?
उत्तर—ववहारसोहणाए परमट्ठाए तहा परिहरउ। दुविहा चावि दुगंछा लोइय लोगुत्तरा चेव।।९४८।। परमट्ठियं विसोहिं सुट्ठु पयत्तेण कुणइ पव्वइओ। परमट्ठदुगंछा वि य सुट्ठु पयत्तेण परिहरउ।।९४९।। संजममविराधंतो करेउ ववहार सोधणं भिक्खू। ववहारदुगंछावि य परिहरउ वदे अभंजंतो।।९५०।। निन्दा के दो भेद है : लौकिक और अलौकिक। लोक व्यवहार की शुद्धि के लिए सूतक आदि के निवारण हेतु लौकिक निन्दा का परिहार करना चाहिए। और परमार्थ के लिए रत्नत्रय की शुद्धि के लिए लोकोत्तर जुगुप्सा नहीं करना चाहिए। साधु कर्मक्षय निमित्तक रत्नत्रय शुद्धि को अच्छी तरह प्रयत्नपूर्वक करें। तथा परमार्थ जुगुप्सा अर्थात् शंकादि दोषों का भी भलीभाँति प्रमाद रहित होकर त्याग करें। साधु संयम की विराधना नहीं करें, व्यवहार शुद्धि का पालन करें, व्रतों में दोष नहीं लगाएँ और लोक निन्दा का परिहार करें।
प्रश्न— आत्मसाधना के लिए अयोग्य स्थान कौन—सा है ?
उत्तर—जत्थ कसायुप्पत्तिर भत्तिंदियदारइत्थि जण बहुलं। दुक्खमुवसग्गबहुलं भिक्खू खेत्तं विवज्जेज्ज।।९५१।। जहाँ पर कषायों की उत्पत्ति हो, भक्ति न हो, इन्द्रियों के द्वार और स्त्रीजन की बहुलता हो, दु:ख हो, उपसर्ग की बहुलता हो उस क्षेत्र को मुनि छोड़ दें।
प्रश्न—आत्म साधना के लिए वैराग्य वर्धन स्थान कौन—सा है ?
उत्तर—गिरिकंदरं मसाणं सुण्णागारं च रुक्खमूलं वा। ठाणं विराग बहुलं धीरो भिक्खु णिसेवेऊ।।९५२।। धीर मुनि पर्वत की कन्दरा, श्मशान, शून्य मकान और वृक्ष के मूल ऐसे वैराग्य की अधिकता युक्त स्थान का सेवन करें।
प्रश्न—संयमियों को और भी किन क्षेत्रों का त्याग करना चाहिए ?
उत्तर—णिवदिविहूणं खेत्तं णिवदी वा जत्थ दुट्ठओ होज्ज। पव्वज्जा च ण लब्भइ संजमघादो य तं वज्जे।।९५३।। णो कप्पदि विरदाणं विरदीणमुवासयह्यि चेट्टेदुं। तत्थ णिसेज्जउवट्ठणसज्झायाहारवोसरणे।।९५४।। जिस देश में, नगर में, ग्राम में, या घर में स्वामी न हो—सभी लोग स्वेच्छा से प्रवृत्ति करते हो अथवा जिस देश का राजा दुष्ट हो। जिस देश में शिष्य, श्रोता, अध्ययन करने वाले, व्रतों के रक्षण में तत्पर तथा दीक्षा को ग्रहण करने वाले लोग सम्भव न हों। व्रतों में बहुत अतीचार लगते हों, साधु ऐसे क्षेत्र का त्याग करें। र्आियकाओं के उपाश्रय में मुनियों का रहना उचित नहीं है। वहाँ पर बैठना, उद्वर्तन करना, स्वाध्याय, आहार और व्युत्सर्ग भी करना उचित नहीं है।
प्रश्न—आर्यिकाओं की वसतिका में मुनिराज को रहना उचित क्यों नहीं है ?
उत्तर—होदिं दुगंछा दुविहा ववहारादो तधा य परमट्ठे। पयदेण य परमट्ठे ववहारेण य तहा पच्छा।।९५५।। व्यवहार से तथा परमार्थ से दो प्रकार से निन्दा होती है। र्आियकाओं के स्थान में आने जाने से मुनियों की निन्दा होती है यह व्यवहार जुगुप्सा है यह तो होती ही है, पुन: व्रतों में हानि होना परमार्थ जुगुप्सा है सो भी सम्भव है। यह न भी हो तो भी व्यवहार में निन्दा तो होती ही है।
प्रश्न—संसर्ग के गुण दोष बताइए ?
उत्तर—वड्ढदि बोही संसग्गेण तह पुणो विणस्सेदि। संसग्गविसेसेण दु उप्पलगंधो जहा कुंभो।।९५६।।
सदाचार के सम्पर्क से सम्यग्दर्शन आदि की शुद्धि बढ़ जाती है, उसी प्रकार पुन: कुत्सित आचार वाले के सम्पर्क से नष्ट भी हो जाती है, जैसे कमल आदि के संसर्ग से घड़े का जल सुगन्धमय और शीतल हो जाता है और अग्नि आदि के संयोग से उष्ण तथा विरस हो जाता है।
प्रश्न—आत्मसाधना के इच्छुक का किनके साथ संसर्ग वर्जनीय है ?
उत्तर—चंडो चवलो मंदो तह साहू पुट्ठिमंसपडिसेवी। गारवकसाय बहुलो दुरासओ होदि सो समणो।।९५७।। वेज्जावच्चविहूणं विणयविहूणं च दुस्सुदिकुसीलं। समणं विरागहीणं सुजमो साधू ण सेविज्ज।।९५८।। दंभं परपरिवादं णिसुणत्तण पावसुत्तपडिसेवं। चिरपव्वइदं पि मुणी आरंभजुदं ण सेविज्ज।।९५९।। चिरपव्वइदं पि मुणी अपुट्ठधम्मं असंपुडं णीचं। लोइय लोगुत्तरियं अयाणमाणं विवज्जेज्ज।।९६०।। जो साधु क्रोधी, चंचल, आलसी, चुगलखोर है एवं गौरव और कषाय की बहुलता वाला है वह श्रमण आश्रय लेने योग्य नहीं है। सुचारित्रवान् साधु वैयावृत्त्य से हीन, विनय से हीन, खोटे, शास्त्र से युक्त कुशील और वैराग्य से हीन श्रमण का आश्रय न लेवें। मायायुक्त, अन्य का निन्दक, पैशुन्यकारक, पापसूत्रों के अनुरूप प्रवृत्ति करने वाला और आरम्भसहित श्रमण चिरकाल से दीक्षित क्यों न हो तो भी उसकी उपासना न करें। मिथ्यात्व युक्, स्वेच्छाचारी, नीचकार्ययुक्त, लौकिक व्यापारयुक्त, लोकोत्तर व्यापार को नहीं जानते, चिरकाल से दीक्षित भी वाले मुनि को छोड़ देवें।
प्रश्न—पापश्रमण किसे कहते हैं ?
उत्तर—आयरिय कुलं मुच्चा विहरिद समणो य जो दु एगागी। ण य गेण्हदि उवदेसं पावस्समणोत्ति वुच्चदि दु।।९६१।। आयरियत्तण तुरिओ पुव्वं सिस्सत्तणं अकाऊणं। हिंडई ढुंढायरिओ णिरंकुसो मत्तहत्थिव्व।।९६२।। जो श्रमण आचार्य संघ को छोड़कर एकाकी विहार करता है और उपदेश को ग्रहण नहीं करता है वह पापश्रमण कहलाता है। जो पहले शिष्यत्व न करके आचार्य होने की जल्दी करता है वह ढोंढाचार्य है। वह मदोन्मत्त हाथी के समान निरंकुश भ्रमण करता है।
आयरियकुलं मुच्चा विहरदि एगागिणो दु जो समणो। अविगोण्हिय उवदेसं ण य सो समणो समणडोंबो।। कुन्द. मूला. जो आचार्य कुल को छोड़कर और उपदेश को न ग्रहणकर एकाकी विहार करता है वह श्रमण डोंब है।
प्रश्न—दृष्टांत से संसर्गजन्य दोष को बताइए ?
उत्तर—अंबो णिंबत्तणं पत्तो दुरासएण जहा तहा। समणं मंदसंवेगं अपुट्ठधम्मं ण सेविज्ज।।९६३।। आम का वृक्ष खोटी संगति से—नीम के संसर्ग से नीमपने को प्राप्त अर्थात् कटु स्वादवाला हो जाता है, उसी प्रकार जो श्रमण धर्म के अनुराग रूप संवेग में आलसी है, समीचीन से आचार से हीन है, खोटे आश्रय से सम्पन्न है उसका संसर्ग नहीं करो, क्योंकि आत्मा भी ऐसे संसर्ग से ऐसा ही हो जाएगा। प्रश्न—पाश्र्वस्थ मुनि को किन शब्दों की उपमा देकर उनसे दूर रहने को कहा है ? उत्तर—
बिहेदव्वं णिच्चं दुज्जणवयणा पलोट्टजिब्भस्स। वरणयरणिग्गमं पिव वयणकयारं वहंतस्स।।९६४।। आयरियत्तणमुवणायइ जो मुणि आगमं ण याणंतो। अप्पाणं पि विणासिय अण्णे वि पुणो विणासेई।।९६५।। दुर्जन के सदृश वचन वाले, यद्वा तद्वा बोलने वाले, नगर के नाले के कचरे को धारण करते हुए के समान मुनि से हमेशा डरना चाहिए। जो मुनि आगम को न जानते हुए आचार्यपने को प्राप्त हो जाता है वह अपने को नष्ट करके पुन: अन्यों को भी नष्ट कर देता है।
प्रश्न—अभ्यन्तर योगों के बिना बाह्य योगों की निष्फलता वैâसे है ?
उत्तर—घोडयलद्दिसमाणस्स बाहिर बगणिहुदकरणचरणस्स। अब्भंतरम्हि कुहिदस्स तस्स दु विंâ बज्झजोगेहिं।।९६६।। घोड़े की लीद के समान अन्तरंग में निन्द्य और बाह्य से बगुले के सदृश हाथ पैरों को निश्चल करने वाले साधु के बाह्य योगों से क्या प्रयोजन ? जो घोड़े की लीद के समान अन्तरंग में कुथित—निन्द्य—भावना युक्त एवं बाह्य में बगुले के समान हाथ पैरों को निश्चल करके खड़े हैं। मूलगुण से रहित हैं ऐसे मुनि को बाह्य वृक्षमूलादि योगों से कुछ भी लाभ नहीं है।
प्रश्न—‘मैं बहुत काल का श्रमण हूँ’ ऐसा गर्व क्यों नहीं करें ?
उत्तर—मा होह वासगणणा ण तत्थ वासाणि परिगणिज्जंति। बहवो तिरत्तवुत्था सिद्धा धीरा विरगपरा समणा।।९६७।। वर्षों का गणना मत करो, मुझे दीक्षा लिए बहुत वर्ष हो गये हैं। मुझसे यह छोटा है, आज दीक्षित हुआ है। इस प्रकार से गर्व मत करो क्योंकि वहाँ मुक्ति के कारण में वर्षों की गिनती नहीं होती हैं। क्योंकि बहुतों ने तीन रात्रि मात्र ही चारित्र धारण किया है, किन्हीं ने अन्तर्मुहुर्त मात्र ही चारित्र का वर्तन किया है, किन्तु वैराग्य में तत्पर और सम्यग्दर्शन आदि में निष्कम्प होने से ऐसे श्रमण अतिशीघ्र ही अशेष कर्मों का निर्मूलन करके सिद्ध हो गये हैं।
प्रश्न—बन्ध और बन्ध के कारण को बताइए ?
उत्तर—जोगणिमित्तं गहणं जोगो मणवयणकायसंभूदो। भावणिमित्तो बंघो भावो रदिरागदोसमोहजुदो।।९६८।। कर्मों का ग्रहण योग के निमित्त से होता है, वह योग मन वचन काय से उत्पन्न होता है। कर्मों का बन्ध भावों के निमित्त से होता है और भाव रति, राग, द्वेष एवं मोह सहित होता है।
प्रश्न—पुद्गल कर्मरूप वैâसे परिणमित होते हैं ?
उत्तर—जीव परिणाम हेदू कम्मत्तण पोग्गला परिणमंति। ण दु णाणपरिणदो पुण जीवो कम्मं समादियदि।।९६९।। णाणविण्णाणसंपण्णो झाणज्झणतवेजुदो। कसायगारवुम्मुक्को संसारं तरदे लहुं।।९७०।। जीव के परिणाम के निमित्त से पुद्गल कर्मरूप से परिणमन करते हैं। ज्ञान—परिणत हुआ जीव तो कर्म ग्रहण करता नहीं है। ज्ञान–विज्ञान से सम्पन्न एवं ध्यान—अध्ययन और तप से युक्त तथा कषाय और गौरव से रहित मुनि शीघ्र ही संसार को पार कर लेते हैं।
प्रश्न—स्वाध्याय की भावना से कैसे संसार तिरा जाता है, बताइए ?
उत्तर—सज्झायं कुव्वंतो पंचिदियसंपुडो तिगुत्तो य। हवदि य एयग्गमणो विणएण समाहिओ भिक्खू।।९७१।। विनय से सहित मुनि स्वाध्याय करते हुए पंचेन्द्रियों को संकुचित कर तीन गुप्तियुक्त और एकाग्रमना हो जाते हैं।
प्रश्न—स्वाध्याय का माहात्म्य बताइए ?
उत्तर—बारसविधह्यि य तवे सब्भंतर बाहिरे कुसलदिट्ठे। ण वि अत्थि ण वि य होहदि सज्झायसमं तवोकम्मं।।९७२।। सूई जहा ससुत्ता ण णस्सदि दु पमाददोसेण। एवं सुसुत्तपुरिसो ण णस्सदि तहा पमाददोसेण।।९७३।। बारह प्रकार के तपों में स्वाध्याय के सदृश अन्य कोई तप कर्म न है और न होगा ही। अत: स्वाध्याय परमतप है, ऐसा समझकर निरन्तर उसकी भावना करना चाहिए। जैसे सुई सूक्ष्म होती है फिर भी यदि वह धागे से पिरोई हुई है तो खोती नहीं हैं। प्रमाद के निमित्त से यदि वह कूंड़े—कचरे में गिर भी गयी है तो भी आँखों से दिख जाती है। उसी प्रकार से श्रुतज्ञान से समन्वित साधु भी नष्ट नहीं होता है, वह प्रमाद के दोष से भी संसार गर्त में नहीं पड़ता है।
प्रश्न—ध्यान के लिए उपकारी कौन हैं ?
उत्तर—णिद्दं जिणेहि णिच्चं णिद्दा खलु नरमचेदणं कुणदि। वट्टेज्ज हू पसुत्तो समणो सव्वेसु दोसेसु।।९७४।। निद्राजय ध्यान के लिए उपकारी है। निद्रा नर को अचेतन कर देती है। क्योंकि सोया हुआ श्रमण सभी दोषों में प्रवर्तन करता है।
प्रश्न—एकाग्रचिन्तानिरोध ध्यान वैâसे करें ?
उत्तर—जह उसुगारो उसुमुज्जु करई संपिंउियेहिं णयणेहिं। तह साहू भावेज्जो चित्तं एयग्ग भावेण।।९७५।। (१) जैसे धनुर्धर अपने लक्ष्य पर एकटक दृष्टि रखकर बाण सीधा उसी पर छोड़ता है वैसे ही साधु मन को एकाग्र कर आत्मतत्त्व का चिन्तवन करें। (२) साधु शुभध्यान के लिए मन—वचन—काय की स्थिरवृत्ति रूप और पंचेन्द्रियों के निरोधरूप एकाग्रभाव द्वारा अपने मन के व्यापार को रोकें अर्थात् अपने मन को किसी एक विषय में रमावें।
प्रश्न—आचार्य मुनिराज को ध्यान के लिए किस प्रकार सम्बोधित करते हैं ?
उत्तर—कम्मस्स बंधमोक्खो जीवा जीवे य दव्वपज्जाए। संसारसरीराणि य भोगविरत्तो सया झाहि।।९७६।। हे मुने ! तुम भोगों से विरक्त होकर कर्म का, बन्ध मोक्ष का, जीव—अजीव का, द्रव्य—पर्यायों का तथा संसार और शरीर का हमेशा ध्यान करो।
प्रश्न—ध्यान में किस प्रकार िंचतन करते हैं ?
उत्तर—दव्वे खेत्ते काले भावे य भवे य होंति पंचेव। परिवट्टणाणि बहुसो अणादि काले य चिंतेज्जो।।९७७।। मोहग्गिणा महंतेण दज्झमाणे महाजगे धीरा। समणा विसयविरत्ता झायंति अणंत संसारं।।९७८।। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव ये पाँच संसार होते हैं, अनादिकाल से ये परिवर्तन अनेक बार किए हैं। ऐसा चिन्तवन करना चाहिए। यह महाजगत् महान् मोहरूपी अग्नि से जल रहा है। धीर तथा विषयों से विरक्त श्रमण इस अनन्त संसार का चिन्तवन करते हैं।
प्रश्न—आरम्भ और कषाय सहित ध्यान हो सकता है क्या ?
उत्तर—आरंभं च कसायं च ण सहदि तवो तहा लोए। अच्छी लवणसमुद्दो य कयारं खलु जहा दिट्ठं।।९७९।। जैसे नेत्र और लवण समुद्र अपने अन्दर पड़े हुए तृण आदि को नहीं सहन करते, किनारे कर देते हैं, उसी प्रकार से वह तपरूप चारित्र आरम्भ—परिग्रह का उपार्जन और कषायों को नहीं सहन करता है, इन्हें बाहर कर देता है। अर्थात् आरम्भ और कषायों के रहते हुए चारित्र तथा ध्यान असम्भव है।
प्रश्न—इन पंच परिवर्तनों को क्या उसी जीव ने किया है अथवा अन्य जीव ने ? यदि उसी जीव ने किया है, अन्य ने नहीं, तो क्यों ?
उत्तर—जह कोइ सट्टिवरिसो तीस दिवरिसे णराहिवो जाओ। उभयत्थ जम्मसद्दो वासविभागं विसेसेइ।।९८०।। एवं तु जीवदव्वं अणाइणिहाणं विसेसियं णियमा। रायसरिसो दुकेवलपज्जाओ तस्स दु विसेसो।।९८१।। जैसे कोई साठ वर्ष का मनुष्य तीस वर्ष की आयु में राजा हो गया। दोनों अवस्थाओं में होने वाला जन्म शब्द वर्ष के विभाग की विशेषता प्रकट करता है। जिसका जन्म हुआ है वही राजा हुआ है अत: उसके राजा होने के पहले और अनन्तर—दोनों अवस्थाओं में ‘जन्म’ शब्द का प्रयोग होता है यद्यपि ये दोनों अवस्थाएँ भिन्न हैं किन्तु जिसकी है वह अभिन्न है। इससे प्रत्येक वस्तु द्रव्य रूप से एक है तथा नाना पर्यायों में भिन्न—भिन्न है ऐसा समझता। वैसे ही एक जीव इन परिवर्तनों को करता रहता है उसकी नाना पर्यायों में भेद होने पर भी जीव में भेद नहीं रहता है। दृष्टान्त को दाष्र्टान्त में घटित करते हुए कहते हैं—इसी प्रकार से जीवद्रव्य अनादि निधन है। वह नियम से विशेष्य है। किन्तु उसकी पर्याय केवल विशेष है जो कि राजा के सदृश है।
प्रश्न—पर्यार्यािथक नय की अपेक्षा से भेद का प्रतिपादन करें, जीव को विभिन्न निर्देशन करें ?
उत्तर—जीवो अणाइणिहणो जीवोत्ति य णियमदो ण वत्तव्वो। जं पुरिसाउगजीवो देवाउग जीविदविसिट्ठो।।९८२।। जीव अनादि निधन है, वह जीव ही है ऐसा एकान्त से नहीं कहना चाहिए क्योंकि मनुष्य आयु से युक्त जीव देवायु से युक्त जीव से भिन्न है। जैसे मनुष्यायु से युक्त जीव की अपेक्षा देवायु से युक्त जीव में भेद है। जो देव है वही मनुष्य नहीं है और जो मनुष्य है वह तिर्यंच नहीं है और जो तिर्यंच है वही नारकी नहीं है। अर्थात् पर्यायों के भेद से जीव में भी भेद पाया जाता है चूंकि प्रत्येक पर्याय कथंचित् पृथक—पृथक है।
प्रश्न—जीव की पर्यायों का वर्णन करें ?
उत्तर—संखेज्जतमसंखेज्जमणंत कप्पं च केवलं णाणं। तह रायदोसमोहा अण्णे वि य जीवपज्जाया।।९८३।। अकसायं तु चरित्तं कसाय वसिओ असंजदो होदि। उवसमदि जह्यि काले तक्काले संजदो होदि।।९८४।। संख्यात को विषय करने वाले होने से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान संख्येय हैं। असंख्यात को विषय करने वाले होने से अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान असंख्येय—असंख्यात कहलाते हैं। अनन्त को विषय करने वाला होने से केवलज्ञान अनन्तकल्प कहलाता है। उसी प्रकार से जीव की राग, द्वेष और मोह पर्यायें हैं। अन्य भी नारक, तिर्यंच आदि तथा बाल, युवा वृद्धत्व आदि पर्यायें होती हैं। कषाय रहित होना चारित्र है। कषाय के वश में हुआ जीव असंयत होता है जिस काल में उपशम भाव को प्राप्त होता है उस काल में यह संयत होता है। अर्थात् आत्मा ज्ञान प्रमाण है और ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है। ज्ञेय लोकालोक प्रमाण है इसलिए ज्ञान सर्वगत माना गया है।
प्रश्न—कषाय के वशीभूत हुआ जीव असंयम को प्राप्त होता है, इसका स्पष्टीकरण करें ?
उत्तर—वरं गणपवेसादो विवाहस्स पवेसणं। विवाहे रागउप्पत्ती गणो दोसाणमागरो।।९८५।। यति अंत समय में यदि गण में प्रवेश करेंगे तो शिष्यादिकों में मोह उत्पन्न होगा तथा मुनिकुल में मोह उत्पन्न होने के लिए कारणभूत ऐसे पाश्र्वस्थादिक पाँच मुनियों से संपर्क होगा। उन पार्श्वस्थ के सम्पर्क की अपेक्षा से विवाह में प्रवेश करना अर्थात् गृह में प्रवेश करना अधिक अच्छा है क्योंकि विवाह में स्त्री आदिक परिग्रहों का ग्रहण होता है और उससे रागोत्पत्ति होती है। परन्तु गण तो सर्व दोषों का आकर स्थान है उसमें मिथ्यात्व, असंयम, कषाय, रागद्वेषादिक उत्पन्न होते हैं। विवाह में मिथ्यात्व नहीं होगा केवल राग उत्पत्ति होती है परन्तु गण प्रवेश में तो सब दोष उत्पन्न होते हैं इसलिए मुनियों को कषाय से दूर रहना ही अच्छा है।
प्रश्न—कारण के अभाव में दोषों का अभाव हो जाता है स्पष्टीकरण कीजिए ?
उत्तर—पच्चयभूदा दोसा पच्च्यभावेण णत्थि उप्पत्ती। पच्चयभावे दोसा णस्संति णिरासया जहा बीयं।।९८६।। हेदू पच्चयभूदा हेदुविणासे विणासमुवयंति। तह्या हेदु विणासो कायव्वो सव्वसाहूहिं।।९८७।। जं जं जे जे जीवा पज्जायं परिणमंति संसारे। रायस्स य दोसस्स य मोहस्स वसा मुणेयव्वा।।९८८।। कारण से दोष होते हैं, कारण के अभाव में उनकी उत्पत्ति नहीं होती है। प्रत्यय के अभाव से निराश्रय दोष नष्ट हो जाते हैं। जैसे कि बीज रूप कारण के बिना अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती। अभिप्राय यही है कि शिष्यादि के निमित्त से मोह—राग—द्वेष उत्पन्न होते हैं और उनके नहीं होने से नहीं होते हैं अत: दोषों से बचने के लिए उन्हें छोड़ देना चाहिए। क्रोध, मान, माया, लोभ ये कषाय हेतु हें। इन लोभादिकों के होने पर ही परिग्रह आदि कार्य होते हैं। अत: इन हेतुओं के नष्ट हो जाने पर परिग्रहादि संज्ञाएँ भी नष्ट हो जाती हैं। सभी साधुओं को इन हेतुओं का विनाश करना चाहिए, क्योंकि लोभादि कषायों के नहीं रहने पर परिग्रह की इच्छा नहीं होती है। ये मूच्र्छा आदि परिणाम ही परिग्रह हैं, इन्हें दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। संसार में जीव नरक, तिर्यंच आदि जिन—जिन पर्यायों को ग्रहण करते हैं, उन उन को रागद्वेष और मोह मोह के अधीन हुए ही ग्रहण करते हैं, क्योंकि सभी संसारिक पर्यायें कर्म के ही आधीन हैं।
प्रश्न—राग—द्वेष का फल क्या है ?
उत्तर—अत्थस्स जीवियस्स य जिब्भोवत्थाण कारणं जीवो। मरदि य मारावेदि य अणंतसो सव्वकाल तु।।९८९।। गृह, पशु, वस्त्र, धन आदि के लिए तथा जीवन अर्थात् आत्मरक्षा के लिए जिह्वा अर्थात् आहार के लिए और उपस्थ अर्थात् कामभोग के लिए राग द्वेष से यह जीव स्वयं सदा ही अनन्त बार प्राण त्याग करता है और अनन्त बार अन्य जीवों का भी घात करता है।
प्रश्न—जिह्वा इन्द्रिय और कामेन्द्रिय जीतने हेतु किस प्रकार समझाते हैं ?
उत्तर—जिब्भोवत्थणिमित्तं जीवो दुक्खं अणदिसंसारे। पत्तो अणंतसो तो जिब्भोवत्थे जयह दाणिं।।९९०।। चदुरंगुला च जिब्भा असुहा चदुरंगुलो उवत्थो वि। अट्ठं गुलदोसेण दु जीवो दुक्खं खु पप्पोदि।।९९१।। इस जीव ने इस अनादि संसार में जिह्वा इन्द्रिय और स्पर्शन इन्द्रिय के वश में होकर अनन्त बार दु:ख प्राप्त किया है। इसलिए हे मुने ! तुम इसी समय इस रसनेन्द्रिय और कामेन्द्रिय को जीतो। चार अंगुल की जिह्वा अशुभ है और चार अंगुल की कामेन्द्रिय भी अशुभ है। इन आठ अंगुलों के दोष से यह जीव निश्चित रूप से दु:ख प्राप्त करता है। अत: इन दोनों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करो।
प्रश्न—स्पर्शन जय क्यों करना चाहिए ?
उत्तर—बीहेदव्वं णिच्चं कट्ठत्थस्स वि तिहत्थिरूवस्स। हवदि य चित्तक्खाभो पच्चय भावेण जीवस्स।।९९२।। घिदभरिद घडसरित्थो पुरिसो इत्थी बलंत अग्गिसमा। तो महिलेयं ढुक्का णट्ठा पुरिसा सिवं गया इयरे।।९९३।। मायाए वहिणीए धूआए मूइ वुड्ढ इत्थीए। बीहेदव्वं णिच्चं इत्थीरूवं णिरावेक्खं।।९९४।। हत्थपादपरिच्छिण्णं कण्णणासवियप्पियं। अविवास सदिं णारिं दूरिदो परिवज्जए।।९९५।। काठ, लेप, आदि कलाकृति में बने हुए भी स्त्री रूप से हमेशा भयभीत रहना चाहिए क्योंकि कारण के वश से अथवा उन पर विश्वास कर लेने से जीव के मन में चंचलता हो जाती है। पुरुष घी के भरे हुए घड़े के सदृश है और स्त्री जलती हुई अग्नि के सदृश है। इन स्त्रियों के समीप हुए पुरुष नष्ट हो गये हैं तथा इनसे विरक्त पुरुष मोक्ष को प्राप्त हुए हैं। माता, बहिन, पुत्री अथवा गूंगी या वृद्धा इन सभी स्त्रियों से डरना चाहिए। स्त्रीरूप की कभी भी अपेक्षा नहीं करना चाहिए। क्योंकि स्त्रियाँ अग्नि के समान सर्वत्र जलाती हैं। तो हाथ—पैर या कान अथवा नाक से विकलांग हो, अथवा छिन्नपाद, नासिकाहीन होने से यद्यपि कुरूपा हो तथा वस्त्ररहित या नग्नप्राय हो उन्हें भी दूर से ही छोड़ देना चाहिए क्योंकि काम से मलिन हुए पुरुष इनकी भी इच्छा करने लगते हैं।
प्रश्न—ब्रह्मचर्य के भेदों का वर्णन कीजिए ?
उत्तर—मण बंभचेर वचि बंभचेर तह काय बंभचेरं च। अहवा हु बंभचेरं दव्वं भावं ति दुवियप्पं।।९९६।। मन से ब्रह्मचर्य के तीन भेद हैं। अथवा द्रव्य और भाव की अपेक्षा से दो प्रकार का ब्रह्मचर्य है। इनमें भाव ब्रह्मचर्य प्रधान है।
प्रश्न—द्रव्य ब्रह्मचर्य के साथ भाव ब्रह्मचर्य प्रधान क्यों है ?
उत्तर—भावविरदो दु विरदो ण दव्वविरदस्स सुग्गई होई। विसयवणरमणलोलो धरियव्वो तेण मणहत्थी।।९९७।। भाव से विरत मनुष्य ही विरत है—क्योंकि द्रव्य विरत की मुक्ति नहीं होती है। इसलिए विषय रूपी वन में रमण करने में चंचल मन रूपी हाथी को बांधकर रखना चाहिए।
प्रश्न—अब्रह्म के कितने कारण हैं, नाम निर्देश करें ?
उत्तर—पढमं विउलाहारं विदियं कायसोहणं। तदियं गंधमल्लाइं चउत्थं गीयवाइयं।।९९८।। तह सयणसोधणं पि य इत्थिसंसग्गं पि अत्थसंगहणं। पुव्वरदिसरणमिंदिय-विसयरदी पणिदरससेवा।।९९९।। अत्यधिक भोजन करना—अब्रह्मचर्य का यह प्रथम कारण है जो कि अब्रह्म कहलाता है। स्नान, उबटन आदि राग के कारणों से शरीर का संस्कार करना द्वितीय अब्रह्म है। सुगन्धित पदार्थ एवं पुष्पमाला आदि की सुगन्धि ग्रहण करना तृतीय अब्रह्म है। बांसुरी, वीणा, तन्त्री आदि वाद्यों का सुनना चतुर्थ अब्रह्म है। रूई के गद्दे, पलंग आदि एवं कामोद्रेक के कारणभूत क्रीडास्थल चित्रशाला आदि व एकान्त स्थानादि में रहना यह पाँचवा अब्रह्म है। चित्त में चंचलता उत्पन्न करती हुई स्त्रियों के साथ सम्पर्वâ रखना, उनके साथ क्रीड़ा करना छठा अब्रह्म है। सुवर्ण आदि का संग्रह करना सातवाँ अब्रह्म है। पूर्वकाल में भोगे हुए भोगों का स्मरण—चिन्तन करना आठवाँ अब्रह्म है। पाँचों इन्द्रियों के विषयों में रति करना नवम कारण है। इष्ट रसों का सेवन करना करना दसवां अब्रह्म है।
प्रश्न—दृढ़ ब्रह्मचर्य का स्वरूप बताइए ?
उत्तर—दसविह मब्बंभमिणं संसार महादुहाण मावाहं। परिहरइ जो महप्पा णो दढबंभव्वदो होदि।।१०००।। जो महात्मा संसार के महादु:खों के लिए स्थान रूप उपरोक्त दस प्रकार के अब्रह्म का परिहार करता है वह दृढ़ ब्रह्मचर्यव्रती होता है।
प्रश्न—परिग्रह परित्याग का फल बताइए ?
उत्तर—कोहमदमायलोहेहिं परिग्गहे लयइ संसजइ जीवो। तेणुभयसंगचाओ कायव्वो सव्वसाहूहिं।।१००१।। क्रोध, मान, माया, और लोभ के द्वारा यह जीव परिग्रह में आसक्त होता है, इसलिए सर्वसाधुओं को बाह्य एवं अन्तरंग उभय परिग्रह का त्याग कर देना चाहिए।
प्रश्न—श्रमण कौन होता है ?
उत्तर—विस्संगो णिरारंभो भिक्खाचरियाए सुद्धभावो य। एगागी झाणरदो सव्वगुणड्ढो हवे समणो।।१००२।। जो नि:संग, निरारम्भ, भिक्षाचर्या में शुद्धभाव, एकाकी, ध्यानलीन और सर्वगुणों से युक्त हो वही श्रमण होता है।
प्रश्न—श्रमण के कितने भेद हैं ?
उत्तर—णामेण जहा समणो ठावहिणए तह य दव्वभावेण। णिक्खेवो वीह तहा चदुव्विहो होई णायव्वो।।१००३।। नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव रूप से श्रमण के चार भेद हैं।
प्रश्न—भावश्रमण का स्वरूप निरूपण कीजिए ?
उत्तर—भावसमणा हु समणा ण सेससमणाण सुग्गई जम्हा। जहिऊण दुविह मुवहिं भावेण सुसंजदो होह।।१००४।। भाव श्रमण ही श्रमण है क्योंकि शेष श्रमणों को कोक्ष नहीं है, इसलिए हे मुने, दो प्रकार के परिग्रह को छोड़ कर भाव से सुसंयत होओ।
प्रश्न—भिक्षा शुद्धि का प्रतिपादन करें ?
उत्तर—वदसीलगुणा जम्हा भिक्खाचरिया विसुद्धिए ठंति। तम्हा भिक्खाचरियं सोहिय साहू सदा विहारिज्ज।।१००५।। भिक्षाचर्या की विशुद्धि के होने पर व्रत, शील, और गुण ठहरते हैं। इसलिए साधु भिक्षाचर्या का शोधन करके हमेशा विहार करें।
प्रश्न—किन गुणों से युक्त साधु को भगवन् कहते हैं ?
उत्तर—भिक्कं वक्कं हिययं सोधिय जो चरदि णिच्च सो साहू। एसो सुट्ठिद साहू भणिओ जिणसासणे भयवं।।१००६।। जो आहार, वचन व हृदय का शोधन करके नित्य ही आचरण करते हैं वे ही साधु हैं। जिन शासन में ऐसे सुस्थित साधु भगवन् कहे गये हैं।
प्रश्न—साधु को जैन—शासन की क्या आज्ञा है ?
उत्तर—दव्वं खेत्तं कालं भावं सत्तिं च सुट्ठु णाऊण। झाणज्झयणं च तहा साहू चरणं समाचरऊ।।१००७।। साधु द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और शक्ति को अच्छी तरह समझकर भलीप्रकार से ध्यान, अध्ययन और चारित्र का आचरण करें।
प्रश्न—त्याग का फल बताइए ?
उत्तर—चाओ य होइ दुविहो संगच्चाओ कलत्तचाओ य। उभयच्चायं किच्चा साहू सिद्धिं लहू लहदि।।१००८।। त्याग दो प्रकार का है—परिग्रह त्याग और स्त्रीत्याग, दोनों का त्याग करके साधु शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है।
प्रश्न—पृथ्वी आरम्भ में किन जीवों की विराधना होती है ?
उत्तर—पुढविकायिगजीवा पुढवीए चावि अस्सिदा संति। तम्हा पुढवीए आरम्भे णिच्चं विराहणा तेसिं।।१००९।। पृथ्वीकायिक जीव और पृथ्वी के आश्रित जीव होते हैं। इसलिए पृथ्वी के आरम्भ में उन जीवों की सदा विराधना होती है।
प्रश्न—असंयम का कारण क्या है ?
उत्तर—तम्हा पुढवि समारंभो दुविहो तिविहेण वि। जिण मग्गाणुचारीणं जावज्जीवं ण कप्पई।।१०१०।। पृथ्वीकायिक आदि पंच स्थावर और त्रस की विराधना यही असंयम का कारण है।
पुढवि कायिगा जीवा पुढविं जे समासिदा। दिट्ठा पुढविसमारंभे धुवा तेसिं विराधणा।। आउकायिगा जीवा आऊं जे समस्सिदा। दिट्ठा आउसमारंभे धुवा तेसिं विराधणा।।कुन्द. मूला.।
जलकायिक जीव और उसके आश्रित रहने वाले अन्य जो त्रस जीव हैं जल के गर्म करने, छानने, गिराने आदि आरम्भ से निश्चित ही उनकी विराधना होती है।
तेउकायिगा जीवा तेउं ते समस्सिदा। दिट्ठा तेउसमारंभे धुवा तेसिं विराधणा।। कुन्द. मूला.।
अग्निकायिक जीव और अग्नि के आश्रित रहने वाले जीव हैं उनकी अग्नि बुझाने आदि आरम्भ से निश्चित ही विराधना होती है।
वाउकायिगा जीवा वाउं ते समस्सिदा। दिट्ठा वाउसमारम्भे धुवा तेसिं विराधणा।। कुन्द. मूला.।
वायु कायिक जीव और उनके आश्रित रहने वाले जो त्रसजीव हैं उनकी वायु के प्रतिबन्ध करने या पंखा करना आदि आरम्भ से निश्चित ही विराधना होती है।
वणप्फदि काइगा जीवा वणप्फदिं जे समस्सिदा। दिट्ठा वणप्फदिसमारंभे धुवा तेसिं विराधणा।। कुन्द. मूला.।
वनस्पतिकायिक जीव और उनके आश्रित रहने वाले जो जीव हैं, वनस्पति फल—पुष्प के तोड़ने, मसलने आदि आरम्भ से उनकी नियम से विराधना होती है।
जे तसकायिगा जीवा तसं जे समस्सिदा। दिट्ठा तससमारंभे धुवा तेसिं विराधणा।।
जो त्रस कायिक जीव हैं और उनके आश्रित जो अन्य जीव हैं उन सबका घात पीडन आदि करने से नियम से उन जीवों की विराधना होती है।
प्रश्न—मिथ्यात्व का कारण बताइए ?
उत्तर—जो पुढविकाइजीवे णवि सद्दहदि जिणेहिं णिद्दिट्ठे। दूरत्थो जिणवयणे तस्स उवट्ठावणा णत्थि।।१०११।।
जो जिनेन्द्र देव द्वारा कथित पृथवीकायिक आदि पंच स्थावर और उनके आश्रित जीवों को स्वीकार नहीं करता श्रद्धान नहीं करता है वह जिनवचन से दूर स्थित है। उसके भी उपस्थापना नहीं होती है वह भी मिथ्यादृष्टि ही है। उसकी मोक्षमार्ग में कदाचित् भी स्थिति नहीं है क्योंकि दर्शन के अभाव में चारित्र और ज्ञान का अभाव ही है।
प्रश्न—मिथ्यात्व की विशुद्धि किस प्रकार से होगी ?
उत्तर—जो पुढविकाय जीवे अइसद्दहदे जिणेहिं पण्णत्ते। उवलद्ध पुण्णपावस्स तस्सुवट्ठावणा अत्थि।।१०१२।। जो जिनदेवों द्वारा प्रज्ञप्त पृथ्वीकायिक आदि पंचस्थावर एवं त्रस जीवों के अस्तित्व का अतिशय श्रद्धान करता है ऐसे पुण्य पाप के ज्ञात उस साधु की उपस्थापना होती है और मिथ्यात्व की विशुद्धि होती है।
प्रश्न—जो पंचस्थावर और त्रस जीवों को नहीं मानते, श्रद्धान नहीं करते उसका फल बताइए ?
उत्तर—ण सद्दहदि जो एदे जीवे पुढविदं गदे। स गच्छे दिग्घमद्धाणं लिगंत्थो वि हु दम्मदी।।१०१३।। जो पृथ्वी कायिक पर्याय को प्राप्त जीवों को और उनके आश्रित जीवों को स्वीकार नहीं करता है, इसी प्रकार से जो जलकायिक, वायुकायिक, अग्निकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक तथा उनके आश्रित जीवों को स्वीकार नहीं करता है वह मुनिवेषधारी होकर भी दुर्मति है अत: दीर्घ संसार में ही भ्रमण करता रहता है।
प्रश्न—सम्पूर्ण जीवों की रक्षा हेतु गणधर देव ने भी तीर्थंकर परमदेव से किस प्रकार प्रश्न पूछे थे ?
उत्तर—कधं चरे कधं चिट्ठे कधमासे कधं सये। कधं भुंजेज्ज भासिज्ज कधं पावं ण बज्झदि।।१०१४।। हे भगवन् कैसे आचरण करें, कैसे ठहरें, कैसे बैठें, कैसे सोवें, कैसे भोजन करें, एवं किस प्रकार बोलें, कि जिससे पाप से नहीं बंधे।
प्रश्न—श्री तीर्थंकर द्वारा गणधर जी को किस प्रकार से उत्तर प्राप्त होता है ?
उत्तर—जदं चरे जदं चिट्ठे जदमासे जदं सये। जदं भुंजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झइ।।१०१५।। ईर्यापथशुद्धि से गमन करे। सावधानी पूर्वक खड़े हो। सावधानी पूर्वक देखकर और पिच्छिका से परिमार्जन करके पर्यंक आदि से बैठें। सावधानी पूर्वक पिच्छिका से प्रतिलेखन करके करवट बदलने रूप आदि क्रियाएँ करते हुए संकुचित गात्र करके रात्रि में शयन करें। सावधानीपूर्वक छयालीस दोष र्विजत आहार ग्रहण करें, तथा सावधानी पूर्वक सत्यव्रत से सम्पन्न होकर भाषा समिति के क्रम से बोलें। इस प्रकार से पाप का बन्ध नहीं होता है अर्थात् कर्मों का आस्रव रूक जाता है।
प्रश्न—यत्नपूर्वक गमन करने का फल क्या है।
उत्तर—जदं तु चरमाणस्य दयापेहुस्स भिक्खुणो। णवं ण बज्झदे कम्मं पोराणं च विधूयदि।।१०१६।। यत्न पूर्वक चलते हुए, दया से जीवों को देखने वाले साधु के नूमन कर्म नहीं बंधते हैं और पुराने कर्म झड़ जाते हैं।
प्रश्न—समयसार अधिकार का उपसंहार किस प्रकार से करते हैं ?
उत्तर—एवं विधाणचरियं जाणित्ता आचरिज्ज जो भिक्खू। णासेऊण दु कम्मं दुविहं पि य लहु लहइ सिद्धिं।।१०१७।। जो साधु इस प्रकार से विधानरूप चारित्र को जानकर आचरण करते हैं वे दोनों प्रकार के कर्मों का नाश करके शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं।
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प्रश्न— आचार्य भगवन् ने पर्याप्ति अधिकार के मंगलाचरण में किनको नमस्कार किया है तथा प्रतिज्ञा में क्या कहा है ?
उत्तर— काऊण णमोक्कारं सिद्धाणं कम्मचक्कमुक्काणं। पज्जत्ती संगहणी वोच्छामि जहाणु पुव्वीयं।।१०४४।।
कर्म समूह से रहित सिद्धों को नमस्कार कर मैं पर्याप्ति का यथाक्रम संग्रह करने वाला अधिकार कहूँगा।
प्रश्न— पर्याप्ति अधिकार में किन विषयों का कथन किया है यह संग्रह सूचक दो गाथाओं में बताइए ?
उत्तर— पज्जत्ती देहो वि य संठाणं काय इंदियाणं च। जोणी आउ पमाणं जोगो वेदो य लेस पविचारो।।१०४५।।
उववादो उव्वट्टण ठाणं च कुलं च अप्पबहुलो य। पयडिट्ठिदि अणुभागप्पदेस बंधो य सुत्तपदा।।१०४६।।
पर्याप्ति, देह, काय—संस्थान, इन्द्रिय—संसिन, योनि, आयु, प्रमाण, योग, वेद, लेश्या, प्रवीचार, उपपाद, अद्वर्तन, स्थान, कुल, अल्पबहुत्व, प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेशबन्ध ये बीस सूत्र पद हैं। जो कि इस अधिकार में कहे जायेंगे। (१) पर्याप्ति : आहार आदि कारणों की पूर्णता का होना पर्याप्ति है। (२) देह : औदारिक, वैक्रियिक और आहार वर्गणा रूप से आये हुए पुद्गल पिण्ड का नाम देह है। अथवा हस्त, पाद, शिर, ग्रीवा आदि अवयवों से परिणत हुए पुद्गल पिण्ड को देह कहते हैं। (३) संस्थान : अवयवों की रचना विशेष। यह पृथ्वीकाय आदि और कर्णेन्द्रिय आदि का होता है। काय संस्थान और इन्द्रिय संस्थान से यह दो भेद रूप है। (४) योनि : जीवों की उत्पत्ति के स्थान का नाम योनि है। (५) आयु : नरक आदि गतियों में स्थिति के लिए कारणभूत पुद्गल समूह को आयु कहते हैं। (६) प्रमाण : ऊँचाई, लम्बाई और चौड़ाई के माप को प्रमाण कहते हैं। ये प्रमाण आयु और अन्य शरीर आदि का समझना। (७) योग : काय, वचन और मन के कर्म का नाम योग है। (८) वेद : मोहनीय कर्म के उदय विशेष से स्त्री—पुरुष आदि की अभिलाषा में हेतु वेद कहलाता है। (९) लेश्या : कषाय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति का नाम लेश्या है। (१०) प्रवीचार : स्पर्शन इन्द्रिय आदि से अनुरागपूर्वक कामसेवन करना प्रवीचार है। (११) उपपाद : अन्य स्थान से आकर उत्पन्न होना उपपाद है। (१२) उद्वर्तन : यहाँ से जाकर अन्यत्र जन्म लेना उद्वर्तन है। (१३) स्थान : जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणा स्थानों को स्थान शब्द से लिया जाता है। (१४) कुल : जाति के भेद को कुल कहते हैं। (१५) अल्पबहुत्व : कम और अधिक का नाम अल्पबहुत्व है। (१६) प्रकृति : ज्ञानावरण आदि रूप से पुद्गल का परिणत होना प्रकृति है। (१७) स्थिति : कर्मस्वरूप को न छोड़ते हुए पुद्गलों के रहने का काल स्थिति है। (१८) अनुभाग : कर्मों का रस विशेष अनुभाग है। (१९) प्रदेश : कर्मभाव से परिणत पुद्गलस्कन्धों को परमाणु के परिणाम से निश्चित करना प्रदेश है। (२०) बन्ध : जीव और कर्म प्रदेशों का परस्पर में अनुप्रवेश रूप से संश्लिष्ट हो जाना बन्ध है।
प्रश्न— पर्याप्ति के कितने भेद हैं बताइए ?
उत्तर— आहारे य सरीरे तह इंदिय आणपाण भासाए। होंति मणो वि य कमसो पज्जत्तीओ जिणक्खादा।।१०४७।।
(१) आहार (२) शरीर (३) इन्द्रिय (४) श्वासोच्छ्वास (५) भाषा और (६) मन ये छह पर्याप्तियाँ होती हैं।
प्रश्न— आहार पर्याप्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिस कारण से यह जीव तीन शरीर के योग्य ग्रहण की गयीं आहार वर्गणाओं को खल, रस, अस्थि, चर्मादि रूप और रक्त वीर्यादिरूप भाग से परिणमन कराने में समर्थ होता है। उस कारण की सम्पूर्णता का होना आहार पर्याप्ति है।
प्रश्न— शरीर पर्याप्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर—जिस कारण से जीव शरीर के योग्य पुद्गल वर्गणाओं को ग्रहण करके उन्हें औदारिक, वैक्रियिक, आहारक शरीर के स्वरूप से परिणमन कराने में समर्थ होता है उस कारण की सम्पूर्णता का होना शरीर पर्याप्ति है।
प्रश्न— इन्द्रिय पर्याप्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिस कारण से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पंचेन्द्रियों के योग्य पुद्गल द्रव्यों को ग्रहण करके यह आत्मा अपने विषयों को जानने में समर्थ होता है उस कारण की पूर्णता का नाम इन्द्रिय पर्याप्ति है।
प्रश्न— श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिस कारण के द्वारा यह जीव श्वासोच्छ्वास के योग्य पुद्गल द्रव्यों को ग्रहण करके श्वासोच्छ्वास रूप रचना करने में समर्थ होता है, उस कारण की सम्पूर्णता का नाम श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति है।
प्रश्न— भाषा पर्याप्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिस कारण से सत्य, असत्य, उभय और अनुभय इन चार प्रकार की भाषा के योग्य पुद्गल द्रव्यों का आश्रय लेकर उन्हें चर्तुिवध भाषा रूप से परिणमन कराने में समर्थ होता है, उस कारण की सम्पूर्णता का नाम भाषा पर्याप्ति हैं।
प्रश्न— मन: पर्याप्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिस कारण से सत्य, असत्य आदि चार प्रकार के मन के योग्य पुद्गल द्रव्यों को ग्रहण करके उन्हें चार प्रकार की मन: पर्याप्ति से परिणमन कराने में समर्थ होता है उस कारण की संपूर्णता को मन पर्याप्ति कहते हैं।
प्रश्न— छह पर्याप्तियों के स्वामी कौन—कौन हैं ?
उत्तर— एइंदिएस चत्तारि होंति तह आदिदो य पंच भवे। वेइंदियादियाणं पज्जत्तीओ असण्णित्ति।।१०४८।।
(१) पृथिवीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक पर्यन्त एकेन्द्रिय जीवों के आहार, शरीर, इन्द्रिय और आनप्राण ये चार पर्याप्तियाँ होती हैं। (२) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के आहार, शरीर, इन्द्रिय, आनप्राण और भाषा ये पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं।
प्रश्न— छह पर्याप्तियों की प्राप्ति किसको होती है ?
उत्तर— छप्पि य पज्जत्तीओ बोधव्वा होंति सण्णिकायाणं। एदाहि अणिव्वत्ता ते दु अपज्जत्तया होंति।।१०४९।।
संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के आहार, शरीर, इन्द्रिय, आनप्राण, भाषा और मन ये छहों पर्याप्तियाँ होती हैं।
प्रश्न— अपर्याप्तक जीव किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिन एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय असंज्ञी अथवा पंचेन्द्रिय जीवों के ये चार, पाँच या छहों पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती वे जीव अपर्याप्तक कहलाते हैं।
प्रश्न— मनुष्य, तिर्यंच और देव नारकियों की पर्याप्तियाँ कितने समय में पूर्ण होती हैं ?
उत्तर— पज्जत्तीपज्जत्ता भिण्णमुहुत्तेण होंति णायव्वा। अणु समयं पज्जत्ती मव्वेसिं चोववादीणं।।१०५०।।
आहार आदि की पूर्णता के कारण को पर्याप्ति कहते हैं। ये पर्याप्तियाँ तिर्यंच और मनुष्यों के एक समय कम दो घड़ी काल रूप अन्तर्मुहूर्त में पूर्ण हो जाती हैं। तथा उपपाद से जन्म लेने वाले देव और नारकियों के शरीर अवयवों की रचना रूप पर्याप्तियों की पूर्णता प्रति समय होती है।
प्रश्न— उपपाद जन्मवालों के प्रतिसमय पर्याप्तियाँ होती हैं, यह वैâसे जाना जाता है ?
उत्तर— जह्यि विमाणे जादो उववादसिला महारहे समणे। अणुसमयं पज्जत्तो देवो दिव्वेण रूवेण।।१०५१।।
जिस विमान में उपपादशिला पर, श्रेष्ठ शय्या पर जन्म लेते हैं वे देव दिव्य रूप के द्वारा प्रतिसमय पर्याप्त हो जाते हैं। भवनवासी आदि से लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त विमानों में जो उपपाद शिलाएँ हैं उनका आकार बन्द हुई सीप के समान है। उन शिलाओं पर सभी अलंकारों से विभूषित, मणियों से खचित, श्रेष्ठ पर्यंकरूप शय्याएँ हैं। उन पर वे देव शोभन शरीर आदि आकार और वर्ण से प्रति समय में पर्याप्त होकर सर्वाभरण से भूषित और सम्पूर्ण यौवन वाले हो जाते हैं। जिस विमान की उपपाद शिला की महाशय्या पर वे देव उत्पन्न होते हैं उसी शय्या पर समय—समय में दिव्य रूप से परिपूर्ण हो जाते हैं। अर्थात् एक अन्तर्मुहूर्त में ही वे देव दिव्य आहार आदि वर्गणाओं को ग्रहण करते हुए दिव्यरूप और यौवन से परिपूर्ण हो जाते हैं।
प्रश्न— देवों के देह का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— देहस्स य णिव्वत्ती भिण्णमुहुत्ते ण होइ देवाणं। सव्वंगभूसणगुणं जोव्वणमवि होदि देहम्मि।।१०५२।।
देवों के कुछ कम दो घड़ी के काल से छहों पर्याप्तियाँ ही पूर्ण हो जाती हैं मात्र इतना ही नहीं, किन्तु सर्वकार्य करने में समर्थ शरीर भी पूर्ण बन जाता है। केवल मात्र शरीर की रचना ही अन्तर्मुहूर्त काल में हो ऐसा नहीं है, किन्तु शरीर—हाथ, पैर, मस्तक, कण्ठ आदि को विभूषित करने वाले भूषण अर्थात् शरीर के सभी अवयव, उनके अलंकार और नाना गुण भी पूर्ण हो जाते हैं तथा वह शरीर नवयौवन से सम्पन्न हो जाता है जो कि परम रमणीय, सर्वालंकार से समन्वित, अतिशय सुन्दर और सर्वजनों को आह्लादित करने वाला होता है।
प्रश्न— देवों में बाल वृद्धत्व तथा संस्थान आदि का कथन करें ?
उत्तर— कणयमिव णिरुवलेवा णिम्मलगत्ता सुयंधणी सासा। अणादिवरचारुरूवा समचउरंसोरुसठाणं।।१०५३।।
देव बाल—वृद्ध पर्याय से रहित आयुपर्यन्त नित्य ही यौवन पर्याय से समन्वित सर्वजन—नयन—मनोहारी रूप सौन्दर्य से युक्त होते हैं, जिनका शरीर समचतुरस्र संस्थान अर्थात् न्यून और अधिक प्रदेशों से रहित प्रमाण—बद्ध अवयवों की पूर्णता युक्त है, जैसे सुवर्ण मलरहित शुद्ध होता है वैसे ही जिनका शरीर मल—मूत्र पसीना आदि से रहित होने से निरुपलेप है। तथा जिनका निर्मल शरीर धातु उपधातु से रहित है, जिनका नि:श्वास सभी की घ्राणेन्द्रिय को आह्लादित करने वाला, सुगन्धित है ऐसे दिव्य शरीर के धारक देव होते हैं।
प्रश्न— क्या देव के शरीर में सात धातुएँ होती हैं ?
उत्तर— केसणहमंसुलोमा चम्मवसारुहिरमुत्तपुरिसं वा। णेवट्ठी णेव सिरा देवाण सरीर संठाणे।।१०५४।।
देवों के शरीर में केश, नख, मूँछ, रोम, चर्म, वसा, रुधिर, मूत्र और विष्ठा नहीं है। तथा हड्डी और सिराजाल भी नहीं होते।
प्रश्न— देवों के शरीर में होने वाले पुद्गलों की विशेषता का वर्णन कीजिए ?
उत्तर— वरवण्ण गंधरसफासादिव्वबहु पोग्गलेिंह णिम्माणं। गेण्हदि देवो देहं सुचरिदकम्माणु भावेण।।१०५५।।
देव अपने द्वारा आचरित शुभकर्म के प्रभाव से श्रेष्ठ वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्शमय बहुत सी दिव्य पुद्गल वर्गणाओं से र्नििमत शरीर को ग्रहण करते हैं।
प्रश्न— तीन शरीरों में से देवों के कौन—सा शरीर होता है ?
उत्तर— वेउव्वियं शरीरं देवाणं माणुसाण संठाणं। सुहणाम पसत्थगदी सुस्सरवयणं सुरूवं च।।१०५६।।
मनुष्य के आकार के समान देवों के वैक्रियिक शरीर, शुभनाम, प्रशस्त गमन, सुस्वरवचन और सुरूप होते हैं ?
प्रश्न— नरक में कितनी पृथ्वी हैं नाम बताइए ?
उत्तर— नरक में सात पृथ्वी हैं—(१) रत्नप्रभा (२) शर्वâराप्रभा (३) बालुकाप्रभा (४) पंकप्रभा (५) धूमप्रभा (६) तम:प्रभा (७) महतम: प्रभा।
प्रश्न— नारकियों के शरीर का वर्णन कीजिए ?
उत्तर— पढमाए पुढवीए णेरइयाणं तु होइ उस्सेहो। सत्तधुण तिण्ण रयणी छच्चेव य अंगुला होंति।।१०५७।।
रत्नप्रभा नामक पहली पृथिवी में तेरह प्रस्तार हैं। (१) सीमंतक नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियों के शरीर का उत्सेध तीन हाथ प्रमाण है। (२) नर नामक द्वितीय प्रस्तार में नारकियों के शरीर का उत्सेध एक धनुष एक हाथ और साढ़े आठ अंगुल है। (३) रोरुक नाम तृतीय प्रस्तार में शरीर की ऊँचाई एक धनुष, तीन हाथ और सत्रह अंगुल है। (४) भ्रान्त नाम चौथे प्रस्तार में नारकियों के शरीर का उत्सेध दो धनुष, दो हाथ, डेढ़ अंगुल है। (५) उद्भ्रान्त नाम पंचम प्रस्तार में तीन धनुष, दश अंगुल उत्सेध है। (६) संभ्रान्त नामक छठे प्रस्तार में तीन धनुष, दो हाथ, साढ़े अठारह अंगुल है। (७) असंभ्रान्त नाम सप्तम प्रस्तार में चार धनुष, एक हाथ और तीन अंगुल प्रमाण शरीर की ऊँचाई है। (८) विभ्रान नामक आठवें प्रस्तार में चार धनुष, तीन हाथ और साढ़े ग्यारह अंगुल शरीर की ऊँचाई है। (९) त्रस्त नामक नवम प्रस्तार में पाँच धनुष, एक हाथ और बीस अंगुल प्रमाण शरीर का उत्सेध है। (१०) त्रसित नामक दसवें प्रस्तार में छह धनुष, साढ़े चार अंगुल प्रमाण शरीर की ऊँचाई है। (११) वक्रान्त नाम ग्यारहवें प्रस्तार में छह धनुष, दो हाथ और तेरह अंगुल प्रमाण है। (१२) अवक्रान्त नामक बारहवें प्रस्तार में सात धनुष और साढ़े इक्कीस अंगुल प्रमाण शरीर की ऊँचाई है। (१३) तेरहवें विक्रांत नामक प्रस्तार में सात धनुष—तीन हाथ और छह अंगुल प्रमाण शरीर की ऊँचाई है।
प्रश्न— द्वितीय पृथिवी में नारकियों के शरीर का प्रमाण बताइए ?
उत्तर— विदियाए पुढवीए णेरइयाणं तु होइ उस्सेहो। पण्णरस दोण्णि बारस धणु रदणी अंगुला चेव।।१०५८।।
शर्करा नामक दूसरी पृथवी में ग्यारह प्रस्तार हैं। (१) सूरसूरक नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊँचाई आठ धनुष, दो हाथ, दो अंगुल और एक अंगुल के ग्यारह भागों मेंदो भाग प्रमाण है। (२) स्तनक नामक दूसरे प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई नव धनुष, बाईस अंगुल और एक अंगुल के ग्यारह भागों में से चार भाग प्रमाण है। (३) मनक नामक तृतीय प्रस्तार में नव धनुष, तीन हाथ, अठारह अंगुल और एक अंगुल के ग्यारह भागों में से छह भाग प्रमाण है। (४) नवक नामक चौथे प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई इस धनुष, दो हाथ, चौदह अंगुल और एक अंगुल के ग्यारह भागों में से आठ भाग है। (५) घाट नामक पाँचवें प्रस्तार में ग्यारह धनुष, एक हाथ, ग्यारह अंगुल और अंगुल के ग्यारह भागों में से दस भाग प्रमाण शरीर की ऊँचाई है। (६) संघाट नामक छठे प्रस्तार में नारकी के शरीर की ऊँचाई बारह धनुष, सात अंगुल तथा ग्यारह भाग प्रमाण है। (७) जिह्वा नामक सप्तम प्रस्तार में बारह धनुष, तीन हाथ, तीन अंगुल और अंगुल के ग्यारह भागों में से तीन भाग प्रमाण ऊँचाई है। (८) जिह्वका नामक आठवें प्रस्तार में नारकी की ऊँचाई तेरह धनुष, एक हाथ, तैंतीस अंगुल और अंगुल के ग्यारह भागों में से पाँच भाग है। (९) लोल नामक नवमें प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई चौदह धनुष, उन्नीस अंगुल और अंगुल के ग्यारह भागों में से सात भाग प्रमाण है। (१०) लोलुप नामक दसवें प्रस्तार में नारकी के शरीर का उत्सेध चौदह धनुष, तीन हाथ, पन्द्रह अंगुल और अंगुल के ग्यारह भागों में से नव भाग प्रमाण है। (११) स्तनलोलुप नामक ग्यारहवें प्रस्तार में नारकियों के शरीर का उत्सेध पन्द्रह धनुष, दो हाथ और बारह अंगुल प्रमाण है।
प्रश्न— तीसरी पृथ्वी बालुका प्रभा में नारकियों की ऊँचाई कितनी है ?
उत्तर— तदियाए पुढवीए णेरइयाणं तु होइ उस्सेहो। एकत्तीसं च धणू एगा रदणी मुणेयव्वा।।१०५९।।
बालुकाप्रभा नरक में नव प्रस्तार हैं। (१) तप्त नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊँचाई सत्रह धनुष, एक हाथ, दश अंगुल और अंगुल के तीन भागों में से दो भाग है। (२) ताप नामक द्वितीय प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई उन्नीस धनुष, नव अंगुल और अंगुल के तृतीय भाग है। (३) तपन नामक तृतीय प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई बीस धनुष, तीन हाथ, आठ अंगुल है। (४) तापन नामक चौथे प्रस्तार में शरीर की ऊँचाई बाईस धनुष, दो हाथ, छह अंगुल और एक अंगुल के तीन भगों में से दो भाग है। (५) निदाघ नामक पाँचवें प्रस्तार में चौबीस धनुष, एक हाथ, पाँच अंगुल और अंगुल के तीन भागों में से एक भाग है। (६) प्रज्वलित नामक छठे प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई छब्बीस धनुष, चार अंगुल है। (७) ज्वलित नामक सप्तम इन्द्रक में नारकियों की ऊँचाई सत्ताईस धनुष, तीन हाथ, दो अंगुल और एक अंगुल के तीन भागों में से दो भाग है। (८) संज्वलन नाम के आठवें प्रस्तार में शरीर की ऊँचाई उनतीस धनुष, दो हाथ, एक अंगुल और अंगुल के तीन भागों में से एक भाग है। (९) नवमें प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊँचाई इकतीस धनुष एक हाथ है।
प्रश्न— चौथी पृथिवी में नारकियों के शरीर की ऊँचाई कितनी है ?
उत्तर— चउथीए पुढवीए णेरइयाणं तु होइ उस्सेहो। बासट्ठी चेव धणू वे रदणी होंति णयव्वा।।१०६०।।
चौथी पंकप्रभा पृथिवी में सात प्रस्तार हैं। (१) आर नामक प्रथम प्रस्तार में पैंतीस धनुष, दो हाथ, बीस अंगुल और अंगुल के सात भागों में से चार भाग है। (२) तार नामक द्वितीय प्रस्तार में चालीस धनुष, सत्रह अंगुल और अगुल के सात भागों में से पाँच भाग है। (३) मार संज्ञक तृतीय प्रस्तार में चवालीस धनुष, दो हाथ, तेरह अंगुल और अंगुल के सात भागों में से पाँच भाग है। (४) वर्चस्क नाम के चतुर्थ प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई उनंचास धनुष, दश अंगुल और एक अंगुल के सात भागों में से दो भाग है। (५) तमक नाम के पाँचवे प्रस्तार में तिरेपन धनुष, दो हाथ, छह अंगुल और एक अंगुल के सात भागों में से छह भाग है। (६) वर्चस्क नाम के चतुर्थ प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई उनंचास धनुष, दश अंगुल और एक अंगुल के सात भागों में से दो भाग है। (७) षड्षड् नामक सातवें प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊँचाई बासठ धनुष और दो हाथ है।
प्रश्न— पाँचवी पृथिवी में नारकियों की ऊँचाई को बताइए ?
उत्तर— पंचमिए पुढवीए णेरइयाणं तु होइ उस्सेहो। सदमेगं पणवीसं धणुप्पमाणेण णादव्वं।।१०६१।।
धूमप्रभा नामक पाँचवी पृथ्वी में पाँच प्रकार हैं। (१) तम नाम के प्रथम प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई पचहत्तर धनुष है। (२) भ्रम नाम के द्वितीय प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई सत्तासी धनुष, दो हाथ है। (३) रूप संज्ञक तृतीय प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई सौ धनुष है। (४) अन्वय नाम के चतुर्थ प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई एक सौ बारह धनुष, दो हाथ है। (५) तमिस्र नाम के पांचवें प्रस्तार में एक सौ पच्चीस धनुष है।
प्रश्न— छठी पृथिवी में नारकियों की ऊँचाई कितनी है ?
उत्तर— छट्ठीए पुढवीए णेरइयाणं तु होइ उस्सेहो। दोण्णि सदा पण्णासा धणुप्पमाणेण विण्णेया।।१०६२।।
तम: प्रभा नामक छठी पृथिवी में तीन प्रस्तार हैं। (१) हिम नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई एक सौ छयासठ धनुष, दो हाथ, सोलह अंगुल है। (२) वर्दल नाम के द्वितीय प्रस्तार में दो सौ आठ धनुष, एक हाथ, आठ अंगुल है। (३) लल्लक नाम के तृतीय प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई दो सौ पचास धनुष समझना चाहिए।
प्रश्न— सातवीं पृथिवी में नारकियों की ऊँचाई का प्रमाण बताइए ?
उत्तर— सत्तमिए पुढवीए णेरइयाणं तु होइ उस्सेहो। पंचेव धणुसयाइं पमाणदो चेव बोधव्वो।।१०६३।।
महातम: प्रभा नामक सातवें नरक में एक ही प्रस्तार है। अवधिस्थान नामक एक ही प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई प्रमाण से पाँच सौ धनुष ही है, अधिक नहीं है।
प्रश्न— नारकियों के शरीर का वर्णन करें ?
उत्तर— नारकियों का शरीर वैक्रियिक होते हुए भी सभी अशुभ पुद्गलों से बना है, इसलिए अत्यन्त बीभत्स है, दुर्गन्धित है, सर्वदु:खों का कारण है। इसका हुण्डक संस्थान है। अशुभनाम, दु:स्वरयुक्त मुख वाला और कृमियों के समूह आदि से व्याप्त है।
प्रश्न— देवों के शरीर की ऊँचाई का प्रमाण बताइए ?
उत्तर— पणवीसं असुराणं सेसकुमाराण दस धणू चेव। विंतर जोइसियाणं दस सत्त धणू मुणेयव्वा।।१०६४।।
असुरकुमार नामक भवनवासी देव और उनके सामानिक आदि देवों के शरीर की उत्कृष्ट ऊँचाई पच्चीस धनुष, नागकुमार आदि शेष भवनवासी देव व उनके सामानिक देवों की दस धनुष, आठ प्रकार के व्यन्तरों की व उनके सामानिक आदि देवों की दस धनुष तथा पाँच प्रकार के ज्योतिषियों की व उनके सामानिक आदि देवों की सात धनुष प्रमाण ऊँचाई है।
प्रश्न— मनुष्य के शरीर की उत्कृष्ट एवं जघन्य अवगाहना (ऊँचाई) कितनी है ?
उत्तर— छद्धणुसहसुस्सेधं चदु दुगमिच्छंति भोगभूमीसु। पणवीसं पंचसदा बोधव्वा कम्म भूमीसु।।१०६५।।
उत्तमभोगभूमि के मनुष्यों की उत्कृष्ट अवगाहना छह हजार धनुष है और जघन्य अवगाहना चार हजार धनुष है। मध्यम भोगभूमि के मनुष्यों की उत्कृष्ट अवगाहना चार हजार धनुष और जघन्य अवगाहना दो हजार धनुष है। जघन्य भोगभूमि के मनुष्यों की उत्कृष्ट अवगाहना दो हजार धनुष एवं जघन्य अवगाहना पाँच सौ पच्चीस धनुष हैं।
प्रश्न— कल्पवासी देवों के शरीर की ऊँचाई का प्रमाण बताइए ?
उत्तर— सोहम्मीसाणेसु य देवा खलु होंति सत्तरयणीओ। छच्चेव य रयणीओ सणक्कुमारे हि माहिंदे।।१०६६।।
सौधर्म और ईशान स्वर्ग के इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश परिषद, आत्मरक्षा , लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक में सभी देव सात हाथ प्रमाण शरीर वाले होते हैं। तथा सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के इन्द्र आदि सभी देव छह हाथ प्रमाण शरीर वाले होते हैं।
प्रश्न— ब्रह्म आदि कल्पों में देवों के शरीर की ऊँचाई बताइए ?
उत्तर— बंभे य लंतवे वि य कप्पे खलु होंति पंच रयणीओ। चत्तारि य रयणीओ सुक्कसहस्सार कप्पेसु।।१०६७।।
ब्रह्म, ब्रह्मोतर, लान्तव और कापिष्ठ इन चार कल्पों में इन्द्र आदि देव पाँच हाथ प्रमाण शरीर वाले होते हैं। तथा शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार इन चार कल्पों में इन्द्र सामानिक आदि देव चार हाथ प्रमाण शरीर के धारक होते हैं।
प्रश्न— आनत आदि देवों के शरीर का प्रमाण बताइए ?
उत्तर— आणदपाणदकप्पे अध्दुद्धाओ हवंति रयणीओ। तिण्णेव य रयणीओ बोधव्वा आरणच्चुदे चापि।।१०६८।।
आनत प्राणत कल्प में इन्द्रादिक देव साढ़े तीन हाथ प्रमाण ऊँचे है। और आरण—अच्युत कल्प में तीन हाथ प्रमाण ऊँचाई वाले होते हैं।
प्रश्न— अधो और मध्य नवग्रैवेयक में देवों के शरीर का प्रमाण कितना होता है ?
उत्तर— हेट्ठिमगेवज्जेसु य अड्ढाइज्जा हवंति रयणीओ। मज्झिमगेवज्जेसु य वे रयणी होंति उस्सेहो।।१०६९।।
अधोभाग में तीन ग्रैवेयक हैं। अहमिन्द्रों के शरीर की ऊँचाई ढाई हाथ है और मध्य भाग में तीन ग्रैवेयकों के अहमिन्द्र देवों की ऊँचाई दो हाथ है।
प्रश्न— उपरिम ग्रैवेयक के देवों के शरीर का उत्सेध और अनुत्तर देवों का उत्सेध बताइए ?
उत्तर— उवरिमगेवज्जेसु य दिवड्ढरयणी हवे य उस्सेहो। अणुदिसणुत्तरदेवा एया रयणी सरीराणि।।१०७०।।
उपरिम ग्रैवेयकों में डेढ़ हाथ की ऊँचाई हैं अनुदिश—अनुत्तर के देव एक हाथ के शरीर वाले हैं।
प्रश्न— एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त तिर्यंचों के शरीर की ऊँचाई द्वारा जघन्य देह का प्रमाण बताइए ?
उत्तर— भागम संखेज्जदिमं जं देहं अंगुलस्स तं देहं। एइंदियादिपंचेंदियंतदेहं पमाणेण।।१०७१।।
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन जीवों के शरीर का प्रमाण जघन्य रूप से द्रव्यांगुल प्रमाण के असंख्यात खण्ड करके उसमें से एक भाग प्रमाण है। अर्थात् इनका जघन्य शरीर द्रव्यांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
प्रश्न— एकेन्द्रिय जीवों की अवगाहना प्रमाण बताइए ?
उत्तर— साहियसहस्समेयं तु जोयणाणं हवेज्ज उक्कस्सं। एयंदियस्स देहं तं पुण पउमत्ति पादव्वं।।१०७२।।
एकेन्द्रिय जीव का उत्कृष्ट शरीर कुछ अधिक—दो कोस अधिक एक हजार योजन प्रमाण है। वनस्पति काविक में यह कमल का जानना चाहिए।
प्रश्न— द्वीन्द्रिय आदि जीवों के उत्कृष्ट शरीर—प्रमाण बताइए ?
उत्तर— संखो पुण वारसजोयणाणि गोभो भवे तिकोसं तु। भमरो जोयणमेत्तं मच्छो पुण जोयणसहस्सं।।१०७३।।
द्वीन्द्रियों में शंख का बारह योजन का शरीर है, त्रीन्द्रियों में गोपालिका या खर्जूरक प्राणी का शरीर तीन कोश है। चतुरिन्द्रियों में भ्रमर का एक योजन—चार कोस प्रमाण है और पंचेन्द्रियाँ में महामत्स्य का उत्कृष्ट शरीर एक हजार योजन लम्बा है।
प्रश्न— जम्बूद्वीप की परिधि का प्रमाण कितना है ?
उत्तर— जंबूद्वीवपरिहिओ तिण्णिव लक्खं च सोलहसहस्सं। बे चेव जोयणसया सत्तावीसा य होंति बोधव्वा।।१०७४।।
तिण्णेव गाउआइं अट्ठावीसं च धणुसयं भणियं। तेरस य अंगुलाइं अद्धंगुलमेव सविसेसं।।१०७५।।
जम्बूद्वीप की परिधि का प्रमाण तीन लाख, सोलह हजार, दो सौ सत्ताईस योजन समझना तथा तीन कोश, अट्ठाईस सौ धनुष, साढ़े तेरह अंगुल और कुछ अधिक प्रमाण है।
प्रश्न— जम्बूद्वीप आदि सोलह द्वीपों के नामों का उल्लेख कीजिए ?
उत्तर— जंबूदीवो धादइसंडो पुक्खरवरो य तह दीवो। वारुणिवर खीरवरो य घिदवरो खोदवर दीवो।।१०७६।।
णंदीसरो य अरुणो अरूणब्भासो य कुंडलवरो य। संखवर रुजग भुजगवर कुसवर वुंâचवरदीवो।।१०७७।।
पहला जम्बूद्वीप, दूसरा धातकीखण्ड द्वीप, तीसरा पुष्करवरद्वीप, चौथा वारूणीवर द्वीप, पाँचवा क्षीरवर छठा घृतवर द्वीप, सातवाँ क्षौद्रवर द्वीप, आठवाँ नन्दीश्वर द्वीप, नवम अरुण द्वीप, दसवाँ अरुणभास द्वीप, ग्यारहवां कुण्डलवर द्वीप, बारहवाँ शंखवर द्वीप, तेरहवाँ रुचकवर द्वीप, चौदहवाँ भुजगवर द्वीप, पन्द्रहवाँ कुशवरद्वीप और सोलहवाँ क्रौचवर द्वीप ये सोलह द्वीपों के नाम हैं।
प्रश्न— द्वीप, समुद्रों का विस्तार कितना—कितना हैं ?
उत्तर— एवं दीवसमुद्दा दुगुण दुगुणवित्थडा असंखेज्जा। एदे दु तिरियलोए सयंभुरमणो दहिं जाव।।१०७८।।
ये द्वीप—समुद्र इस एक रज्जु प्रमाण विस्तार वाले तिर्यग्लोक में, असंख्यात प्रमाण हैं जो कि स्वयंभूरमण समुद्र पर्यंत दूने—दूने विस्तार वाले होते गये हैं। अर्थात् जम्बूद्वीप के विस्तार से लवण समुद्र का विस्तार दूना है, लवण समुद्र के विस्तार से धातकीखण्ड का दूना है। इसी प्रकार से द्वीप से समुद्र का विस्तार दूना है और समुद्र से द्वीप का विस्तार दूना है। इस तरह सभी द्वीप समुद्र दूने—दूने विस्तार वाले होते हुए संख्या को उलंघन का असंख्यात हो गये हैं।
प्रश्न— ‘असंख्यात’ का प्रमाण बताइए ?
उत्तर— जावदिया उद्धारा अड्ढाइज्जाण सागरुवमाणं। तावदिया खलु रोमा हवंति दीवा समुद्दा य।।१०७९।।
ढाई सागरोपम में उद्धार के जितने रोम खण्ड है उतने रोमखण्ड प्रमाण असंख्यात द्वीप और समुद्र माने गये हैं। उद्धार पल्य को समझने की प्रक्रिया इस प्रकार है— दो हजार कोश परिमाण का लम्बा, चौड़ा और गहरा एक कूप—विशाल गड्ढा करके जन्म से सात दिन के मेढे के शिशु के कोमल बारीक रोमों के अग्रभाग जैसे खण्डों से उस गड्ढे को पूरा भर दें। सौ—सौ वर्ष व्यतीत होने पर एक—एक रोमखण्ड को निकालें। उसमें जितना समय लगे उतने समय मात्र का नाम व्यवहार पल्य है। व्यवहार पल्य के एक—एक रोमखण्ड में असंख्यात करोड़ वर्ष के जितने समय हैं उतने खण्ड कर देने चाहिए। पुन: उन एक एक खण्ड को सौ—सौ वर्ष के समयों से गुणा कर देना चाहिए। ऐसा करने से जितने समय होते हैं उतने को उद्धारपल्योपम कहते हैं। एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर कोड़ाकोड़ी होती हैं। ऐसे दस कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्योपम का एक उद्धार सागरोपम होता है। इस प्रकार से बने हुए ढाई उद्धार सागरोपम में जितने उद्धार पल्योपम हैं और उनमें जितने मात्र रोम खण्ड हैं, उतने प्रमाण द्वीप और समुद्र होते हैं।
प्रश्न— समुद्रों के नाम बताइए ?
उत्तर— जंबूदीवो लवणो धादइसंउे य कालउदधी य। सेसाणं दीवाणं दोवसरिसणामया उदधी।।१०८०।।
जम्बूद्वीप को वेष्टित कर लवण नाम का समुद्र है और धातकीखण्ड के बाद कालोदधि है। पुन: शेष द्वीपों के समुद्र अपने—अपने द्वीप सदृश नाम बाले हैं।
प्रश्न— लवण आदि समुद्रों के जल का रस किसके समान है ?
उत्तर— पत्तेयरसा चत्तारि सायरा तिण्णि होंति उदधरसा। अवसेसा व समुद्दा खोद्दरसा होंति णायव्वा।।१०८१।।
वरुणिवर खीरवरो घदवर लवणो य होंति पत्तेया। कालो पुक्खर उदधी सयंभुरमणो य उदयरसा।।१०८२।।
चार समुद्र पृथक् — पृथक् रसवाले हैं। तीन जलरूप रस से परिपूर्ण हैं और शेष समुद्र इक्षुरस के समान स्वाद वाले हैं। वारुणीवर समुद्र का रस मद्य विशेष के समान है। क्षीरवर समुद्र का जल दुग्ध के समान है। घृतवर समुद्र का जल घी के सदृश है। लवण समुद्र का जल नमक के समान खारा है। इस तरह ये चारों समुद्र अपने—अपने नाम के समान वस्तु के रस, वर्ण, गन्ध, स्पर्श और स्वाद वाले हैं। कालोदधि, पुष्कर समुद्र और स्वयंभूरमण समुद्र ये तीन जल के समान ही जल वाले हैं। इन सात समुद्रों के अतिरिक्त सभी समुद्र इक्षुरस के सदृश मधुर और सुस्वादु रस वाले हैं।
प्रश्न— किन समुद्रों में जलचर जीव हैं और किन समुद्रों के जलचर जीव नहीं हैं ?
उत्तर— लवणे काल समुद्दे सयंभुरमणे य होंति मच्छा दु। अवसेसेसु समुद्देसु णत्थि मच्छा य मयरा वा।।१०८३।।
लवण समुद्र में, कालोदधि समुद्र में और स्वयंभूरमण समुद्र में मत्स्य आदि द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त जलचर जीव होते हैं। इन तीन के अतिरिक्त शेष समुद्रों में मत्स्य, मकर एवं अन्य जलचर जीव भी नहीं हैं। अर्थात् द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय—पर्यन्त कोई भी जलचर जीव नहीं होते हैं।
प्रश्न— लवण, कालोदधि समुद्रों में जलचर जीव कितने बड़े होते हैं ?
उत्तर— अट्ठारसजोयणिया लवणे णवजोयणा णदिमुहेसु। छत्तीसगा य कालोदहिम्मि अट्ठारस णदिमुहेसु।।१०८४।।
लवण समुद्र में मत्स्य अठारह योजन की अवगाहना वाले होते हैं। गंगा, सिन्धु आदि नदियों के प्रवेश स्थान में अर्थात् समुद्र के प्रारम्भ में मत्स्य नवयोजन लम्बे हैं। कालोदधि समुद्र में मत्स्य छत्तीस योजन के हैं और वहाँ भी समुद्र के प्रारम्भ में नदियों के प्रवेश स्थान में अट्ठारह योजन वाले हैं।
प्रश्न— स्वयंभूरमण समुद्र में मत्स्यों का उत्कृष्ट शरीर और जघन्य शरीर का प्रमाण बताइए ?
उत्तर— साहस्सिया दु मच्छा सयंभुरमणह्यि पंचसदिया दु। देहस्स सव्वहस्सं कुंथुपमाणं जलचरे सु।।१०८५।।
स्वयंभूरमण समुद्र में मत्स्य एक हजार योजन लम्बे हैं। प्रारम्भ में नदी प्रवेश के स्थान में मत्स्य पाँच सौ योजन लम्बे हैं। जलचरों में कुंथु का शरीर सबसे छोटा होता है।
प्रश्न— पर्याप्त और अपर्याप्त जलचर, स्थलचर और नभचरों के शरीर का प्रमाण कितना होता है ?
उत्तर— जलथलखग सम्मुच्छिमतिरिय अपज्जत्तया विहत्थीदु। जल सम्मुच्छिम पज्जत्तयाण तह जोयणसहस्सं।।१०८६।।
जलचर, स्थलचर और नभचर संमुच्र्छन तिर्यंच अपर्याप्तकों की जघन्य देह एक वितस्ति प्रमाण है। तथा जलचर संमुच्र्छन पर्याप्तकों की देह एक हजार योजन प्रमाण है।
प्रश्न— गर्भजों का उत्कृष्ट शरीर प्रमाण बताइए ?
उत्तर— जलथल गब्भअपज्जत्त खगथलसंमुच्छिमा य पज्जत्ता। खगगब्भजा य उभये उक्कस्सेण धणु पुहत्तं।।१०८७।।
जलचर, स्थलचर, गर्भज, अपर्याप्त जीव एवं नभचर, स्थलचर संमुच्र्छिम पर्याप्त जीव तथा नभचर गर्भज पर्याप्त—अपर्याप्त जीव ये उत्कृष्ट से धनुषपृथक्त्व प्रमाण देह वाले होते हैं।
प्रश्न— पृथक्त्व संख्या किसे कहते हैं ?
उत्तर— तीन के ऊपर और नव के नीचे की संख्या को पृथक्त्व कहते हैं।
प्रश्न— जलचर, थलचर, गर्भज पर्याप्तकों के उत्कृष्ट शरीर के प्रमाण का उल्लेख कीजिए ?
उत्तर— जगगब्भजपज्जत्ता उक्कस्सं पंचजोयणसयाणि। थलगब्भज पज्जत्ता तिगाउदोक्कस्समायामो।।१०८८।।
जलचर, गर्भज पर्याप्तक का उत्कृष्ट देह पाँच सौ योजन है। स्थलचर गर्भज पर्याप्तक की उत्कृष्ट देह तीन कोश लम्बी है।
प्रश्न— पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और मनुष्य इनके उत्कृष्ट शरीर का प्रमाण बताइए ?
उत्तर— अंगुलअसंख भागं बादर सुहुमा य सेसया काया। उक्कस्सेण दु णियमा मणुगा य तिगाउ उव्विद्धा।।१०८९।।
पृथिवी आदि काय बादर—सूक्ष्म अंगुल के असंख्यातवें भाग शरीर वाले हैं और नियम से मनुष्य उत्कृष्ट से तीन कोश ऊँचाई वाले हैं।
प्रश्न— सर्वजघन्य और सर्वोत्कृष्ट शरीर प्रमाण बताइए ?
उत्तर— सुहुमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स तदियसमयह्यि। हवदि दु सव्वजीण्णं सव्वुक्कस्सं जलचराणं।।१०९०।।
सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध अपर्याप्तकजीव के जन्म लेने के तृतीय समय में सर्व जघन्य शरीर होता है। क्यों कि प्रथम और द्वितीय समय में प्रदेशों का विस्पूर्जन—फैलाव होने से अथवा पूर्व शरीर के समीपवर्ती होने से बड़ा शरीर रहता है। पुन: तृतीय समय में प्रदोशों का निचय के अनुसार अवस्थान हो जाने से सर्वजघन्य शरीर हो जाता है। तथा जलचरों में मत्स्य का और वनस्पति काय में कमल का शरीर सर्वोत्कृष्ट होता है।
प्रश्न— पंच स्थावर एवं विकलत्रय जीवों का संस्थान (आकार) कैसा होता है ?
उत्तर— मसुरिय कुसग्गविंदू सूइकलावा पडाय संठाणा। कायाणं संठाणं हरिदतसा णेगसंठाणा।।१०९१।।
पृथ्वीकाय का मसूरिका के समान गोल आकार है। जलकाय का आकार कुश के अग्रभाग पर पड़ी हुई गोल गोल बिन्दु के समान है। अग्निकायिक का आकार सुईयों के समूह के आकार जैसा है। वायुकाय का आकार पताका के आकार का है तथा प्रत्येक साधारण बादर—सूक्ष्म वन्सपति, द्वीन्द्रिय—त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रय जीवों के शरीर का आकार एक प्रकार नहीं है, अनेक रूप है। अर्थात् वे सब अनेक भेदरूप हुण्डक संस्थान वाले हैं।
प्रश्न— पंचेन्द्रियों का संस्थान कैसा होता है ?
उत्तर— समचउरसणाग्गोहासादियखुज्जायवामणा हुंडा। पंचेदियतिरियणरादेवा चउरस्स णारया हुंडा।।१०९२।।
पंचेन्द्रिय, तिर्यंच और मनुष्य समचतुरस्र, न्यग्रोध, स्वाति, कुब्जक और हुण्डक संस्थान वाले होते हैं। देव समचतुरस्र संस्थान वाले हैं और नारकी हुण्डक संस्थान वाले हैं।
प्रश्न— इन्द्रियों का आकार किस प्रकार का होता है।
उत्तर— जवणालिया मसूरी अत्तिमुत्तयं चंदए खुरप्पे च। इन्दिय संठाणा खलु फासस्स अणेय संठाणं।।१०९३।।
श्रोत्रेन्द्रिय का आकार जौ की नाली के समान है, चक्षु इन्द्रिय का आकार मसूरिका के समान गोल है। घ्राणेन्द्रिय का आकार अतिमुक्तक तिल के पुष्प के समान है। जिह्वा इन्द्रिय का आकार अर्धचन्द्र के समान अथवा खुरपे के समान है। स्पर्शन इन्द्रिय के अनेकों आकार होते हैं जो समचतुरस्र आदि भेद से व्यक्त हैं।
प्रश्न— इन्द्रियों के विषय कितने दूरी से ग्रहण कर सकते हैं ?
उत्तर— चत्तारि धणु सदाइं चउसट्ठी धणुसयं च फस्सरसे। गंधे य दुगुण दुगुणा असण्णिपंचिंदिया जाव।।१०९४।।
पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, और वायुकायिक जीव उत्कृष्ट शक्तियुक्त, स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा चार सौ धनुष पर्यन्त मार्ग में स्थित स्पर्श को ग्रहण कर लेते हैं। द्वीन्द्रिय जीव रसना इन्द्रिय द्वारा चौंसठ धनुष तक स्थित रस को ग्रहण कर लेते हैं। वे ही द्वीन्द्रिय जीव स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा आठ सौ धनुष पर्यन्त मार्ग में स्थित स्पर्श का ग्रहण कर लेते हैं। तीन इन्द्रिय जीव घ्राणेन्द्रिय द्वारा सौ धनुष पर्यन्त स्थित गन्ध को ग्रहण कर लेते हैं। ये ही तीन इन्द्रिय जीव स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा सोलह सौ धनुष पर्यन्त मार्ग में अवस्थित स्पर्श को ग्रहण कर सकते हैं और रसना इन्द्रिय द्वारा एक सौ अट्ठाईस धनुष पर्यन्त मार्ग में स्थित रस को ग्रहण कर लेते हैं। चार इन्द्रिय जीव स्पर्श इन्द्रिय द्वारा तीन हजार दो सौ धनुष पर्यन्त स्थित स्पर्श को विषय कर लेते हैं, ये ही जीव रसना इन्द्रिय द्वारा दो सौ छप्पन धनुष पर्यन्त स्थित रस को ग्रहण कर लेते हैं। घ्राणेन्द्रिय द्वारा दो सौ धनुष तक स्थित गन्ध को विषय कर लेते हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के स्पर्शन इन्द्रिय का विषय छह हजार चार सौ धनुष प्रमाण है। अर्थात् वे इतने प्रमाण पर्यन्त मार्ग में स्थित स्पर्श को ग्रहण कर सकते हैं। रसना इन्द्रिय द्वाराये पाँच सौ बारह धनुष पर्यन्त रस को ग्रहण कर लेते हैं एवं घ्राण इन्द्रिय द्वारा चार सौ धनुष पर्यन्त स्थित गन्ध को ग्रहण कर लेते हैं।
प्रश्न— चतुरिन्द्रिय जीव के चक्षु इन्द्रिय का विषय प्रतिपादन करें ?
उत्तर— इगुणतीस जोयणसदाइं चउवण्णाय होइ णायव्वा। चउिंरदियस्स णियमा चक्खुफासं वियाणहि।।१०९५।।
चतुरिन्द्रिय जीव के चक्षु इन्द्रिय का विषय उनतीस सौ चौवन योजन प्रमाण है।
प्रश्न— असंज्ञी पंचेन्द्रिय के चक्षु का विषय स्पष्ट करें ?
उत्तर— उणसट्ठी जोयणसदा अट्ठेव य होंति तह य णायव्वा। असण्णिपंचेंदीए चक्खुप्फासं वियणाहि।।१०९६।।
उनसठ सौ आठ योजन प्रमाण असंज्ञी पंचेन्द्रिय के चक्षु का स्पर्श होता है।
प्रश्न— असंज्ञी पंचेन्द्रिय के श्रोत्र का विषय कितना है ?
उत्तर— अट्ठेवधणुसहस्सा सोदप्फासं असण्णिणो जाण। विसयावि य णायव्वा पोग्गल परिणाम जोगेण।।१०९७।।
असैनी पंचेन्द्रिय जीव के कर्ण इन्द्रिय का विषय आठ हजार धनुष है।
प्रश्न— संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के पाँचों इन्द्रियों के विषयों का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— फासे रसे य गंधे विसया णव जोयणा य णायव्वा। सोदस्स दु वारस जोयणाणिदो चक्खुसो वोच्छं।।१०९८।।
स्पर्शन, रसना और घ्राण इन्द्रिय के विषय नवयोजन प्रमाण हैं। श्रोत्र इन्द्रिय का विषय द्वादश योजन है।
प्रश्न— चक्षु के विषय का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— सत्तेतालसहस्सा वे चेव सदा हवंति तेसट्ठी। चक्ंिखदिअस्स विसओ उवकस्सो होदि अदिरित्तो।।१०९९।।
संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक चक्रवर्ती आदि इतने प्रमाण मार्ग में स्थित रूप को देख लेते हैं। अर्थात् चक्षु इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय सैंतालीस हजार दो सौ त्रेसठ योजन, एक कोश, बारह सौ पन्द्रह धनुष, एक हाथ दो अंगुल और कुछ अधिक जौ का चतुर्थ भाग प्रमाण है।
प्रश्न— इस प्रमाण को निकालने के लिए करण सूत्र बताइए ?
उत्तर— अस्सीदिसदं विगुणं दीवविसेसस्स वग्ग दहगुणियं। मूलं सट्ठिविहत्तं दिणद्धमाणाहतं चक्खू।।११००।।
एक सौ अस्सी को दूना करके जम्बूद्वीप के प्रमाण में से उसे घटाकर पुन: उसका वर्ग करके उसे दस से गुणा करना, पुन: उसका वर्गमूल निकाल कर साठ का भाग देना और उसे नव से गुणा करना जो संख्या आये वह चक्षु का उत्कृष्ट विषय है।
प्रश्न— स्वामित्व पूर्वक योनि के स्वरूप का वर्णन करें ?
उत्तर— एइंदियणेरइया संपुडजोणी हवंति देवा य। वियलिंदिया य वियडा संपुडवियडा य गब्भेसु।।११०१।।
एकेन्द्रिय जीव, नारकी और देव से संवृत योनि वाले होते हैं। विकलेन्द्रिय जीव विवृत योनि वाले हैं और गर्भ में जन्म लेने वाले संवृत विवृत योनि वाले होते हैं। सचित्त, शीत, संवृत, अचित्त, उष्ण, विवृत, सचित्ताचित्त, शीतोष्ण, शीतोष्ण और संवृतविवृत ये योनि के नव भेद हैं।
प्रश्न— पुन: उसकी विशेष योनि को बताइए ?
उत्तर— अच्चित्ता खलु जोणी णेरइयाणं च होइ देवाणं। मिस्सा य गब्भजम्मा तिविहा जोणी दु सेसाणं।।११०२।।
नारकी और देवों की अचित्त योनि होती है। गर्भजन्म वालों को मिश्र योनि है तथा शेष जीवों की तीनों प्रकार की योनियाँ होती हैं।
प्रश्न— पुनरपि उन्हीं जीवों की विशेष योनि को बताइए ?
उत्तर— सीदुण्हा खलु जोणी णेरइयाणं तहेव देवाणं। तेऊण उसिणजोणी तिविहा जोणी दु सेसाणं।।११०३।।
नारकी और देवों के शीतोष्ण योनि है, अग्निकायिक जीवों की उष्णयोनि है तथा शेष जीवों के तीन प्रकार की योनि होती हैं।
प्रश्न— इन जीवों के विशेष योनि भेद को प्रतिपादित करें ?
उत्तर— संरवावत्तयजोणी कुम्मुण्णद वंसपत्तजोणी य। तत्थ य संखावत्ते णियमादु विवज्जए गब्भो।।११०४।।
शंख के समान आवर्त जिसमें हैं वह शंखावर्तक योनि है। कछुए के समान उन्नत योनि कूर्मोन्नत कहलाती है और बाँस के पत्र के समान योनि को वंशपत्र योनि कहते हैं। इनमें से शंखावर्तक योनि में गर्भ नियम से विनष्ट हो जाता है। अत: शंखावर्तक योनि वाली स्त्रियाँ वंध्या होती हैं।
प्रश्न— किन योनियों में किन जीवों की उत्पत्ति होती है ?
उत्तर— कुम्मुण्णदजोणीए तित्थयरा दुविहचक्कवट्टी य। रामावि य जायंते सेसा सेसेसु जीणीसु।।११०५।।
विशिष्ट सर्वशुचि प्रदेशरूप अथवा शुद्ध पुद्गलों के समूह रूप कूंर्मोन्नत योनि में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, प्रतिवासुदेव और बलभद उत्पन्न होते हैं। शेष अन्य जन तथा भोगभूमिज आदि शेष अर्थात् वंशपत्र और शंखावर्तक योनि से उत्पन्न होते हैं। किन्तु शंखावर्तक में गर्भ नष्ट हो जाता है अत: वह भोगभूमिजों के नहीं होती है, क्योंकि वे अनपवत्र्य—अकाल मृत्यु रहित आयु वाले होते हैं।
प्रश्न— संवृत आदि योनि के विशेष भेद रूप चौरासी लाख योनि भेदों को प्रतिपादन करें ?
उत्तर— णिच्चिदर धादु सत्तय तरु दस विगलिंदियेसु छच्चेव। सुरणरतिरिए चउरो चोद्दस मणुएसु सदसहस्सा।।११०६।।
नित्य निगोद, इतरनिगोद, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इनकी सात लाख, वनस्पति की दस लाख, विकलेन्द्रियों की छह लाख, देव—नारकी और तिर्यंचों की चार—चार लाख और मनुष्यों को चौदह लाख योनियाँ हैं।
प्रश्न— आयु का स्वरूप प्रमाण द्वारा स्वामित्व का निरूपण करें ?
उत्तर— वारसवास सहस्सा आऊ सुद्धेसु जाण उक्कस्सं। खर पुढवि कायगेसु य वाससहस्साणि बावीसा।।११०७।।
पृथ्वीकायिक की उत्कृष्ट आयु बारह हजार वर्ष है और खर—पृथ्वीकायिक की बाईस हजार वर्ष है।
प्रश्न— जलकायिक और अग्निकायिक की आयु का प्रमाण कितना है ?
उत्तर— सत्त दु वाससहस्सा आऊ आउस्स होइ उक्कस्सं। रत्तिंदियाणि तिण्णि दु तेऊणं होइ उक्कस्सं।।११०८।।
जलकायिकों की उत्कृष्ट आयु सात हजार वर्ष है। अग्निकायिकों की उत्कृष्ट आयु तीन दिन—रात की है।
प्रश्न— वायुकायिक जीवों की और वनस्पतिकायिकों की उत्कृष्ट आयु कितनी है ?
उत्तर—तिण्णि दु वाससहस्सा आऊ वाउस्स होइ उक्कस्सं। दसवाससहस्साणि दु वणप्फदीणं तु उक्कस्सं।।११०९।।
वायुकायिक जीवों की उत्कृष्ट आयु तीन हजार वर्ष है और वनस्पतिकायिक जीवों की उत्कृष्ट आयु दश हजार वर्ष हैं
प्रश्न— विकलेन्दियों की आयु के प्रमाण का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— वारस वासा वेइंदियाणमुक्कस्सं भवे आऊ। राइंदियाणि तेइंदियाण मुगुवण्ण उक्कस्सं।।१११०।।
दो इन्द्रियों की बारह वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट आयु है। तीन इन्द्रियों की उनंचास रात—दिन की उत्कृष्ट आयु है।
प्रश्न— चार इन्द्रिय और पांच इन्द्रिय जीवों की आयु कितनी है ?
उत्तर— चउरिंदियाणमाऊ उक्कस्सं खलु हवेज्ज छम्मासं। पंचेंदियाणमाऊ एत्तो उइढं पवक्खामि।।११११।।
मच्छाण पुव्वकोडी परिसप्पाणं तु णवय पुव्वंगा। बादालीस सहस्सा उरगाणं होइ उक्कस्सं।।१११२।।
चार इन्द्रिय जीवों की छह मास की उत्कृष्ट आयु है। भ्रमर आदि चार इन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट आयु छह मास तक है। मत्स्यों की पूर्वकोटि, परिसर्पों की नवपूर्वांग और सर्पों की व्यालीस हजार वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट आयु है।
प्रश्न— पूर्व किसे कहते हैं ?
उत्तर— एक लाख वर्ष को चौरासी से गुणा करने पर पूर्वांग होता है। पूर्वांग को चौरासी लाख से गुणा करने पर पूर्व होता है। अर्थात् सत्तर लाख, छप्पन हजार करोड़ वर्षों (७०५६०००,०००००००) का एक पूर्व होता है।
प्रश्न— पक्षियों और असंज्ञी जीवों की उत्कृष्ट आयु का प्रमाण कितना है ?
उत्तर— पक्खीणं उक्कस्सं वाससहस्सा बिसत्तरी होंति। एगा य पुव्वकोडी असण्णीणं तह य कम्मभूमीणं।।१११३।।
भैरूढ आदि पक्षियों की उत्कृष्ट आयु बहत्तर हजार वर्ष है। असंज्ञी जीव और कर्मभूमि जीवों की उत्कृष्ट आयु एक काटि पूर्व वर्ष है।
प्रश्न— भोगभूमिजों की आयु कितने प्रमाण है ?
उत्तर— हेमवदवंसयाणं तहेव हेरण्णवंसवासीणं। मणुसेसु य मेच्छाणं हवदि तु पलिदोपमं एक्कं।।१११४।।
पाँच हैमवतक्षेत्र हैं, उनमें जघन्य भोगभूमि है। पाँच हैरण्यवत क्षेत्र हैं, उनमें भी जघन्य भोगभूमि हैं। इनमें होने वाले भोग—भूमिजों की उत्कृष्ट आयु एक पल्य है। सर्वम्लेच्छ खण्डों में होने वाले, भोगभूमि के प्रतिभाग में होने वाले अथवा अन्तद्र्वीप में होने वाले कुभोगभूमि के मनुष्य—इन सब की उत्कृष्ट आयु एक पल्योपम प्रमाण है।
प्रश्न— मध्यम भोगभूमिजों आदि की उत्कुष्ट आयु कितने प्रमाण है ?
उत्तर— हरिरम्मयवंसेसु य हवंति पलिदोवमाणि खलु दोण्णि।। तिरिएसु य सण्णीणं तिण्णि य तह कुरुवगाणं च।।१११५।।
हरिक्षेत्र और रम्यक क्षेत्रों में मध्यम भोगभूमि हैं। वहाँ के मनुष्यों एवं तिर्यंचों की उत्कृष्ट आयु तीन पल्योपम है। म्लेच्छ खण्ड के मनुष्यों की, कुभोगभूमि के मनुष्यों की तथा भोगभूमि—प्रतिभागज मनुष्यों की आयु एक पल्योपम है।
प्रश्न— नारकी और देवों की आयु प्रमाण कितना है ?
उत्तर— देवेसु णारयेसु य तेत्तीसं होंति उदधिमाणाणि। उक्कस्सयं तु आऊ वाससहस्सा दस जहण्णा।।१११६।।
देवों और नारकियों की उत्कृष्ट आयु तेंतीस सागर प्रमाण और जघन्य आयु दश हजार वर्ष है।
प्रश्न— नारकियों की उत्कृष्ट आयु का प्रमाण सर्व पृथ्वीयों में कितना है ?
उत्तर— एकं च तिण्णि सत्तय दस सत्तरसेव होंति बावीसा। तेत्तीसमुदधिमाणा पुढवीण ठिदीण मुक्कस्सं।।१११७।।
सात नरकों में क्रम से उत्कृष्ट आयु रत्नप्रभा में एक सागर, शर्कराप्रभा में तीन सागर, बालुकाप्रभा में सात सागर, पंकप्रभा में दश सागर, धूमप्रभा में सत्रह सागर, तम: प्रभा में बाईस सागर, और महातम: प्रभा में तेंतीस सागर प्रमाण है।
प्रश्न— सर्वपृथिवियों में नारकियों की (तथा कतिपय देवों की) जघन्य आयु का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— पढमादिय मुक्कस्सं बिदियादिसु साधियं जहण्णत्तं। धम्माय भवणिंवतर वाससहस्सा दस जहण्णं।।१११८।।
प्रथम आदि नरकों की जो उत्कृष्ट आयु है, द्वितीय आदि नरकों में वही कुछ अधिक जघन्य आयु है। धर्मा नामक पृथ्वी में तथा भवनवासी और व्यन्तरों में जघन्य आयु दश हजार वर्ष है। जैसे प्रथम नरक में जो उत्कृष्ट आयु है, द्वितीय नरक में एक समय अधिक वही आयु जघन्य हो जाती है। द्वितीय नरक में जो उत्कृष्ट आयु है उसमें एक समय मिलाकर वही तृतीय नरक में जघन्य हो जाती है।
प्रश्न— भवनवासी और व्यन्तरों की उत्कृष्ट आयु का प्रमाण कितना है ?
उत्तर— असुरेसु सागरोवम तिपल्ल पल्लं च णागभोमाणं। अद्धाद्दिज्ज सुवण्णा दु दीव सेसा दिवड्ढं तु।।१११९।।
असुरों में उत्कृष्ट आयु कए सागर, नागकुमार की तीन पल्य, व्यन्तरों की एक पल्य, सुपर्णकुमारों की ढाई पल्य, द्वीपकुमारों की दो पल्य और शेष कुमारों की डेढ़ पल्य प्रमाण है।
प्रश्न— ज्योतिषियों की जघन्य व उत्कृष्ट आयु तथा इन्द्रिादिकों की जघन्य आयु प्रमाण कितना है ?
उत्तर— पल्लट्ठभाग पल्लं च साधियं जोदिसाण जहण्णिदरम्। हेट्ठिल्लुक्कस्सठिदी सक्कादीणं जहण्णा सा।।११२०।।
ज्योतिषी देवों की जघन्य आयु पल्य के आठवें भाग है और उत्कृष्ट आयु कुछ अधिक एक पल्य है। नीचे के देवों की जो उत्कृष्ट आयु है वही वैमानिक इन्द्रादि की जघन्य आयु है।
प्रश्न— सौधर्मादिकों में उत्कृष्ट स्थिति क्या है ?
उत्तर— वे सत्तदसय चोद्दस अट्ठार वीस बावीसा। एयाधिया य एत्तो सक्कादिसु सागरुवमाणं।।११२१।।
सौधर्म और ईशान स्वर्ग में देवों की उत्कृष्ट आयु दो सागर है। यह कथन घातायुष्क की अपेक्षा के बिना है। घातायुष्क की अपेक्षा से यह अर्धसागर अधिक होकर ढाई सागर प्रमाण है। यह घातायुष्क की विवक्षा सहस्रार नामक बारहवें स्वर्ग तक है। अत: वहाँ तक में निम्न कथित उत्कृष्ट आयु में अर्धअर्ध सागर बढ़ा कर ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि सहस्रार के ऊपर घातायुष्क जीवों की उत्पत्ति का अभाव है अत: आगे बढ़ाना चाहिए। सानत्कुमार और माहेन्द्र में उत्कृष्ट आयु सात सागर है। ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर स्वर्गों में दश सागर है, किन्तु ब्रह्म स्वर्ग के लौकान्तिक देवों की उत्कृष्ट आयु आठ सागर है। लान्तव—कापिष्ठ में चौदह सागर है। शुक्र महाशुक्र में सोलह सागर है। शतार—सहस्रार में अठारह सागर है। आनत—प्राणत में बीस सागर और आरण—अच्युत्त स्वर्ग में बाईस सागर प्रमाण है। इससे आगे नवग्रैवेयकों में एक एक सागर अधिक होती गई हैं सुदर्शन नामक प्रथम गैवेयक में तेईस सागर, अमोघनामक द्वितीय ग्रैेयक में चौबीस सागर, सुप्रबुद्ध नामक तृतीय में पच्चीस सागर, यशोधर नामक चतुर्थ में छब्बीस सागर, सुभद्र नामक पाँचवें में सत्ताईस सागर, सुविशाल नामक छठे में अट्ठाईस सागर, सुमनस्य नामक सातवें में उनत्तीस सागर, सौमनस नामक आठवें में तीस सागर और प्रीतिंकर नामक नौवे ग्रैवेयक में इकत्तीस सागर उत्कृष्ट आयु है। आगे नव अनुदिशों में बत्तीस उत्कृष्ट आयु है। और सर्वार्थसिद्धि में उत्कृष्ट आयु तैतीस सागर प्रमाण है।
प्रश्न— सौधर्म आदि देवियों की उत्कृष्ट आयु का प्रमाण कितना है ?
उत्तर— पंचादी वेहिं जुदा सत्तावीसा य पल्ल देवीणं। तत्तो सत्तुत्तरिया जावदु अरणप्पयं कप्पं।।११२२।।
सौधर्म स्वर्ग में देवियों की उत्कृष्ट आयु पाँच पल्य है। ईशान स्वर्ग में सात पल्य, सानत्कुमार में नौ पल्य, माहेन्द्र स्वर्ग में ग्यारह पल्य, ब्रह्मोत्तर में पन्द्रह पल्य, लान्तव में सत्रह पल्य, कापिष्ठ में उन्नीस पल्य, शुक्र में इक्कीस पल्य, महाशुक्र में तेईस पल्य, शतरा में पच्चीस पल्य, सहस्रार में सत्ताईस पल्य, आनत में चौंतीस पल्य, प्राणत में इकतालीस पल्य, आरण में अड़तालीस पल्य, अच्युत में पचपन की उत्कृष्ट आयु हैं। अर्थात् पाँच पल्य से शुरू करके सहस्रार स्वर्ग की सत्ताईस पल्य तक दो—दो पल्य बढ़ाई गई है। पुन: आगे सात—सात पल्य बढ़ कर सोलहवें स्वर्ग में पचपन पल्य हो गयी है।
प्रश्न— देवियों की आयु के प्रमाण का दूसरा उपदेश बताइए ?
उत्तर— पणयं दस सत्तधियं पणवीयं तीसमेव पंचधियं। चत्तालं पणदालं पण्णाओ पण्णपण्णाओ।।११२३।।
सौधर्म और ईशान स्वर्ग में देवियों की उत्कृष्ट आयु पाँच पल्य है। सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में सत्रह पल्य है। ब्रह्म—ब्रह्मोत्तर में पच्चीस पल्य है। लान्तव—कापिष्ट में पैंतीस पल्य है। शुक्र—महाशुक्र में चालीस पल्य है। शतार—सहस्रार में पैंतालीस पल्य है। आनत प्राणत में पचास पल्य है और आरण— अच्युत में पचपन पल्य की उत्कृष्ट आयु है।
प्रश्न— ज्योतिषी देवों की स्वामित्वपूर्वक विशेष आयु का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— चंदस्स सदसहस्सं सहस्स रविणो सदं च सुक्कस्स। वासाधिए हि पल्लंलेहिट्ठं वरिसणामस्स।।११२४।।
चन्द्र की एक लाख वर्ष अधिक एक पल्य, सूर्य की सहस्र वर्ष अधिक एक पल्य, शुक्र की सौ वर्ष अधिक एक पल्य, बृहस्पति की सौ वर्ष कम एक पल्य आयु है।
प्रश्न— शेष ज्योतिषियों की आयु किस प्रकार है ?
उत्तर— सेसाणं तु गहाणं पल्लद्धं आउग मुणेयव्वं। ताराणं च जहण्णं पादद्धं पादमुक्कस्सं।।११२५।।
शेष ग्रहों की आयु अर्ध पल्य समझना। ताराओं की जघन्य आयु पाव पल्य का आधा है और उत्कृष्ट आयु पाव पल्य है।
प्रश्न— तिर्यंच और मनुष्यों की जघन्य आयु का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— सव्वेसिं अमणाणं भिण्णमुहुत्तं हवे जहण्णेण। सोवक्कमाउगाणं सण्णीणं चावि एमेव।।११२६।।
सभी असंज्ञी जीवों की आयु जघन्य से अन्तर्मुहुर्त है। सोपक्रम आयु वाले संज्ञी जीवों की भी अन्तर्मुहूर्त है।
प्रश्न— सोपक्रम क्या हैं ?
उत्तर— उपक्रम का अर्थ है—घात अर्थात् विष, वेदना, रक्त, क्षय, भय, संक्लेश, शस्त्रघाव उच्छ्वास, निश्वास का निरोध इन कारणों से आयु का घात होना उपक्रम है। ऐसे उपक्रम सहित आयु वाले अकाल मृत्यु वाले जीवों को सोपक्रम कहते हैं।
प्रश्न— जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कितना होता है ?
उत्तर— अन्तर्मुहूर्त के क्षुद्रभव मात्र अर्थात् उच्छ्वास के किंचित् न्यून अठारवें भाग मात्र समझना चाहिए।
प्रश्न— संख्यात प्रमाण का निरूपण करें ?
उत्तर— संखेज्जमसंखेज्जं विदियं तदियमणंतयं वियाणहि। तत्थ य पढमं णवहा णवहा हवे दोण्णि।।११२७।।
संख्यात : दो संख्या आदि को लेकर एक कर्म जघन्य परीत संख्यात पर्यन्त संख्या का नाम संख्यात है। यह श्रुतज्ञान का विषय है। जो संख्या को उल्लंघन कर चुका है वह असंख्यात है। वह अवधिज्ञान का विषय है। जो असंख्यात का भी उल्लंघन कर चुका है। वह अनन्त है। वह केवलज्ञान का विषय है। प्रथम संख्यात के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट की अपेक्षा तीन भेद हैं। असंख्यात के नौ भेद हैं और अनन्त के भी नौ भेद हैं।
प्रश्न— उपमा प्रमाण का प्रतिपादन करे ?
उत्तर— पल्लो सायर सूई पदरो य घणंगुलो य जगसेढी। लोग पदरो य लोगो अट्ठ दु माणा मुणेयव्वा।।११२८।।
पल्योपम, सागरोपम, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, धनांगुल जगत्छ्रेणी, लोकप्रतर और लोक ये आठ प्रकार का प्रमाण जानना चाहिए। दश कोड़ाकोड़ी अद्धापल्यों का एक अद्धासागर होता है। इस सागर से देव, नारकी, मनुष्य और तिर्यंच की कर्म स्थिति, भवस्थिति और आयु की स्थिति को जानना चाहिए।
प्रश्न— सूच्यंगुल किसे कहते हैं ?
उत्तर— अद्धापल्योपम को आधा करके पुन: उस आधे का आधा ऐसे ही एक रोम जब तक न आ जावे तब तक उसे आधा आधा करना। इस तरह करने से इस अद्धापल्य के जितने अद्र्धच्छेद होते हैं उतने मात्र बार अद्धापल्य को पृथक्—पृथक् रख कर पुन: उन्हें परस्पर में गुणित कर देने से जो प्रमाण आता है उतने मात्र आकाश प्रदेश की आवली के आकार में रची गयी लम्बी पंक्ति में जितने प्रमाण प्रदेश हैं उनको सूच्यंगुल कहते हैं।
प्रश्न— प्रतरांगुल किसे कहते हैं ?
उत्तर— सूच्यंगुल को सूच्यंगुल से गुणा करने पर जो प्रमाण आता है वह प्रतरांगुल है।
प्रश्न— घनांगुल किसे कहते हैं ?
उत्तर— प्रतरांगुल को सूच्यंगुल से गुणा करने पर घनांगुल होता है।
प्रश्न— राजू किसे कहते हैं ?
उत्तर— पच्चीस कोड़ाकोड़ी उद्धारपल्यों के जितने रूप हैं और एक लाख योजन के जितने उद्र्धच्छेद हैं उनमें एक रूप मिलाकर इन एक—एक को दुगुना करके पुन: परस्पर में गुणित करने से जो प्रमाण होता है। उसे राजू कहते हैं।
प्रश्न— जगत् श्रेणी किसे कहते हैं ?
उत्तर— सात राजू की एक जगच्छ्रेणी होती है। इस जगच्छ्रेणी से जगच्छ्रेणी को गुणा करने पर जगत्प्रतर होता है। जगत्प्रतर को जगत् श्रेणी से गुणा करने पर लोक का प्रमाण होता है।
प्रश्न— स्वामी की अपेक्षा योग का स्वरूप प्रतिपादन करें ?
उत्तर— वेइंदियादि भासा भासा य मणो य सण्णि कायाणं। एइंदिया य जीवा अमणाय अभासया होंति।।११२९।।
संज्ञी जीवों के काय योग, वचनयोग, मनोयोग ये तीन योग होते हैं। द्वीन्द्रिय से लेकर असैनी पंचेन्द्रिय पर्यंत जीवों के वचन योग और काययोग ये दो होते हैं तथा पृथ्वीकायिक से वनस्पतिकायिक पर्यंन्त एकेन्द्रिय जीवों में एक काय योग ही होता है। सिद्ध भगवान तीनों योगों से रहित होते हैं।
प्रश्न— स्वामी की अपेक्षा से वेद का स्वरूप प्रतिपादन करें ?
उत्तर— एइंदिय वियलिंदिय णारय सम्मुच्छिमा य खलु सव्वे। वेदे णपुंसगा ते णादव्वा होंति णियमादु।।११३०।।
स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद की अपेक्षा वेद के तीन भेद हैं। इन्हें लिंग भी कहते हैं। जिसमें गर्भ वृद्धिगंत होता है उसे स्त्री कहते हैं। जो पुरु अर्थात् श्रेष्ठ गुणों को जन्म देता है उसे पुरुष कहते हैं तथा जो न स्त्री है न पुरुष उसे नपुंसक कहते हैं। एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय, नारकी, सम्मूच्र्छन जन्म से उत्पन्न होने वाले पंचेन्द्रिय संज्ञी और असंज्ञी जीव इन सबके नियम से एक नपुंसक वेद ही होता है।
प्रश्न— स्त्रीलिंग और पुिंल्लग के स्वामी कौन हैं ?
उत्तर— देवा य भोगभूमा असंखवासाउगा मणुयतिरिया। ते होंति दोसुभेदेसु णत्थि तेसिं तदियवेदो।।११३१।।
भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पवासी ये चार प्रकार के देव, तीसों भोगभूमियों में उत्पन्न होने वाले तिर्यंच और मनुष्य, भोगभूमि प्रतिभाग में उत्पन्न हुए असंख्यात वर्ष की आयु वाले तथा सभी म्लेच्छ खण्डों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य और तिर्यंच स्त्रीिंलग और पुिंल्लग ही होते हैं। उनमें नपुंसक लिंग नहीं होता है।
प्रश्न— तीन लिंग वालों के स्वामी कौन हैं ?
उत्तर— पंचेंदिया तु सेसा सण्णि असण्णीय तिरिय मणुसा य। ते होंति इत्थिपुरिसा णपुंसगा चावि वेदेहिं।।११३२।।
पंचेन्द्रिय सैनी और असैनी तिर्यंच और मनुष्यों में स्त्री, पुरुष और नपुंसक लिंग—तीनों वेद होते हैं।
प्रश्न— देवगति में कौन से स्वर्ग तक देवियों का जन्म होता है ?
उत्तर— आ ईसाणा कप्पा उववादो होई देवदेवीणं। तत्तों परं तु णियमा उववादो होइ देवाणं।।११३३।।
भवनवासी, व्यन्तर ज्योतिष्क और सौधर्म—ईशान स्वर्ग तक देव और देवियों का उपपाद होता है। इसके ऊपर सनत्कुमार आदि स्वर्गों में देवों की ही उत्पत्ति सम्भव है। वहाँ देवांगनाओं की उत्पत्ति सम्भव नहीं है।
प्रश्न— यदि देवियाँ ईशान स्वर्ग तक ही उत्पन्न होती हैं तो उनका गमन कितनी दूरी पर्यन्त है ?
उत्तर— जावदु आरण अच्चुद गमणागमणं च होइ देवीणं। तत्तो परं तु णियमा देवीणं णत्थि से गमणं।।११३४।।
सोलहवें स्वर्ग पर्यन्त ही देवियों का गमनागमन होता है। उसके ऊपर नवग्रैवेयेक, नवअनुत्तर (नव अनुदिश) और पाँच अनुत्तरों में देवियों का गमन नहीं है।
कंदप्पमाभिजोगा देवीओ चावि आरण चुदोत्ति। लंतवगादो उवरिं ण संति संमोहखिब्भिसया।।११३५।।
कान्दर्प और आभियोग्य देव तथा देवियाँ आरण—अच्युत पर्यन्त ही हैं एवं लान्तव कल्प से ऊपर सम्मोह और किल्विषिक देव नहीं हैं।
प्रश्न— नरकों में कौन सी लेश्यायें होती हैं ?
उत्तर— काऊ काऊ तह काउणील णीला य णीलकिण्हा य। किण्हाय परमकिण्हा लेस्सा रदणादि पुढवीसु।।११३६।।
रत्नप्रभा नरक में नारकियों के कापोत लेश्या है। शर्कराप्रभा नरक में मध्यम कापोत लेश्या है। बालुका प्रभा में उपरिम भाग में उत्कृष्ट कापोत लेश्या है और नीचे पाथड़ों में जघन्य नील लेश्या है। पंकप्रभा नरक में मध्यम नील लेश्या है, धूमप्रभा में ऊपर के पाथड़ों में उत्कृष्ट नील लेश्या है और अधोभाग में पाथड़ों में जघन्य कृष्ण लेश्या है। तम: प्रभा ्नारक में मध्यम कृष्ण लेश्या है और महातम: प्रभा नामक सातवें नरक में उत्कृष्ट कृष्ण लेश्या है।
प्रश्न— लेश्या किसे कहते हैं ?
उत्तर— कषाय के उदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति का नाम लेश्या है।
प्रश्न— दवों के लेश्या भेद को बताइए ?
उत्तर— तेऊ तेऊ तह तेऊ पम्मा य पम्मसुक्का य। सुक्का य परमसुक्का लेस्साभेदोमुणेयव्वो।।११३७।।
जघन्य तेजो लेश्या, मध्यम तेजोलेश्या, उत्कृष्ट तेजो लेश्या और जघन्य पद्मलेश्या, मध्यम पद्मलेश्या, उत्कृष्ट पद्मलेश्या और जघन्य शुक्ललेश्या, मध्यम शुक्ललेश्या और परम शुक्ललेश्या ये लेश्याओं के भेद हैं।
प्रश्न— उपर्युक्त सात लेश्याओं के ये भेद किनके हैं ?
उत्तर— तिण्हं दोण्हं दोण्हं छण्हं दोण्हं च तेरसण्हं च। एतो य चोदसण्हं लेस्सा भवणादिदेवाणं।।११३८।।
भवनवासी, व्यंतरवासी और ज्योतिषी इन तीन प्रकार के देवों में जघन्य तेजो लेश्या है। सौधर्म—ऐशान स्वर्ग में देवों के मध्यम तेजोलेश्या होती है। सानत्कुमार और माहेन्द्र में देवों के उत्कृष्ट तेजोलेश्या और जघन्य पद्मलेश्या हैं। ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र और महाशुक्र इन छह स्वर्गों में देवों के मध्यम पद्मलेश्या है। शतार और सहस्रार स्वर्गों में देवों के उत्कृष्ट पद्मलेश्या और जघन्य शुक्ललेश्या है। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन चार कल्प और नव ग्रैवेयक इन तेरहों में मध्यम शुक्ललेश्या है। नव अनुत्तर अर्थात् अनुदिश और पाँच अनुत्तर इन चौदहों में परमशुक्ल है। ये लेश्याएँ सर्वत्र देवों के होती हैं यह यथाक्रम लगा लेना चाहिए।
प्रश्न— तिर्यंच और मनुष्यों में लेश्याभेदों को बताइए ?
उत्तर— एइंदियवियलिंदिय असण्णिणो तिण्णि होंति असुहाओ। संखादी दाऊणं तिण्णि सुहा छप्पि सेसाणं।।११३९।।
पृथिवीकायिक से लेकर वनस्पति पर्यन्त एकेन्द्रिय जीवों के द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के तथा शिक्षा अलाप आदि, और ग्रहण करने में अयोग्य ऐसे असैनी पंचेन्द्रिय जीवों के कापोत, नील और कृष्ण ये तीन अशुभ लेश्याएँ ही रहती हैं। भोगभूमिज और भोगभूमिप्रतिभागज जीव जो असंख्यात वर्ष की आयु वाले होते हैं, उनमें तेज, पद्म और शुक्ल ये तीन शुभलेश्याएँ ही होती हैं। शेष—कर्मभूमिज और कर्मभूमि प्रतिभागज पंचेन्द्रिय सैनी तिर्यंच तथा मनुष्यों में छहों लेश्याएँ होती हैं। यहाँ पर भी किन्हीं जीवों के द्रव्य लेश्या अपने आयु प्रमाण निश्चित है। किन्तु सभी जीवों की भाव लेश्या अन्तर्मुहूर्त में परिवर्तन करने वाली होती है, क्योंकि कषायों की हानि—वृद्धि से उनकी हानि वृद्धि जानना चाहिए।
प्रश्न— प्रवीचार कारण और इन्द्रिय विषयों का भेद प्रतिपादन करें ?
उत्तर— कामा दुवे तिओ भोग इंदियत्था विदूहिं पण्णत्ता। कामो रसा य फासो सेसा भोगेति आहीया।।११४०।।
स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द ये पाँच इन्द्रियों के विषय हैं। इनमें से स्पर्श और रस को काम तथा तीन को भोग शब्द से कहा है।
प्रश्न— देव आदि के प्रवीचार बताइए ?
उत्तर— आईसाणा कप्पा देवा खलु होंति कायपडिचारा। फासप्पडिचारा पुण सणक्कुमारे य माहिंदे।।११४१।।
तिर्यंच, मनुष्य, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी, सौधर्म स्वर्ग के देव तथा ईशान स्वर्ग तक के देव में काया से प्रवीचार होता है। पुन: सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में स्पर्श से कामसेवन होता है।
प्रश्न— ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ इन चार स्वर्ग के देवों के सुख का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— बंभे कप्पे बंभुत्तरे य तह लंतवे य कापिट्ठे। एदेसु य जे देवा बोधव्वा रूवपडिचारा।।११४२।।
ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ठ स्वर्गों के देव देवांगनाओं के शृंगार—चतुर और मनोज्ञ वेष तथा रूप के अवलोकन मात्र से ही परम सुख को प्राप्त हो जाते हैं तथा देवियाँ भी अपने देव के रूप अवलोकन से काम का अनुभव कर तृप्त हो जाती हैं।
प्रश्न— शब्द द्वारा काम सुख का अनुभव कौन करते हैं ?
उत्तर— सुक्कमहासुक्केसु य सदारकप्पे तहा सहस्सारे। कप्पे एदेसु सुरा बोधव्वा सद्दपडिचारा।।११४३।।
शुक्र, महाशुक्र, शतार और देवियाँ हैं वे शब्द सुनकर कामसुख का अनुभव करते हैं। अर्थात् वहाँ के देव अपनी देवांगनाओं के मधुर संगीत, मृदु ललित कथाएँ और भूषणों की ध्वनि के सुनने मात्र से ही परमप्रीति को प्राप्त कर लेते हैं।
प्रश्न— मन के द्वारा कामसुख का अनुभव कौन करते हैं ?
उत्तर— आणदपाणदकप्पे आरणकप्पे य अच्चुदे य तहा। मणपडिचारा णियमा एदेसु य होंति जे देवा।।११४४।।
आनत, प्राणत, आरण और अच्चुत इन कल्पों में देव मानसिक काम की अभिलाषा से प्राप्त सुख का अनुभव करते हैं।
प्रश्न— नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पंच अनुत्तरों में किस प्रकार का सुख है ?
उत्तर— तत्तो परं तु णियमा देवा खलु होंति णिप्पडीचारा। सप्पडिचारेहिं वि ते अणंतगुण सोक्खसंजुत्ता।।११४५।।
नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश तथा पाँच अनुत्तरों में जो देव हैं वे निश्चय से कामसेवन के सुख से रहित हैं। अर्थात् वे अहमिन्द्र कामाग्नि की दाह से विनिर्मुक्त हैं। फिर भी वे अनन्तगुणों से और अपने अधीन सभी आत्मप्रदेशों में उत्पन्न हुए आनन्द से संतृप्त रहते हैं।
प्रश्न— वीतराग सुख किससे श्रेष्ठ है ?
उत्तर— जं च कामसुहं लोए जं च दिव्वमहासुहं। वीदरागसुहस्सेदे णंतभागंपि णग्घंदि।।११४६।।
लोक में जो मनुष्यों का काम सुख है और जो देवों का दिव्य महासुख है वे वीतराग सुख के अनन्तवें भाग भी नहीं हो सकता। अत: वीतराग आत्मिक सुख सबसे श्रेष्ठ है।
प्रश्न— देवों में मानसिक आहार कितने दिनों में होता है ?
उत्तर— जदि सागरोवमाओ तदि वाससहस्सियादु आहारो। पक्खेहिं दु उस्सासो सागरसमयेहिं चेव भवे।।११४७।।
जिन देवों की जितने सागर प्रमाण आयु है उतने हजार वर्षों के बीत जाने पर उनके मानसिक आहार होता है। इन देवों के गन्ध का क्या है ? जितने सागर प्रमाण आयु है उतने पक्षों के व्यतीत हो जाने पर उच्छ्वास—निश्वास लेते हैं। सौधर्म और ऐशान में देवों के आहार संज्ञा कुछ अधिक दो हजार वर्ष के बीतने पर होती है। तथा कुछ अधिक एक महीने के बीत जाने पर उच्छ्वास होता है। सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग में देवों को कुछ अधिक सात हजार वर्षों के बीत जाने पर आहार की इच्छा होती है। एवं कुछ अधिक उतने ही पक्षों के बीतने पर उच्छ्वास होता है। देवियों का अन्तर्मुहूर्त पृथक्त्व से श्वासोच्छ्वास होता है।
प्रश्न— जिनकी पल्योपम की आयु है उनका आहार कैसा है ?
उत्तर— उक्कस्सेणाहारो वाससहस्साहिएण भवणाणं। जोदिसियाणं पुण भिण्णमुहुत्तेणेदि सेस उक्कस्सं।।११४८।।
भवनवासी देवों में से असुरकुमार जाति के देवों का आहार उत्कृष्ट की अपेक्षा पन्द्रह सौ वर्षों के बीतने पर होता है। चन्द्र, सूर्य आदि ज्योतिषी देवों का आहार अन्तर्मुहूर्त से होता है। शेष नौ प्रकार के भवनवासी देव और व्यन्तर देवों का एवं सर्वदेवियों का आहार अन्तर्मुहूर्त से होता है। किन्हीं—किन्हीं का अन्तर्मुहूर्त पृथक्त्व के बीतने पर आहार होता है।
प्रश्न— भवनत्रय का उच्छ्वास कैसा होता है ?
उत्तर— उक्कस्सेणुस्सासो पक्खेणहिएण होइ भवणाणं। मुहुत्तपुधत्तेण तहा जोइसणागाण भोमाणं।।११४९।।
भवनवासियों में से असुरकुमारों का कुछ अधिक पन्द्रह दिन के बीतने पर उच्छ्वास होता है। ज्योतिषी देव, नागकुमार देव एवं कल्पवासी देवियाँ—इनका उच्छ्वास अन्तर्मुहूर्त पृथक्त्व के बीतने पर होता है।
प्रश्न— देवों के अवधिज्ञान का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— सक्कीसाणा पढमं विदियं तु सणक्कुमारमाहिंदा। बंभालंतव तदियं सुक्कसहास्सारया चउत्थी दु।।११५०।।
पंचमि आणदपाणद छट्ठी आरणाच्चुदा य पस्संति। णवगेवज्जा सत्तमि अणुदिस अणुत्तरा य लोगंतं।।११५१।।
सौधर्म—ऐशान स्वर्ग के देव पहली पृथिवी तक, सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग के देव दूसरी तक, ब्रह्म युगल और लान्तव युगल स्वर्ग के देव तीसरी तक, शुक्र युगल और शतार सहस्रार स्वर्ग के देव चौथी पृथिवी तक अवधिज्ञान से देखते हैं। आणत—प्राणत के देव पाँचवी तक, आरण—अच्युत के छठी तक, नव ग्रैवेयक के इन्द्र सातवीं पृथिवी तक, अनुदिश और अनुत्तर के इन्द्र लोकान्त तक देख सकते हैं।
प्रश्न— व्यन्तर आदि के अवधि का विषय प्रतिपादन करें ?
उत्तर— पणवीस जोयणाणं ओही विंतरकुमार वग्गाणं। संखेज्ज जोयणेही जोदिसियाणं जहण्णं तु।।११५२।।
किन्नर आदि आठ प्रकार के व्यन्तरों और नागकुमार आदि नव प्रकार के भवनवासी देवों के अवधिज्ञान का विषय कम से कम पच्चीस योजन तक है। ज्योतिषी देवों के जघन्य अवधि संख्यात योजन अर्थात् सात—आठ योजन पर्यन्त ही है।
प्रश्न— असुर चन्द्र सूर्य आदि की जघन्य और सभी के उत्कृष्ट अवधि का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— असुराणमसंखेज्जा कोडी जोइसिय सेसाणं। संखादीदा य खलु उक्कस्सोहीयविसओ दु।।११५३।।
असुर देवों के और शेष ज्योतिषी देवों के जघन्य अवधि असंख्यात कोटि योजन है तथा उत्कृष्ट अवधि का विषय संख्यातीत कोटि योजन है।
प्रश्न— नारकियों की अवधि का विषय कितना है ?
उत्तर— रयणप्पहाय जोयणमेयं ओहीविसओ मुणेयव्वो। पुढवीदो पुढवीदो गाऊ अद्धद्ध परिहाणी।।११५४।।
रत्नप्रभा नरक में अविधिज्ञान का विषय चार कोश प्रमाण है। दूसरी पृथ्वी में आधा कोश घटाने से साढ़े तीन कोश तक है, तीसरी पृथ्वी में तीन कोश तक है, चौथी में ढाई कोश तक, पाँचवी में दो कोश तक, छठी में डेढ कोश तक और सातवीं पृथ्वी में एक कोश प्रमाण है। यह सम्यग्दृष्टि देवों के अवधि का विषय है किन्तु मिथ्यादृष्टि देवों के विभंगावधि का विषय इससे कम कम है।
प्रश्न— कौन—कौन जीव किस नरक तक जाते हैं ?
उत्तर— पढमं पुढविमसण्णी पढमं विदियं च सरिसवा जंति। पक्खी जावदु तदियं जाव चउत्थी दु उरसप्पा।।११५५।।
आ पंचमित्ति सीहा इत्थीओ जंति छट्ठिपुढवित्ति। गच्छंति माधवीत्ति य मच्छा मणुया य ये पावा।।११५६।।
असंज्ञी जीव पहली पृथवी तक, सरीसृप पहली और दूसरी पृथ्वी तक, पक्षी तीसरी पर्यन्त एवं उर: सर्प (सरक कर चलने वाले) चौथी पृथ्वी पर्यन्त जाते हैं। सिंह पाँचवी पृथ्वी तक, स्त्रियाँ छठी पृथ्वी तक जाते हैं तथा जो पापी मत्स्य और मनुष्य हैं वे सातवीं पृथ्वी पर्यन्त जाते हैं।
प्रश्न— सातवें नरक से निकला हुआ नारकी किस गति में जाता है ?
उत्तर— उव्वट्टिदाय संता णेरइया तमतमादु पुढवीदो। ण लहंति माणुसत्तं तिरिक्ख जोणी मुवणयंति।।११५७।।
सातवें नरक से निकलकर मनुष्य पर्याय को प्राप्त नहीं कर पाते हैं क्योंकि उनके परिणाम अत्यधिक संक्लेश के कारणभूत होते हैं। इसलिए वे पुनरपि पाप के लिए कारणभूत, सिंह, व्याघ्र आदि तिर्यंच योनि को ही प्राप्त करते हैं।
प्रश्न— सातवें नरक से निकलकर वे किन तिर्यचों में उत्पन्न होते हैं और वहाँ उत्पन्न हुए जीव पुन: कहाँ जाते हैं ?
उत्तर— वालेसु य दाढीसु य पक्खीसु य जलचरेसु उववण्णा। संखेज्ज आउठिदिया पुणेवि णिरयावहा होंति।।११५८।।
सातवीं पृथ्वी से निकलकर दाढ़वाले व्याल, सिहं आदि हिंसक जन्तु, पक्षी और जलचरों में जन्म लेकर पुनरपि नरक में जाते हैं।
प्रश्न— छठे नरक से निकलकर कहाँ उत्पन्न होते हैं और क्या प्राप्त करते हैं, क्या नहीं प्राप्त करते हैं ?
उत्तर— छट्ठीदो पुढवीदो उव्वट्ठिदा अणंतर भवम्हि। भज्जा माणुसलंभे संजम लंभेण दु विहीणा।।११५९।।
छठे नरक से निकले हुए नारकी अनन्तर भव में ही मनुष्य पर्याय को प्राप्त कर सकते हैं। और सम्यक्त्व की प्राप्ति कर भी सकते हैं और नहीं भी कर सकते हैं। किन्तु संयम की प्राप्ति उन्हें निश्चय से नहीं होती हैं।
प्रश्न— पाँचवी पृथ्वी से आकर कहाँ उत्पन्न हो सकते हैं और कहाँ नहीं जाते हैं ?
उत्तर— होज्जदु संजमलाभो पंचमखिदिणिग्गदस्स जीवस्स। णत्थि पुण अंतकिरिया णियमा भवसंकिलेसेण।।११६०।।
पाँचवें नरक से निकले हुए जीव को संयम की प्राप्ति हो सकती है किन्तु भव संक्लेश के कारण उसी भव से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
प्रश्न— चौथी पृथ्वी से आने वाले को कौन—सा पद प्राप्त हो सकता है ?
उत्तर— होज्जदु णिव्वुदिगमणं चउत्थिखिदिणिग्गदस्स जीवस्स। णियमा तित्थयरत्तं णत्थित्ति जिणेहिं पण्णत्तं।।११६१।।
चौथी भूमि से निकले हुए जीव का मोक्ष गमन हो जाए किन्तु नियम से तीर्थंकर पद नहीं हो सकता है।
प्रश्न— तीन नरक से निकले नारकियों को क्या प्राप्त हो सकता है ?
उत्तर— तेण परं पुढवीसु य भजणिज्जा उवरिमा हु णेरइया। णियमा अणंतरभवे तित्थयरत्तस्स उप्पत्ति।।११६२।।
चौथी पृथ्वी से परे पहली, दूसरी और तीसरी पृथ्वी से निकले हुए नारकियों को उसी भव से संयम का लाभ, मोक्ष की प्राप्ति और तीर्थंकर पद सम्भव है, इसमें निषेध नहीं हैं।
प्रश्न— सातों नरकों से आकर उसी भव से किन पदों को प्राप्त नहीं कर सकते हैं ?
उत्तर— णिरयेहिं णिग्गदाणं अणंतरभवम्हि णत्थि णियमादो। बलदेववासुदेवत्तणं च तह चक्कवट्ठित्तं।।११६३।।
सातों नरकों में से आये हुए जीवों को अनन्तर भव में ही बलदेव, नारायण, प्रतिनारायण और चक्रवर्ती पद नहीं मिलता है क्योंकि ये पद संयमपूर्वक ही होते हैं और संयमसहित जीव नरक में जा नहीं सकता है।
प्रश्न— इस गाथा में आचार्य भगवन् क्या कहते हैं?
उत्तर— उववादोवट्टणमा णेरइयाणं समासदो भणिओ। एत्तो सेसाणं पिय आगदिगदिमो पवक्खामी।।११६४।।
नारकियों के जन्म लेने का और निकलने का संक्षेप से कथन किया है, इसके आगे अब शेष जीवों की भी आगति और गति कहने की प्रतिज्ञा करते हैं।
प्रश्न— तिर्यंच और मनुष्य कहाँ उत्पन्न हो सकते हैं ?
उत्तर— सव्वमपज्जत्ताणं सुहुमकायाण सव्वतेऊणं। वाऊणमसण्णीणं आगमणं तिरियमणुसेहिं।।११६५।।
सभी लब्धि—अपर्याप्त जीवों में मनुष्य और तिर्यंच ही मरकर जन्म धारण करते हैं। तथा पृथिवी से लेकर वनस्पति पर्यन्त सभी सूक्ष्मकायिक अपर्याप्तकों में, अग्निकायिक, वायुकायिक बादर पर्याप्तक— अपर्याप्तकों में और असैनी जीवों में तिर्यंच और मनुष्य ही उत्पन्न होते हैं। इन पर्यायों में देव—नारकी, भोगभूमिज और भोगभूमि प्रतिभागज जीव उत्पन्न नहीं होते हैं।
प्रश्न— पृथिवीकायिक आदि जीव यहाँ से जाकर कहाँ उत्पन्न होते हैं ?
उत्तर— तिण्हं खलु कायाणं तहेव विगलिंदियाण सव्वेसिं। अवरिुद्धं संकमणं माणुसतिरिएसु य भवेसु।।११६६।।
पृथिवीकाय, जलकाय और वनस्पतिकाय इन तीनों के जीव तथा सभी पर्याप्तक और अपर्याप्तक विकलेन्द्रिय जीव मरण करके, वहाँ से आकर मनुष्य और तिर्यंच पर्यायों में ही उत्पन्न होते हैं।
प्रश्न— अग्निकायिक और वायुकायिक का संक्रमण कहाँ नहीं हो सकता है ?
उत्तर— सव्वेवि तेउकाया सव्वे तह वाउकाइया जीवा। ण लहंति माणुसत्तं णियमादु अणंतरभवेहिं।।११६७।।
सभी बादर—सूक्ष्म पर्याप्तक और अपर्याप्तक अग्निकायिक जीव तथा सभी बाद—सूक्ष्म पर्याप्तक— अपर्याप्तक वायुकायिक जीव उसी भव से मरणकर निश्चित ही मनुष्यपर्याय को प्राप्त नहीं कर पाते हैं।
प्रश्न— प्रत्येक वनस्पति, पृथिवीकाय और जलकाय बादरपर्याप्तक जीवों में कौन आ सकते हैं ?
उत्तर— पत्तेयदेह वणप्फइ वादरपज्जत्त पुढवि आऊय। माणुसत्तिरिक्खदेवेहिं चेव आइंति खलु एदे।।११६८।।
संक्लेश परिणाम वाले, आर्तध्यान में तत्पर हुए मिथ्यादृष्टि मनुष्य तिर्यंच और देव मरण करके आकर प्रत्येक वनस्पतिकायिक, पृथिवीकायिक और जलकायिक बादर पर्याप्तक जीवों में उत्पन्न होते हैं।
प्रश्न— असंज्ञी पर्याप्तक तिर्यंच जीव कहाँ—कहाँ उत्पन्न हो सकता है ?
उत्तर— अविरुद्धं संकमणं असण्णिपज्जत्तयाण तिरियाणं। माणुसतिरिक्खसुरणारएसु ण दु सव्वभावेसु।।११६९।।
असंज्ञी पर्याप्तक तिर्यंच जीव चारों ही गतियों में जाते हैं इसमें कोई विरोध नहीं है, किन्तु वे उनकी सभी पर्यायों में नहीं जाते हैं। अर्थात् असैनी जीव नरकों में पहली पृथिवी में ही उत्पन्न होते हैं, आगे नहीं, भवनवासी व्यंतर और ज्योतिषी देवों में ही उत्पन्न हो सकते हैं, वैमानिकों में नहीं, तथा भोगभूमिज, भोगभूमि प्रतिभागज व अन्य भी पुण्यवान् मनुष्य तिर्यंचों में उत्पन्न नहीं होते हैं।
प्रश्न— असंख्यात वर्ष आयु वाले कहाँ से आते हैं ?
उत्तर— संखादीदाओ खलु माणुसतिरिया दु मणुयतिरियेहिं। संखिज्जआउगेहिं दु णियमा सण्णीय आयंति।।११७०।।
भोगभूमिज और भोगभूमि प्रतिभागज मनुष्य और तिर्यंच असंख्यात वर्ष की आयु वाले होते हैं। कर्मभूमिज व कर्मभूमिप्रतिभागज मनुष्य संख्यात वर्ष की आयु वाले होते हैं। संख्यात वर्ष आयु वाले सैनी तिर्यंच व मनुष्य ही मरकर असंख्यात वर्ष की आयु वालों में जन्म लेते हैं, अन्य नहीं। क्योंकि वे दान की अनुमोदना से और दिये हुए दान के फल से ही वहाँ जाते हैं।
प्रश्न— असंख्यात वर्ष की आयु वाले मरकर किस गति में जाते हैं ?
उत्तर— संखादीदाऊणं संकमणं णियमदो दु देवेसु। पयडीए तणुकसाया सव्वेसिं तेण बोधव्वा।।११७१।।
असंख्यात वर्ष की आयु वाले भोगभूमिज और भोगभूमिज प्रतिभागज जीव मरकर नियम से देवों में ही उत्पन्न होते हैं। क्योंकि ये स्वभाव से ही मन्द कषायी होते हैं।
प्रश्न— कहाँ से आकर शलाकापुरुष होते हैं और कहाँ से आकर नहीं होते हैं ?
उत्तर— माणुस तिरियाय तहा सलागपुरिसा ण होंति खलु णियमा। तेसिं अणंतरभवे भजणिज्जं णिव्वुदीगमणं।।११७२।।
मनुष्य और तिर्यंच मरकर तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव अर्थात् त्रेसठ शलाका पुरुष नहीं हो सकते हैं। उनका उसी भव से मोक्ष प्राप्त करना भजनीय है, अर्थात् मनुष्यों को उसी भव से मुक्ति हो, न भी हो, अगले भव से भी हो, न भी हो किन्तु तिर्यंचों के उसी भव से मुक्ति है ही नहीं यह नियम है। वैसे तिर्यंचों में भी मुक्तिगम के कारणभूत सम्यक्त्व आदि हो सकते हैं।
प्रश्न— मिथ्यादृष्टियों का जन्म कहाँ होता है ?
उत्तर— सण्णि असण्णीण तहा वाणेसु य तह य भवणवासीसु। उववादो वोधव्वो मिच्छादिट्ठीण णियमादु।।११७३।।
सैनी और असैनी मिथ्यादृष्टि जीव मरण कर कदाचित् व्यंतरों में और कदाचित् भवनवासियों में जन्म ले सकते हैं और परिणाम के वश से अन्यत्र भी उत्पन्न हो सकते हैं।
प्रश्न— ज्योतिषी देवों में कौन उत्पन्न होते हैं ?
उत्तर— संखादीदाऊणं मणुयतिरिक्खाण मिच्छभावेण। उववादो जोदिसिए उक्कस्सं तावसाणं दु।।११७४।।
असंख्यात वर्ष प्रमाण आयु वाले मनुष्यों और तिर्यंचों का जन्म मिथ्यात्व भाव से भवनवासी आदि से लेकर ज्योतिषी देवों में होता है। कन्दफल आदि आहार करने वाले तापसियों का जनम उन्हीं ज्योतिषियों में शुभ परिणाम से उत्कृष्ट आयु लेकर होता है।
प्रश्न— आजीवक और पारिव्राजकों का शुभ परिणाम से कितनी दूर तक गमन होता है ?
उत्तर— परिवाय गाण णियमा उक्कस्सं होदि वंभलोगम्हि। उक्कस्सं सहस्सार त्ति होदि य आजीवगाण तहा।।११७५।।
पारिव्राजक संन्यासियों का उत्कृष्ट जन्म शुभ परिणाम से निश्चित ही भवनवासी से लेकर ब्रह्म नाम के पांचवें स्वर्ग पर्यंत होता है। तथा आजीवक साधुओं का जन्म मिथ्यात्व सहित सर्वोत्कृष्ट आचरण रूप शुभ परिणाम से भवनवासी आदि से लेकर सहस्रार पर्यंत होता है। और अन्य लिंगी—पाखण्डी साधुओं का जन्म भी शुभपरिणाम से भवनवासी आदि देवों में देखना चाहिए।
प्रश्न— निग्र्रंथ मुनि, र्आियका, श्रावक—श्राविका कौन से स्वर्ग तक जा सकते हैं ?
उत्तर— तत्तो परं तु णियमा उववादो णत्थि अण्णलिंगीणं। णिग्गंथसावगाणं उववादो अच्चुदं जाव।।११७६।।
उस सहस्रार स्वर्ग से आगे के कल्पों में नियम से अन्य पाखण्डियों का परम उत्कृष्ट आचरण होने पर भी जन्म नहीं होता है। निग्र्रंथ मुनियों का, श्रावकों का और र्आियकाओं का जन्म शुभ परिणाम रूप उत्कृष्ट आचरण से सौधर्म स्वर्ग से लेकर अच्युत नामक सोलहवें स्वर्ग पर्यंन्त निश्चित रूप से होता है।
प्रश्न— अभव्यजीव जिनलिंग से कितनी दूर तक जाते हैं ?
उत्तर— जा उवरिमगेवेज्जं उववादो अभवियाण उक्कस्सो। उक्कट्ठेण तवेण दु णियमा णिग्गंथलिंगेण।।११७७।।
अभव्य जीवों का उत्कृष्ट जन्म निग्र्रंथ मुद्रा धारण कर उत्कृष्ट तपश्चरण द्वारा भवनवासी से लेकर उपरिम ग्रैवेयक पर्यन्त होता है। यद्यपि मिथ्यात्व भाव उनमें है तो भी रागद्वेषादि के अभावरूप शुभ परिणाम से ही वहाँ तक जन्म होता है।
प्रश्न— नव अनुदिश और सर्वाथसिद्धि में कौन जाते हैं ?
उत्तर— तत्तो परं तु णियमा तवदंसणणाणचरण जुत्ताणं। णिग्गंथाणुववादो जावदु सव्वट्ठसिद्धित्ति।।११७८।।
नव अनुदिश से लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यनत सर्वसंग से परित्यागी निग्र्रंथ लिंगधारी, दर्शन ज्ञान चारित्र और तप से युक्त अचरमदेही शुभ परिणाम वाले मुनियों का जन्म होता है। अर्थात् निग्र्रंथ भावलिंगी मुनि सौधर्म स्वर्ग से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक उत्पन्न होते हैं।
प्रश्न— देव आकर कहाँ उत्पन्न होते हैं ?
उत्तर— आईसाणा देवा चएत्तु एइंदिएत्तणे भज्जा। तियित्तमाणुसत्ते भयणिज्जा जाव सहसारा।।११७९।।
भवनवासी से लेकर ईशान स्वर्ग तक के देव वहाँ से च्युत होकर कदाचित् आर्तध्यान से पृथिवीकायिक, जलकायिक और प्रत्येक वनस्पतिकायिक बादर एकेन्द्रियों में उत्पन्न हो सकते हैं। तथा परिणाम के वश से अन्य पर्यायों में भी अर्थात् पंचेन्द्रिय पर्याप्तक तिर्यंच मनुष्यों में उत्पन्न हो जाते हैं। किन्तु वे देव भोगभूमिज आदि मनुष्यों या तिर्यंचों में जन्म नहीं लेते हैं। उसके ऊपर तीसरे स्वर्ग से लेकर सहस्रार नाम के बारहवें स्वर्ग तक के देव च्युत होकर तिर्यंच या मनुष्यों में जन्म लेते हैं। अर्थात् ये देव एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते हैं।
प्रश्न— देवगति से किन पर्यायों में उत्पन्न नहीं होते ?
उत्तर— नारकी, देव, विकलेन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, सूक्ष्म, अपर्याप्तक, सर्व अग्निकायिक, वायुकायिक, भोगभूमिज आदि स्थानों में भी सभी देव उत्पन्न नहीं होते हैं।
प्रश्न— सहस्रार स्वर्ग के ऊपर के देवों का कहाँ जन्म होता है ?
उत्तर— तत्तो परं तु णियमा देवावि अणंतरे भवे सव्वे। उववज्जंजति मणुस्से ण तेसिं तिरिएसु उववादो।।११८०।।
सहस्रार स्वर्ग से ऊपर के सभी देव नियम से अगले भव में मनुष्य पर्याय में ही होते हैं। वे तिर्यचों में जन्म नहीं ले सकते हैं, क्योंकि वहाँ से च्युत होने के समय उनके अधिक संक्लेश का अभाव है।
प्रश्न— भवनत्रिक से आकर किस स्थान में नहीं जा सकते ?
उत्तर— आजोदिसं ति देवा सलागपुरिसा ण होंति ते णियमा। तेसिं अणंतरभवे भजणिज्जं णिव्वुदीगमणं।।११८१।।
भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देव वहाँ से च्युत होकर तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव ऐसे शलाकापुरुष नहीं होते हैं। उनकी उसी भव से मुक्ति होती है या नहीं भी होती है (सर्वथा निषेध नहीं है) शलाकापुरुषों में तीर्थंकर तो उसी भव से मोक्ष जाते हैं इसमें विकल्प नहीं है। चक्रवर्ती और बलदेव ये उसी भव से मुक्ति भी पा सकते हैं अथवा स्वर्ग जाते हैं। चक्रवर्ती नरक भी जा सकते हैं। वासुदेव और प्रतिवासुदेव ये नरक ही जाते हैं फिर भी ये महापुरुष स्वल्प भवों में मुक्ति प्राप्त करते ही हैं ऐसा नियम है।
प्रश्न— शलाका पुरुष कौन होते हैं ?
उत्तर— तत्तो परं तु गेवेज्जं भजणिज्जा सलागपुरिसा दु। तेसिं अणंतरभवे भजणिज्जा णिव्वुदीगमणं।।११८२।।
सौधर्म स्वर्ग से लेकर नव ग्रैवेयक तक के देव वहाँ से च्युत होकर शलाकापुरुष होते हैं, नहीं भी होते हैं। तथा वहाँ से आये हुए पुरुष अनन्तर भव से मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, कदाचित् नहीं भी करते हैं।
प्रश्न— अनुदिश और अनुत्तर देवों का जन्म कहाँ होता है ?
उत्तर— णिव्वुदिगमणे रामत्तणे य तित्थयरचक्कवट्टित्ते। अणुदिसणुत्तरवासी तदो चुदा होंति भयणिज्जा।।११८३।।
अनुदिश और अनुत्तरवासी देव उन विमानों से च्युत होकर कदाचित् तीर्थंकर होते हैं, या नहीं भी होते हैं कदाचित् बलदेव या चक्रवर्ती होते हैं, नहीं भी होते हैं। वे देव यहाँ आकर कदाचित् मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं अथवा नहीं भी कर पाते हैं। किन्तु वहाँ से च्युत हुए देव वासुदेव अर्थात् नारायण और प्रतिनारायण नहीं होते हैं, यह नियम है।
प्रश्न— सर्वार्थसिद्धि से देवों का कहाँ जन्म होता है ?
उत्तर— सव्वट्ठादो य चुदा भज्जा तित्थयरचक्कवट्टित्ते। रामत्तणेण भज्जा णियमा पुण णिव्वुदिं जंति।।११८४।।
सर्वार्थसिद्धि से च्युत हुए देव तीर्थंकर, चक्रवर्ती अथवा बलदेव होते हैं या नहीं भी होते हैं किन्तु वे नियम से मुक्ति प्राप्त करते हैं, इसमें विकल्प नहीं हैं।
प्रश्न— देव गति से आकर नियम से मुक्ति प्राप्त करने वाले कौन—कौन होते हैं ?
उत्तर— सक्को सहग्गमहिसी सलोगपाला य दक्खिणिंदा य। लोगंतिगा य णियमा चुदा दु खलु णिव्वुदिं जंति।।११८५।।
सौधर्म स्वर्ग का प्रथम इन्द्र शुक्र है, उसकी अग्र महिषी का नाम शची है। उसके चार दिशा सम्बन्धी सो, यम, वरुण और कुबेर ये चार लोकपाल होते हैं। दक्षिण दिशा सम्बन्धी दक्षिणेन्द्र हैं, वे सौधर्म इन्द्र तथा सानत्कुमार ब्रह्म, लान्त्व, शतार आनत और आरण के इन्द्र हैं। ब्रह्मलोक में निवास करने वाले लौकान्तिक कहलाते हैं। ये सब नियम से मोक्ष जाते हैं।
प्रश्न— मोक्ष की प्राप्ति किस गति में होती है और क्यों ?
उत्तर— एवं तु सारसमए भणिदा दु गदागदी मया विंâचि। णियमादु मणुसगदिए णिव्वुदिगमणं अणुण्णादं।।११८६।।
मोक्ष की प्राप्ति तो निश्चय से मनुष्य गति में होती है, अन्य गतियों में नहीं। क्योंकि अन्य गतियों में संयम का अभाव है। मनुष्य गति में ही संयम है।
प्रश्न— कौन कैसे होकर और क्या करके मोक्ष जाते हैं ?
उत्तर— सम्मद्दंसणणाणेहिं भाविदा सयलसंजमगुणेिंह। णिट्ठवियसव्वकमा णिग्गंथा विव्वुदिं जंति।।११८७।।
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से अपनी आत्मा को भावित करके तथा यथाख्यातसंयम की विशुद्धि से वृद्धिंगत हुए सर्व कर्मों का विनाश करके वे निग्र्रंथ महामुनि अनन्तचतुष्टय से सहित होकर निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं।
प्रश्न— मोक्ष सुख का अनुभव करते हुए कितने काल तक वहाँ ठहरते हैं ?
उत्तर— ते अजरमरुजममरमसरीरमक्खयमणुवमं सोक्खं। अव्वाबाधमणंतं अणागदं कालमत्थंति।।११८८।।
जिसमें वृद्धावस्था नहीं है वह अजर है। जिसमें रोग नहीं है वह अरुज है। जहाँ मरण नहीं है वह अमर है। औदारिक आदि पाँच शरीरों से रहित को अशरीर कहते हैं। क्षय रहित शाश्वत को अक्षय तथा अनन्तज्ञान दर्शन—सुख—वीर्य रूप उपमा रहित को अनुपम कहते हैं। अन्य के द्वारा जिसमें बाधा न हो वह अव्याबाध है। जो मुक्ति को प्राप्त हो चुके हैं वे सिद्ध भगवान अजर अरुज, अमर, अशरीर, अक्षय अनुपम, अव्याबाध और अनन्त सौख्य का अनुभव करते हैं तथा आने वाले अनन्त भविष्य काल पर्यन्त परमसुख में निमग्न हुए स्थित रहते हैं।
प्रश्न— स्थानाधिकार का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— एइंदियादि पाणा चोद्दस दु हवंति जीवठाणाणि। गुणठाणाणि य चोद्दस मग्गण ठाणाणिवि तहेव।।११८९।।
(१) एकेन्द्रियादिक प्रथम सूत्र है। (२) प्राण द्वितीय सूत्र है। (३) चौदह जीवस्थान तृतीय सूत्र है। (४) चौदह गुणस्थान चौथा सूत्र है। (५) चौदह मार्गणा स्थान पाँचवा सूत्र है। प्रश्न— मार्गणा, जीवस्थान और गुणस्थान के कितने कितने भेद हैं ? उत्तर— गदिआदि मग्गणाओ परूविदाओ य चोद्दसा चेव। एदेसिं खलु भेदा विंâचि समासेण वोच्छामि।।११९०।। गति आदि मार्गणाएँ चौदह ही हैं। एकेन्द्रिय आदि जीवस्थान चौदह है, मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान चौदह हैं।
प्रश्न— एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रियादिकों का कथन करें ?
उत्तर— एइंदियादि जीवा पंचविधा भयवदा दु पण्णत्ता। पुढवी कायादीदा विगला पंचेंदिया चेव।।११९१।।
संखो गोभी भमरादिया दु विगलिंदिया मुणेदव्वा। पंचेदिया दु जलथलखचरा सुरणारयणरा य।।११९२।।
एकेन्द्रिय जीव— (१) पृथिवीकायिक (२) जलकायिक (३) अग्निकायिक (४) वायुकायिक (५) वनस्पति कायिक द्वीन्द्रिय जीव : शंख, कौडी आदि। त्रीन्द्रिय जीव : चींटी, गोम, बिच्छु आदि। चतुरिन्द्रिय जीव : भ्रमर, पतंगा, मच्छर आदि। पंचेन्द्रिय जीव : जलचर, थलचर, नभचर, देव, नारकी, मनुष्य।
प्रश्न— प्राण कितने हैं ?
उत्तर— पंचय इंदियपाणा मणवचकाया दु तिण्णि बलपाणा। आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण होंति दस पाणा।।११९३।।
पाँच इन्द्रिय प्राण मन वचनकाय ये तीन बल प्राण तथा श्वासोच्छ्वास प्राण और आयु प्राण मिलकर दस प्राण होते हैं।
प्रश्न— एकेन्द्रिय से संज्ञी पंचेन्द्रिय तक जीवों को कितने प्राण होते हैं ?
उत्तर— इंदिय बल उस्सासा आऊ चदु छक्क सत्त अट्ठेव। एगिंदिय विगलिंदिय असण्णि सण्णीण णव दस पाणा।।११९४।।
एकेन्द्रिय के चार प्राण होते हैं—एक इन्द्रिय, कायबल, श्वोसाच्छ्वास और आयु। दो इन्द्रिय जीव के छह प्राण होते हैं—दो इन्द्रिय, काय बल और वचन बल उच्छ्वास और आयु। तीन इन्द्रिय जीव के सात प्राण होते हैं—तीन आयु, काय बल और वचन बल, उच्छवास और आयु चार इन्द्रिय जीव के आठ प्राण होते हैं—चार इन्द्रिय, दो बल, उच्छ्वास और आयु। असैनी पंचेन्द्रिय जीव के नौ प्राण होते हैं—पाँच इन्द्रिय, दो बल, उच्छ्वास और आयु। सैनी पंचेन्द्रिय जीव के दस प्राण होते हैं—पाँच इन्द्रिय, तीन बल, उच्छ्वास और आयु।
प्रश्न— जीवसमासों के कितने भेद हैं, प्ररूपण करें ?
उत्तर— सुहुमा वादरकाया ते खलु पज्जत्तया अपज्जत्ता। एइंदिया दु जीवा जिणेहिं कहिया चदुवियप्पा।।११९५।।
पज्जत्तापज्जत्ता वि होंति विगलिंदिया दु छब्भेया। पज्जत्तापज्जत्ता सण्णि असण्णीय सेसा दु।।११९६।।
(१) एकेन्द्रिय सूक्ष्म (२) एकेन्द्रिय बादर (३) दो इन्द्रिय जीव (४) तीन इन्द्रिय जीव (५) चार इन्द्रिय जीव (६) असैनी पंचेन्द्रिय (७) सैनी पंचेन्द्रिय इन सात भेद के पर्याप्तक और अपर्याप्तक कुल चौदह जीवसमास हैं।
प्रश्न— गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर— मोह और योग के निमित्त से आत्मा के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप गुणों की तारतम्य रूप (उत्तरोत्तर वर्धनशील) अवस्था विशेष को गुणस्थान कहते हैं।
प्रश्न— गुणस्थान के कितने भेद हैं विवेचन करें ?
उत्तर— मिच्छादिट्ठी सासादणो य मिस्सो असंजदो चेव। देसविरदो पमत्ता अपमत्तो तह य णायव्वो।।११९७।।
एत्तो अपुव्वकरणो अणियट्टी सुहुमसंपराओ य। उवसंतखीणमोहो सजोगिकेवलिजिणो अजोगी य।।११९८।।
गुणस्थान चौदह हैं (१) मिथ्यात्व, (२) सासादन, (३) सम्यग्मिथ्यात्व, (४) असंयत, (५) देशविरत, (६) प्रमत्तसंयत, (७) अप्रमत्तसंयत, (८) अपूर्वक, (९) अनिवृत्तिकरण, (१०) सूक्ष्म साम्पराय, (११) उपशान्तमोह, (१२) क्षीणमोह, (१३) सयोगिजिन, (१४) अयोगिजिन। (१) मिथ्यात्व : मिथ्या, असत्य—श्रद्धान का नाम मिथ्यादृष्टि है, अर्थात् विपरीत, एकान्त, विनय, संशय और अज्ञान इन पाँच भेद रूप मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न हुई है असत्य श्रद्धा जिनके वे मिथ्यादृष्टि हैं। अथवा मिथ्या, असत्य में दृष्टि, रुचि श्रद्धा, विश्वास है जिनको वे मिथ्यादृष्टि हैं जो अनेकान्त तत्त्व से विमुख रहते हैं। (२) सासादन : आसादना—सम्यक्त्व की विराधना के साथ जो रहता है वह सासादन है, अर्थात् जिसने सम्यग्दर्शन का तो विनाश कर दिया है और मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न हुए परिणाम मिथ्यात्व को अभी प्राप्त नहीं है किन्तु मिथ्यात्व के अभिमुख किया है वह सासादन गुणस्थानवर्ती है। (३) सम्यग् मिथ्यात्व : दृष्टि, श्रद्धा और रुचि ये एकार्थवाची हैं। समीचन और मिथ्या है दृष्टि—श्रद्धा जिसकी वह सम्यग्मिथ्यादृष्टि है। वह सम्यग्मिथ्यात्व नामक प्रकृति के उदय से उत्पन्न हुए परिणामों को धारण करता है। अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय प्राप्त स्पर्धकों का क्षय होने से और सत्ता में स्थित कर्मों का उदयाभावलक्षण उपशम होने से सम्यग्मिथ्यादृष्टि होता है। (४) असंयत—सम्यक् : समीचीन दृष्टि—श्रद्धा है जिसकी वह सम्यग्दृष्टि है और जो संयत नहीं वह असंयत है। ऐसे असंयत—सम्यग्दृष्टि के क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यक्त्व के भेद से तीन प्रकार हो जाते हैं। चार अनन्तानुबन्धी और तीन दर्शनमोहनीय इन सात प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक, इनके क्षयोपशम से क्षायोपशमिक और इनके उपशम से औपशमिक सम्यग्दर्शन होते हैं। (५) देशविरत : देशविरत को संयतासंयत भी कहते हैं। संयत और असंयत की मिश्र अवस्था का नाम संयतासंयत है। इसमें विरोध नहीं है क्योंकि एक जीव में एक साथ संयम और असंयम दोनों का होना त्रसस्थावरनिमित्तक है। अर्थात् एक ही समय में वह जीव त्रसहिंसा से विरत है और स्थावरहिंसा से विरत नहीं है इसलिए संयतासंयत कहलाता है। अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क के सर्वघाति—स्पर्धकों का उदयाभावलक्षण क्षय होने से और उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम होने से एवं प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का उदय होने से यह संयमासंयम गुणपरिणाम होता है : (६) प्रमत्तसंयत : जो सम—सम्यक् प्रकार ये यत—प्रयत्नशील हैं या नियन्त्रित हैं अर्थात् व्रतसहित हैं वे संयत हैं। तथा जो प्रमत्त भी हैं। और संयत भी हैं वे प्रमत्तसंयत कहलाते हैं। इसमें कोई विरोध नहीं हैं क्योंकि हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रह इन पापों से विरति का नाम संयम है। तथा यह संयम गुप्ति और समिति से अनुरक्षित होने से नष्ट नहीं होता है। अर्थात् प्रमाद संयमी मुनियों का संयम का नाश नहीं कर पाता है किन्तु मलदोष उत्पन्न करता रहता है इसलिए ये प्रमत्तसंयम कहलाते हैं। (७) अप्रमत्तसंयत : ये पन्द्रह प्रमाद से रहित होते हैं। यह गुणस्ािान भी क्षायोपशमिकभावरूप है। यहाँ पर प्रत्याख्यानावरण कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभावलक्षण क्षय, उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम और संज्वलन कषाय का उदय होने से यह गुणस्थान होता है इसलिए इसमें प्रत्याख्यान त्याग अर्थात् संयम की उत्पत्ति होती है। यहाँ ‘अप्रमत्त’ शब्द आदि दीपक है अत: आगे के सभी गुणस्थानों में प्रमत्त अवस्था है। (८) अपूर्वकरण : करण अर्थात् परिणाम, जो पूर्व में नहीं प्राप्त हुआ वह अपूर्व हैं। अपूर्व है परिणाम जिसके वह अपूर्वकरण है। उसके दो भेद हैं—उपशमक और क्षपक। ये कर्मों के उपशमन और क्षपण की अपेक्षा रखते हैं। क्षपक के क्षायिक भाव होता है और उपशमक के क्षायिक और औपशमिक दो भाव होते हैं। दर्शनमोहनीय के क्षय के बिना क्षपक श्रेणी में आरोहण करना बन नहीं सकता इसलिए क्षपक के क्षायिक भाव ही है तथा दर्शन मोहनीय के क्षय या उपशम के बिना उपशमश्रेणी में आरोहण करना नहीं हो सकता है अत: उपशमक के दोनों भाव हैं। (९) अनिवृत्तिकरण : समान समय में स्थित हुए जीवों के परिणामों के बिना भेद के वृत्ति—रहना अर्थात् उनमें भेद नहीं रहने से अनिवृत्तिकरण है। अथवा निवृत्ति—व्यावृत्ति नहीं है जिनकी वे अनिवृत्ति हैं उनके साथ हुआ चारित्र परिणाम अनिवृत्तिकरण गुणस्थान है। उसका नाम बादर—साम्पराय भी है। उसके भी दो भेद हैं—उपशमक और क्षपक। जो कुछ प्रकृतियों को उपशमित कर रहा है और कुछ प्रकृतियों का आगे करेगा ऐसे उपशमश्रेणी वाले के औपशमिक भाव हैं। तथा क्षपक कुछ प्रकृतियों का क्षपण करता है और आगे कुछ प्रकृतियों का क्षपण करेगा इसलिए उसके क्षायिक भाव होता है। इन गुणस्थानों में औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीनों भाव पाये जाते हैं। (१०) सूक्ष्मसाम्पाराय : सूक्ष्म हैं साम्पराय अर्थात् कषायें जिनकी वे सूक्ष्मसाम्पराय कहलाते हैं उनके सहचरित गुणस्थान सूक्ष्मसांपराय है, वह भी दो प्रकार का है उपशमक और क्षपक। सम्यक्त्व की अपेक्षा से क्षपक होते हैं। क्षपक के क्षायिक गुण हैं। औपशामिक के भी क्षायिक गुण हैं तथा उपशमक के क्षायिक और औपशमिक दोनों भाव हैं। जो किन्हीं प्रकृतियों का क्षय कर रहे हैं, किन्हीं का करेंगे और किन्हीं का कर चुके हैं वे क्षायिक भाव वाले क्षपक हैं। तथा जो किन्हीं प्रकृतियों का उपशम कर रहे हैं, किन्हीं का आगे करेंगे और किन्हीं का उपशम कर चुके हैं उनके औपशमिक भाव हैं। (११) उपशान्तमोह : यहाँ उपशान्त के साथ मोह शब्द लगा लेना चाहिए। इससे उपशान्त हो गया है मोह जिनका वे उपशान्तमोह हैं। उनमें सहचरित गुणस्थान भी उपशान्तमोह कहलाता है। जिन्होंने अखिल कषायों का उपशम कर दिया है वे औपशमिक भाव वाले हैं। (१२) क्षीणमोह : क्षीण अर्थात् विनष्ट हो गया है मोह जिनका वे क्षीणमोह हैं, उनसे सहचरित गुणस्थान भी क्षीणमोह होता है, द्रव्य और भावरूप दोनों प्रकार के मोहनीय कर्म का जडमूल से विनाश हो जाने से यहाँ पर क्षायिक भाव होते हैं। यहाँ तक के सभी जीव छद्मस्थ कहलाते हैं। (१३) सयोगकेवली : केवलज्ञान जिनके पाया जाए वे केवली हैं और जो योग के साथ रहते हैं वे सयोगकेवली जिन हैं। उनसे सहचरित गुणस्थान सयोगकेवली है। यहाँ सम्पूर्ण घातिया कर्म नष्ट हो चुके हैं, वेदनीय कर्म की फल देने की शक्ति भी समाप्त हो चुकी है। (१४) अयोकेवली : जिनके मन, वचन और काय के निमिति से आत्मा के प्रदेशों में परिस्पन्दात्मक द्रव्य भावरूप योग नहीं है वे अयोगी हैं, केवलज्ञान सहित वे अयोगी अयोगकेवलिजिन कहलाते हैं। उनसे सहचरित गुणस्थान भी अयोककेवलिजिन कहलाता है। यहाँ पर घातिकर्म का तो नाश हो ही चुका है किन्तु सम्पूर्ण अघाति कर्म भी क्षीण हो रहे हैं। वेदनीय भी नि:शामिक है इसलिए यह भी क्षायिक भावरूप है। अर्थात् ये अयोगकेवली बहुत ही अल्प काल में सर्वकर्मों का निर्मूलन करके सिद्ध अवस्था को प्राप्त होनेवाले होते हैं।
प्रश्न— मार्गणा किसे कहते हैं ?
उत्तर— मार्गण शब्द का अर्थ होता है अन्वेषण। अतएव जिन करणरूप परिणामों के द्वारा जीव का अन्वेषण किया जा सके उनको कहते हैं मार्गणा।
प्रश्न— मार्गणा के कितने भेद हैं ?
उत्तर— गइ इंदिये च काये जोगे वेदे कसाय णाणे य। संजम दंसण लेस्सा भविया सम्मत्त सण्णि आहारे।।११९९।।
गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्तव संज्ञी, आहार ये चौदह मार्गणाएँ हैं।
प्रश्न— मार्गणाओं में गुणस्थान का निरूपण करें ?
उत्तर— जीवाणं खलु ठााणाणि जाणि गुण सण्णिदाणि ठाणाणि। एदे मग्गण ठाणेसु चेव परिमग्ग दव्वाणि।।१२००।।
जीवस्थान अर्थात् जीवसमासों को और गुणस्थानों को मार्गणाओं में जो जहाँ सम्भव है उन्हें वहाँ घटित करना चाहिए।
प्रश्न— चतुर्गतियों में जीव समास का निरूपण करें ?
उत्तर—तरियगदीए चोद्दस हवंति सेसाणु जाण दो दो दु। मग्गणठाणस्सेदं णेयाणि समासठाणाणि।।१२०१।।
तिर्यंचगति में चौदह जीव समास होते हैं। शेष गतियों में सैनी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो दो हैं ऐसा जानो। मार्गणास्थानों में इन समासस्थानों का जानना चाहिए।
प्रश्न— चारों गतियों में कितने-कितने गुणस्थान होते हैं ?
उत्तर— सुरणारयेसु चत्तारि होंति तिरियेसु जाण पंचेव। मणुसगदीएवि तहा चोद्दसगुणणामधेयाणि।।१२०२।।
देव और नानकियों में मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयत पर्यन्त चार गुणस्थान होते हैं। तिर्यंचों में ये पहले चार और संयतासंयत इस प्रकार पाँच होते हैं। मनुष्यों में मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोग पर्यन्त चौदह गुणस्थान होते हैं।
प्रश्न— एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक जीवों का क्षेत्र प्रमाण प्रतिपादन करें ?
उत्तर— एइंदिया य पंचेन्दिया य उड्ढमहोतिरियलोएसु। सयलविगलिंदिया पुण जीवा तिरियंमि लोयंमि।।१२०३।।
एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव ऊध्र्वलोक में, अधोलोक और तिर्यग्लोक में होते हैं। किन्तु दो—इन्द्रिय, तीन—इन्द्रिय, चौ—इन्द्रिय, और असैनी पंचेन्द्रिय ये सभी जीव तिर्यग्लोक में ही हैं, अन्यत्र नहीं है। क्योंकि इनका नरकलोक में, देवलोक और सिद्धक्षेत्र में अभाव है।
प्रश्न— एकेन्द्रिय जीवों का क्षेत्र प्रमाण बताइए ?
उत्तर— एइंदियाय जीवा पंचविधा बादरा य सुहुमा य। देसेहिं बादरा खलु सुहुमेहिं णिरंतरो लोओ।।१२०४।।
एकेन्द्रिय के पृथिवीकाय से लेकर वनस्पति पर्यन्त पाँच भेद हैं। इन प्रत्येक के बादर और सूक्ष्म के भेद से दो—दो प्रकार हो जाते हैं। बादर जीव लोक के एकदेश में हैं क्योंकि ये वातवलयों में हैं, आठों पृथिवियों का एवं विमान पटलों का आश्रय लेकर ये रहते हैं तथा सूक्ष्म जीव इस सर्वलोक में पूर्णरूप से भरे हुए हैं, लोक का एक प्रदेश भी उनसे रहित नहीं है।
प्रश्न— सूक्ष्म जीव लोक के सम्पूर्ण भाग में ठसाठस भरे हैं कारण बताइए ?
उत्तर— अत्थि अणंता जीवा जेहिं ण पत्तो तसाण परिणामो। भावकलंकसुपउरा णिगोदवासं अमुंचंता।।१२०५।।
अनन्त जीव हैं जिन्होंने त्रसों की पर्याय को प्राप्त नहीं किया है। भावकलंक की अधिकता से युक्त होने से वे निगोदवास को नहीं छोड़ते हैं।
प्रश्न— निगोद के कितने भेद हैं ?
उत्तर— निगोद के दो भेद हैं—(१) नित्य निगोद और (२) चतुर्गतिनिगोद या इतरनिगोद। जिसने कभी त्रसपर्याय प्राप्त कर ली हो उसे चतुर्गति—निगोद कहते हैं। जिसने अभी तक कभी भी त्रस पर्याय नहीं पायी हो अथवा जो भविष्य में भी कभी त्रसपर्याय नहीं पायेगा उसे नित्यनिगोद कहते हैं।
प्रश्न— एक निगोदिया जीव के शरीर में कितने जीव रहते हैं ?
उत्तर— एगणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्पमाणदो दिट्ठा। सिद्धेहिं अणंतगुणा सव्वेण वितीदकालेण।।१२०६।।
गुरच आदि वनस्पतिकायिक के साधरणकाय में एक निगोद जीव के शरीर में अनन्तकायिक जीव द्रव्य प्रमाण रूप संख्या से सभी अतीतकाल के सिद्धों से भी अनन्तगुणे हैं।
प्रश्न— असंख्यात प्रदेशी लोक में ये अनन्त जीव वैâसे रहते हैं ?
उत्तर— अवगाह्य और अवगाहन की सामथ्र्य के माहात्म्य से ही ये अनन्त जीव असंख्यात प्रदेश वाले लोकाकाश में रह जाते हैं।
प्रश्न— एकेन्द्रिय जीवों का द्रव्य प्रमाण बताइए ?
उत्तर— एइंदिया अणंता वणप्फदीकायिगा णिगोदेसु। पुढवी आऊ तेऊ वाऊ लोया असंखिज्जा।।१२०७।।
निगोदों में वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीव अनन्त हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुकायिक जीव असंख्यात लोक प्रमाण है।
प्रश्न— त्रसकायिकों की संख्या बताइए ?
उत्तर— तसकाइया असंखा सेढीओ पदरछेदणिप्पणा। सेसासु मग्गणासु वि णेदव्वा जीवसमासेज्ज।।१२०८।।
त्रसकायिक जीव प्रतर के असंख्यात भाग प्रमाण ऐसी असंख्यात श्रेणी मात्र हैं।
प्रश्न— कुलों का वर्णन करें ?
उत्तर— वावीस सत्त तिण्णि य सत्त य कुलकोडि सदसहस्साइं। णेया पुढविदगागणिवाऊकायाण परिसंखा।।१२०९।।
कोडि सद सहस्साइं सत्तट्ठ य णव य अट्टवीसं च। वेइंदिय तेइंदियचउरिंदिय हरिदकायाणं।।१२१०।।
अद्धत्तेरस वारस दसयं कुलकोडिसदसहस्साइं। जलचर पक्खिचउप्पयउरपरिसप्पेसु णव होंति।।१२११।।
छव्वीसं पणवीसं चउदस कुलकोडि सहसहस्साइं। सुरणेरइयणराणं जहाकमं होइ णायव्वं।।१२१२।।
पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु काय के कुलों की संख्या क्रमश: बाईस लाख करोड़ सात लाख करोड़ तीन लाख करोड़ और सात लाख करोड़ जानना। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और वनस्पति काय इनके कुल सात कोटि लक्ष, आठकोटि लक्ष, नौ कोटिलक्ष और अट्ठाईस कोटिलक्ष हैं। जलचरों के कुल साढ़े बारह कोटिलक्ष, पक्षियों के बारह कोटिलक्ष, चतुष्पद—पशुओं के दश कोटिलक्ष और छाती के सहारे चलने वाले गोधा—सर्प आदि जीवों के कुल नौ कोटिलक्ष होते हैं। देव, नारकी और मनुष्य के कुल क्रम से छब्बीस करोड़ लाख, पच्चीस करोड़ लाख और बारह करोड़ लाख होते हैं।
प्रश्न— अल्पबहुत्व का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— मणुसगदीए थोवा तेहिं असंखिज्जसंगुणा णिरये। तेहिं असंखिज्जगुणा देवगदीए हवे जीवा।।१२१३।।
तेहिंतो णंतगुणा सिद्धिगदीए भवंति भवरहिया। तेहिंतो णंतगुणा तिरयगदीए किलेसंता।।१२१४।।
मनुष्य गति में सबसे कम जीव हैं। नरक में उनसे असंख्यात गुणे हैं और देवगति में उनसे भी असंख्यातगुणे जीव हैं। सिद्धगति में भवरहित सिद्ध जीव उन देवों से अनन्तगुणे अधिक हैं। तिर्यंचगति में क्लेश को भोगते हुए तिर्यंच जीव उन सिद्धों से भी अनन्तगुणे अधिक हैं।
प्रश्न— नरक गति में अल्प बहुत्व को बताइए ?
उत्तर— थोवा दु तमतमाए अणंतराणंतरे दु चरमासु। होंति असंखिज्जगुणा णारइया छासु पुढवीसु।।१२१५।।
सातवीं पृथिवी में नारकी सबसे थोड़े हैं। इस अन्तिम से अनन्तर—अनन्तर छहों पृथिवियों में नारकी असंख्यातगुण—असंख्यातगुणे होते हैं।
प्रश्न— तिर्यंचगति में अल्प बहुत्व को बताइए ?
उत्तर— थोवा तिरिया पंचेंदिया दु चउरिंदिया विसेसहिया। वेइंदिया दु जीवा तत्तों अहिया विसेसेण।।१२१६।।
तत्तो विसेसअहिया जीवा तेइंदिया दु णायव्वा। तेहिंतोणंतगुणा भवति बेइंदिया जीवा।।१२१७।।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच सबसे थोड़े हैं, चौइन्द्रिय जीव उनसे विशेष अधिक हैं, और दोइन्द्रिय जीव उनसे विशेष अधिक हैं। उनसे विशेष अधिक तीन इन्द्रिय जीव जानना चाहिए और उनसे भी अनन्तगुणे एकेन्द्रिय जीव होते हैं।
प्रश्न— मनुष्य गति में अल्पबहुत्व को बताइए ?
उत्तर— अंतरदीवे मणुया थोवा मणुयेसु होंति णायव्वा। कुरुवेसु दससु मणुया संखेज्जदुणा तहा होंति।।१२१८।।
तत्तो संखेज्जगुणा मणुया हरिरम्मएसु वस्सेसु। तत्तो संखिज्जगुणा हेमवदहरिण्णवस्साय।।१२१९।।
भरहेरावदमणुया संखेज्जगुणा हवंति खलु तत्तो। तत्तो संखिज्जगुणा णियमादु विदेहगा मणुया।।१२२०।।
सम्मुच्छिमा य मणुया होंति असंखिज्जगुणा य तत्तो दु। ते चेव अपज्जत्ता सेसा पज्जत्तया सव्वे।।१२२१।।
मनुष्यों में अन्तद्वीपों में सबसे थोड़े मनुष्य होते हैं तथा पाँच देवकुरु, पाँच उत्तरकुरु हमें मनुष्य संख्यातगुणे होते हैं। पुन: पाँच हरिक्षेत्र और पाँच रम्यक््â क्षेत्रों में मनुष्य संख्यातगुणे अधिक हैं। पाँच हैमवत और पाँच हैरण्यवत क्षेत्रों के मनुष्य इससे संख्यातगुणे हैं। उससे संख्यातगुणे पाँच भरत और पाँच ऐरावत के मनुष्य होते हैं तथा पाँचों विदेहक्षेत्रों के मनुष्य नियम से उनसे संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातगुणे सम्मूच्र्छन मनुष्य होते हैं। ये ही अपर्याप्तक हैं, जबकि शेष सभी पर्याप्तक हैं।
प्रश्न— देवगति में अल्पबहुत्व को बताइए ?
उत्तर— थोवा विमाणवासी देवा देवी य होंति सव्वेवि। तेहिं असंखेज्ज गुणा भवणेसु य दसविहा देवा।।१२२२।।
तेहिं असंखेज्ज गुणा देवा खलु होंति वाणवेंतरिया। तेहिं असंखेज्जगुणा देवा सव्वेवि जोदिसिया।।१२२३।।
विमानवासी देव और देवियाँ, ये सभी थोड़े होते हैं, उनसे असंख्यात गुणे भवनवासियों में दश प्रकार के देव हैं। उनसे असंख्यातगुणे व्यंतर देव होते हैं। उनसे असंख्यातगुणे सभी ज्योतिष्क देव हैं।
प्रश्न— देवों का गुणस्थान द्वारा निरूपण करें ?
उत्तर— अणुदिसणुत्तरदेवा सम्मादिट्ठीय होंति बोधव्वा। तत्तो खलु हेट्ठिमया सम्मामिस्सा य तह सेसा।।१२२४।।
अनुदिश और अनुत्तर के देव सम्यग्दृष्टि होते हैं ऐसा जानना। इनसे नीचे के देव सम्यक्तव और मिथ्यात्व इन दोनों वाले होते हैं तथा शेष जीव भी दोनों से मिश्रित होते हैं।
प्रश्न— बन्ध के कारण क्या हैं ?
उत्तर—मिच्छादंसण अविरदि कसाय जोगा हवंति बंधस्स। आऊसज्झवसाणं हेदवो ते दु णायव्वा।।१२२५।।
मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और योग ये बन्ध के कारण हैं। ये परिणाम आयु बंध के भी कारण हैं।
प्रश्न— बंध किसे कहते हैं ?
उत्तर— जीवो कसायजुत्तो जोगादो कम्मणो दु जे जोग्गा। गेण्इह पोग्गलदव्वे बंधो सो होदि णायव्वो।।१२२६।।
कषाय सहित जीव योग से कर्म के जो योग्य हैं ऐसे पुद्गल द्रव्यों को ग्रहण करता है वह बन्ध है।
प्रश्न— बन्ध के कितने भेद हैं ?
उत्तर— पायडिट्ठिदि अणुभागप्पदेसबंधो य चदुविहो होइ। दुविहो य पयडिबंधो मूलो तह उत्तरो चेव।।१२२७।।
प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप से बन्ध चार प्रकार का होता है, और प्रकृतिबन्ध दो प्रकार का है—मूलप्रकृति बन्ध तथा उत्तरप्रकृतिबन्ध है।
प्रश्न— कर्म की मूल प्रकृतियाँ कितनी हैं ?
उत्तर— णाणस्स दंसणस्य य आवरणं वेदणीय मोहणियं। आउगणामा गोदं तहंतरायं च मूलाओ।।१२२८।।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये आठ मूलप्रकृतियाँ हैं।
प्रश्न— आठ कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ कितनी हैं ?
उत्तर— पंच णव दोण्णि अट्ठावीसं चदुरो तहेव वादालं। दोण्णि य पंच य भणिया पयडीओ उत्तरा चेव।।१२२९।।
ज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियाँ हैं, दर्शनावरण की नौ प्रकृतियाँ हैं, वेदनीय की दो प्रकृतियाँ हैं, मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृतियाँ हैं, आयु की चार प्रकृतियाँ हैं, नाम की तिरानवे प्रकृतियाँ हैं, गोत्र की दो प्रकृतियाँ है और अंतराय की पाँच प्रकृतियाँ हैं। इस प्रकार से एक सौ अड़तालीस उत्तर प्रकृतियाँ होती हैं।
प्रश्न— ज्ञानावरण के पाँच भेद कौन से हैं ?
उत्तर— आभिणिबोहियसुदओहीमण पज्जयकेवलाणं च। आवरणं णाणाणं णादव्वं सव्वभेदाणं।।१२३०।।
अभिनिबोधिकज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण मन: पर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण ये पाँच ज्ञानावरण के भेद हैं।
प्रश्न— दर्शनावरण के नौ भेद कौन—कौन से हैं ?
उत्तर— णिद्दाणिद्दा पयलापयला तह थीणगिद्धि णिद्दा य। पयला चक्खु अचक्खु ओहीणं केवलस्सेदं।।१२३१।।
निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, सत्यानगृद्धि, निद्रा और प्रचला तथा चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण, ऐसे नौ भेद दर्शनावरण के हैं।
प्रश्न— वेदनीय और मोहनीय की उत्तरप्रकृतियों का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— सादमसादं दुविहं वेदणियं तहेव मोहणीयं च। दंसणचरित्तमोहं कसाय तह णोकसायं च।।१२३२।।
तिण्णिय दुवेय सोलस णवभेदा जहाकमेण णायव्वा। मिच्छत्तं सम्मत्तं सम्मामिच्छत्तामिदि तिण्णि।।१२३३।।
साता और असाता से देवनीय के दो भेद हैं। मोहनीय के दर्शनमोह और चारित्रमोह ये दो भेद हैं। तथा क्रम से दर्शनमोहनीय के तीन एवं चारित्रमोहनीय के कषाय और नोकषाय ये दो भेद हैं। कषाय के सोलह और नो—कषाय के नौ भेद जानना चाहिए। दर्शनमोह के मिथ्यात्व, सम्यक्त्व तथा सम्यक् मिथ्यात्व ये तीन भेद भी होते हैं।
प्रश्न— सोलह कषायों के नाम बताइए ?
उत्तर— कोहो माणो माया लोहोणंताणुबंधिसण्णा य। अप्पच्चक्खाण तहा पच्चक्खाणो य संजलणो।।१२३४।।
क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन रूप होने से सोलह हो जाते हैं। प्रश्न— नोकषाय के भेदों का निरूपण करें ? उत्तर— इत्थीपुरिसणउंसयवेदा हास रदि अरदि सोगो य। भयमेतो य दुगंछा णवविह तह णोकसायभेयं तु।।१२३५।। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा ये नोकषायों के नौ भेद हो जाते हैं।
प्रश्न— आयु और नाम कर्म की प्रकृतियों के भेदों को बताइए ?
उत्तर— णिरियाऊ तिरियाऊ माणुसदेवाण होंति आऊणी। गदिजादिसरीराणि य बंधणसंघाद संठाणा।।१२३६।।
संघडणंगोवंगं वण्णरसगंधफासमणुपुव्वी। अगुरुलहुगुवघादं परघादमुस्सास णामं च।।१२३७।।
आदावुज्जोदविहायगइजुयलतस सुहुमणामं च। पज्जत्तसाहरणजुग थिरसुह सुहगं च आदेज्जं।।१२३८।।
अथिरअसुहदुब्भगयाणादेज्जं दुस्सरं अजसकित्ती। सुस्सरजसकित्ती विय णिमिणं तित्थयर णामबादालं।।१२३९।।
नरकायु, तिर्यंचायु, मानुषायु और देवायु ये आये के चार भेद हैं। (१) गति, (२) जाति, (३) शरीर, (४) बन्धन, (५) संघात, (६) संस्थान, (७) संहनन, (८) अंगोपांग, (९) वर्ण, (१०) रस, (११) गंध, (१२) स्पर्श, (१३) आनुपूर्वी, (१४) अगुरुलघु, (१५) उपघात, (१६) परघात, (१७) उच्छ्वास, (१८) आतप, (१९) उद्योत, (२०) विहायोगति, (२१) त्रस, (२२) स्थावर, (२३) सूक्ष्म, (२४) बादर, (२५) पर्याप्त, (२६) अपर्याप्त, (२७) साधारण, (२८) प्रत्येक, (२९) स्थिर (३०) शुभ, (३१) सुभग, (३२) आदेय, (३३) अस्थिर, (३४) अशुभ, (३५) दुर्भग, (३६) अनोदय (३७) दु:स्वर, (३८) अयशस्र्कीित, (३९) सुस्वर, (४०) यशस्र्कीित, (४१) निर्माण और (४२) तीर्थंकरत्व ये ब्यालीस भेद नामकर्म के है।
प्रश्न— गोत्र और अन्तराय प्रकृतियों के भेद बताइए ?
उत्तर— उच्चाणिच्चागोदं दाणं लाभंतराय भोगो य। परिभोगो विरियं चेव अंतरायं च पंचविहं।।१२४०।।
गोत्र के उच्चगोत्र और नीचगोत्र ऐसे दो भेद हैं। अन्तराय के दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ऐसे पाँच भेद हैं।
प्रश्न— कर्म प्रकृतियों के स्वामी का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— सयअडयालपईणं बंधं गच्छंति वीसअहियस। सव्वे मिच्छादिट्ठी बंधदि नाहारतित्थयरा।।१२४१।।
एक सौ अड़तालीस प्रकृतियों में से एक सौ बीस प्रकृतियाँ बन्धयोग हैं। अट्ठाईस अबन्ध प्रकृतियाँ हैं। पाँच शरीरबन्धन, पाँच शरीर संघात, चार वर्ण, चार रस, एक गंध, सात स्पर्श तथा सम्यक्तव और सम्यग्मिथ्यात्व इस प्रकार ये अट्ठाईस प्रकृतियाँ बन्धयोग्य नहीं हैं। इनके अतिरिक्त शेष एक सौ बीस प्रकृतियों में से आहारद्विक और तीर्थंकर ये तीन प्रकृतियाँ कम करने से मिथ्यादृष्टि जीव एक सौ सत्रह प्रकृतियाँ बाँधता है, अर्थात् मिथ्यादृष्टि इन प्रकृतियों का स्वामी है। तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध सम्यक्त्व से होता है और आहारकद्वय का संयम से होता है इसलिए मिथ्यादृष्टि जीव इन्हें नहीं बाँधते हैं।
प्रश्न— सासादन आदि गुणस्थानों में बन्ध योग्य प्रकृतियों की विवेचना करें ?
उत्तर— वज्जिय तेदालीसं तेवण्णं चेव पंचवण्णं च। बंधइ सम्मादिट्ठी दं सावओ संजदो तहा चेव।।१२४२।।
चौदह गुणस्थानों में बंध योग्य प्रकृतियाँ— प्रथम गुणस्थान में एक सौ सत्रह प्रकृतियाँ बन्ध योग्य हैं, दूसरे सासादन गुणस्थान में एक सौ एक प्रकृतियाँ तीसरे गुणस्ािान में चौहत्तर प्रकृतियाँ, चौथे गुणस्थान में सत्तहत्तर प्रकृतियाँ पांचवे गुणस्थान में सडसठ प्रकृतियाँ छोटे गुणस्ािान में तिरेसठ प्रकृतियाँ सातवे गुणस्थान में उनसठ प्रकृतियाँ आठवें गुणस्थान में अट्ठावन प्रकृतियाँ नौवे गुणस्थान में बाईस प्रकृतियाँ दसवें गुणस्थान में सत्रह प्रकृतियाँ ग्यारहवें गुणस्थान में एक प्रकृति बारह गुणस्थान में एक प्रकृति, तेरह गुणसिवान में एक प्रकृति बंधयोग्य हैं।
प्रश्न— आठ कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति बंध का प्ररूपण करें।
उत्तर— तिण्हं खलु पढमाणं उक्कस्सं अंतरायस्सेव। तीसं कोडाकोडी सायरणामाणमेव ठिदी।।१२४३।।
मोहस्स सत्तरिं खलु बीसं णामस्स चेव गोदस्स। तेतीसमाउगाण उवमाओ सायराणं तु।।१२४४।।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। ये कर्म रूप हुए पुद्गल इतने काल तक कर्म अवस्था में रहते हैं और इसके बाद कर्मस्वरूपता को छोड़कर निर्जीर्ण हो जाते हैं। मोह की सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम, नाम और गोत्र की बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम और आयु की तेतीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है।
प्रश्न— आठ कर्मों की जघन्य स्थिति कितनी हैं ?
उत्तर— बारस य वेदणीए णामगोदाणमट्ठय मुहुत्ता। भिण्णमुहुत्तं तु ठिदीं जहण्णयं सेस पंचण्हं।।१२४५।।
वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त है। नाम और गोत्र कर्म की जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त है। शेष ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, आयु और अन्तराय इन पाँच कर्मों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र है।
प्रश्न— अनुभाग बंध किसे कहते हैं ?
उत्तर— कम्माणं जो दु रसो अज्झवसाणजणिद सुह असुहो वा। बंधो सो अणुभागो पदेसबंधो इमो होइ।।१२४६।।
ज्ञानावरण आदि कर्मों का परिणामों से होने वाला जो रस अनुभव है। वह अनुभागबन्ध है। अर्थात् क्रोध—मान—माया लोभ कषायों की तीव्रता आदि परिणामों से उत्पन्न होने वाला सुखदायक और दुखदायक अनुभव अनुभाग बन्ध कहलाता है। जैसे बकरी, गाय, भैंस आदि के दूध में तीव्र, मन्द भाव से रस माधुर्य विशेष होता है वैसे ही कर्म पुद्गलों में तीव्र आदि भाव से जो शुभ अथवा अशुभ अपने में होने वाली सामथ्र्य विशेष है वह अनुभाग बन्ध है।
प्रश्न— प्रदेश बन्ध किसे कहते हैं ?
उत्तर— सुहुमे जोगविसेसेण एगखेत्तावगाढठिदियाणं। एक्केक्के दु पदेसे कम्मपदेसा अणंता दु।।१२४७।।
ज्ञानावरणादि कर्मरूप से होने वाले पुद्गल—स्कन्धों के परमाणुओं की जो संख्या है उसे प्रदेश बंध कहते हैं। जो पुद्गल सूक्ष्म हैं, मन वचन काय के विशिष्ट व्यापार रूप योग विशेष से आत्मा के साथ एक क्षेत्रागाही हैं।
प्रश्न— उपशमनविधि और क्षपण विधि की विवेचना करें ?
उत्तर— मोहस्सावरणाणं खयेण अह अंतरायस्स य एव। उव्वज्जइ केवलयं पयासयं सव्वभावाणं।।१२४८।।
मोह के विनाश से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय के विनाश से सर्वद्रव्य और पर्यायों को जानने वाला केवलज्ञान उत्पन्न होता है। उपशमन विधि : अनन्तानुबन्धी क्रोध—मान—माया—लोभ, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यङ मिथ्यात्व इन सात प्रकृतियों का असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और अप्रमत्तसंयत में से कोई एक गुणस्थानवर्ती जीव उपशमन करता है। उसमें यह अध:करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण इन तीन करणों को करता है अर्थात् दो कारण करने के पश्चात् अनिवृत्तिकरण के काल में संख्यात भागरूप काल के व्यतीत हो जाने पर विशेषघात से नष्ट किया जाने वाला ऐसा अनन्तानुबन्धी चतुष्क स्थितिसत्कर्म उपशम को करता है। अपने स्वरूप को छोड़कर अन्य प्रकृति रूप से स्थित हो जाना अनन्तानुबन्धी का उपशम है। पुन: वही जीव अध:करण और अपूर्वकरण परिणाम को करके अनिवृत्तिकरण में संख्यात भाग बीत जाने पर दर्शनमोह की तीन प्रकृतियों का उदयाभावरूप उपशमता है अर्थात् उपशम को प्राप्त होने पर भी इनका उत्कर्ष, अपकर्ष और परप्रकृतिरूप संक्रमण का अस्तित्व होता है। यह उपशम का विधान हुआ। अर्थात् चौथे, पाँचवे, छठे या सातवें गुणस्थान में से किसी में इन तीन—तीन करणरूप परिणामों द्वारा उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करके अध: प्रवृत्तिकरण नामवाले सातवें गुणस्थान का अन्तर्मुहूर्त काल बिताकर अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में आ जाता है। अपूर्वकरण में एक भी कर्म का उपशम नहीं होता है किन्तु इस अपूर्वकरण परिणाम वाला जीव प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि से परिणामों की शुद्धि को वृद्धिंगत करता रहता है। अत: अन्तर्मुहूर्त से एक—एक स्थितिखण्ड का घात करता हुआ संख्यात लाख स्थितिखण्डों का घात कर देता है और उतने प्रमाण ही स्थिति बन्धापसरण भी करता है। इन एक—एक स्थिति बन्धापसरणों के मध्य संख्यात हजार अनुभागखण्डकों का घात होता है और प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणी रूप से कर्मपरमाणुओं की निर्जरा होती है। वह जीव अप्रशस्त कर्मांशों को नहीं बाँधता है बल्कि उनके प्रदेशाग्रों को असंख्यातगुण श्रेणीरूप से बद्धमान अन्य प्रकृतियों में संक्रमण करा देता है। पुन: अपूर्वकरण का काल बिताकर, अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करके, अन्तर्मुहूर्त मात्र तक इसी विधि से स्थित होकर बारह कषाय और नौ नोकषायों का अन्तर करता है। इसमें अन्तर्मुहूर्त लगता है। अन्तर करने के बाद, पहले समय से ऊपर अन्तर्मुहूर्त जाकर असंख्यातगुणश्रेणी द्वारा नपुंसक वेद का उपशम करता है। इसके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त काल से नपुंसकवेदोपशम विधि से ही स्त्रीवेद का उपशम करता है। अन्तर उसी विधि के अनुसार छह नोकषायों का और चिरन्तन सत्कर्म के साथ रह रहे पुंवेद का भी युगपत् उपशम कर देता है। इसमें भी अन्तर्मुहूर्त काल लगता है। तदनन्तर एक समय, कम दो आवली के बीत जाने पर पुरुषवेद के नवक बन्ध का उपशम करता है। पुन: अन्तर्मुहूर्त के बाद अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान संज्ञक क्रोध का और चिरन्तन सत्कर्म के साथ संज्वलन क्रोध का एक साथ उपशम कर देता है। पुन: एक समय कम दो आवली प्रमाण काल के व्यतीत हो जाने पर, क्रोधसंज्वलन के नवक बन्ध का उपशम करता है। अनन्तर अन्तर्मुहूर्त के बाद, अप्रत्याख्या—मान और प्रत्याख्यान मान का एवं चिरन्तम सत्कर्म के साथ संज्वलन—मान का असंख्यात गुणश्रेणी से एक साथ उपशम करता है। इसके बाद एक समय कम दो आवली काल के अनन्तर मान के संज्वलन के नवक बन्ध का उपशम करता है। इसके बाद प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणी के द्वारा अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर दो प्रकार की माया का और चिरन्तन सत्कर्म के साथ संज्वलन—माया का एक साथ उपशम कर देता है। पुन: एक समय कम दो आवली के बीत जाने पर माया संज्वलन के नवक बन्ध का उपशम करता है। पुन: अन्तर्मुहूर्त के बाद दो प्रकार के लोभ का और चिरन्तन सत्कर्म के साथ संज्वलन लोभ का उपशम कर देता है। अथवा लोभवेदक से द्वितीय त्रिभाग में जो सूक्ष्मकृष्टिरूप लोभ है उसे छोड़कर स्पद्र्धकगत सर्वबादर लोभ, जो कि सर्वनवक बन्ध की उच्छिष्टावलि से र्विजत है, का अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के अन्त समय में यह जीव उपशम कर देता है। इस तरह नपुंसकवेद से लेकर लोभसंज्वलन तक इन प्रकृतियों का यह अनिवृत्तिकरण में उपशमक होता है। इसके अन्तर सूक्ष्मकृष्टिरूप लोभ का अनुभव करता हुआ अनिवृत्तिसंज्ञक गुणस्थान से आगे बढ़कर सूक्ष्मसाम्पराय हो जाता है। यह जीव अपने इस गुणस्थान के चरम समय में सूक्ष्म किट्टिका रूप संज्वलन लोभ को पूर्णतया उपशान्त कर देता है। तब उपशान्तकषाय गुणस्थान में वीतराग छद्मस्थ हो जाता है। उदय, उदीरणा, उत्कर्षण, अपकर्षण, परप्रकृतिसंक्रमण, स्थित्यनुभागखण्ड घात के बिना यह स्थान, अपने नाम के अनुरूप ही है। अर्थात् इसका उपशान्त नाम सार्थक है। यह मोहनीय कर्म के उपशमन की विधि कही गयी। क्षपण विधि— बन्ध के प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रदेश ये चार भेद हैं। तथा ज्ञानावरण आदि मूलभेद आठ और उनके उत्तरभेद एक सौ अड़तालीस हैं। इन सबका नाश करना क्षपण है। इनके नाश होने पर जीव ज्ञानज्योति स्वरूप अपने अनन्त गुणों को प्राप्त कर लेता है। अनन्तानुबन्धी क्रोधमान—माया लोभ, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन सात प्रकृतियों का असंयत सम्यग्दृष्टि संयतासंयत, प्रमत्तसंयत अथवा अप्रमत्तसंयत मुनि क्षय कर देता है। क्या एक साथ क्षय कर देता है। नहीं, पहले वह अध: प्रवृत्तकरण और अपूर्वकरण पुन: अनिवृत्तिकरण नामक तृतीय करण के चरम समय में अनन्तानुबन्धी चतुष्क का एक साथ क्षपण कर देता है। इसके अनन्तर पुन: अध: प्रवृत्तिकरण और अपूर्वकरण का समय बिताकर अनिवृत्तिकरण काल में भी संख्यातभाग व्यतीत हो जाने पर मिथ्यात्व कर्म का विनाश करता है। उसके बाद अन्तर्मुहूर्त काल व्यतीत करके सम्यकङ् मिथ्यात्व का क्षपण करता हैं। पुन: अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर सम्यक्त्व प्रकृति का विनाश करता है। तब उन्हें क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है। अर्थात् यह क्षायिक सम्यक्त्व चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक किसी में भी हो सकता है। ये तीन करण सम्यक्त्व के लिए होते हैं। अनन्तर छठा गुणस्थानवर्ती मुनि सातवें गुणस्थान में पहुँचकर उस अध:प्रवृत्तिकरण नामक सातवें गुणस्थान के अन्तर्मुहूर्त काल को व्यतीत कर अपूर्वकरण नामक आठवाँ गुणस्थान प्राप्त कर लेता है। वह अपूर्वकरण मुनि एक भी कर्म का क्षपण नहीं करता है, किन्तु समय—समय के प्रति असंख्यातगुणरूप से कर्म प्रदेशों की निर्जरा करता है। अन्तर्मुहूर्त काल के भीतर ही असंख्यात हजार स्थितिखण्डों का घात कर देता है। और वह उतने मात्र ही स्थितिबन्धापसरणों को कर लेता है। उनसे भी असंख्यात हजार गुणे अनुभागखण्डों का घात करता है, क्योंकि एक अनुभागखण्डकोत्कीर्ण काल से एकस्थिति— खण्कोत्कीर्ण काल संख्यात गुणा अधिक होता है। यह विधि करके वह मुनि अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थान में प्रवेश करके इस गुणस्थान का संख्यात भाग काल अपूर्वकरण के विधान से ही बिताकर पुन: अनिवृत्तिकरण का संख्यातभाग काल शेष रह जाने पर सत्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, नरकगति, तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियजाति, नरकगति, प्रयोग्यानुपूव्र्य, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूव्र्य, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियों का क्षय कर देता है। पुन: अन्तर्मुहूर्त काल व्यतीत कर अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों का क्रम से क्षपण करता है—सो यह ‘कर्मप्राभृत’, ग्रंथ का उपदेश है, किन्तु ‘कषायप्राभृत’ का ऐसा उपदेश है कि आठ कषायों का नाश कर देने पर पुन: अन्तर्मुहूर्त काल के अनन्तर सोलह कर्म प्रकृतियों का अथवा बारह कर्मों का नाश करता है। पापभीरू भव्यों को इन दोनों उपदेशों को ग्रहण करना चाहिए। अर्थात् केवली या श्रुतकेवली के अभाव में आज दोनों में से एक का सही निर्णय नहीं हो सकता है अत: हम और आपके लिए दोनों ही उपदेश प्रमाण के योग्य हैं। इसके बाद अन्तर्मुहूर्त काल बिताकर चार संज्वलन और नौ नोकषायों का अन्तर करता है—उदय सहित कर्मों को अन्तर्मुहूर्त मात्र प्रथम स्थिति में स्थापित करता है और जिनका उदय नहीं है ऐसे अनुदयकर्मों (संज्वलन और नौ नोकषायों) को एक समय कम आवलिमात्र प्रथम स्थिति में स्थापित करता है। इसके बाद अन्तर करके अन्तर्मुहूर्त काल में नपुंसकवेद का क्षपण करता है। इसके अन्तर्मुहूर्त काल के बाद स्त्रीवेद का क्षय करता है। पुन: अन्तर्मुहूर्त व्यतीत कर छह नोकषायों का और चिरन्तन सत्कर्म के साथ वेद का सवेद भाग के द्विचरम समय में युगपत् विनाश कर देता है। पुन: आवलीमात्र काल बाद पुंवेद का क्षपण करता है। पुन: अन्तर्मुहूर्त काल से क्रोधसंज्वलन का क्षय करता है। पुन: अन्तर्मुहूर्त काल से मानसंज्वलन का क्षय करता है। पुन: अन्तर्मुहूर्त से मायासंज्वलन का क्षय करता है। पुन: अन्तर्मुहूर्त काल बिताकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है। इस दशवें गुणस्थान में वह चरमसमय में किट्टिकागत सम्पूर्ण लोभसंज्वलन का क्षय कर देता है। इसके अन्तर वह क्षीणकषाय निग्र्रंथ हो जाता है। वहाँ पर भी वह अन्तर्मुहूर्तकाल व्यतीत करके अपने इस बारहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों का क्षपण करता है। इसके बाद अन्तिम—चरमसमय में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तराय इन चौदह प्रकृतियों का विनाश करता है। इस प्रकार इन त्रेसठ कर्मप्रकृतियों के सर्वथा विनष्ट हो जाने पर वह मुनि सयोगी जिन केवली हो जाता है।
प्रश्न— जिन भगवान किन कर्मों का क्षपणा करते हैं, उनका निरूपण करें ?
उत्तर— तत्तोरालियदेहो णामा गोदं च केवली युगवं। आऊण वेदणीयं चदुहिं खिविइत्तु णीरओ होइ।।१२४९।।
वे अयोगकेवली जिन भगवान् औदारिक शरीर, नाम, गोत्र, आयु और वेदनीय इन कर्मों का एक साथ क्षय करके कर्म रजरहित सिद्ध भगवान् हो जाते हैं।
प्रश्न— श्री कुंदकुंदाचार्य ने शिष्य वर्ग को किस प्रकार से आज्ञा दी है ?
उत्तर— एसो में उवदेसो संखेवेण कहिदो जिणक्खादो। सम्मं भावेदव्वो दायव्वो सव्वजीवाणं।।कुंद. मूला.।।
जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित यह उपदेश मैंने संक्षेप में कहा है। हे शिष्यगण ! तुम लोग मन–वचन—काय की एकाग्रतापूर्वक इस उपदेश की भावना करो और इसे सभी जीवों का प्रदान करो।
दइदूण सव्वजीवे दमिदूण या इंदियाणि तह पंच। अट्ठविहकम्मरहिया णिव्वाणमणुत्तरं जाथ।। कुन्द. मूला.।।
हे मुनिगण ! तुम सभी जीवों पर दया करके तथा स्पर्शन आदि पाँचों इन्द्रियों का दमन करके, आठ प्रकार के कर्मों से रहित होकर सर्वोत्कृष्ट निर्वाण पद प्राप्त करो।
प्रश्न—समयसार अधिकार के मंगलाचरण में किनको नमस्कार किया हुआ है ?
उत्तर—वंदित्तु देवदेवं तिहुअणमहिदं च सव्व सिद्धाणं। वोच्छामि समयसारं सुण संखेवं जहावुत्तं।।८९४।। समयसार अधिकार के मंगलाचरण में त्रिभुवन से पूजित अरहंत देव सर्व और सिद्धों को नमस्कार किया हुआ है। प्रश्न—समयसार किसे कहते हैं ? उत्तर—सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्र और तप का नाम समय है और इनका सार चारित्र है।
प्रश्न—श्रमण शीघ्र ही सिद्धि को कैसे प्राप्त कर सकते हैं ?
उत्तर—दव्वं खेत्तं कालं भावं च पडुच्च संघडणं। जत्थ हि जददे समणो तत्थ हि सिद्धिं लहुंलहइ।।८९५।। श्रमण जहाँ पर भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और संहनन की अपेक्षा करके उद्यम करते हैं, वहाँ पर सिद्धि को शीघ्र ही प्राप्त कर सकते हैं। जिस किसी स्थान में भी मुनि यदि शरीर शुद्धि और आहार शुद्धि का आश्रय लेकर, रात्रि आदि में गमन नहीं करने रूप काल शुद्धि एवं असंयम आदि के परिहार रूप भाव शुद्धि का आश्रय लेकर के तथा शरीर संहनन आदि को भी समझकर चारित्र का अच्छी तरह पालन करते हैं तो वे चाहें बहुज्ञानी हो या अल्पज्ञानी, सिद्धि को शीघ्र ही प्राप्त कर लेते हैं। जिस कारण से ऐसी बात है उसी हेतु से यह समयसार रूप चारित्र द्रव्य क्षेत्र आदि के आश्रय से सावधानी पूर्वक धारण किया जाता है। इसलिए द्रव्यकल, क्षेत्रबल, कालबल और भावबल का आश्रय लेकर तपश्चरण करना चाहिए। तात्पर्य यही है कि जिस तरह से वात पित्त कफ आदि कुपित नहीं हो, वैसा प्रयत्न करना चाहिए, यही सार—समयसार का सारभूत कथन है।
प्रश्न—वैराग्य ही मय का सार कैसे है ?
उत्तर—धीरो वइरग्गपरो थोवं हि य सिक्खिदूण सिज्झदि हु। ण य सिज्झदि वेरग्गविहीणो पढिदूण सव्वसत्थाइं।।८९६।। धीर, वैराग्य में तत्पर मुनि निश्चित्त रूप से थोड़ी भी शिक्षा पाकर सिद्ध हो जाते हैं किन्तु वैराग्य से हीन मुनि सर्व शास्त्रों को पढ़कर भी सिद्ध नहीं हो पाते हैं।
प्रश्न— सम्यक चारित्र के आचरण हेतु किस प्रकार का उपदेश है ?
उत्तर—भिक्खं चर वस रण्णे थोवं जेमेहि मा बहू जंप। दु:खं सह जिण णिद्दा मेत्तिं भावेहि सुट्ठु वेरग्गं।।८९७।। अव्ववहारी एक्को झाणे एयग्गमणो भवे णिरारंभो। चत्तकसायपरिग्गह पयत्तचेट्ठो असंगो य।।८९८।। हे मुनि ! तुम भिक्षावृत्ति से भोजन करो, वन में रहो, अल्प भोजन करो, बहुत मत बोलो, दु:ख सहन करो, निद्रा को जीतो, एवं मैत्री तथा दृढ़ वैराग्य की भावना करो। हे साधो ! तुम लोक व्यवहार से रहित होओ, ज्ञान दर्शन को छोड़कर अन्य कुछ भी मेरा नहीं है ऐसी एकत्व की भावना भाओ। धर्मध्यान और शुक्लध्यान में एकाग्र चित्त होओ। अंतरंग और बहिरंग परिग्रह को छोड़ो। सर्वथा सावधानीपूर्वक क्रियाएँ करो तथा किसी के साथ भी संगति मत करो।
प्रश्न—मुख्य रूप से चारित्र ही प्रधान क्यों है ?
उत्तर—थोवह्यि सिक्खिदे जिणइ बहुसुदं जो चरित्तसंपुण्णो। जो पुण चरित्तहीणो िंक तस्स सुदेण बहुएण।।८९९।। जोे चरित्र से परिपूर्ण है वह थोड़ा शिक्षित होने पर भी बहुश्रुतधारी को जीत लेता है किन्तु जो चारित्र से रहित है उसके बहुत से श्रुत से भी क्या प्रयोजन ?
प्रश्न— भवसागर तिरने का उपाय बताइए ?
उत्तर—णिज्जावगो य णाणं वादो झाणं चरित्त णावा हि। भवसागरं तु भविया तरंति तिहिसण्णिपायेण।।९००।। खेवटिया ज्ञान है, वायु ध्यान है और नौका चारित्र है। इन तीनों के संयोग से ही भव्य जीव भवसागर को तिर जाते हैं।
प्रश्न—किस कारण से मोक्ष की प्राप्ति होती है ?
उत्तर— णाणं पयासओ तओ सोधओ संजमो य गुत्तियरो। तिण्हं पि य संपजोगे होदि हु जिणसासणे मोक्खो।।९०१।। ज्ञान प्रकाशक है, तप शोधक है, और संयम रक्षक है। इन तीनों के मिलने पर ही जिनशासन में मोक्ष की प्राप्ति होती है।
प्रश्न—ज्ञान, लिंग अथवा तप इनमें से एक—एक के द्वारा मोक्षफल मिल सकता है ?
उत्तर—णाणं करणविहीणं लिंगग्गहणं च संजमविहूणं। दंसणरहिदो य तवो जो कुणइ णिरत्थयं कुणइ।।९०२।। क्रिया रहित ज्ञान, संयम रहित वेषधारण और सम्यक्त्व रहित तप को जो करते हैं सो व्यर्थ ही है।
प्रश्न—सम्यग्ज्ञान आदि से युक्त तप और ध्यान का माहात्म्य बताइए ?
उत्तर—तवेण धीरा विधुणंति पावं अज्झप्पजोगेण खवंति मोहं। संखीणमोह्य धुदरागदोसा ते उत्तमा सिद्धिगदिं पयंति।।९०३।। धीर मुनि तप से पाप नष्ट करते हैं, अध्यात्मयोग से मोह का क्षय करते हैं। पुन: वे उत्तम पुरुष मोह रहित और राग द्वेष रहित होते हुए सिद्धगति को प्राप्त कर लेते हैं।
प्रश्न—ध्यान का माहात्म्य बताइए ?
उत्तर—लेस्साझाण तवेण य चरियविसेसेण सुग्गई होइ। तह्या इदराभावे झाणं संभावए धीरो।।९०४।। लेश्या, ध्यान और तप के द्वारा एवं चर्या विशेष के द्वारा सुगति की प्राप्ति होती है इसलिए अन्य के अभाव में धीर मुनि ध्यान की भावना करें।
प्रश्न— सम्यग्दर्शन का माहात्म्य बताइए ?
उत्तर—सम्मत्तादो णाणं णाणादो सव्वभावउवलद्धी। उवलद्धपयत्थो पुण सेयासेयं वियाणादि।।९०५।। सम्यक्त्व से ज्ञान होता है, ज्ञान से सभी पदार्थों का बोध होता है और सभी पदार्थों को जानकर पुरुष हित–अहित जान लेते हैं।
प्रश्न—श्रेय—अश्रेय का माहात्म्य बताइए ?
उत्तर—सेयासेयविदण्हू उद्धुददुस्सील सीलवं होदि। सीलफलेणब्भूदयं तत्तो पुण लहदि णिव्वाणं।।९०६।। श्रेय—पुण्य और अश्रेय—पाप के ज्ञाता दु:शील का ्नााश करके शीलवान होते हैं, पुन: उस शील के फल के अभ्युदय तथा निर्वाण पद को प्राप्त कर लेते हैं।
प्रश्न—सम्यक चारित्र ही सुगति का कारण क्यों हैं दुष्टान्त दीजिए ?
उत्तर—सव्वं पि हु सुदणाणं सुट्ठु सुगुणिदं पि सुट्ठु पढिदं पि। समणं भट्टचरित्तं ण हु सक्को सुग्गइं णेदुं।।९०७।। जदि पडदि दीवहत्थो अवडे िंक कुणदि तस्स सो दीवो। जदि सिक्खिऊण अणयं करेदि िंक तस्स सिक्खफलं।।९०८।। अच्छी तरह पढ़ा हुआ भी और अच्छी तरह गुना हुआ भी सारा श्रुतज्ञान निश्चित रूप से भ्रष्टचारित्र श्रमण को सुगति प्राप्त कराने में समर्थ नहीं है। यदि दीपक हाथ में लिये हुए मनुष्य गर्त में गिरता है तो उसके लिए भी दीपक क्या कर सकता है ? यदि कोई शिक्षित होकर भी अन्याय करता है तो उसके लिए शिक्षा का फल क्या हो सकता है ?
प्रश्न—चारित्र की शुद्धि किन कारणों से होती है ?
उत्तर—पिंडं सेज्जं उवधिं ऊग्गमउप्पायणेसणादीहिं। चारित्तरक्खण्ट्ठं सोधणयं होदि सुचरित्तं।।९०९।। चारित्र की रक्षा के लिए उद्गम, उत्पादन और एषणा आदि के द्वारा आहार वसतिका और उपकरण का शोधन करता हुआ सुचारित्र सहित होता है।
प्रश्न—जिस लिंग से वह चारित्र अनुष्ठित किया जाता है, उस लिंग का भेद और स्वरूप बताइए ?
उत्तर—अच्चेलक्कं लोचो वोसट्ट सरीरदा य पडिलिहणं। एसो हु लिंगकप्पो चदुव्विधो होदि णायव्वो।।९१०।। नग्नत्व, लोच, शरीर संस्कार हीनता और पिच्छिका यह चार प्रकार का लिंग भेद जानना चाहिए।
प्रश्न—श्रमण कल्प के कितने भेद हैं नाम निर्देश करें ?
उत्तर—अच्चेलक्कुद्देसियसेज्जाहररायपिंड किदियम्मं। वद जेट्ठ पडिक्कमणं मासं पज्जो समणकप्पो।।९११।। अचेलकत्व : वस्त्रादि का अभाव। औद्देशिक त्याग : उद्देश्य करके भोजन न करें, अर्थात् उद्देश्य से होने वाले दोष का परिहार करना अनौद्देशिक है। शय्यागृह त्याग : मेरी वसतिका में जो ठहरे हैं उन्हें मैं आहारदान आदि दूँगा अन्य को नहीं। इस प्रकार के अभिप्राय से दिये हुए दान को न लेना शय्यागृह त्याग है। राजपिण्ड त्याग : राजा के यहाँ आहार का त्याग करना। गरिष्ठ, इन्द्रियों में उत्तेजना उत्पन्न करने वाले आहार का त्याग करना। कृतिकर्म : वन्दना आदि क्रियाओं के करने में उद्यम करना। व्रत : अिंहसा आदि व्रत कहलाते हैं। उन व्रतों से आत्मा की भावना करना अर्थात् उन व्रतों के साथ संवास करना। प्रतिक्रमण : सात प्रकार के प्रतिक्रमणों द्वारा आत्म भावना करना। मास : वर्षायोग ग्रहण से पहले एकमास पर्यन्त रहकर वर्षाकाल में वर्षायोग ग्रहण करना तथा वर्षायोग को समाप्त करके पुन: एक मास तक अवस्थान करना चाहिए। अथवा ऋतु-ऋतु में (दो माह की एक ऋतु) अर्थात् प्रत्येक ऋतु में एक-एक मास तक रहना चाहिए और एक-एक मास तक विहार करन चाहिए। ऐसा यह ‘मास’ नाम का श्रमणकल्प है। अथवा वर्षाकाल में वर्षायोग ग्रहण करना और चार-चार महिनों में नन्दीश्वर करना सो यह मास श्रमणकल्प है। पर्या : पर्युपासन को पर्या कहते हैं। निषद्य का स्थान और पंचकल्याणक स्थानों को उपासना करना पर्या है।
प्रश्न—पिच्छिका—प्रतिलेखन के कितने गुण हैं नाम बताइए ?
उत्तर—रजसेदाणमगहणं मद्दव सुकुमालदा लहुत्तं च। जत्थेदे पंचगुणा तं पडिलिहणं पसंसंति।।९१२।। धूलि को ग्रहण नहीं करना एक गुण है, पसीना ग्रहण नहीं करना दूसरा गुण है, चक्षु में फिराने पर भी पीड़ा नहीं करना अर्थात् मृदुता तीसरा गुण है, सुकुमारता चौथा गुण है अर्थात् यह देखने योग्य, सुन्दर और कोमल है, तथा उठाने में या किसी वस्तु को परिर्मािजत करने आदि में हल्की है अत: इसमें लघुत्व है जो पाँचा गुण है। जिस प्रतिलेखन में ये पाँच गुण पाये जाते हैं उस मयूरपंखों के प्रतिलेखन—पिच्छिका के ग्रहण करने को ही गणधर देव आदि आचार्यगण प्रशंसा करते हैं और ऐसा प्रतिलेखन ही वे स्वीकार करते हैं।
प्रश्न— चक्षु से भी तो प्रर्मािजत किया जा सकता है तब पिच्छिका धारण करना किसलिए अनिवार्य है ?
उत्तर—सुहुमा हु संति पाणा दुप्पलेक्खा अक्खिणो अगेज्झाहु। तह्या जीवदयाए पडिलिहणं धारए भिक्खू।।९१३।। बहुत से द्वीन्द्रिय आदि जीव तथा एकेन्द्रिय जीव अत्यन्त सूक्ष्म होने से दिखाई नहीं देते हैं, चर्म चक्षु से ग्रहण नहीं किये जा सकते हैं। उन जीवों की दया हेतु व प्राणी संयम पालन हेतु मुनिराज मयूरपंखों की पिच्छिका ग्रहण करें।
प्रश्न—प्रत्येक क्रिया में साधु को पिच्छिका की क्यों आवश्यकता है ?
उत्तर—उच्चारं पस्सवणं णिसि सुत्तो उट्ठिदो हु काऊण। अप्पडिलिहिय सुवंतो जीववहं कुणदि णियदं तु।।९१४।। जो साधु रात्रि में सोते से जाग कर अंधेरे में पिच्छिका के अभाव में परिमार्जन किये बिना मल—मूत्र कफ, आदि विसर्जन करके या करवट आदि बदलकर पुन: सो जाता है वह निश्चित ही जीवों को परितापन आदि पीड़ा पहुँचा देता है।
प्रश्न—पिच्छि लघु क्यों होनी चाहिए ?
उत्तर—ण य होदि णयणपीडा अिंच्छ पि भमाडिदे दु पडिलेहे। तो सुहुमादी लहुओ पडिलेहो होदि कायव्वो।।९१५।। मयूर पिच्छ के प्रतिलेखन को आँखों में डालकर फिराने पर भी व्यथा नहीं होती है। इसलिए सूक्ष्मत्व आदि से युक्त लघु प्रमाण वाली ही पिच्छिका जीव—दया के लिए लेनी चाहिए।
प्रश्न—प्रतिलेखन के स्थान बताइए ?
उत्तर—ठाणे चंकमणादाणे णिक्खेवे सयणआसण पयत्ते। पडिलेहणेण पडिलेहिज्जइ लिंगं च होइ सपक्खे।।९१६।। ठहरने में, चलने में, ग्रहण करने में, रखने में, सोने में, बैठने में साधु प्रतिलखेन से प्रयत्नपूर्वक परिमार्जन करते हैं क्योंकि यह उनके अपने (मुनि) पक्ष का चिन्ह है।
प्रश्न—पिच्छि निर्दोष कैसे है बताइए ?
उत्तर— कार्तिक मास में मोर के पंख स्वयं झड़ जाते हैं, वे जीवघात करके नहीं लाये जाते हैं अत: ये पंख सर्वथा निर्दोष हैं और अत्यन्त कोमल हैं। जिस प्रकार से आहार की शुद्धि की जाती है अर्थात् उद्गम, उत्पादन आदि दोषों से रहित आहार लिया जाता है उसी प्रकार से उपकरण आदि की भी शुद्धि करनी चाहिए।
प्रश्न—पिच्छि चिन्ह से युक्त मुनि के आचरण का फल बताइए ?
उत्तर—पोसह उवहोपक्खे तह साहू जो करेदि णावाए। णावाए कल्लाणं चादुम्मासेण णियमेण।।९१७।। जो साधु चातुर्मासिक उपवास और सांवत्सरिक उपवास के साथ कृष्ण चतुर्दशी तथा शुक्ल चतुर्दशी को हमेशा उपवास करते हैं वे कल्याण रूप परमसुख के भागी होते हैं अथवा जो साधु बिना बाधा के कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष में उपवास करते हैं फिर भी वे चातुर्मासिक नियम से ‘कल्याण’ नामक प्रायश्चित्त को प्राप्त होते हैं अथवा नहीं भी प्राप्त होते हैं, ऐसा सम्बन्ध करना।
ठाणणिसिज्जागमणे जीवाणं हंति अप्पणो देहं। दसकत्तरिठाणगदं णिपिच्छे णत्थि णिव्वाणं।। कुन्द. मूला.
अर्थात् जो मुनि अपने पास पिच्छिका नहीं रखता है वह कायोत्सर्ग के समय , बैठने के समय, आने जाने के समय अपनी देह की क्रिया से जीवों का घात करता है अत: उसे मुक्ति नहीं मिलती। मुनि के लिए बिना पिच्छिका के दश पग से अधिक गमन करने पर प्रायश्चित्त का विधान है।
प्रश्न—जो साधु पिच्छि से शोधन नहीं करते हैं उन्हें कौन—सा प्रायश्चित्त है ?
उत्तर—पिंडोवधिसेज्जाओ अवसोधिय जो य भुंजदे समणो। मूलट्ठाणं पत्तो भुवणेसु हवे समणपोल्लो।।९१८।। तस्स ण सुज्झइ चरियं तवसंजमणिच्चकालपरिहीणं। आवासयं ण सुज्झइ चिरपव्वइयो वि जइ होई।।९१९।।
जो मुनि आहार, उपकरण, वसतिका आदि को बिना शोधन किये अर्थात् उद्गम—उत्पादन आदि दोषों से रहित न करके सेवन करते हैं वे मूलस्थान को प्राप्त करते हैं अर्थात् गृहस्थ हो जाते हैं और लोक में यतिपने से हीन माने जाते हैं। उसके तप और संयम में निरन्तर हीन चारित्र शुद्ध नहीं होता है इसलिए चिरकाल से दीक्षित हो तो भी उनके आवश्यक तक शुद्ध नहीं होते हैं।
प्रश्न—निरतिचार रूप से अहिंसा व्रतादि मूलगुणों का पालन करना श्रेष्ठ क्यों है ?
उत्तर—मूलं छित्ता समणो जो गिण्हादी य बाहिरं जोगं। बाहिरजोगा सव्वे मूलविहूणस्स विंâ करिस्संति।।९२०।। हंतूण य बहुपाणं अप्पाणं जो करेदि सप्पाणं। अप्पासुअसुहवंâखी मोक्खंकंखी ण सो समणो।।९२१।।
जो श्रमण मूल का घात करके बाह्य योग को ग्रहण करता है उस मूल गुणों से हीन के वे सभी बाह्य योग क्या करेंगे ? जो बहुत से प्राणियों का घात करके अपने प्राणों की रक्षा करता है, अप्रासुक में सुख का इच्छुक वह श्रमण मोक्ष सुख का इच्छुक नहीं है। अत: चारित्र का पालन श्रेष्ठ है।
प्रश्न—अहिंसा व्रत पालन नहीं होने से जो दोष लगते हैं उन्हें दृष्टान्त द्वारा बताइए ?
उत्तर—एक्को वावि तयो वा सीहो वग्घो मयो व खादिज्जो। जदि खादेज्ज स णीचो जीवयरासिं णिहंतूण।।९२२।।
कोई सिंह अथवा व्याघ्र या अन्य हिंस्र प्राणी एक अथवा दो या तीन अथवा चार मृगों का भक्षण करते हैं तो वे हिंस्र प्राणी पापी कहलाते हैं। तब फिर जो अध: कर्म के द्वारा तमाम जीव समूह की विराधना करके आहार लेते हैं वे अधम क्यों नहीं हैं ? अर्थात् अधम ही हैं।
प्रश्न—प्राणियों का घात करने से किसका घात होता है ?
उत्तर—आरंभे पाणिवहो पाणिवहे होदि अप्पणो हु वहो। अप्पा ण हु हंतव्वो पाणिवहो तेण मोत्तव्वो।।९२३।।
पकाने आदि क्रियाओं के आरम्भ में जीवों का घात होता है और उससे आत्मा का घात होता है अर्थात् निश्चित ही नरक—तिर्यंच गति के दुख भोगना पड़ते हैं। और, आत्मा का घात करना ठीक नहीं हैं अतएव प्राणियों की हिंसा का त्याग कर देना चाहिए।
प्रश्न— अध: कर्म युक्त आहार लेकर तपस्या करते हैं तो वह वैâसे निरर्थक है ?
उत्तर—जो ठाणमोणवीरासणेहिं अत्थदि चउत्थछट्ठेहिं। भुंजदि आधाकम्मं सव्वे वि णिरत्थया जोगा।।९२४।। किं काहदि वणवासो सुण्णागारो य रुक्खमूलो वा। भुंजदि आधाकम्मं सव्वे वि णिरत्थया जोगा।।९२५।। किं तस्स ठाणमोणं किं काहदि अब्भोवगासमादावो। मोत्तिविहूणो समणो सिज्झदि ण हु सिद्धिवंâखो वि।।९२६।। जह वोसरित्तु कत्तिं विसं ण वोसरदि दारुणो सप्पो। तह को वि मंदसमणो पंच दु सूणा ण वोसरदि।।९२७।।
जो मुनि कायोत्सर्ग करते हैं, मौन धारण करते हैं, वीरासन आदि नाना प्रकार के आसन से कायक्लेश करते हैं, उपवास बेला, तेला आदि करते हैं किन्तु अध:कर्म से र्नििमत आहार ग्रहण कर लेते हैं उनके वे सभी योग अनुष्ठान और उत्तरगुण व्यर्थ ही हैं। जो अध:कर्म युक्त आहार लेते हैं उनका वन में रहना, शून्य स्थान में रहना, अथवा वृक्ष के नीचे ध्यान करना क्या करेगा ? उनके सभी योग निरर्थक हैं। उसके कायोत्सर्ग और मौन क्या करेंगे ? क्योंकि मैत्रीभाव से रहित वह श्रमण मुक्ति का इच्छुक होते हुए भी मुक्त नहीं होगा। जिस प्रकार क्रूर सर्प कांचुली को छोड़कर के भी विष को नहीं त्यागता है, उसी प्रकार मन्द चारित्रवाला श्रमण पंचसूना को नहीं छोड़ता है।
प्रश्न—पंचसूना का नाम बताइए ?
उत्तर—कंडणी पीसणी चुल्ली उदकुंभं पमज्जणी। बीहेदव्वं णिच्चं ताहिं जीवरासी से मरदि।।९२८।।
मूसल आदि खंडनी, चक्की, चूल्हा, पानी भरना और बुहारी ये पाँच सूना हैं। हमेशा ही इनसे डरना चाहिए क्योंकि इनसे जीवसमूह मरते हैं।
प्रश्न—पुनरपि विशेष रीति से अध:कर्म के दोष बताइए ?
उत्तर—जो भुंजदि आधाकम्मं छज्जीवाणं घायणं किच्चा। अबुहो लोल सजिब्भो ण वि समणो सावओ होज्ज।।९२९।। पयण व पायणं वा अणुमणचित्तो ण तत्थ बीहेदि। जेमंतो वि सघादी ण वि समणो दिट्ठिसंपण्णो।।९३०।। ण हु तस्स इमो लोओ ण वि परलोओ उत्तमट्ठभट्टस्स। लिंगग्गहणं तस्स दु णिरत्थयं संजमेण हीणस्स।।९३१।। पायछित्तं आलोयणं च काऊण गुरुसयासह्यि। तं चेव पुणो भुंजदि आधाकम्मं असुहकम्मं।।९३२।। जो जत्थ जहा लद्धं गेण्हदि आहारमुवधिमादीयं। समणगुणमुक्कजोगी संसारपवड्ढओ होइ।।९३३।। पयणं पायणमणुमणणं सेवंतो ण वि संजदो होदि। जेमंतो वि य जह्या ण वि समणो संजमो णत्थि।।९३४।।
जो षट्काय के जीवों का घात करके अध: कर्म से बना आहार लेता है वह अज्ञानी लोभी जिह्वेन्द्रिय का वशीभूत श्रमण नहीं रह जाता, वह तो श्रावक हो जाता है। जो पकाने या पकवाने में अथवा अनुमोदना में अपने मन को लगाता है उनसे डरता नहीं है वह आहार करते हुए भी स्वघाती है, सम्यक्त्व सहित श्रमण नहीं है। उस उत्तमार्थ से भ्रष्ट के यह लोक भी नहीं है और परलोक भी नहीं है। संयम से हीन उसका मुनि वेष ग्रहण करना व्यर्थ है। जो गुरु के पास आलोचना और प्रायश्चित्त करके पुन: वही अशुभ क्रियारूप अध: कर्म युक्त आहार करता है उसका इहलोक और परलोक नहीं है। जो जहाँ जैसा भी मिला वहाँ वैसा ही आहार, उपकरण आदि ग्रहण कर लेता है तो वह मुनि के गुणों से रहित हुआ संसार को बढ़ाने वाला है। पकाना, पकवाना, और अनुमति देना—ऐसा करता हुआ वह संयत नहीं है। वैसा आहार लेता हुआ भी उस कारण से वह श्रमण नहीं है और न संयमी ही है।
प्रश्न— चारित्र से हीन मुनि का बहुत श्रुतज्ञान भी निरर्थक कैसे है ?
उत्तर—बहुगं पि सुदमधीदं किं काहदि अजाणमाणस्स। दीवविसेसो अंधे णाणविसेसो वि तह तस्स।।९३५।।
चारित्र का आचरण नहीं करने वाले उपयोग से रहित मुनि का पढ़ा गया बहुत—सा श्रुत भी क्या करेगा? जैसे नेत्रहीन मनुष्य के लिए दीपक कुछ भी नहीं करता है वैसे ही चारित्र से हीन मुनि के लिए ज्ञान विशेष भी कुछ नहीं कर सकता है।
प्रश्न— परिणाम के निमित्त से शुद्धि होती है इसका स्पष्टीकरण करें ?
उत्तर—आधाकम्मपरिणदो फासुगदव्वे दि बंधगो भणिदो। सुद्धं गवेसमाणो आधाकम्मे वि सो सुद्धो।।९३६।।
प्रासुक द्रव्य के होने पर भी जो साधु अध: कर्म के भाव से परिणत है। वह बन्ध को करने वाला हो जाता है, ऐसा आगम में कहा है। यदि पुन: कोई शुद्ध आहार का अन्वेषण करते भी अध: कर्म से युक्त आहार मिल गया तो भी वह शुद्ध है क्योंकि उसके परिणाम शुद्ध हैं। अर्थात् उद्गम आदि दोषों से रहित आहार की खोज में भी मिला अध: कर्म से युक्त सदोष आहार, यदि उसे मालूम नहीं है तो निर्दोष है।
प्रश्न— भाव दोष के भेद बताइए ?
उत्तर—भावुग्गमोय दुविहो पसत्थपरिणाम अप्पसत्थोत्ति। सुद्धे असुद्धभावो होदि उवट्ठावणं पायच्छित्तं।।९३७।।
भावोद्गम—भावदोष के दो भेद हैं—प्रशस्त परिणाम और अप्रशस्त परिणाम। उनमें से यदि शुद्ध वस्तु में अशुद्ध भाव करता है तो उसे उपस्थापना नाम का प्रायश्चित होता है।
प्रश्न— प्रासुक दान का फल बताइए ?
उत्तर—फासुगदाणं फासुगउवधिं तह दो वि अत्तसोधीए। जो देदि जो य गिण्हदि दोण्हं पि महप्फलं होई।।९३८।।
जो प्रासुक दान या प्रासुक उपकरण या दोनों को भी आत्मशुद्धि से देता है और ग्रहण करता है उन दोनों को ही महाफल होता है।
प्रश्न— चर्या आहारशुद्धि का व्याख्यान विस्तार से क्यों किया है ?
उत्तर—जोगेसु मूलजोगं भिक्खाचरियं च वण्णियं सुत्ते। अण्णे य पुगो जोगा विण्णाणविहीणएहिं कया।।९३९।।
सम्पूर्ण मूलगुणों में और उत्तर गुणों में प्रधानव्रत भिक्षा शुद्धि है। आहार की शुद्धिपूर्वक जो थोड़ा भी तप किया जाता है वह शोभन है। भिक्षाशुद्धि को त्यागकर जो मुनि योगादिक करते हैं वे विज्ञानरहित होकर चारित्ररहित किये हैं ऐसा समझना चाहिये। उनको परमार्थ का ज्ञान नहीं है ऐसा समझना चाहिए। आहारशुद्धि सहित थोड़ा भी योगादिक आचरण करना अच्छा है आत्महितकारक है और आहारशुद्धि से रहित होकर त्रिकालयोगादिक धारण करने पर भी आत्महित नहीं होता है।
प्रश्न— आहार—चर्या शुद्धि की प्रशंसा किस प्रकार करते हैं ?
उत्तर—कल्लं कल्लं पि वरं आहारो परिमिदो पसत्थो य। ण य खमण पारणाओ बहवो बहुसो बहुविधो य।।९४०।।
परिमित और प्रशस्त आहार प्रतिदिन भी लेना श्रेष्ठ है किन्तु चर्या शुद्धि रहित अनेक उपवास करके अनेक प्रकार की पारणाएँ श्रेष्ठ नहीं हैं।
प्रश्न— शुद्धयोग क्या है ?
उत्तर—मरणभयभीरुआणं अभयं जो देदि सव्व्जीवाणं। तं दाणाण वि दाणं तं पुण जोगेसु मूलजोगं पि।।९४१।।
जो मुनि मरण के भय से भीरु सभी जीवों को अभयदान देता है उसका अभयदान सर्वदानों में श्रेष्ठ है और सभी योगों में प्रधान योग है।
प्रश्न— गुणस्थान की अपेक्षा से चारित्र का माहात्म्य दृष्टान्त द्वारा निरूपण करें ?
उत्तर—सम्मादिट्ठिस्य वि अवरिदस्स ण तवो महागुणो होदि। होदि हु हत्थिण्हाणं चुंदच्छिदकम्म तं तस्स।।९४२।।
व्रत रहित सम्यग्दृष्टि का भी तप महागुणकारी नहीं है क्योंकि वह हाथी के स्थान के समान है। जैसे हाथी स्नान करके पुन: सूँड से धूली को लेकर अपने ऊपर डाल देता है उसी प्रकार तप के द्वारा कर्मों का अंश निर्जीण हो जाने पर भी असयंत के असंयम के कारण बहुत से कर्मों का आस्रव होता रहता है। जैसे लकड़ी में छेद करने वाले वर्मा की रस्सी उसमें छेद करते समय एक तरफ से खुलती और दूसरी तरफ से बंधती रहती है उसी प्रकार से असयंत जन का तपश्चरण एक तरफ से कर्मों को नष्ट करता और असंयम द्वारा दूसरी तरफ से कर्मों को बाँधता रहता है। अर्थात् मंथन चर्मपालिका के समान वह तप संयमहीन तप होता है।
प्रश्न— शोभन क्रियाओं के संयोजन से कर्मक्षय होता है, ऐसा दृष्टान्त के द्वारा पुष्टि करें ?
उत्तर—वेज्जादुरभेसज्जापरिचार य संपदा जहारोग्गं। गुरुसिस्सरयणसाहण संपत्तीए तहा मोक्खो।।९४३।।
वैद्य, रोगी, औषधि और वैयावृत्त्य करने वाले—इनके संयोग से रोगी के रोग का अभाव हो जाता है वैसे ही गुरु—आचार्य, वैराग्य में तत्पर शिष्य, अंतरंग साधन सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय तथा बाह्य साधन पुस्तक, पिच्छिका, कमण्डलु आदि के संयोग से ही मोक्ष होता है।
प्रश्न— उपर्युक्त दृष्टान्त को दाष्र्टान्त में घटित करें ?
उत्तर—आइरिओ वि य वेज्जो सिस्सो रोगी दु भेसजं चरिया। खेत्त बल काल पुरिसं णाऊण सणिं दढं कुज्जा।।९४४।।
आचार्य देव वैद्य हैं, शिष्य रोगी है, औषधि निर्दोष भिक्षा चर्या है, शीत, उष्ण, आदि सहित प्रदेश क्षेत्र हैं, शरीर की सामथ्र्य आदि बल है, वर्षा आदि काल हैं एवं जघन्य, मध्यम, तथा उत्कृष्ट भेद रूप पुरुष होते हैं। इन सभी को जानकर आकुलता के बिना आचार्य शिष्य को चर्या रूपी औषधि का प्रयोग कराए। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार वैद्य रोगी को आरोग्य हेतु औषधि प्रयोग कराकर स्वस्थ कर देता है।
प्रश्न— मोक्ष यात्रा के लिए आहार कैसा होना चाहिए, द्रव्य शुद्धि बताइए ?
उत्तर—भिक्खं सरीरजोग्गं सुभत्तिजुत्तेण फासुयं दिण्णं। दव्वपमाणं खेत्तं कालं भावं च णादूण।।९४५।। णवकोडीपडिसुद्धं फासुय सत्थं च एसणासुद्धं। दसदोसविप्पमुक्कं चोद्दसमलवज्जियं भुंजे।।९४६।। आहारेदु तवस्सी विगिंदगालं विगदगालं विगदधूमं च। जत्तासाहणमेत्तं जवणाहारं विगदरागो।।९४७।।
सुभक्ति से युक्त श्रावक के द्वारा जो दिया गया है, अपने शरीर के योग्य है, प्रासुक है, नवकोटि से परिशुद्ध है, निर्दोष है, निन्दा आदि दोषों से रहित होने से प्रशस्त है, जो एषणा समिति से शुद्ध है, दश दोषों से र्विजत है एवं चौदह मल दोषों से रहित है ऐसे आहार को साधु द्रव्य प्रमाण, क्षेत्र, काल एवं भाव को जानकर ही ग्रहण करें। अंगार दोष और धूम दोष रहित, मोक्ष यात्रा के लिए साधनमात्र और क्षुधा का उपशामक आहार वीतराग तपस्वी ग्रहण करें। आसक्ति से युक्त आहार लेना अंगार दोष है और निन्दा करते हुए आहार लेना धूम दोष है। साधु इन दोषों से रहित आहार लेते हैं।
प्रश्न— साधु संयम का पालन करते हुए, व्यवहार शुद्धि का पालन जुगुप्सा परिहार किस प्रकार करते हैं ?
उत्तर—ववहारसोहणाए परमट्ठाए तहा परिहरउ। दुविहा चावि दुगंछा लोइय लोगुत्तरा चेव।।९४८।। परमट्ठियं विसोहिं सुट्ठु पयत्तेण कुणइ पव्वइओ। परमट्ठदुगंछा वि य सुट्ठु पयत्तेण परिहरउ।।९४९।। संजममविराधंतो करेउ ववहार सोधणं भिक्खू। ववहारदुगंछावि य परिहरउ वदे अभंजंतो।।९५०।। निन्दा के दो भेद है : लौकिक और अलौकिक। लोक व्यवहार की शुद्धि के लिए सूतक आदि के निवारण हेतु लौकिक निन्दा का परिहार करना चाहिए। और परमार्थ के लिए रत्नत्रय की शुद्धि के लिए लोकोत्तर जुगुप्सा नहीं करना चाहिए। साधु कर्मक्षय निमित्तक रत्नत्रय शुद्धि को अच्छी तरह प्रयत्नपूर्वक करें। तथा परमार्थ जुगुप्सा अर्थात् शंकादि दोषों का भी भलीभाँति प्रमाद रहित होकर त्याग करें। साधु संयम की विराधना नहीं करें, व्यवहार शुद्धि का पालन करें, व्रतों में दोष नहीं लगाएँ और लोक निन्दा का परिहार करें।
प्रश्न— आत्मसाधना के लिए अयोग्य स्थान कौन—सा है ?
उत्तर—जत्थ कसायुप्पत्तिर भत्तिंदियदारइत्थि जण बहुलं। दुक्खमुवसग्गबहुलं भिक्खू खेत्तं विवज्जेज्ज।।९५१।। जहाँ पर कषायों की उत्पत्ति हो, भक्ति न हो, इन्द्रियों के द्वार और स्त्रीजन की बहुलता हो, दु:ख हो, उपसर्ग की बहुलता हो उस क्षेत्र को मुनि छोड़ दें।
प्रश्न—आत्म साधना के लिए वैराग्य वर्धन स्थान कौन—सा है ?
उत्तर—गिरिकंदरं मसाणं सुण्णागारं च रुक्खमूलं वा। ठाणं विराग बहुलं धीरो भिक्खु णिसेवेऊ।।९५२।। धीर मुनि पर्वत की कन्दरा, श्मशान, शून्य मकान और वृक्ष के मूल ऐसे वैराग्य की अधिकता युक्त स्थान का सेवन करें।
प्रश्न—संयमियों को और भी किन क्षेत्रों का त्याग करना चाहिए ?
उत्तर—णिवदिविहूणं खेत्तं णिवदी वा जत्थ दुट्ठओ होज्ज। पव्वज्जा च ण लब्भइ संजमघादो य तं वज्जे।।९५३।। णो कप्पदि विरदाणं विरदीणमुवासयह्यि चेट्टेदुं। तत्थ णिसेज्जउवट्ठणसज्झायाहारवोसरणे।।९५४।। जिस देश में, नगर में, ग्राम में, या घर में स्वामी न हो—सभी लोग स्वेच्छा से प्रवृत्ति करते हो अथवा जिस देश का राजा दुष्ट हो। जिस देश में शिष्य, श्रोता, अध्ययन करने वाले, व्रतों के रक्षण में तत्पर तथा दीक्षा को ग्रहण करने वाले लोग सम्भव न हों। व्रतों में बहुत अतीचार लगते हों, साधु ऐसे क्षेत्र का त्याग करें। र्आियकाओं के उपाश्रय में मुनियों का रहना उचित नहीं है। वहाँ पर बैठना, उद्वर्तन करना, स्वाध्याय, आहार और व्युत्सर्ग भी करना उचित नहीं है।
प्रश्न—आर्यिकाओं की वसतिका में मुनिराज को रहना उचित क्यों नहीं है ?
उत्तर—होदिं दुगंछा दुविहा ववहारादो तधा य परमट्ठे। पयदेण य परमट्ठे ववहारेण य तहा पच्छा।।९५५।। व्यवहार से तथा परमार्थ से दो प्रकार से निन्दा होती है। र्आियकाओं के स्थान में आने जाने से मुनियों की निन्दा होती है यह व्यवहार जुगुप्सा है यह तो होती ही है, पुन: व्रतों में हानि होना परमार्थ जुगुप्सा है सो भी सम्भव है। यह न भी हो तो भी व्यवहार में निन्दा तो होती ही है।
प्रश्न—संसर्ग के गुण दोष बताइए ?
उत्तर—वड्ढदि बोही संसग्गेण तह पुणो विणस्सेदि। संसग्गविसेसेण दु उप्पलगंधो जहा कुंभो।।९५६।।
सदाचार के सम्पर्क से सम्यग्दर्शन आदि की शुद्धि बढ़ जाती है, उसी प्रकार पुन: कुत्सित आचार वाले के सम्पर्क से नष्ट भी हो जाती है, जैसे कमल आदि के संसर्ग से घड़े का जल सुगन्धमय और शीतल हो जाता है और अग्नि आदि के संयोग से उष्ण तथा विरस हो जाता है।
प्रश्न—आत्मसाधना के इच्छुक का किनके साथ संसर्ग वर्जनीय है ?
उत्तर—चंडो चवलो मंदो तह साहू पुट्ठिमंसपडिसेवी। गारवकसाय बहुलो दुरासओ होदि सो समणो।।९५७।। वेज्जावच्चविहूणं विणयविहूणं च दुस्सुदिकुसीलं। समणं विरागहीणं सुजमो साधू ण सेविज्ज।।९५८।। दंभं परपरिवादं णिसुणत्तण पावसुत्तपडिसेवं। चिरपव्वइदं पि मुणी आरंभजुदं ण सेविज्ज।।९५९।। चिरपव्वइदं पि मुणी अपुट्ठधम्मं असंपुडं णीचं। लोइय लोगुत्तरियं अयाणमाणं विवज्जेज्ज।।९६०।। जो साधु क्रोधी, चंचल, आलसी, चुगलखोर है एवं गौरव और कषाय की बहुलता वाला है वह श्रमण आश्रय लेने योग्य नहीं है। सुचारित्रवान् साधु वैयावृत्त्य से हीन, विनय से हीन, खोटे, शास्त्र से युक्त कुशील और वैराग्य से हीन श्रमण का आश्रय न लेवें। मायायुक्त, अन्य का निन्दक, पैशुन्यकारक, पापसूत्रों के अनुरूप प्रवृत्ति करने वाला और आरम्भसहित श्रमण चिरकाल से दीक्षित क्यों न हो तो भी उसकी उपासना न करें। मिथ्यात्व युक्, स्वेच्छाचारी, नीचकार्ययुक्त, लौकिक व्यापारयुक्त, लोकोत्तर व्यापार को नहीं जानते, चिरकाल से दीक्षित भी वाले मुनि को छोड़ देवें।
प्रश्न—पापश्रमण किसे कहते हैं ?
उत्तर—आयरिय कुलं मुच्चा विहरिद समणो य जो दु एगागी। ण य गेण्हदि उवदेसं पावस्समणोत्ति वुच्चदि दु।।९६१।। आयरियत्तण तुरिओ पुव्वं सिस्सत्तणं अकाऊणं। हिंडई ढुंढायरिओ णिरंकुसो मत्तहत्थिव्व।।९६२।। जो श्रमण आचार्य संघ को छोड़कर एकाकी विहार करता है और उपदेश को ग्रहण नहीं करता है वह पापश्रमण कहलाता है। जो पहले शिष्यत्व न करके आचार्य होने की जल्दी करता है वह ढोंढाचार्य है। वह मदोन्मत्त हाथी के समान निरंकुश भ्रमण करता है।
आयरियकुलं मुच्चा विहरदि एगागिणो दु जो समणो। अविगोण्हिय उवदेसं ण य सो समणो समणडोंबो।। कुन्द. मूला. जो आचार्य कुल को छोड़कर और उपदेश को न ग्रहणकर एकाकी विहार करता है वह श्रमण डोंब है।
प्रश्न—दृष्टांत से संसर्गजन्य दोष को बताइए ?
उत्तर—अंबो णिंबत्तणं पत्तो दुरासएण जहा तहा। समणं मंदसंवेगं अपुट्ठधम्मं ण सेविज्ज।।९६३।। आम का वृक्ष खोटी संगति से—नीम के संसर्ग से नीमपने को प्राप्त अर्थात् कटु स्वादवाला हो जाता है, उसी प्रकार जो श्रमण धर्म के अनुराग रूप संवेग में आलसी है, समीचीन से आचार से हीन है, खोटे आश्रय से सम्पन्न है उसका संसर्ग नहीं करो, क्योंकि आत्मा भी ऐसे संसर्ग से ऐसा ही हो जाएगा। प्रश्न—पाश्र्वस्थ मुनि को किन शब्दों की उपमा देकर उनसे दूर रहने को कहा है ? उत्तर—
बिहेदव्वं णिच्चं दुज्जणवयणा पलोट्टजिब्भस्स। वरणयरणिग्गमं पिव वयणकयारं वहंतस्स।।९६४।। आयरियत्तणमुवणायइ जो मुणि आगमं ण याणंतो। अप्पाणं पि विणासिय अण्णे वि पुणो विणासेई।।९६५।। दुर्जन के सदृश वचन वाले, यद्वा तद्वा बोलने वाले, नगर के नाले के कचरे को धारण करते हुए के समान मुनि से हमेशा डरना चाहिए। जो मुनि आगम को न जानते हुए आचार्यपने को प्राप्त हो जाता है वह अपने को नष्ट करके पुन: अन्यों को भी नष्ट कर देता है।
प्रश्न—अभ्यन्तर योगों के बिना बाह्य योगों की निष्फलता वैâसे है ?
उत्तर—घोडयलद्दिसमाणस्स बाहिर बगणिहुदकरणचरणस्स। अब्भंतरम्हि कुहिदस्स तस्स दु विंâ बज्झजोगेहिं।।९६६।। घोड़े की लीद के समान अन्तरंग में निन्द्य और बाह्य से बगुले के सदृश हाथ पैरों को निश्चल करने वाले साधु के बाह्य योगों से क्या प्रयोजन ? जो घोड़े की लीद के समान अन्तरंग में कुथित—निन्द्य—भावना युक्त एवं बाह्य में बगुले के समान हाथ पैरों को निश्चल करके खड़े हैं। मूलगुण से रहित हैं ऐसे मुनि को बाह्य वृक्षमूलादि योगों से कुछ भी लाभ नहीं है।
प्रश्न—‘मैं बहुत काल का श्रमण हूँ’ ऐसा गर्व क्यों नहीं करें ?
उत्तर—मा होह वासगणणा ण तत्थ वासाणि परिगणिज्जंति। बहवो तिरत्तवुत्था सिद्धा धीरा विरगपरा समणा।।९६७।। वर्षों का गणना मत करो, मुझे दीक्षा लिए बहुत वर्ष हो गये हैं। मुझसे यह छोटा है, आज दीक्षित हुआ है। इस प्रकार से गर्व मत करो क्योंकि वहाँ मुक्ति के कारण में वर्षों की गिनती नहीं होती हैं। क्योंकि बहुतों ने तीन रात्रि मात्र ही चारित्र धारण किया है, किन्हीं ने अन्तर्मुहुर्त मात्र ही चारित्र का वर्तन किया है, किन्तु वैराग्य में तत्पर और सम्यग्दर्शन आदि में निष्कम्प होने से ऐसे श्रमण अतिशीघ्र ही अशेष कर्मों का निर्मूलन करके सिद्ध हो गये हैं।
प्रश्न—बन्ध और बन्ध के कारण को बताइए ?
उत्तर—जोगणिमित्तं गहणं जोगो मणवयणकायसंभूदो। भावणिमित्तो बंघो भावो रदिरागदोसमोहजुदो।।९६८।। कर्मों का ग्रहण योग के निमित्त से होता है, वह योग मन वचन काय से उत्पन्न होता है। कर्मों का बन्ध भावों के निमित्त से होता है और भाव रति, राग, द्वेष एवं मोह सहित होता है।
प्रश्न—पुद्गल कर्मरूप वैâसे परिणमित होते हैं ?
उत्तर—जीव परिणाम हेदू कम्मत्तण पोग्गला परिणमंति। ण दु णाणपरिणदो पुण जीवो कम्मं समादियदि।।९६९।। णाणविण्णाणसंपण्णो झाणज्झणतवेजुदो। कसायगारवुम्मुक्को संसारं तरदे लहुं।।९७०।। जीव के परिणाम के निमित्त से पुद्गल कर्मरूप से परिणमन करते हैं। ज्ञान—परिणत हुआ जीव तो कर्म ग्रहण करता नहीं है। ज्ञान–विज्ञान से सम्पन्न एवं ध्यान—अध्ययन और तप से युक्त तथा कषाय और गौरव से रहित मुनि शीघ्र ही संसार को पार कर लेते हैं।
प्रश्न—स्वाध्याय की भावना से कैसे संसार तिरा जाता है, बताइए ?
उत्तर—सज्झायं कुव्वंतो पंचिदियसंपुडो तिगुत्तो य। हवदि य एयग्गमणो विणएण समाहिओ भिक्खू।।९७१।। विनय से सहित मुनि स्वाध्याय करते हुए पंचेन्द्रियों को संकुचित कर तीन गुप्तियुक्त और एकाग्रमना हो जाते हैं।
प्रश्न—स्वाध्याय का माहात्म्य बताइए ?
उत्तर—बारसविधह्यि य तवे सब्भंतर बाहिरे कुसलदिट्ठे। ण वि अत्थि ण वि य होहदि सज्झायसमं तवोकम्मं।।९७२।। सूई जहा ससुत्ता ण णस्सदि दु पमाददोसेण। एवं सुसुत्तपुरिसो ण णस्सदि तहा पमाददोसेण।।९७३।। बारह प्रकार के तपों में स्वाध्याय के सदृश अन्य कोई तप कर्म न है और न होगा ही। अत: स्वाध्याय परमतप है, ऐसा समझकर निरन्तर उसकी भावना करना चाहिए। जैसे सुई सूक्ष्म होती है फिर भी यदि वह धागे से पिरोई हुई है तो खोती नहीं हैं। प्रमाद के निमित्त से यदि वह कूंड़े—कचरे में गिर भी गयी है तो भी आँखों से दिख जाती है। उसी प्रकार से श्रुतज्ञान से समन्वित साधु भी नष्ट नहीं होता है, वह प्रमाद के दोष से भी संसार गर्त में नहीं पड़ता है।
प्रश्न—ध्यान के लिए उपकारी कौन हैं ?
उत्तर—णिद्दं जिणेहि णिच्चं णिद्दा खलु नरमचेदणं कुणदि। वट्टेज्ज हू पसुत्तो समणो सव्वेसु दोसेसु।।९७४।। निद्राजय ध्यान के लिए उपकारी है। निद्रा नर को अचेतन कर देती है। क्योंकि सोया हुआ श्रमण सभी दोषों में प्रवर्तन करता है।
प्रश्न—एकाग्रचिन्तानिरोध ध्यान वैâसे करें ?
उत्तर—जह उसुगारो उसुमुज्जु करई संपिंउियेहिं णयणेहिं। तह साहू भावेज्जो चित्तं एयग्ग भावेण।।९७५।। (१) जैसे धनुर्धर अपने लक्ष्य पर एकटक दृष्टि रखकर बाण सीधा उसी पर छोड़ता है वैसे ही साधु मन को एकाग्र कर आत्मतत्त्व का चिन्तवन करें। (२) साधु शुभध्यान के लिए मन—वचन—काय की स्थिरवृत्ति रूप और पंचेन्द्रियों के निरोधरूप एकाग्रभाव द्वारा अपने मन के व्यापार को रोकें अर्थात् अपने मन को किसी एक विषय में रमावें।
प्रश्न—आचार्य मुनिराज को ध्यान के लिए किस प्रकार सम्बोधित करते हैं ?
उत्तर—कम्मस्स बंधमोक्खो जीवा जीवे य दव्वपज्जाए। संसारसरीराणि य भोगविरत्तो सया झाहि।।९७६।। हे मुने ! तुम भोगों से विरक्त होकर कर्म का, बन्ध मोक्ष का, जीव—अजीव का, द्रव्य—पर्यायों का तथा संसार और शरीर का हमेशा ध्यान करो।
प्रश्न—ध्यान में किस प्रकार िंचतन करते हैं ?
उत्तर—दव्वे खेत्ते काले भावे य भवे य होंति पंचेव। परिवट्टणाणि बहुसो अणादि काले य चिंतेज्जो।।९७७।। मोहग्गिणा महंतेण दज्झमाणे महाजगे धीरा। समणा विसयविरत्ता झायंति अणंत संसारं।।९७८।। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव ये पाँच संसार होते हैं, अनादिकाल से ये परिवर्तन अनेक बार किए हैं। ऐसा चिन्तवन करना चाहिए। यह महाजगत् महान् मोहरूपी अग्नि से जल रहा है। धीर तथा विषयों से विरक्त श्रमण इस अनन्त संसार का चिन्तवन करते हैं।
प्रश्न—आरम्भ और कषाय सहित ध्यान हो सकता है क्या ?
उत्तर—आरंभं च कसायं च ण सहदि तवो तहा लोए। अच्छी लवणसमुद्दो य कयारं खलु जहा दिट्ठं।।९७९।। जैसे नेत्र और लवण समुद्र अपने अन्दर पड़े हुए तृण आदि को नहीं सहन करते, किनारे कर देते हैं, उसी प्रकार से वह तपरूप चारित्र आरम्भ—परिग्रह का उपार्जन और कषायों को नहीं सहन करता है, इन्हें बाहर कर देता है। अर्थात् आरम्भ और कषायों के रहते हुए चारित्र तथा ध्यान असम्भव है।
प्रश्न—इन पंच परिवर्तनों को क्या उसी जीव ने किया है अथवा अन्य जीव ने ? यदि उसी जीव ने किया है, अन्य ने नहीं, तो क्यों ?
उत्तर—जह कोइ सट्टिवरिसो तीस दिवरिसे णराहिवो जाओ। उभयत्थ जम्मसद्दो वासविभागं विसेसेइ।।९८०।। एवं तु जीवदव्वं अणाइणिहाणं विसेसियं णियमा। रायसरिसो दुकेवलपज्जाओ तस्स दु विसेसो।।९८१।। जैसे कोई साठ वर्ष का मनुष्य तीस वर्ष की आयु में राजा हो गया। दोनों अवस्थाओं में होने वाला जन्म शब्द वर्ष के विभाग की विशेषता प्रकट करता है। जिसका जन्म हुआ है वही राजा हुआ है अत: उसके राजा होने के पहले और अनन्तर—दोनों अवस्थाओं में ‘जन्म’ शब्द का प्रयोग होता है यद्यपि ये दोनों अवस्थाएँ भिन्न हैं किन्तु जिसकी है वह अभिन्न है। इससे प्रत्येक वस्तु द्रव्य रूप से एक है तथा नाना पर्यायों में भिन्न—भिन्न है ऐसा समझता। वैसे ही एक जीव इन परिवर्तनों को करता रहता है उसकी नाना पर्यायों में भेद होने पर भी जीव में भेद नहीं रहता है। दृष्टान्त को दाष्र्टान्त में घटित करते हुए कहते हैं—इसी प्रकार से जीवद्रव्य अनादि निधन है। वह नियम से विशेष्य है। किन्तु उसकी पर्याय केवल विशेष है जो कि राजा के सदृश है।
प्रश्न—पर्यार्यािथक नय की अपेक्षा से भेद का प्रतिपादन करें, जीव को विभिन्न निर्देशन करें ?
उत्तर—जीवो अणाइणिहणो जीवोत्ति य णियमदो ण वत्तव्वो। जं पुरिसाउगजीवो देवाउग जीविदविसिट्ठो।।९८२।। जीव अनादि निधन है, वह जीव ही है ऐसा एकान्त से नहीं कहना चाहिए क्योंकि मनुष्य आयु से युक्त जीव देवायु से युक्त जीव से भिन्न है। जैसे मनुष्यायु से युक्त जीव की अपेक्षा देवायु से युक्त जीव में भेद है। जो देव है वही मनुष्य नहीं है और जो मनुष्य है वह तिर्यंच नहीं है और जो तिर्यंच है वही नारकी नहीं है। अर्थात् पर्यायों के भेद से जीव में भी भेद पाया जाता है चूंकि प्रत्येक पर्याय कथंचित् पृथक—पृथक है।
प्रश्न—जीव की पर्यायों का वर्णन करें ?
उत्तर—संखेज्जतमसंखेज्जमणंत कप्पं च केवलं णाणं। तह रायदोसमोहा अण्णे वि य जीवपज्जाया।।९८३।। अकसायं तु चरित्तं कसाय वसिओ असंजदो होदि। उवसमदि जह्यि काले तक्काले संजदो होदि।।९८४।। संख्यात को विषय करने वाले होने से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान संख्येय हैं। असंख्यात को विषय करने वाले होने से अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान असंख्येय—असंख्यात कहलाते हैं। अनन्त को विषय करने वाला होने से केवलज्ञान अनन्तकल्प कहलाता है। उसी प्रकार से जीव की राग, द्वेष और मोह पर्यायें हैं। अन्य भी नारक, तिर्यंच आदि तथा बाल, युवा वृद्धत्व आदि पर्यायें होती हैं। कषाय रहित होना चारित्र है। कषाय के वश में हुआ जीव असंयत होता है जिस काल में उपशम भाव को प्राप्त होता है उस काल में यह संयत होता है। अर्थात् आत्मा ज्ञान प्रमाण है और ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है। ज्ञेय लोकालोक प्रमाण है इसलिए ज्ञान सर्वगत माना गया है।
प्रश्न—कषाय के वशीभूत हुआ जीव असंयम को प्राप्त होता है, इसका स्पष्टीकरण करें ?
उत्तर—वरं गणपवेसादो विवाहस्स पवेसणं। विवाहे रागउप्पत्ती गणो दोसाणमागरो।।९८५।। यति अंत समय में यदि गण में प्रवेश करेंगे तो शिष्यादिकों में मोह उत्पन्न होगा तथा मुनिकुल में मोह उत्पन्न होने के लिए कारणभूत ऐसे पाश्र्वस्थादिक पाँच मुनियों से संपर्क होगा। उन पार्श्वस्थ के सम्पर्क की अपेक्षा से विवाह में प्रवेश करना अर्थात् गृह में प्रवेश करना अधिक अच्छा है क्योंकि विवाह में स्त्री आदिक परिग्रहों का ग्रहण होता है और उससे रागोत्पत्ति होती है। परन्तु गण तो सर्व दोषों का आकर स्थान है उसमें मिथ्यात्व, असंयम, कषाय, रागद्वेषादिक उत्पन्न होते हैं। विवाह में मिथ्यात्व नहीं होगा केवल राग उत्पत्ति होती है परन्तु गण प्रवेश में तो सब दोष उत्पन्न होते हैं इसलिए मुनियों को कषाय से दूर रहना ही अच्छा है।
प्रश्न—कारण के अभाव में दोषों का अभाव हो जाता है स्पष्टीकरण कीजिए ?
उत्तर—पच्चयभूदा दोसा पच्च्यभावेण णत्थि उप्पत्ती। पच्चयभावे दोसा णस्संति णिरासया जहा बीयं।।९८६।। हेदू पच्चयभूदा हेदुविणासे विणासमुवयंति। तह्या हेदु विणासो कायव्वो सव्वसाहूहिं।।९८७।। जं जं जे जे जीवा पज्जायं परिणमंति संसारे। रायस्स य दोसस्स य मोहस्स वसा मुणेयव्वा।।९८८।। कारण से दोष होते हैं, कारण के अभाव में उनकी उत्पत्ति नहीं होती है। प्रत्यय के अभाव से निराश्रय दोष नष्ट हो जाते हैं। जैसे कि बीज रूप कारण के बिना अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती। अभिप्राय यही है कि शिष्यादि के निमित्त से मोह—राग—द्वेष उत्पन्न होते हैं और उनके नहीं होने से नहीं होते हैं अत: दोषों से बचने के लिए उन्हें छोड़ देना चाहिए। क्रोध, मान, माया, लोभ ये कषाय हेतु हें। इन लोभादिकों के होने पर ही परिग्रह आदि कार्य होते हैं। अत: इन हेतुओं के नष्ट हो जाने पर परिग्रहादि संज्ञाएँ भी नष्ट हो जाती हैं। सभी साधुओं को इन हेतुओं का विनाश करना चाहिए, क्योंकि लोभादि कषायों के नहीं रहने पर परिग्रह की इच्छा नहीं होती है। ये मूच्र्छा आदि परिणाम ही परिग्रह हैं, इन्हें दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। संसार में जीव नरक, तिर्यंच आदि जिन—जिन पर्यायों को ग्रहण करते हैं, उन उन को रागद्वेष और मोह मोह के अधीन हुए ही ग्रहण करते हैं, क्योंकि सभी संसारिक पर्यायें कर्म के ही आधीन हैं।
प्रश्न—राग—द्वेष का फल क्या है ?
उत्तर—अत्थस्स जीवियस्स य जिब्भोवत्थाण कारणं जीवो। मरदि य मारावेदि य अणंतसो सव्वकाल तु।।९८९।। गृह, पशु, वस्त्र, धन आदि के लिए तथा जीवन अर्थात् आत्मरक्षा के लिए जिह्वा अर्थात् आहार के लिए और उपस्थ अर्थात् कामभोग के लिए राग द्वेष से यह जीव स्वयं सदा ही अनन्त बार प्राण त्याग करता है और अनन्त बार अन्य जीवों का भी घात करता है।
प्रश्न—जिह्वा इन्द्रिय और कामेन्द्रिय जीतने हेतु किस प्रकार समझाते हैं ?
उत्तर—जिब्भोवत्थणिमित्तं जीवो दुक्खं अणदिसंसारे। पत्तो अणंतसो तो जिब्भोवत्थे जयह दाणिं।।९९०।। चदुरंगुला च जिब्भा असुहा चदुरंगुलो उवत्थो वि। अट्ठं गुलदोसेण दु जीवो दुक्खं खु पप्पोदि।।९९१।। इस जीव ने इस अनादि संसार में जिह्वा इन्द्रिय और स्पर्शन इन्द्रिय के वश में होकर अनन्त बार दु:ख प्राप्त किया है। इसलिए हे मुने ! तुम इसी समय इस रसनेन्द्रिय और कामेन्द्रिय को जीतो। चार अंगुल की जिह्वा अशुभ है और चार अंगुल की कामेन्द्रिय भी अशुभ है। इन आठ अंगुलों के दोष से यह जीव निश्चित रूप से दु:ख प्राप्त करता है। अत: इन दोनों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करो।
प्रश्न—स्पर्शन जय क्यों करना चाहिए ?
उत्तर—बीहेदव्वं णिच्चं कट्ठत्थस्स वि तिहत्थिरूवस्स। हवदि य चित्तक्खाभो पच्चय भावेण जीवस्स।।९९२।। घिदभरिद घडसरित्थो पुरिसो इत्थी बलंत अग्गिसमा। तो महिलेयं ढुक्का णट्ठा पुरिसा सिवं गया इयरे।।९९३।। मायाए वहिणीए धूआए मूइ वुड्ढ इत्थीए। बीहेदव्वं णिच्चं इत्थीरूवं णिरावेक्खं।।९९४।। हत्थपादपरिच्छिण्णं कण्णणासवियप्पियं। अविवास सदिं णारिं दूरिदो परिवज्जए।।९९५।। काठ, लेप, आदि कलाकृति में बने हुए भी स्त्री रूप से हमेशा भयभीत रहना चाहिए क्योंकि कारण के वश से अथवा उन पर विश्वास कर लेने से जीव के मन में चंचलता हो जाती है। पुरुष घी के भरे हुए घड़े के सदृश है और स्त्री जलती हुई अग्नि के सदृश है। इन स्त्रियों के समीप हुए पुरुष नष्ट हो गये हैं तथा इनसे विरक्त पुरुष मोक्ष को प्राप्त हुए हैं। माता, बहिन, पुत्री अथवा गूंगी या वृद्धा इन सभी स्त्रियों से डरना चाहिए। स्त्रीरूप की कभी भी अपेक्षा नहीं करना चाहिए। क्योंकि स्त्रियाँ अग्नि के समान सर्वत्र जलाती हैं। तो हाथ—पैर या कान अथवा नाक से विकलांग हो, अथवा छिन्नपाद, नासिकाहीन होने से यद्यपि कुरूपा हो तथा वस्त्ररहित या नग्नप्राय हो उन्हें भी दूर से ही छोड़ देना चाहिए क्योंकि काम से मलिन हुए पुरुष इनकी भी इच्छा करने लगते हैं।
प्रश्न—ब्रह्मचर्य के भेदों का वर्णन कीजिए ?
उत्तर—मण बंभचेर वचि बंभचेर तह काय बंभचेरं च। अहवा हु बंभचेरं दव्वं भावं ति दुवियप्पं।।९९६।। मन से ब्रह्मचर्य के तीन भेद हैं। अथवा द्रव्य और भाव की अपेक्षा से दो प्रकार का ब्रह्मचर्य है। इनमें भाव ब्रह्मचर्य प्रधान है।
प्रश्न—द्रव्य ब्रह्मचर्य के साथ भाव ब्रह्मचर्य प्रधान क्यों है ?
उत्तर—भावविरदो दु विरदो ण दव्वविरदस्स सुग्गई होई। विसयवणरमणलोलो धरियव्वो तेण मणहत्थी।।९९७।। भाव से विरत मनुष्य ही विरत है—क्योंकि द्रव्य विरत की मुक्ति नहीं होती है। इसलिए विषय रूपी वन में रमण करने में चंचल मन रूपी हाथी को बांधकर रखना चाहिए।
प्रश्न—अब्रह्म के कितने कारण हैं, नाम निर्देश करें ?
उत्तर—पढमं विउलाहारं विदियं कायसोहणं। तदियं गंधमल्लाइं चउत्थं गीयवाइयं।।९९८।। तह सयणसोधणं पि य इत्थिसंसग्गं पि अत्थसंगहणं। पुव्वरदिसरणमिंदिय-विसयरदी पणिदरससेवा।।९९९।। अत्यधिक भोजन करना—अब्रह्मचर्य का यह प्रथम कारण है जो कि अब्रह्म कहलाता है। स्नान, उबटन आदि राग के कारणों से शरीर का संस्कार करना द्वितीय अब्रह्म है। सुगन्धित पदार्थ एवं पुष्पमाला आदि की सुगन्धि ग्रहण करना तृतीय अब्रह्म है। बांसुरी, वीणा, तन्त्री आदि वाद्यों का सुनना चतुर्थ अब्रह्म है। रूई के गद्दे, पलंग आदि एवं कामोद्रेक के कारणभूत क्रीडास्थल चित्रशाला आदि व एकान्त स्थानादि में रहना यह पाँचवा अब्रह्म है। चित्त में चंचलता उत्पन्न करती हुई स्त्रियों के साथ सम्पर्वâ रखना, उनके साथ क्रीड़ा करना छठा अब्रह्म है। सुवर्ण आदि का संग्रह करना सातवाँ अब्रह्म है। पूर्वकाल में भोगे हुए भोगों का स्मरण—चिन्तन करना आठवाँ अब्रह्म है। पाँचों इन्द्रियों के विषयों में रति करना नवम कारण है। इष्ट रसों का सेवन करना करना दसवां अब्रह्म है।
प्रश्न—दृढ़ ब्रह्मचर्य का स्वरूप बताइए ?
उत्तर—दसविह मब्बंभमिणं संसार महादुहाण मावाहं। परिहरइ जो महप्पा णो दढबंभव्वदो होदि।।१०००।। जो महात्मा संसार के महादु:खों के लिए स्थान रूप उपरोक्त दस प्रकार के अब्रह्म का परिहार करता है वह दृढ़ ब्रह्मचर्यव्रती होता है।
प्रश्न—परिग्रह परित्याग का फल बताइए ?
उत्तर—कोहमदमायलोहेहिं परिग्गहे लयइ संसजइ जीवो। तेणुभयसंगचाओ कायव्वो सव्वसाहूहिं।।१००१।। क्रोध, मान, माया, और लोभ के द्वारा यह जीव परिग्रह में आसक्त होता है, इसलिए सर्वसाधुओं को बाह्य एवं अन्तरंग उभय परिग्रह का त्याग कर देना चाहिए।
प्रश्न—श्रमण कौन होता है ?
उत्तर—विस्संगो णिरारंभो भिक्खाचरियाए सुद्धभावो य। एगागी झाणरदो सव्वगुणड्ढो हवे समणो।।१००२।। जो नि:संग, निरारम्भ, भिक्षाचर्या में शुद्धभाव, एकाकी, ध्यानलीन और सर्वगुणों से युक्त हो वही श्रमण होता है।
प्रश्न—श्रमण के कितने भेद हैं ?
उत्तर—णामेण जहा समणो ठावहिणए तह य दव्वभावेण। णिक्खेवो वीह तहा चदुव्विहो होई णायव्वो।।१००३।। नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव रूप से श्रमण के चार भेद हैं।
प्रश्न—भावश्रमण का स्वरूप निरूपण कीजिए ?
उत्तर—भावसमणा हु समणा ण सेससमणाण सुग्गई जम्हा। जहिऊण दुविह मुवहिं भावेण सुसंजदो होह।।१००४।। भाव श्रमण ही श्रमण है क्योंकि शेष श्रमणों को कोक्ष नहीं है, इसलिए हे मुने, दो प्रकार के परिग्रह को छोड़ कर भाव से सुसंयत होओ।
प्रश्न—भिक्षा शुद्धि का प्रतिपादन करें ?
उत्तर—वदसीलगुणा जम्हा भिक्खाचरिया विसुद्धिए ठंति। तम्हा भिक्खाचरियं सोहिय साहू सदा विहारिज्ज।।१००५।। भिक्षाचर्या की विशुद्धि के होने पर व्रत, शील, और गुण ठहरते हैं। इसलिए साधु भिक्षाचर्या का शोधन करके हमेशा विहार करें।
प्रश्न—किन गुणों से युक्त साधु को भगवन् कहते हैं ?
उत्तर—भिक्कं वक्कं हिययं सोधिय जो चरदि णिच्च सो साहू। एसो सुट्ठिद साहू भणिओ जिणसासणे भयवं।।१००६।। जो आहार, वचन व हृदय का शोधन करके नित्य ही आचरण करते हैं वे ही साधु हैं। जिन शासन में ऐसे सुस्थित साधु भगवन् कहे गये हैं।
प्रश्न—साधु को जैन—शासन की क्या आज्ञा है ?
उत्तर—दव्वं खेत्तं कालं भावं सत्तिं च सुट्ठु णाऊण। झाणज्झयणं च तहा साहू चरणं समाचरऊ।।१००७।। साधु द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और शक्ति को अच्छी तरह समझकर भलीप्रकार से ध्यान, अध्ययन और चारित्र का आचरण करें।
प्रश्न—त्याग का फल बताइए ?
उत्तर—चाओ य होइ दुविहो संगच्चाओ कलत्तचाओ य। उभयच्चायं किच्चा साहू सिद्धिं लहू लहदि।।१००८।। त्याग दो प्रकार का है—परिग्रह त्याग और स्त्रीत्याग, दोनों का त्याग करके साधु शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है।
प्रश्न—पृथ्वी आरम्भ में किन जीवों की विराधना होती है ?
उत्तर—पुढविकायिगजीवा पुढवीए चावि अस्सिदा संति। तम्हा पुढवीए आरम्भे णिच्चं विराहणा तेसिं।।१००९।। पृथ्वीकायिक जीव और पृथ्वी के आश्रित जीव होते हैं। इसलिए पृथ्वी के आरम्भ में उन जीवों की सदा विराधना होती है।
प्रश्न—असंयम का कारण क्या है ?
उत्तर—तम्हा पुढवि समारंभो दुविहो तिविहेण वि। जिण मग्गाणुचारीणं जावज्जीवं ण कप्पई।।१०१०।। पृथ्वीकायिक आदि पंच स्थावर और त्रस की विराधना यही असंयम का कारण है।
पुढवि कायिगा जीवा पुढविं जे समासिदा। दिट्ठा पुढविसमारंभे धुवा तेसिं विराधणा।। आउकायिगा जीवा आऊं जे समस्सिदा। दिट्ठा आउसमारंभे धुवा तेसिं विराधणा।।कुन्द. मूला.।
जलकायिक जीव और उसके आश्रित रहने वाले अन्य जो त्रस जीव हैं जल के गर्म करने, छानने, गिराने आदि आरम्भ से निश्चित ही उनकी विराधना होती है।
तेउकायिगा जीवा तेउं ते समस्सिदा। दिट्ठा तेउसमारंभे धुवा तेसिं विराधणा।। कुन्द. मूला.।
अग्निकायिक जीव और अग्नि के आश्रित रहने वाले जीव हैं उनकी अग्नि बुझाने आदि आरम्भ से निश्चित ही विराधना होती है।
वाउकायिगा जीवा वाउं ते समस्सिदा। दिट्ठा वाउसमारम्भे धुवा तेसिं विराधणा।। कुन्द. मूला.।
वायु कायिक जीव और उनके आश्रित रहने वाले जो त्रसजीव हैं उनकी वायु के प्रतिबन्ध करने या पंखा करना आदि आरम्भ से निश्चित ही विराधना होती है।
वणप्फदि काइगा जीवा वणप्फदिं जे समस्सिदा। दिट्ठा वणप्फदिसमारंभे धुवा तेसिं विराधणा।। कुन्द. मूला.।
वनस्पतिकायिक जीव और उनके आश्रित रहने वाले जो जीव हैं, वनस्पति फल—पुष्प के तोड़ने, मसलने आदि आरम्भ से उनकी नियम से विराधना होती है।
जे तसकायिगा जीवा तसं जे समस्सिदा। दिट्ठा तससमारंभे धुवा तेसिं विराधणा।।
जो त्रस कायिक जीव हैं और उनके आश्रित जो अन्य जीव हैं उन सबका घात पीडन आदि करने से नियम से उन जीवों की विराधना होती है।
प्रश्न—मिथ्यात्व का कारण बताइए ?
उत्तर—जो पुढविकाइजीवे णवि सद्दहदि जिणेहिं णिद्दिट्ठे। दूरत्थो जिणवयणे तस्स उवट्ठावणा णत्थि।।१०११।।
जो जिनेन्द्र देव द्वारा कथित पृथवीकायिक आदि पंच स्थावर और उनके आश्रित जीवों को स्वीकार नहीं करता श्रद्धान नहीं करता है वह जिनवचन से दूर स्थित है। उसके भी उपस्थापना नहीं होती है वह भी मिथ्यादृष्टि ही है। उसकी मोक्षमार्ग में कदाचित् भी स्थिति नहीं है क्योंकि दर्शन के अभाव में चारित्र और ज्ञान का अभाव ही है।
प्रश्न—मिथ्यात्व की विशुद्धि किस प्रकार से होगी ?
उत्तर—जो पुढविकाय जीवे अइसद्दहदे जिणेहिं पण्णत्ते। उवलद्ध पुण्णपावस्स तस्सुवट्ठावणा अत्थि।।१०१२।। जो जिनदेवों द्वारा प्रज्ञप्त पृथ्वीकायिक आदि पंचस्थावर एवं त्रस जीवों के अस्तित्व का अतिशय श्रद्धान करता है ऐसे पुण्य पाप के ज्ञात उस साधु की उपस्थापना होती है और मिथ्यात्व की विशुद्धि होती है।
प्रश्न—जो पंचस्थावर और त्रस जीवों को नहीं मानते, श्रद्धान नहीं करते उसका फल बताइए ?
उत्तर—ण सद्दहदि जो एदे जीवे पुढविदं गदे। स गच्छे दिग्घमद्धाणं लिगंत्थो वि हु दम्मदी।।१०१३।। जो पृथ्वी कायिक पर्याय को प्राप्त जीवों को और उनके आश्रित जीवों को स्वीकार नहीं करता है, इसी प्रकार से जो जलकायिक, वायुकायिक, अग्निकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक तथा उनके आश्रित जीवों को स्वीकार नहीं करता है वह मुनिवेषधारी होकर भी दुर्मति है अत: दीर्घ संसार में ही भ्रमण करता रहता है।
प्रश्न—सम्पूर्ण जीवों की रक्षा हेतु गणधर देव ने भी तीर्थंकर परमदेव से किस प्रकार प्रश्न पूछे थे ?
उत्तर—कधं चरे कधं चिट्ठे कधमासे कधं सये। कधं भुंजेज्ज भासिज्ज कधं पावं ण बज्झदि।।१०१४।। हे भगवन् कैसे आचरण करें, कैसे ठहरें, कैसे बैठें, कैसे सोवें, कैसे भोजन करें, एवं किस प्रकार बोलें, कि जिससे पाप से नहीं बंधे।
प्रश्न—श्री तीर्थंकर द्वारा गणधर जी को किस प्रकार से उत्तर प्राप्त होता है ?
उत्तर—जदं चरे जदं चिट्ठे जदमासे जदं सये। जदं भुंजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झइ।।१०१५।। ईर्यापथशुद्धि से गमन करे। सावधानी पूर्वक खड़े हो। सावधानी पूर्वक देखकर और पिच्छिका से परिमार्जन करके पर्यंक आदि से बैठें। सावधानी पूर्वक पिच्छिका से प्रतिलेखन करके करवट बदलने रूप आदि क्रियाएँ करते हुए संकुचित गात्र करके रात्रि में शयन करें। सावधानीपूर्वक छयालीस दोष र्विजत आहार ग्रहण करें, तथा सावधानी पूर्वक सत्यव्रत से सम्पन्न होकर भाषा समिति के क्रम से बोलें। इस प्रकार से पाप का बन्ध नहीं होता है अर्थात् कर्मों का आस्रव रूक जाता है।
प्रश्न—यत्नपूर्वक गमन करने का फल क्या है।
उत्तर—जदं तु चरमाणस्य दयापेहुस्स भिक्खुणो। णवं ण बज्झदे कम्मं पोराणं च विधूयदि।।१०१६।। यत्न पूर्वक चलते हुए, दया से जीवों को देखने वाले साधु के नूमन कर्म नहीं बंधते हैं और पुराने कर्म झड़ जाते हैं।
प्रश्न—समयसार अधिकार का उपसंहार किस प्रकार से करते हैं ?
उत्तर—एवं विधाणचरियं जाणित्ता आचरिज्ज जो भिक्खू। णासेऊण दु कम्मं दुविहं पि य लहु लहइ सिद्धिं।।१०१७।। जो साधु इस प्रकार से विधानरूप चारित्र को जानकर आचरण करते हैं वे दोनों प्रकार के कर्मों का नाश करके शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं।
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प्रश्न— आचार्य भगवन् ने पर्याप्ति अधिकार के मंगलाचरण में किनको नमस्कार किया है तथा प्रतिज्ञा में क्या कहा है ?
उत्तर— काऊण णमोक्कारं सिद्धाणं कम्मचक्कमुक्काणं। पज्जत्ती संगहणी वोच्छामि जहाणु पुव्वीयं।।१०४४।।
कर्म समूह से रहित सिद्धों को नमस्कार कर मैं पर्याप्ति का यथाक्रम संग्रह करने वाला अधिकार कहूँगा।
प्रश्न— पर्याप्ति अधिकार में किन विषयों का कथन किया है यह संग्रह सूचक दो गाथाओं में बताइए ?
उत्तर— पज्जत्ती देहो वि य संठाणं काय इंदियाणं च। जोणी आउ पमाणं जोगो वेदो य लेस पविचारो।।१०४५।।
उववादो उव्वट्टण ठाणं च कुलं च अप्पबहुलो य। पयडिट्ठिदि अणुभागप्पदेस बंधो य सुत्तपदा।।१०४६।।
पर्याप्ति, देह, काय—संस्थान, इन्द्रिय—संसिन, योनि, आयु, प्रमाण, योग, वेद, लेश्या, प्रवीचार, उपपाद, अद्वर्तन, स्थान, कुल, अल्पबहुत्व, प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेशबन्ध ये बीस सूत्र पद हैं। जो कि इस अधिकार में कहे जायेंगे। (१) पर्याप्ति : आहार आदि कारणों की पूर्णता का होना पर्याप्ति है। (२) देह : औदारिक, वैक्रियिक और आहार वर्गणा रूप से आये हुए पुद्गल पिण्ड का नाम देह है। अथवा हस्त, पाद, शिर, ग्रीवा आदि अवयवों से परिणत हुए पुद्गल पिण्ड को देह कहते हैं। (३) संस्थान : अवयवों की रचना विशेष। यह पृथ्वीकाय आदि और कर्णेन्द्रिय आदि का होता है। काय संस्थान और इन्द्रिय संस्थान से यह दो भेद रूप है। (४) योनि : जीवों की उत्पत्ति के स्थान का नाम योनि है। (५) आयु : नरक आदि गतियों में स्थिति के लिए कारणभूत पुद्गल समूह को आयु कहते हैं। (६) प्रमाण : ऊँचाई, लम्बाई और चौड़ाई के माप को प्रमाण कहते हैं। ये प्रमाण आयु और अन्य शरीर आदि का समझना। (७) योग : काय, वचन और मन के कर्म का नाम योग है। (८) वेद : मोहनीय कर्म के उदय विशेष से स्त्री—पुरुष आदि की अभिलाषा में हेतु वेद कहलाता है। (९) लेश्या : कषाय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति का नाम लेश्या है। (१०) प्रवीचार : स्पर्शन इन्द्रिय आदि से अनुरागपूर्वक कामसेवन करना प्रवीचार है। (११) उपपाद : अन्य स्थान से आकर उत्पन्न होना उपपाद है। (१२) उद्वर्तन : यहाँ से जाकर अन्यत्र जन्म लेना उद्वर्तन है। (१३) स्थान : जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणा स्थानों को स्थान शब्द से लिया जाता है। (१४) कुल : जाति के भेद को कुल कहते हैं। (१५) अल्पबहुत्व : कम और अधिक का नाम अल्पबहुत्व है। (१६) प्रकृति : ज्ञानावरण आदि रूप से पुद्गल का परिणत होना प्रकृति है। (१७) स्थिति : कर्मस्वरूप को न छोड़ते हुए पुद्गलों के रहने का काल स्थिति है। (१८) अनुभाग : कर्मों का रस विशेष अनुभाग है। (१९) प्रदेश : कर्मभाव से परिणत पुद्गलस्कन्धों को परमाणु के परिणाम से निश्चित करना प्रदेश है। (२०) बन्ध : जीव और कर्म प्रदेशों का परस्पर में अनुप्रवेश रूप से संश्लिष्ट हो जाना बन्ध है।
प्रश्न— पर्याप्ति के कितने भेद हैं बताइए ?
उत्तर— आहारे य सरीरे तह इंदिय आणपाण भासाए। होंति मणो वि य कमसो पज्जत्तीओ जिणक्खादा।।१०४७।।
(१) आहार (२) शरीर (३) इन्द्रिय (४) श्वासोच्छ्वास (५) भाषा और (६) मन ये छह पर्याप्तियाँ होती हैं।
प्रश्न— आहार पर्याप्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिस कारण से यह जीव तीन शरीर के योग्य ग्रहण की गयीं आहार वर्गणाओं को खल, रस, अस्थि, चर्मादि रूप और रक्त वीर्यादिरूप भाग से परिणमन कराने में समर्थ होता है। उस कारण की सम्पूर्णता का होना आहार पर्याप्ति है।
प्रश्न— शरीर पर्याप्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर—जिस कारण से जीव शरीर के योग्य पुद्गल वर्गणाओं को ग्रहण करके उन्हें औदारिक, वैक्रियिक, आहारक शरीर के स्वरूप से परिणमन कराने में समर्थ होता है उस कारण की सम्पूर्णता का होना शरीर पर्याप्ति है।
प्रश्न— इन्द्रिय पर्याप्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिस कारण से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पंचेन्द्रियों के योग्य पुद्गल द्रव्यों को ग्रहण करके यह आत्मा अपने विषयों को जानने में समर्थ होता है उस कारण की पूर्णता का नाम इन्द्रिय पर्याप्ति है।
प्रश्न— श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिस कारण के द्वारा यह जीव श्वासोच्छ्वास के योग्य पुद्गल द्रव्यों को ग्रहण करके श्वासोच्छ्वास रूप रचना करने में समर्थ होता है, उस कारण की सम्पूर्णता का नाम श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति है।
प्रश्न— भाषा पर्याप्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिस कारण से सत्य, असत्य, उभय और अनुभय इन चार प्रकार की भाषा के योग्य पुद्गल द्रव्यों का आश्रय लेकर उन्हें चर्तुिवध भाषा रूप से परिणमन कराने में समर्थ होता है, उस कारण की सम्पूर्णता का नाम भाषा पर्याप्ति हैं।
प्रश्न— मन: पर्याप्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिस कारण से सत्य, असत्य आदि चार प्रकार के मन के योग्य पुद्गल द्रव्यों को ग्रहण करके उन्हें चार प्रकार की मन: पर्याप्ति से परिणमन कराने में समर्थ होता है उस कारण की संपूर्णता को मन पर्याप्ति कहते हैं।
प्रश्न— छह पर्याप्तियों के स्वामी कौन—कौन हैं ?
उत्तर— एइंदिएस चत्तारि होंति तह आदिदो य पंच भवे। वेइंदियादियाणं पज्जत्तीओ असण्णित्ति।।१०४८।।
(१) पृथिवीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक पर्यन्त एकेन्द्रिय जीवों के आहार, शरीर, इन्द्रिय और आनप्राण ये चार पर्याप्तियाँ होती हैं। (२) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के आहार, शरीर, इन्द्रिय, आनप्राण और भाषा ये पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं।
प्रश्न— छह पर्याप्तियों की प्राप्ति किसको होती है ?
उत्तर— छप्पि य पज्जत्तीओ बोधव्वा होंति सण्णिकायाणं। एदाहि अणिव्वत्ता ते दु अपज्जत्तया होंति।।१०४९।।
संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के आहार, शरीर, इन्द्रिय, आनप्राण, भाषा और मन ये छहों पर्याप्तियाँ होती हैं।
प्रश्न— अपर्याप्तक जीव किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिन एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय असंज्ञी अथवा पंचेन्द्रिय जीवों के ये चार, पाँच या छहों पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती वे जीव अपर्याप्तक कहलाते हैं।
प्रश्न— मनुष्य, तिर्यंच और देव नारकियों की पर्याप्तियाँ कितने समय में पूर्ण होती हैं ?
उत्तर— पज्जत्तीपज्जत्ता भिण्णमुहुत्तेण होंति णायव्वा। अणु समयं पज्जत्ती मव्वेसिं चोववादीणं।।१०५०।।
आहार आदि की पूर्णता के कारण को पर्याप्ति कहते हैं। ये पर्याप्तियाँ तिर्यंच और मनुष्यों के एक समय कम दो घड़ी काल रूप अन्तर्मुहूर्त में पूर्ण हो जाती हैं। तथा उपपाद से जन्म लेने वाले देव और नारकियों के शरीर अवयवों की रचना रूप पर्याप्तियों की पूर्णता प्रति समय होती है।
प्रश्न— उपपाद जन्मवालों के प्रतिसमय पर्याप्तियाँ होती हैं, यह वैâसे जाना जाता है ?
उत्तर— जह्यि विमाणे जादो उववादसिला महारहे समणे। अणुसमयं पज्जत्तो देवो दिव्वेण रूवेण।।१०५१।।
जिस विमान में उपपादशिला पर, श्रेष्ठ शय्या पर जन्म लेते हैं वे देव दिव्य रूप के द्वारा प्रतिसमय पर्याप्त हो जाते हैं। भवनवासी आदि से लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त विमानों में जो उपपाद शिलाएँ हैं उनका आकार बन्द हुई सीप के समान है। उन शिलाओं पर सभी अलंकारों से विभूषित, मणियों से खचित, श्रेष्ठ पर्यंकरूप शय्याएँ हैं। उन पर वे देव शोभन शरीर आदि आकार और वर्ण से प्रति समय में पर्याप्त होकर सर्वाभरण से भूषित और सम्पूर्ण यौवन वाले हो जाते हैं। जिस विमान की उपपाद शिला की महाशय्या पर वे देव उत्पन्न होते हैं उसी शय्या पर समय—समय में दिव्य रूप से परिपूर्ण हो जाते हैं। अर्थात् एक अन्तर्मुहूर्त में ही वे देव दिव्य आहार आदि वर्गणाओं को ग्रहण करते हुए दिव्यरूप और यौवन से परिपूर्ण हो जाते हैं।
प्रश्न— देवों के देह का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— देहस्स य णिव्वत्ती भिण्णमुहुत्ते ण होइ देवाणं। सव्वंगभूसणगुणं जोव्वणमवि होदि देहम्मि।।१०५२।।
देवों के कुछ कम दो घड़ी के काल से छहों पर्याप्तियाँ ही पूर्ण हो जाती हैं मात्र इतना ही नहीं, किन्तु सर्वकार्य करने में समर्थ शरीर भी पूर्ण बन जाता है। केवल मात्र शरीर की रचना ही अन्तर्मुहूर्त काल में हो ऐसा नहीं है, किन्तु शरीर—हाथ, पैर, मस्तक, कण्ठ आदि को विभूषित करने वाले भूषण अर्थात् शरीर के सभी अवयव, उनके अलंकार और नाना गुण भी पूर्ण हो जाते हैं तथा वह शरीर नवयौवन से सम्पन्न हो जाता है जो कि परम रमणीय, सर्वालंकार से समन्वित, अतिशय सुन्दर और सर्वजनों को आह्लादित करने वाला होता है।
प्रश्न— देवों में बाल वृद्धत्व तथा संस्थान आदि का कथन करें ?
उत्तर— कणयमिव णिरुवलेवा णिम्मलगत्ता सुयंधणी सासा। अणादिवरचारुरूवा समचउरंसोरुसठाणं।।१०५३।।
देव बाल—वृद्ध पर्याय से रहित आयुपर्यन्त नित्य ही यौवन पर्याय से समन्वित सर्वजन—नयन—मनोहारी रूप सौन्दर्य से युक्त होते हैं, जिनका शरीर समचतुरस्र संस्थान अर्थात् न्यून और अधिक प्रदेशों से रहित प्रमाण—बद्ध अवयवों की पूर्णता युक्त है, जैसे सुवर्ण मलरहित शुद्ध होता है वैसे ही जिनका शरीर मल—मूत्र पसीना आदि से रहित होने से निरुपलेप है। तथा जिनका निर्मल शरीर धातु उपधातु से रहित है, जिनका नि:श्वास सभी की घ्राणेन्द्रिय को आह्लादित करने वाला, सुगन्धित है ऐसे दिव्य शरीर के धारक देव होते हैं।
प्रश्न— क्या देव के शरीर में सात धातुएँ होती हैं ?
उत्तर— केसणहमंसुलोमा चम्मवसारुहिरमुत्तपुरिसं वा। णेवट्ठी णेव सिरा देवाण सरीर संठाणे।।१०५४।।
देवों के शरीर में केश, नख, मूँछ, रोम, चर्म, वसा, रुधिर, मूत्र और विष्ठा नहीं है। तथा हड्डी और सिराजाल भी नहीं होते।
प्रश्न— देवों के शरीर में होने वाले पुद्गलों की विशेषता का वर्णन कीजिए ?
उत्तर— वरवण्ण गंधरसफासादिव्वबहु पोग्गलेिंह णिम्माणं। गेण्हदि देवो देहं सुचरिदकम्माणु भावेण।।१०५५।।
देव अपने द्वारा आचरित शुभकर्म के प्रभाव से श्रेष्ठ वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्शमय बहुत सी दिव्य पुद्गल वर्गणाओं से र्नििमत शरीर को ग्रहण करते हैं।
प्रश्न— तीन शरीरों में से देवों के कौन—सा शरीर होता है ?
उत्तर— वेउव्वियं शरीरं देवाणं माणुसाण संठाणं। सुहणाम पसत्थगदी सुस्सरवयणं सुरूवं च।।१०५६।।
मनुष्य के आकार के समान देवों के वैक्रियिक शरीर, शुभनाम, प्रशस्त गमन, सुस्वरवचन और सुरूप होते हैं ?
प्रश्न— नरक में कितनी पृथ्वी हैं नाम बताइए ?
उत्तर— नरक में सात पृथ्वी हैं—(१) रत्नप्रभा (२) शर्वâराप्रभा (३) बालुकाप्रभा (४) पंकप्रभा (५) धूमप्रभा (६) तम:प्रभा (७) महतम: प्रभा।
प्रश्न— नारकियों के शरीर का वर्णन कीजिए ?
उत्तर— पढमाए पुढवीए णेरइयाणं तु होइ उस्सेहो। सत्तधुण तिण्ण रयणी छच्चेव य अंगुला होंति।।१०५७।।
रत्नप्रभा नामक पहली पृथिवी में तेरह प्रस्तार हैं। (१) सीमंतक नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियों के शरीर का उत्सेध तीन हाथ प्रमाण है। (२) नर नामक द्वितीय प्रस्तार में नारकियों के शरीर का उत्सेध एक धनुष एक हाथ और साढ़े आठ अंगुल है। (३) रोरुक नाम तृतीय प्रस्तार में शरीर की ऊँचाई एक धनुष, तीन हाथ और सत्रह अंगुल है। (४) भ्रान्त नाम चौथे प्रस्तार में नारकियों के शरीर का उत्सेध दो धनुष, दो हाथ, डेढ़ अंगुल है। (५) उद्भ्रान्त नाम पंचम प्रस्तार में तीन धनुष, दश अंगुल उत्सेध है। (६) संभ्रान्त नामक छठे प्रस्तार में तीन धनुष, दो हाथ, साढ़े अठारह अंगुल है। (७) असंभ्रान्त नाम सप्तम प्रस्तार में चार धनुष, एक हाथ और तीन अंगुल प्रमाण शरीर की ऊँचाई है। (८) विभ्रान नामक आठवें प्रस्तार में चार धनुष, तीन हाथ और साढ़े ग्यारह अंगुल शरीर की ऊँचाई है। (९) त्रस्त नामक नवम प्रस्तार में पाँच धनुष, एक हाथ और बीस अंगुल प्रमाण शरीर का उत्सेध है। (१०) त्रसित नामक दसवें प्रस्तार में छह धनुष, साढ़े चार अंगुल प्रमाण शरीर की ऊँचाई है। (११) वक्रान्त नाम ग्यारहवें प्रस्तार में छह धनुष, दो हाथ और तेरह अंगुल प्रमाण है। (१२) अवक्रान्त नामक बारहवें प्रस्तार में सात धनुष और साढ़े इक्कीस अंगुल प्रमाण शरीर की ऊँचाई है। (१३) तेरहवें विक्रांत नामक प्रस्तार में सात धनुष—तीन हाथ और छह अंगुल प्रमाण शरीर की ऊँचाई है।
प्रश्न— द्वितीय पृथिवी में नारकियों के शरीर का प्रमाण बताइए ?
उत्तर— विदियाए पुढवीए णेरइयाणं तु होइ उस्सेहो। पण्णरस दोण्णि बारस धणु रदणी अंगुला चेव।।१०५८।।
शर्करा नामक दूसरी पृथवी में ग्यारह प्रस्तार हैं। (१) सूरसूरक नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊँचाई आठ धनुष, दो हाथ, दो अंगुल और एक अंगुल के ग्यारह भागों मेंदो भाग प्रमाण है। (२) स्तनक नामक दूसरे प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई नव धनुष, बाईस अंगुल और एक अंगुल के ग्यारह भागों में से चार भाग प्रमाण है। (३) मनक नामक तृतीय प्रस्तार में नव धनुष, तीन हाथ, अठारह अंगुल और एक अंगुल के ग्यारह भागों में से छह भाग प्रमाण है। (४) नवक नामक चौथे प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई इस धनुष, दो हाथ, चौदह अंगुल और एक अंगुल के ग्यारह भागों में से आठ भाग है। (५) घाट नामक पाँचवें प्रस्तार में ग्यारह धनुष, एक हाथ, ग्यारह अंगुल और अंगुल के ग्यारह भागों में से दस भाग प्रमाण शरीर की ऊँचाई है। (६) संघाट नामक छठे प्रस्तार में नारकी के शरीर की ऊँचाई बारह धनुष, सात अंगुल तथा ग्यारह भाग प्रमाण है। (७) जिह्वा नामक सप्तम प्रस्तार में बारह धनुष, तीन हाथ, तीन अंगुल और अंगुल के ग्यारह भागों में से तीन भाग प्रमाण ऊँचाई है। (८) जिह्वका नामक आठवें प्रस्तार में नारकी की ऊँचाई तेरह धनुष, एक हाथ, तैंतीस अंगुल और अंगुल के ग्यारह भागों में से पाँच भाग है। (९) लोल नामक नवमें प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई चौदह धनुष, उन्नीस अंगुल और अंगुल के ग्यारह भागों में से सात भाग प्रमाण है। (१०) लोलुप नामक दसवें प्रस्तार में नारकी के शरीर का उत्सेध चौदह धनुष, तीन हाथ, पन्द्रह अंगुल और अंगुल के ग्यारह भागों में से नव भाग प्रमाण है। (११) स्तनलोलुप नामक ग्यारहवें प्रस्तार में नारकियों के शरीर का उत्सेध पन्द्रह धनुष, दो हाथ और बारह अंगुल प्रमाण है।
प्रश्न— तीसरी पृथ्वी बालुका प्रभा में नारकियों की ऊँचाई कितनी है ?
उत्तर— तदियाए पुढवीए णेरइयाणं तु होइ उस्सेहो। एकत्तीसं च धणू एगा रदणी मुणेयव्वा।।१०५९।।
बालुकाप्रभा नरक में नव प्रस्तार हैं। (१) तप्त नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊँचाई सत्रह धनुष, एक हाथ, दश अंगुल और अंगुल के तीन भागों में से दो भाग है। (२) ताप नामक द्वितीय प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई उन्नीस धनुष, नव अंगुल और अंगुल के तृतीय भाग है। (३) तपन नामक तृतीय प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई बीस धनुष, तीन हाथ, आठ अंगुल है। (४) तापन नामक चौथे प्रस्तार में शरीर की ऊँचाई बाईस धनुष, दो हाथ, छह अंगुल और एक अंगुल के तीन भगों में से दो भाग है। (५) निदाघ नामक पाँचवें प्रस्तार में चौबीस धनुष, एक हाथ, पाँच अंगुल और अंगुल के तीन भागों में से एक भाग है। (६) प्रज्वलित नामक छठे प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई छब्बीस धनुष, चार अंगुल है। (७) ज्वलित नामक सप्तम इन्द्रक में नारकियों की ऊँचाई सत्ताईस धनुष, तीन हाथ, दो अंगुल और एक अंगुल के तीन भागों में से दो भाग है। (८) संज्वलन नाम के आठवें प्रस्तार में शरीर की ऊँचाई उनतीस धनुष, दो हाथ, एक अंगुल और अंगुल के तीन भागों में से एक भाग है। (९) नवमें प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊँचाई इकतीस धनुष एक हाथ है।
प्रश्न— चौथी पृथिवी में नारकियों के शरीर की ऊँचाई कितनी है ?
उत्तर— चउथीए पुढवीए णेरइयाणं तु होइ उस्सेहो। बासट्ठी चेव धणू वे रदणी होंति णयव्वा।।१०६०।।
चौथी पंकप्रभा पृथिवी में सात प्रस्तार हैं। (१) आर नामक प्रथम प्रस्तार में पैंतीस धनुष, दो हाथ, बीस अंगुल और अंगुल के सात भागों में से चार भाग है। (२) तार नामक द्वितीय प्रस्तार में चालीस धनुष, सत्रह अंगुल और अगुल के सात भागों में से पाँच भाग है। (३) मार संज्ञक तृतीय प्रस्तार में चवालीस धनुष, दो हाथ, तेरह अंगुल और अंगुल के सात भागों में से पाँच भाग है। (४) वर्चस्क नाम के चतुर्थ प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई उनंचास धनुष, दश अंगुल और एक अंगुल के सात भागों में से दो भाग है। (५) तमक नाम के पाँचवे प्रस्तार में तिरेपन धनुष, दो हाथ, छह अंगुल और एक अंगुल के सात भागों में से छह भाग है। (६) वर्चस्क नाम के चतुर्थ प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई उनंचास धनुष, दश अंगुल और एक अंगुल के सात भागों में से दो भाग है। (७) षड्षड् नामक सातवें प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊँचाई बासठ धनुष और दो हाथ है।
प्रश्न— पाँचवी पृथिवी में नारकियों की ऊँचाई को बताइए ?
उत्तर— पंचमिए पुढवीए णेरइयाणं तु होइ उस्सेहो। सदमेगं पणवीसं धणुप्पमाणेण णादव्वं।।१०६१।।
धूमप्रभा नामक पाँचवी पृथ्वी में पाँच प्रकार हैं। (१) तम नाम के प्रथम प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई पचहत्तर धनुष है। (२) भ्रम नाम के द्वितीय प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई सत्तासी धनुष, दो हाथ है। (३) रूप संज्ञक तृतीय प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई सौ धनुष है। (४) अन्वय नाम के चतुर्थ प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई एक सौ बारह धनुष, दो हाथ है। (५) तमिस्र नाम के पांचवें प्रस्तार में एक सौ पच्चीस धनुष है।
प्रश्न— छठी पृथिवी में नारकियों की ऊँचाई कितनी है ?
उत्तर— छट्ठीए पुढवीए णेरइयाणं तु होइ उस्सेहो। दोण्णि सदा पण्णासा धणुप्पमाणेण विण्णेया।।१०६२।।
तम: प्रभा नामक छठी पृथिवी में तीन प्रस्तार हैं। (१) हिम नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई एक सौ छयासठ धनुष, दो हाथ, सोलह अंगुल है। (२) वर्दल नाम के द्वितीय प्रस्तार में दो सौ आठ धनुष, एक हाथ, आठ अंगुल है। (३) लल्लक नाम के तृतीय प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई दो सौ पचास धनुष समझना चाहिए।
प्रश्न— सातवीं पृथिवी में नारकियों की ऊँचाई का प्रमाण बताइए ?
उत्तर— सत्तमिए पुढवीए णेरइयाणं तु होइ उस्सेहो। पंचेव धणुसयाइं पमाणदो चेव बोधव्वो।।१०६३।।
महातम: प्रभा नामक सातवें नरक में एक ही प्रस्तार है। अवधिस्थान नामक एक ही प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई प्रमाण से पाँच सौ धनुष ही है, अधिक नहीं है।
प्रश्न— नारकियों के शरीर का वर्णन करें ?
उत्तर— नारकियों का शरीर वैक्रियिक होते हुए भी सभी अशुभ पुद्गलों से बना है, इसलिए अत्यन्त बीभत्स है, दुर्गन्धित है, सर्वदु:खों का कारण है। इसका हुण्डक संस्थान है। अशुभनाम, दु:स्वरयुक्त मुख वाला और कृमियों के समूह आदि से व्याप्त है।
प्रश्न— देवों के शरीर की ऊँचाई का प्रमाण बताइए ?
उत्तर— पणवीसं असुराणं सेसकुमाराण दस धणू चेव। विंतर जोइसियाणं दस सत्त धणू मुणेयव्वा।।१०६४।।
असुरकुमार नामक भवनवासी देव और उनके सामानिक आदि देवों के शरीर की उत्कृष्ट ऊँचाई पच्चीस धनुष, नागकुमार आदि शेष भवनवासी देव व उनके सामानिक देवों की दस धनुष, आठ प्रकार के व्यन्तरों की व उनके सामानिक आदि देवों की दस धनुष तथा पाँच प्रकार के ज्योतिषियों की व उनके सामानिक आदि देवों की सात धनुष प्रमाण ऊँचाई है।
प्रश्न— मनुष्य के शरीर की उत्कृष्ट एवं जघन्य अवगाहना (ऊँचाई) कितनी है ?
उत्तर— छद्धणुसहसुस्सेधं चदु दुगमिच्छंति भोगभूमीसु। पणवीसं पंचसदा बोधव्वा कम्म भूमीसु।।१०६५।।
उत्तमभोगभूमि के मनुष्यों की उत्कृष्ट अवगाहना छह हजार धनुष है और जघन्य अवगाहना चार हजार धनुष है। मध्यम भोगभूमि के मनुष्यों की उत्कृष्ट अवगाहना चार हजार धनुष और जघन्य अवगाहना दो हजार धनुष है। जघन्य भोगभूमि के मनुष्यों की उत्कृष्ट अवगाहना दो हजार धनुष एवं जघन्य अवगाहना पाँच सौ पच्चीस धनुष हैं।
प्रश्न— कल्पवासी देवों के शरीर की ऊँचाई का प्रमाण बताइए ?
उत्तर— सोहम्मीसाणेसु य देवा खलु होंति सत्तरयणीओ। छच्चेव य रयणीओ सणक्कुमारे हि माहिंदे।।१०६६।।
सौधर्म और ईशान स्वर्ग के इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश परिषद, आत्मरक्षा , लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक में सभी देव सात हाथ प्रमाण शरीर वाले होते हैं। तथा सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के इन्द्र आदि सभी देव छह हाथ प्रमाण शरीर वाले होते हैं।
प्रश्न— ब्रह्म आदि कल्पों में देवों के शरीर की ऊँचाई बताइए ?
उत्तर— बंभे य लंतवे वि य कप्पे खलु होंति पंच रयणीओ। चत्तारि य रयणीओ सुक्कसहस्सार कप्पेसु।।१०६७।।
ब्रह्म, ब्रह्मोतर, लान्तव और कापिष्ठ इन चार कल्पों में इन्द्र आदि देव पाँच हाथ प्रमाण शरीर वाले होते हैं। तथा शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार इन चार कल्पों में इन्द्र सामानिक आदि देव चार हाथ प्रमाण शरीर के धारक होते हैं।
प्रश्न— आनत आदि देवों के शरीर का प्रमाण बताइए ?
उत्तर— आणदपाणदकप्पे अध्दुद्धाओ हवंति रयणीओ। तिण्णेव य रयणीओ बोधव्वा आरणच्चुदे चापि।।१०६८।।
आनत प्राणत कल्प में इन्द्रादिक देव साढ़े तीन हाथ प्रमाण ऊँचे है। और आरण—अच्युत कल्प में तीन हाथ प्रमाण ऊँचाई वाले होते हैं।
प्रश्न— अधो और मध्य नवग्रैवेयक में देवों के शरीर का प्रमाण कितना होता है ?
उत्तर— हेट्ठिमगेवज्जेसु य अड्ढाइज्जा हवंति रयणीओ। मज्झिमगेवज्जेसु य वे रयणी होंति उस्सेहो।।१०६९।।
अधोभाग में तीन ग्रैवेयक हैं। अहमिन्द्रों के शरीर की ऊँचाई ढाई हाथ है और मध्य भाग में तीन ग्रैवेयकों के अहमिन्द्र देवों की ऊँचाई दो हाथ है।
प्रश्न— उपरिम ग्रैवेयक के देवों के शरीर का उत्सेध और अनुत्तर देवों का उत्सेध बताइए ?
उत्तर— उवरिमगेवज्जेसु य दिवड्ढरयणी हवे य उस्सेहो। अणुदिसणुत्तरदेवा एया रयणी सरीराणि।।१०७०।।
उपरिम ग्रैवेयकों में डेढ़ हाथ की ऊँचाई हैं अनुदिश—अनुत्तर के देव एक हाथ के शरीर वाले हैं।
प्रश्न— एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त तिर्यंचों के शरीर की ऊँचाई द्वारा जघन्य देह का प्रमाण बताइए ?
उत्तर— भागम संखेज्जदिमं जं देहं अंगुलस्स तं देहं। एइंदियादिपंचेंदियंतदेहं पमाणेण।।१०७१।।
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन जीवों के शरीर का प्रमाण जघन्य रूप से द्रव्यांगुल प्रमाण के असंख्यात खण्ड करके उसमें से एक भाग प्रमाण है। अर्थात् इनका जघन्य शरीर द्रव्यांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
प्रश्न— एकेन्द्रिय जीवों की अवगाहना प्रमाण बताइए ?
उत्तर— साहियसहस्समेयं तु जोयणाणं हवेज्ज उक्कस्सं। एयंदियस्स देहं तं पुण पउमत्ति पादव्वं।।१०७२।।
एकेन्द्रिय जीव का उत्कृष्ट शरीर कुछ अधिक—दो कोस अधिक एक हजार योजन प्रमाण है। वनस्पति काविक में यह कमल का जानना चाहिए।
प्रश्न— द्वीन्द्रिय आदि जीवों के उत्कृष्ट शरीर—प्रमाण बताइए ?
उत्तर— संखो पुण वारसजोयणाणि गोभो भवे तिकोसं तु। भमरो जोयणमेत्तं मच्छो पुण जोयणसहस्सं।।१०७३।।
द्वीन्द्रियों में शंख का बारह योजन का शरीर है, त्रीन्द्रियों में गोपालिका या खर्जूरक प्राणी का शरीर तीन कोश है। चतुरिन्द्रियों में भ्रमर का एक योजन—चार कोस प्रमाण है और पंचेन्द्रियाँ में महामत्स्य का उत्कृष्ट शरीर एक हजार योजन लम्बा है।
प्रश्न— जम्बूद्वीप की परिधि का प्रमाण कितना है ?
उत्तर— जंबूद्वीवपरिहिओ तिण्णिव लक्खं च सोलहसहस्सं। बे चेव जोयणसया सत्तावीसा य होंति बोधव्वा।।१०७४।।
तिण्णेव गाउआइं अट्ठावीसं च धणुसयं भणियं। तेरस य अंगुलाइं अद्धंगुलमेव सविसेसं।।१०७५।।
जम्बूद्वीप की परिधि का प्रमाण तीन लाख, सोलह हजार, दो सौ सत्ताईस योजन समझना तथा तीन कोश, अट्ठाईस सौ धनुष, साढ़े तेरह अंगुल और कुछ अधिक प्रमाण है।
प्रश्न— जम्बूद्वीप आदि सोलह द्वीपों के नामों का उल्लेख कीजिए ?
उत्तर— जंबूदीवो धादइसंडो पुक्खरवरो य तह दीवो। वारुणिवर खीरवरो य घिदवरो खोदवर दीवो।।१०७६।।
णंदीसरो य अरुणो अरूणब्भासो य कुंडलवरो य। संखवर रुजग भुजगवर कुसवर वुंâचवरदीवो।।१०७७।।
पहला जम्बूद्वीप, दूसरा धातकीखण्ड द्वीप, तीसरा पुष्करवरद्वीप, चौथा वारूणीवर द्वीप, पाँचवा क्षीरवर छठा घृतवर द्वीप, सातवाँ क्षौद्रवर द्वीप, आठवाँ नन्दीश्वर द्वीप, नवम अरुण द्वीप, दसवाँ अरुणभास द्वीप, ग्यारहवां कुण्डलवर द्वीप, बारहवाँ शंखवर द्वीप, तेरहवाँ रुचकवर द्वीप, चौदहवाँ भुजगवर द्वीप, पन्द्रहवाँ कुशवरद्वीप और सोलहवाँ क्रौचवर द्वीप ये सोलह द्वीपों के नाम हैं।
प्रश्न— द्वीप, समुद्रों का विस्तार कितना—कितना हैं ?
उत्तर— एवं दीवसमुद्दा दुगुण दुगुणवित्थडा असंखेज्जा। एदे दु तिरियलोए सयंभुरमणो दहिं जाव।।१०७८।।
ये द्वीप—समुद्र इस एक रज्जु प्रमाण विस्तार वाले तिर्यग्लोक में, असंख्यात प्रमाण हैं जो कि स्वयंभूरमण समुद्र पर्यंत दूने—दूने विस्तार वाले होते गये हैं। अर्थात् जम्बूद्वीप के विस्तार से लवण समुद्र का विस्तार दूना है, लवण समुद्र के विस्तार से धातकीखण्ड का दूना है। इसी प्रकार से द्वीप से समुद्र का विस्तार दूना है और समुद्र से द्वीप का विस्तार दूना है। इस तरह सभी द्वीप समुद्र दूने—दूने विस्तार वाले होते हुए संख्या को उलंघन का असंख्यात हो गये हैं।
प्रश्न— ‘असंख्यात’ का प्रमाण बताइए ?
उत्तर— जावदिया उद्धारा अड्ढाइज्जाण सागरुवमाणं। तावदिया खलु रोमा हवंति दीवा समुद्दा य।।१०७९।।
ढाई सागरोपम में उद्धार के जितने रोम खण्ड है उतने रोमखण्ड प्रमाण असंख्यात द्वीप और समुद्र माने गये हैं। उद्धार पल्य को समझने की प्रक्रिया इस प्रकार है— दो हजार कोश परिमाण का लम्बा, चौड़ा और गहरा एक कूप—विशाल गड्ढा करके जन्म से सात दिन के मेढे के शिशु के कोमल बारीक रोमों के अग्रभाग जैसे खण्डों से उस गड्ढे को पूरा भर दें। सौ—सौ वर्ष व्यतीत होने पर एक—एक रोमखण्ड को निकालें। उसमें जितना समय लगे उतने समय मात्र का नाम व्यवहार पल्य है। व्यवहार पल्य के एक—एक रोमखण्ड में असंख्यात करोड़ वर्ष के जितने समय हैं उतने खण्ड कर देने चाहिए। पुन: उन एक एक खण्ड को सौ—सौ वर्ष के समयों से गुणा कर देना चाहिए। ऐसा करने से जितने समय होते हैं उतने को उद्धारपल्योपम कहते हैं। एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर कोड़ाकोड़ी होती हैं। ऐसे दस कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्योपम का एक उद्धार सागरोपम होता है। इस प्रकार से बने हुए ढाई उद्धार सागरोपम में जितने उद्धार पल्योपम हैं और उनमें जितने मात्र रोम खण्ड हैं, उतने प्रमाण द्वीप और समुद्र होते हैं।
प्रश्न— समुद्रों के नाम बताइए ?
उत्तर— जंबूदीवो लवणो धादइसंउे य कालउदधी य। सेसाणं दीवाणं दोवसरिसणामया उदधी।।१०८०।।
जम्बूद्वीप को वेष्टित कर लवण नाम का समुद्र है और धातकीखण्ड के बाद कालोदधि है। पुन: शेष द्वीपों के समुद्र अपने—अपने द्वीप सदृश नाम बाले हैं।
प्रश्न— लवण आदि समुद्रों के जल का रस किसके समान है ?
उत्तर— पत्तेयरसा चत्तारि सायरा तिण्णि होंति उदधरसा। अवसेसा व समुद्दा खोद्दरसा होंति णायव्वा।।१०८१।।
वरुणिवर खीरवरो घदवर लवणो य होंति पत्तेया। कालो पुक्खर उदधी सयंभुरमणो य उदयरसा।।१०८२।।
चार समुद्र पृथक् — पृथक् रसवाले हैं। तीन जलरूप रस से परिपूर्ण हैं और शेष समुद्र इक्षुरस के समान स्वाद वाले हैं। वारुणीवर समुद्र का रस मद्य विशेष के समान है। क्षीरवर समुद्र का जल दुग्ध के समान है। घृतवर समुद्र का जल घी के सदृश है। लवण समुद्र का जल नमक के समान खारा है। इस तरह ये चारों समुद्र अपने—अपने नाम के समान वस्तु के रस, वर्ण, गन्ध, स्पर्श और स्वाद वाले हैं। कालोदधि, पुष्कर समुद्र और स्वयंभूरमण समुद्र ये तीन जल के समान ही जल वाले हैं। इन सात समुद्रों के अतिरिक्त सभी समुद्र इक्षुरस के सदृश मधुर और सुस्वादु रस वाले हैं।
प्रश्न— किन समुद्रों में जलचर जीव हैं और किन समुद्रों के जलचर जीव नहीं हैं ?
उत्तर— लवणे काल समुद्दे सयंभुरमणे य होंति मच्छा दु। अवसेसेसु समुद्देसु णत्थि मच्छा य मयरा वा।।१०८३।।
लवण समुद्र में, कालोदधि समुद्र में और स्वयंभूरमण समुद्र में मत्स्य आदि द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त जलचर जीव होते हैं। इन तीन के अतिरिक्त शेष समुद्रों में मत्स्य, मकर एवं अन्य जलचर जीव भी नहीं हैं। अर्थात् द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय—पर्यन्त कोई भी जलचर जीव नहीं होते हैं।
प्रश्न— लवण, कालोदधि समुद्रों में जलचर जीव कितने बड़े होते हैं ?
उत्तर— अट्ठारसजोयणिया लवणे णवजोयणा णदिमुहेसु। छत्तीसगा य कालोदहिम्मि अट्ठारस णदिमुहेसु।।१०८४।।
लवण समुद्र में मत्स्य अठारह योजन की अवगाहना वाले होते हैं। गंगा, सिन्धु आदि नदियों के प्रवेश स्थान में अर्थात् समुद्र के प्रारम्भ में मत्स्य नवयोजन लम्बे हैं। कालोदधि समुद्र में मत्स्य छत्तीस योजन के हैं और वहाँ भी समुद्र के प्रारम्भ में नदियों के प्रवेश स्थान में अट्ठारह योजन वाले हैं।
प्रश्न— स्वयंभूरमण समुद्र में मत्स्यों का उत्कृष्ट शरीर और जघन्य शरीर का प्रमाण बताइए ?
उत्तर— साहस्सिया दु मच्छा सयंभुरमणह्यि पंचसदिया दु। देहस्स सव्वहस्सं कुंथुपमाणं जलचरे सु।।१०८५।।
स्वयंभूरमण समुद्र में मत्स्य एक हजार योजन लम्बे हैं। प्रारम्भ में नदी प्रवेश के स्थान में मत्स्य पाँच सौ योजन लम्बे हैं। जलचरों में कुंथु का शरीर सबसे छोटा होता है।
प्रश्न— पर्याप्त और अपर्याप्त जलचर, स्थलचर और नभचरों के शरीर का प्रमाण कितना होता है ?
उत्तर— जलथलखग सम्मुच्छिमतिरिय अपज्जत्तया विहत्थीदु। जल सम्मुच्छिम पज्जत्तयाण तह जोयणसहस्सं।।१०८६।।
जलचर, स्थलचर और नभचर संमुच्र्छन तिर्यंच अपर्याप्तकों की जघन्य देह एक वितस्ति प्रमाण है। तथा जलचर संमुच्र्छन पर्याप्तकों की देह एक हजार योजन प्रमाण है।
प्रश्न— गर्भजों का उत्कृष्ट शरीर प्रमाण बताइए ?
उत्तर— जलथल गब्भअपज्जत्त खगथलसंमुच्छिमा य पज्जत्ता। खगगब्भजा य उभये उक्कस्सेण धणु पुहत्तं।।१०८७।।
जलचर, स्थलचर, गर्भज, अपर्याप्त जीव एवं नभचर, स्थलचर संमुच्र्छिम पर्याप्त जीव तथा नभचर गर्भज पर्याप्त—अपर्याप्त जीव ये उत्कृष्ट से धनुषपृथक्त्व प्रमाण देह वाले होते हैं।
प्रश्न— पृथक्त्व संख्या किसे कहते हैं ?
उत्तर— तीन के ऊपर और नव के नीचे की संख्या को पृथक्त्व कहते हैं।
प्रश्न— जलचर, थलचर, गर्भज पर्याप्तकों के उत्कृष्ट शरीर के प्रमाण का उल्लेख कीजिए ?
उत्तर— जगगब्भजपज्जत्ता उक्कस्सं पंचजोयणसयाणि। थलगब्भज पज्जत्ता तिगाउदोक्कस्समायामो।।१०८८।।
जलचर, गर्भज पर्याप्तक का उत्कृष्ट देह पाँच सौ योजन है। स्थलचर गर्भज पर्याप्तक की उत्कृष्ट देह तीन कोश लम्बी है।
प्रश्न— पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और मनुष्य इनके उत्कृष्ट शरीर का प्रमाण बताइए ?
उत्तर— अंगुलअसंख भागं बादर सुहुमा य सेसया काया। उक्कस्सेण दु णियमा मणुगा य तिगाउ उव्विद्धा।।१०८९।।
पृथिवी आदि काय बादर—सूक्ष्म अंगुल के असंख्यातवें भाग शरीर वाले हैं और नियम से मनुष्य उत्कृष्ट से तीन कोश ऊँचाई वाले हैं।
प्रश्न— सर्वजघन्य और सर्वोत्कृष्ट शरीर प्रमाण बताइए ?
उत्तर— सुहुमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स तदियसमयह्यि। हवदि दु सव्वजीण्णं सव्वुक्कस्सं जलचराणं।।१०९०।।
सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध अपर्याप्तकजीव के जन्म लेने के तृतीय समय में सर्व जघन्य शरीर होता है। क्यों कि प्रथम और द्वितीय समय में प्रदेशों का विस्पूर्जन—फैलाव होने से अथवा पूर्व शरीर के समीपवर्ती होने से बड़ा शरीर रहता है। पुन: तृतीय समय में प्रदोशों का निचय के अनुसार अवस्थान हो जाने से सर्वजघन्य शरीर हो जाता है। तथा जलचरों में मत्स्य का और वनस्पति काय में कमल का शरीर सर्वोत्कृष्ट होता है।
प्रश्न— पंच स्थावर एवं विकलत्रय जीवों का संस्थान (आकार) कैसा होता है ?
उत्तर— मसुरिय कुसग्गविंदू सूइकलावा पडाय संठाणा। कायाणं संठाणं हरिदतसा णेगसंठाणा।।१०९१।।
पृथ्वीकाय का मसूरिका के समान गोल आकार है। जलकाय का आकार कुश के अग्रभाग पर पड़ी हुई गोल गोल बिन्दु के समान है। अग्निकायिक का आकार सुईयों के समूह के आकार जैसा है। वायुकाय का आकार पताका के आकार का है तथा प्रत्येक साधारण बादर—सूक्ष्म वन्सपति, द्वीन्द्रिय—त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रय जीवों के शरीर का आकार एक प्रकार नहीं है, अनेक रूप है। अर्थात् वे सब अनेक भेदरूप हुण्डक संस्थान वाले हैं।
प्रश्न— पंचेन्द्रियों का संस्थान कैसा होता है ?
उत्तर— समचउरसणाग्गोहासादियखुज्जायवामणा हुंडा। पंचेदियतिरियणरादेवा चउरस्स णारया हुंडा।।१०९२।।
पंचेन्द्रिय, तिर्यंच और मनुष्य समचतुरस्र, न्यग्रोध, स्वाति, कुब्जक और हुण्डक संस्थान वाले होते हैं। देव समचतुरस्र संस्थान वाले हैं और नारकी हुण्डक संस्थान वाले हैं।
प्रश्न— इन्द्रियों का आकार किस प्रकार का होता है।
उत्तर— जवणालिया मसूरी अत्तिमुत्तयं चंदए खुरप्पे च। इन्दिय संठाणा खलु फासस्स अणेय संठाणं।।१०९३।।
श्रोत्रेन्द्रिय का आकार जौ की नाली के समान है, चक्षु इन्द्रिय का आकार मसूरिका के समान गोल है। घ्राणेन्द्रिय का आकार अतिमुक्तक तिल के पुष्प के समान है। जिह्वा इन्द्रिय का आकार अर्धचन्द्र के समान अथवा खुरपे के समान है। स्पर्शन इन्द्रिय के अनेकों आकार होते हैं जो समचतुरस्र आदि भेद से व्यक्त हैं।
प्रश्न— इन्द्रियों के विषय कितने दूरी से ग्रहण कर सकते हैं ?
उत्तर— चत्तारि धणु सदाइं चउसट्ठी धणुसयं च फस्सरसे। गंधे य दुगुण दुगुणा असण्णिपंचिंदिया जाव।।१०९४।।
पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, और वायुकायिक जीव उत्कृष्ट शक्तियुक्त, स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा चार सौ धनुष पर्यन्त मार्ग में स्थित स्पर्श को ग्रहण कर लेते हैं। द्वीन्द्रिय जीव रसना इन्द्रिय द्वारा चौंसठ धनुष तक स्थित रस को ग्रहण कर लेते हैं। वे ही द्वीन्द्रिय जीव स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा आठ सौ धनुष पर्यन्त मार्ग में स्थित स्पर्श का ग्रहण कर लेते हैं। तीन इन्द्रिय जीव घ्राणेन्द्रिय द्वारा सौ धनुष पर्यन्त स्थित गन्ध को ग्रहण कर लेते हैं। ये ही तीन इन्द्रिय जीव स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा सोलह सौ धनुष पर्यन्त मार्ग में अवस्थित स्पर्श को ग्रहण कर सकते हैं और रसना इन्द्रिय द्वारा एक सौ अट्ठाईस धनुष पर्यन्त मार्ग में स्थित रस को ग्रहण कर लेते हैं। चार इन्द्रिय जीव स्पर्श इन्द्रिय द्वारा तीन हजार दो सौ धनुष पर्यन्त स्थित स्पर्श को विषय कर लेते हैं, ये ही जीव रसना इन्द्रिय द्वारा दो सौ छप्पन धनुष पर्यन्त स्थित रस को ग्रहण कर लेते हैं। घ्राणेन्द्रिय द्वारा दो सौ धनुष तक स्थित गन्ध को विषय कर लेते हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के स्पर्शन इन्द्रिय का विषय छह हजार चार सौ धनुष प्रमाण है। अर्थात् वे इतने प्रमाण पर्यन्त मार्ग में स्थित स्पर्श को ग्रहण कर सकते हैं। रसना इन्द्रिय द्वाराये पाँच सौ बारह धनुष पर्यन्त रस को ग्रहण कर लेते हैं एवं घ्राण इन्द्रिय द्वारा चार सौ धनुष पर्यन्त स्थित गन्ध को ग्रहण कर लेते हैं।
प्रश्न— चतुरिन्द्रिय जीव के चक्षु इन्द्रिय का विषय प्रतिपादन करें ?
उत्तर— इगुणतीस जोयणसदाइं चउवण्णाय होइ णायव्वा। चउिंरदियस्स णियमा चक्खुफासं वियाणहि।।१०९५।।
चतुरिन्द्रिय जीव के चक्षु इन्द्रिय का विषय उनतीस सौ चौवन योजन प्रमाण है।
प्रश्न— असंज्ञी पंचेन्द्रिय के चक्षु का विषय स्पष्ट करें ?
उत्तर— उणसट्ठी जोयणसदा अट्ठेव य होंति तह य णायव्वा। असण्णिपंचेंदीए चक्खुप्फासं वियणाहि।।१०९६।।
उनसठ सौ आठ योजन प्रमाण असंज्ञी पंचेन्द्रिय के चक्षु का स्पर्श होता है।
प्रश्न— असंज्ञी पंचेन्द्रिय के श्रोत्र का विषय कितना है ?
उत्तर— अट्ठेवधणुसहस्सा सोदप्फासं असण्णिणो जाण। विसयावि य णायव्वा पोग्गल परिणाम जोगेण।।१०९७।।
असैनी पंचेन्द्रिय जीव के कर्ण इन्द्रिय का विषय आठ हजार धनुष है।
प्रश्न— संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के पाँचों इन्द्रियों के विषयों का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— फासे रसे य गंधे विसया णव जोयणा य णायव्वा। सोदस्स दु वारस जोयणाणिदो चक्खुसो वोच्छं।।१०९८।।
स्पर्शन, रसना और घ्राण इन्द्रिय के विषय नवयोजन प्रमाण हैं। श्रोत्र इन्द्रिय का विषय द्वादश योजन है।
प्रश्न— चक्षु के विषय का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— सत्तेतालसहस्सा वे चेव सदा हवंति तेसट्ठी। चक्ंिखदिअस्स विसओ उवकस्सो होदि अदिरित्तो।।१०९९।।
संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक चक्रवर्ती आदि इतने प्रमाण मार्ग में स्थित रूप को देख लेते हैं। अर्थात् चक्षु इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय सैंतालीस हजार दो सौ त्रेसठ योजन, एक कोश, बारह सौ पन्द्रह धनुष, एक हाथ दो अंगुल और कुछ अधिक जौ का चतुर्थ भाग प्रमाण है।
प्रश्न— इस प्रमाण को निकालने के लिए करण सूत्र बताइए ?
उत्तर— अस्सीदिसदं विगुणं दीवविसेसस्स वग्ग दहगुणियं। मूलं सट्ठिविहत्तं दिणद्धमाणाहतं चक्खू।।११००।।
एक सौ अस्सी को दूना करके जम्बूद्वीप के प्रमाण में से उसे घटाकर पुन: उसका वर्ग करके उसे दस से गुणा करना, पुन: उसका वर्गमूल निकाल कर साठ का भाग देना और उसे नव से गुणा करना जो संख्या आये वह चक्षु का उत्कृष्ट विषय है।
प्रश्न— स्वामित्व पूर्वक योनि के स्वरूप का वर्णन करें ?
उत्तर— एइंदियणेरइया संपुडजोणी हवंति देवा य। वियलिंदिया य वियडा संपुडवियडा य गब्भेसु।।११०१।।
एकेन्द्रिय जीव, नारकी और देव से संवृत योनि वाले होते हैं। विकलेन्द्रिय जीव विवृत योनि वाले हैं और गर्भ में जन्म लेने वाले संवृत विवृत योनि वाले होते हैं। सचित्त, शीत, संवृत, अचित्त, उष्ण, विवृत, सचित्ताचित्त, शीतोष्ण, शीतोष्ण और संवृतविवृत ये योनि के नव भेद हैं।
प्रश्न— पुन: उसकी विशेष योनि को बताइए ?
उत्तर— अच्चित्ता खलु जोणी णेरइयाणं च होइ देवाणं। मिस्सा य गब्भजम्मा तिविहा जोणी दु सेसाणं।।११०२।।
नारकी और देवों की अचित्त योनि होती है। गर्भजन्म वालों को मिश्र योनि है तथा शेष जीवों की तीनों प्रकार की योनियाँ होती हैं।
प्रश्न— पुनरपि उन्हीं जीवों की विशेष योनि को बताइए ?
उत्तर— सीदुण्हा खलु जोणी णेरइयाणं तहेव देवाणं। तेऊण उसिणजोणी तिविहा जोणी दु सेसाणं।।११०३।।
नारकी और देवों के शीतोष्ण योनि है, अग्निकायिक जीवों की उष्णयोनि है तथा शेष जीवों के तीन प्रकार की योनि होती हैं।
प्रश्न— इन जीवों के विशेष योनि भेद को प्रतिपादित करें ?
उत्तर— संरवावत्तयजोणी कुम्मुण्णद वंसपत्तजोणी य। तत्थ य संखावत्ते णियमादु विवज्जए गब्भो।।११०४।।
शंख के समान आवर्त जिसमें हैं वह शंखावर्तक योनि है। कछुए के समान उन्नत योनि कूर्मोन्नत कहलाती है और बाँस के पत्र के समान योनि को वंशपत्र योनि कहते हैं। इनमें से शंखावर्तक योनि में गर्भ नियम से विनष्ट हो जाता है। अत: शंखावर्तक योनि वाली स्त्रियाँ वंध्या होती हैं।
प्रश्न— किन योनियों में किन जीवों की उत्पत्ति होती है ?
उत्तर— कुम्मुण्णदजोणीए तित्थयरा दुविहचक्कवट्टी य। रामावि य जायंते सेसा सेसेसु जीणीसु।।११०५।।
विशिष्ट सर्वशुचि प्रदेशरूप अथवा शुद्ध पुद्गलों के समूह रूप कूंर्मोन्नत योनि में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, प्रतिवासुदेव और बलभद उत्पन्न होते हैं। शेष अन्य जन तथा भोगभूमिज आदि शेष अर्थात् वंशपत्र और शंखावर्तक योनि से उत्पन्न होते हैं। किन्तु शंखावर्तक में गर्भ नष्ट हो जाता है अत: वह भोगभूमिजों के नहीं होती है, क्योंकि वे अनपवत्र्य—अकाल मृत्यु रहित आयु वाले होते हैं।
प्रश्न— संवृत आदि योनि के विशेष भेद रूप चौरासी लाख योनि भेदों को प्रतिपादन करें ?
उत्तर— णिच्चिदर धादु सत्तय तरु दस विगलिंदियेसु छच्चेव। सुरणरतिरिए चउरो चोद्दस मणुएसु सदसहस्सा।।११०६।।
नित्य निगोद, इतरनिगोद, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इनकी सात लाख, वनस्पति की दस लाख, विकलेन्द्रियों की छह लाख, देव—नारकी और तिर्यंचों की चार—चार लाख और मनुष्यों को चौदह लाख योनियाँ हैं।
प्रश्न— आयु का स्वरूप प्रमाण द्वारा स्वामित्व का निरूपण करें ?
उत्तर— वारसवास सहस्सा आऊ सुद्धेसु जाण उक्कस्सं। खर पुढवि कायगेसु य वाससहस्साणि बावीसा।।११०७।।
पृथ्वीकायिक की उत्कृष्ट आयु बारह हजार वर्ष है और खर—पृथ्वीकायिक की बाईस हजार वर्ष है।
प्रश्न— जलकायिक और अग्निकायिक की आयु का प्रमाण कितना है ?
उत्तर— सत्त दु वाससहस्सा आऊ आउस्स होइ उक्कस्सं। रत्तिंदियाणि तिण्णि दु तेऊणं होइ उक्कस्सं।।११०८।।
जलकायिकों की उत्कृष्ट आयु सात हजार वर्ष है। अग्निकायिकों की उत्कृष्ट आयु तीन दिन—रात की है।
प्रश्न— वायुकायिक जीवों की और वनस्पतिकायिकों की उत्कृष्ट आयु कितनी है ?
उत्तर—तिण्णि दु वाससहस्सा आऊ वाउस्स होइ उक्कस्सं। दसवाससहस्साणि दु वणप्फदीणं तु उक्कस्सं।।११०९।।
वायुकायिक जीवों की उत्कृष्ट आयु तीन हजार वर्ष है और वनस्पतिकायिक जीवों की उत्कृष्ट आयु दश हजार वर्ष हैं
प्रश्न— विकलेन्दियों की आयु के प्रमाण का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— वारस वासा वेइंदियाणमुक्कस्सं भवे आऊ। राइंदियाणि तेइंदियाण मुगुवण्ण उक्कस्सं।।१११०।।
दो इन्द्रियों की बारह वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट आयु है। तीन इन्द्रियों की उनंचास रात—दिन की उत्कृष्ट आयु है।
प्रश्न— चार इन्द्रिय और पांच इन्द्रिय जीवों की आयु कितनी है ?
उत्तर— चउरिंदियाणमाऊ उक्कस्सं खलु हवेज्ज छम्मासं। पंचेंदियाणमाऊ एत्तो उइढं पवक्खामि।।११११।।
मच्छाण पुव्वकोडी परिसप्पाणं तु णवय पुव्वंगा। बादालीस सहस्सा उरगाणं होइ उक्कस्सं।।१११२।।
चार इन्द्रिय जीवों की छह मास की उत्कृष्ट आयु है। भ्रमर आदि चार इन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट आयु छह मास तक है। मत्स्यों की पूर्वकोटि, परिसर्पों की नवपूर्वांग और सर्पों की व्यालीस हजार वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट आयु है।
प्रश्न— पूर्व किसे कहते हैं ?
उत्तर— एक लाख वर्ष को चौरासी से गुणा करने पर पूर्वांग होता है। पूर्वांग को चौरासी लाख से गुणा करने पर पूर्व होता है। अर्थात् सत्तर लाख, छप्पन हजार करोड़ वर्षों (७०५६०००,०००००००) का एक पूर्व होता है।
प्रश्न— पक्षियों और असंज्ञी जीवों की उत्कृष्ट आयु का प्रमाण कितना है ?
उत्तर— पक्खीणं उक्कस्सं वाससहस्सा बिसत्तरी होंति। एगा य पुव्वकोडी असण्णीणं तह य कम्मभूमीणं।।१११३।।
भैरूढ आदि पक्षियों की उत्कृष्ट आयु बहत्तर हजार वर्ष है। असंज्ञी जीव और कर्मभूमि जीवों की उत्कृष्ट आयु एक काटि पूर्व वर्ष है।
प्रश्न— भोगभूमिजों की आयु कितने प्रमाण है ?
उत्तर— हेमवदवंसयाणं तहेव हेरण्णवंसवासीणं। मणुसेसु य मेच्छाणं हवदि तु पलिदोपमं एक्कं।।१११४।।
पाँच हैमवतक्षेत्र हैं, उनमें जघन्य भोगभूमि है। पाँच हैरण्यवत क्षेत्र हैं, उनमें भी जघन्य भोगभूमि हैं। इनमें होने वाले भोग—भूमिजों की उत्कृष्ट आयु एक पल्य है। सर्वम्लेच्छ खण्डों में होने वाले, भोगभूमि के प्रतिभाग में होने वाले अथवा अन्तद्र्वीप में होने वाले कुभोगभूमि के मनुष्य—इन सब की उत्कृष्ट आयु एक पल्योपम प्रमाण है।
प्रश्न— मध्यम भोगभूमिजों आदि की उत्कुष्ट आयु कितने प्रमाण है ?
उत्तर— हरिरम्मयवंसेसु य हवंति पलिदोवमाणि खलु दोण्णि।। तिरिएसु य सण्णीणं तिण्णि य तह कुरुवगाणं च।।१११५।।
हरिक्षेत्र और रम्यक क्षेत्रों में मध्यम भोगभूमि हैं। वहाँ के मनुष्यों एवं तिर्यंचों की उत्कृष्ट आयु तीन पल्योपम है। म्लेच्छ खण्ड के मनुष्यों की, कुभोगभूमि के मनुष्यों की तथा भोगभूमि—प्रतिभागज मनुष्यों की आयु एक पल्योपम है।
प्रश्न— नारकी और देवों की आयु प्रमाण कितना है ?
उत्तर— देवेसु णारयेसु य तेत्तीसं होंति उदधिमाणाणि। उक्कस्सयं तु आऊ वाससहस्सा दस जहण्णा।।१११६।।
देवों और नारकियों की उत्कृष्ट आयु तेंतीस सागर प्रमाण और जघन्य आयु दश हजार वर्ष है।
प्रश्न— नारकियों की उत्कृष्ट आयु का प्रमाण सर्व पृथ्वीयों में कितना है ?
उत्तर— एकं च तिण्णि सत्तय दस सत्तरसेव होंति बावीसा। तेत्तीसमुदधिमाणा पुढवीण ठिदीण मुक्कस्सं।।१११७।।
सात नरकों में क्रम से उत्कृष्ट आयु रत्नप्रभा में एक सागर, शर्कराप्रभा में तीन सागर, बालुकाप्रभा में सात सागर, पंकप्रभा में दश सागर, धूमप्रभा में सत्रह सागर, तम: प्रभा में बाईस सागर, और महातम: प्रभा में तेंतीस सागर प्रमाण है।
प्रश्न— सर्वपृथिवियों में नारकियों की (तथा कतिपय देवों की) जघन्य आयु का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— पढमादिय मुक्कस्सं बिदियादिसु साधियं जहण्णत्तं। धम्माय भवणिंवतर वाससहस्सा दस जहण्णं।।१११८।।
प्रथम आदि नरकों की जो उत्कृष्ट आयु है, द्वितीय आदि नरकों में वही कुछ अधिक जघन्य आयु है। धर्मा नामक पृथ्वी में तथा भवनवासी और व्यन्तरों में जघन्य आयु दश हजार वर्ष है। जैसे प्रथम नरक में जो उत्कृष्ट आयु है, द्वितीय नरक में एक समय अधिक वही आयु जघन्य हो जाती है। द्वितीय नरक में जो उत्कृष्ट आयु है उसमें एक समय मिलाकर वही तृतीय नरक में जघन्य हो जाती है।
प्रश्न— भवनवासी और व्यन्तरों की उत्कृष्ट आयु का प्रमाण कितना है ?
उत्तर— असुरेसु सागरोवम तिपल्ल पल्लं च णागभोमाणं। अद्धाद्दिज्ज सुवण्णा दु दीव सेसा दिवड्ढं तु।।१११९।।
असुरों में उत्कृष्ट आयु कए सागर, नागकुमार की तीन पल्य, व्यन्तरों की एक पल्य, सुपर्णकुमारों की ढाई पल्य, द्वीपकुमारों की दो पल्य और शेष कुमारों की डेढ़ पल्य प्रमाण है।
प्रश्न— ज्योतिषियों की जघन्य व उत्कृष्ट आयु तथा इन्द्रिादिकों की जघन्य आयु प्रमाण कितना है ?
उत्तर— पल्लट्ठभाग पल्लं च साधियं जोदिसाण जहण्णिदरम्। हेट्ठिल्लुक्कस्सठिदी सक्कादीणं जहण्णा सा।।११२०।।
ज्योतिषी देवों की जघन्य आयु पल्य के आठवें भाग है और उत्कृष्ट आयु कुछ अधिक एक पल्य है। नीचे के देवों की जो उत्कृष्ट आयु है वही वैमानिक इन्द्रादि की जघन्य आयु है।
प्रश्न— सौधर्मादिकों में उत्कृष्ट स्थिति क्या है ?
उत्तर— वे सत्तदसय चोद्दस अट्ठार वीस बावीसा। एयाधिया य एत्तो सक्कादिसु सागरुवमाणं।।११२१।।
सौधर्म और ईशान स्वर्ग में देवों की उत्कृष्ट आयु दो सागर है। यह कथन घातायुष्क की अपेक्षा के बिना है। घातायुष्क की अपेक्षा से यह अर्धसागर अधिक होकर ढाई सागर प्रमाण है। यह घातायुष्क की विवक्षा सहस्रार नामक बारहवें स्वर्ग तक है। अत: वहाँ तक में निम्न कथित उत्कृष्ट आयु में अर्धअर्ध सागर बढ़ा कर ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि सहस्रार के ऊपर घातायुष्क जीवों की उत्पत्ति का अभाव है अत: आगे बढ़ाना चाहिए। सानत्कुमार और माहेन्द्र में उत्कृष्ट आयु सात सागर है। ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर स्वर्गों में दश सागर है, किन्तु ब्रह्म स्वर्ग के लौकान्तिक देवों की उत्कृष्ट आयु आठ सागर है। लान्तव—कापिष्ठ में चौदह सागर है। शुक्र महाशुक्र में सोलह सागर है। शतार—सहस्रार में अठारह सागर है। आनत—प्राणत में बीस सागर और आरण—अच्युत्त स्वर्ग में बाईस सागर प्रमाण है। इससे आगे नवग्रैवेयकों में एक एक सागर अधिक होती गई हैं सुदर्शन नामक प्रथम गैवेयक में तेईस सागर, अमोघनामक द्वितीय ग्रैेयक में चौबीस सागर, सुप्रबुद्ध नामक तृतीय में पच्चीस सागर, यशोधर नामक चतुर्थ में छब्बीस सागर, सुभद्र नामक पाँचवें में सत्ताईस सागर, सुविशाल नामक छठे में अट्ठाईस सागर, सुमनस्य नामक सातवें में उनत्तीस सागर, सौमनस नामक आठवें में तीस सागर और प्रीतिंकर नामक नौवे ग्रैवेयक में इकत्तीस सागर उत्कृष्ट आयु है। आगे नव अनुदिशों में बत्तीस उत्कृष्ट आयु है। और सर्वार्थसिद्धि में उत्कृष्ट आयु तैतीस सागर प्रमाण है।
प्रश्न— सौधर्म आदि देवियों की उत्कृष्ट आयु का प्रमाण कितना है ?
उत्तर— पंचादी वेहिं जुदा सत्तावीसा य पल्ल देवीणं। तत्तो सत्तुत्तरिया जावदु अरणप्पयं कप्पं।।११२२।।
सौधर्म स्वर्ग में देवियों की उत्कृष्ट आयु पाँच पल्य है। ईशान स्वर्ग में सात पल्य, सानत्कुमार में नौ पल्य, माहेन्द्र स्वर्ग में ग्यारह पल्य, ब्रह्मोत्तर में पन्द्रह पल्य, लान्तव में सत्रह पल्य, कापिष्ठ में उन्नीस पल्य, शुक्र में इक्कीस पल्य, महाशुक्र में तेईस पल्य, शतरा में पच्चीस पल्य, सहस्रार में सत्ताईस पल्य, आनत में चौंतीस पल्य, प्राणत में इकतालीस पल्य, आरण में अड़तालीस पल्य, अच्युत में पचपन की उत्कृष्ट आयु हैं। अर्थात् पाँच पल्य से शुरू करके सहस्रार स्वर्ग की सत्ताईस पल्य तक दो—दो पल्य बढ़ाई गई है। पुन: आगे सात—सात पल्य बढ़ कर सोलहवें स्वर्ग में पचपन पल्य हो गयी है।
प्रश्न— देवियों की आयु के प्रमाण का दूसरा उपदेश बताइए ?
उत्तर— पणयं दस सत्तधियं पणवीयं तीसमेव पंचधियं। चत्तालं पणदालं पण्णाओ पण्णपण्णाओ।।११२३।।
सौधर्म और ईशान स्वर्ग में देवियों की उत्कृष्ट आयु पाँच पल्य है। सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में सत्रह पल्य है। ब्रह्म—ब्रह्मोत्तर में पच्चीस पल्य है। लान्तव—कापिष्ट में पैंतीस पल्य है। शुक्र—महाशुक्र में चालीस पल्य है। शतार—सहस्रार में पैंतालीस पल्य है। आनत प्राणत में पचास पल्य है और आरण— अच्युत में पचपन पल्य की उत्कृष्ट आयु है।
प्रश्न— ज्योतिषी देवों की स्वामित्वपूर्वक विशेष आयु का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— चंदस्स सदसहस्सं सहस्स रविणो सदं च सुक्कस्स। वासाधिए हि पल्लंलेहिट्ठं वरिसणामस्स।।११२४।।
चन्द्र की एक लाख वर्ष अधिक एक पल्य, सूर्य की सहस्र वर्ष अधिक एक पल्य, शुक्र की सौ वर्ष अधिक एक पल्य, बृहस्पति की सौ वर्ष कम एक पल्य आयु है।
प्रश्न— शेष ज्योतिषियों की आयु किस प्रकार है ?
उत्तर— सेसाणं तु गहाणं पल्लद्धं आउग मुणेयव्वं। ताराणं च जहण्णं पादद्धं पादमुक्कस्सं।।११२५।।
शेष ग्रहों की आयु अर्ध पल्य समझना। ताराओं की जघन्य आयु पाव पल्य का आधा है और उत्कृष्ट आयु पाव पल्य है।
प्रश्न— तिर्यंच और मनुष्यों की जघन्य आयु का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— सव्वेसिं अमणाणं भिण्णमुहुत्तं हवे जहण्णेण। सोवक्कमाउगाणं सण्णीणं चावि एमेव।।११२६।।
सभी असंज्ञी जीवों की आयु जघन्य से अन्तर्मुहुर्त है। सोपक्रम आयु वाले संज्ञी जीवों की भी अन्तर्मुहूर्त है।
प्रश्न— सोपक्रम क्या हैं ?
उत्तर— उपक्रम का अर्थ है—घात अर्थात् विष, वेदना, रक्त, क्षय, भय, संक्लेश, शस्त्रघाव उच्छ्वास, निश्वास का निरोध इन कारणों से आयु का घात होना उपक्रम है। ऐसे उपक्रम सहित आयु वाले अकाल मृत्यु वाले जीवों को सोपक्रम कहते हैं।
प्रश्न— जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कितना होता है ?
उत्तर— अन्तर्मुहूर्त के क्षुद्रभव मात्र अर्थात् उच्छ्वास के किंचित् न्यून अठारवें भाग मात्र समझना चाहिए।
प्रश्न— संख्यात प्रमाण का निरूपण करें ?
उत्तर— संखेज्जमसंखेज्जं विदियं तदियमणंतयं वियाणहि। तत्थ य पढमं णवहा णवहा हवे दोण्णि।।११२७।।
संख्यात : दो संख्या आदि को लेकर एक कर्म जघन्य परीत संख्यात पर्यन्त संख्या का नाम संख्यात है। यह श्रुतज्ञान का विषय है। जो संख्या को उल्लंघन कर चुका है वह असंख्यात है। वह अवधिज्ञान का विषय है। जो असंख्यात का भी उल्लंघन कर चुका है। वह अनन्त है। वह केवलज्ञान का विषय है। प्रथम संख्यात के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट की अपेक्षा तीन भेद हैं। असंख्यात के नौ भेद हैं और अनन्त के भी नौ भेद हैं।
प्रश्न— उपमा प्रमाण का प्रतिपादन करे ?
उत्तर— पल्लो सायर सूई पदरो य घणंगुलो य जगसेढी। लोग पदरो य लोगो अट्ठ दु माणा मुणेयव्वा।।११२८।।
पल्योपम, सागरोपम, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, धनांगुल जगत्छ्रेणी, लोकप्रतर और लोक ये आठ प्रकार का प्रमाण जानना चाहिए। दश कोड़ाकोड़ी अद्धापल्यों का एक अद्धासागर होता है। इस सागर से देव, नारकी, मनुष्य और तिर्यंच की कर्म स्थिति, भवस्थिति और आयु की स्थिति को जानना चाहिए।
प्रश्न— सूच्यंगुल किसे कहते हैं ?
उत्तर— अद्धापल्योपम को आधा करके पुन: उस आधे का आधा ऐसे ही एक रोम जब तक न आ जावे तब तक उसे आधा आधा करना। इस तरह करने से इस अद्धापल्य के जितने अद्र्धच्छेद होते हैं उतने मात्र बार अद्धापल्य को पृथक्—पृथक् रख कर पुन: उन्हें परस्पर में गुणित कर देने से जो प्रमाण आता है उतने मात्र आकाश प्रदेश की आवली के आकार में रची गयी लम्बी पंक्ति में जितने प्रमाण प्रदेश हैं उनको सूच्यंगुल कहते हैं।
प्रश्न— प्रतरांगुल किसे कहते हैं ?
उत्तर— सूच्यंगुल को सूच्यंगुल से गुणा करने पर जो प्रमाण आता है वह प्रतरांगुल है।
प्रश्न— घनांगुल किसे कहते हैं ?
उत्तर— प्रतरांगुल को सूच्यंगुल से गुणा करने पर घनांगुल होता है।
प्रश्न— राजू किसे कहते हैं ?
उत्तर— पच्चीस कोड़ाकोड़ी उद्धारपल्यों के जितने रूप हैं और एक लाख योजन के जितने उद्र्धच्छेद हैं उनमें एक रूप मिलाकर इन एक—एक को दुगुना करके पुन: परस्पर में गुणित करने से जो प्रमाण होता है। उसे राजू कहते हैं।
प्रश्न— जगत् श्रेणी किसे कहते हैं ?
उत्तर— सात राजू की एक जगच्छ्रेणी होती है। इस जगच्छ्रेणी से जगच्छ्रेणी को गुणा करने पर जगत्प्रतर होता है। जगत्प्रतर को जगत् श्रेणी से गुणा करने पर लोक का प्रमाण होता है।
प्रश्न— स्वामी की अपेक्षा योग का स्वरूप प्रतिपादन करें ?
उत्तर— वेइंदियादि भासा भासा य मणो य सण्णि कायाणं। एइंदिया य जीवा अमणाय अभासया होंति।।११२९।।
संज्ञी जीवों के काय योग, वचनयोग, मनोयोग ये तीन योग होते हैं। द्वीन्द्रिय से लेकर असैनी पंचेन्द्रिय पर्यंत जीवों के वचन योग और काययोग ये दो होते हैं तथा पृथ्वीकायिक से वनस्पतिकायिक पर्यंन्त एकेन्द्रिय जीवों में एक काय योग ही होता है। सिद्ध भगवान तीनों योगों से रहित होते हैं।
प्रश्न— स्वामी की अपेक्षा से वेद का स्वरूप प्रतिपादन करें ?
उत्तर— एइंदिय वियलिंदिय णारय सम्मुच्छिमा य खलु सव्वे। वेदे णपुंसगा ते णादव्वा होंति णियमादु।।११३०।।
स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद की अपेक्षा वेद के तीन भेद हैं। इन्हें लिंग भी कहते हैं। जिसमें गर्भ वृद्धिगंत होता है उसे स्त्री कहते हैं। जो पुरु अर्थात् श्रेष्ठ गुणों को जन्म देता है उसे पुरुष कहते हैं तथा जो न स्त्री है न पुरुष उसे नपुंसक कहते हैं। एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय, नारकी, सम्मूच्र्छन जन्म से उत्पन्न होने वाले पंचेन्द्रिय संज्ञी और असंज्ञी जीव इन सबके नियम से एक नपुंसक वेद ही होता है।
प्रश्न— स्त्रीलिंग और पुिंल्लग के स्वामी कौन हैं ?
उत्तर— देवा य भोगभूमा असंखवासाउगा मणुयतिरिया। ते होंति दोसुभेदेसु णत्थि तेसिं तदियवेदो।।११३१।।
भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पवासी ये चार प्रकार के देव, तीसों भोगभूमियों में उत्पन्न होने वाले तिर्यंच और मनुष्य, भोगभूमि प्रतिभाग में उत्पन्न हुए असंख्यात वर्ष की आयु वाले तथा सभी म्लेच्छ खण्डों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य और तिर्यंच स्त्रीिंलग और पुिंल्लग ही होते हैं। उनमें नपुंसक लिंग नहीं होता है।
प्रश्न— तीन लिंग वालों के स्वामी कौन हैं ?
उत्तर— पंचेंदिया तु सेसा सण्णि असण्णीय तिरिय मणुसा य। ते होंति इत्थिपुरिसा णपुंसगा चावि वेदेहिं।।११३२।।
पंचेन्द्रिय सैनी और असैनी तिर्यंच और मनुष्यों में स्त्री, पुरुष और नपुंसक लिंग—तीनों वेद होते हैं।
प्रश्न— देवगति में कौन से स्वर्ग तक देवियों का जन्म होता है ?
उत्तर— आ ईसाणा कप्पा उववादो होई देवदेवीणं। तत्तों परं तु णियमा उववादो होइ देवाणं।।११३३।।
भवनवासी, व्यन्तर ज्योतिष्क और सौधर्म—ईशान स्वर्ग तक देव और देवियों का उपपाद होता है। इसके ऊपर सनत्कुमार आदि स्वर्गों में देवों की ही उत्पत्ति सम्भव है। वहाँ देवांगनाओं की उत्पत्ति सम्भव नहीं है।
प्रश्न— यदि देवियाँ ईशान स्वर्ग तक ही उत्पन्न होती हैं तो उनका गमन कितनी दूरी पर्यन्त है ?
उत्तर— जावदु आरण अच्चुद गमणागमणं च होइ देवीणं। तत्तो परं तु णियमा देवीणं णत्थि से गमणं।।११३४।।
सोलहवें स्वर्ग पर्यन्त ही देवियों का गमनागमन होता है। उसके ऊपर नवग्रैवेयेक, नवअनुत्तर (नव अनुदिश) और पाँच अनुत्तरों में देवियों का गमन नहीं है।
कंदप्पमाभिजोगा देवीओ चावि आरण चुदोत्ति। लंतवगादो उवरिं ण संति संमोहखिब्भिसया।।११३५।।
कान्दर्प और आभियोग्य देव तथा देवियाँ आरण—अच्युत पर्यन्त ही हैं एवं लान्तव कल्प से ऊपर सम्मोह और किल्विषिक देव नहीं हैं।
प्रश्न— नरकों में कौन सी लेश्यायें होती हैं ?
उत्तर— काऊ काऊ तह काउणील णीला य णीलकिण्हा य। किण्हाय परमकिण्हा लेस्सा रदणादि पुढवीसु।।११३६।।
रत्नप्रभा नरक में नारकियों के कापोत लेश्या है। शर्कराप्रभा नरक में मध्यम कापोत लेश्या है। बालुका प्रभा में उपरिम भाग में उत्कृष्ट कापोत लेश्या है और नीचे पाथड़ों में जघन्य नील लेश्या है। पंकप्रभा नरक में मध्यम नील लेश्या है, धूमप्रभा में ऊपर के पाथड़ों में उत्कृष्ट नील लेश्या है और अधोभाग में पाथड़ों में जघन्य कृष्ण लेश्या है। तम: प्रभा ्नारक में मध्यम कृष्ण लेश्या है और महातम: प्रभा नामक सातवें नरक में उत्कृष्ट कृष्ण लेश्या है।
प्रश्न— लेश्या किसे कहते हैं ?
उत्तर— कषाय के उदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति का नाम लेश्या है।
प्रश्न— दवों के लेश्या भेद को बताइए ?
उत्तर— तेऊ तेऊ तह तेऊ पम्मा य पम्मसुक्का य। सुक्का य परमसुक्का लेस्साभेदोमुणेयव्वो।।११३७।।
जघन्य तेजो लेश्या, मध्यम तेजोलेश्या, उत्कृष्ट तेजो लेश्या और जघन्य पद्मलेश्या, मध्यम पद्मलेश्या, उत्कृष्ट पद्मलेश्या और जघन्य शुक्ललेश्या, मध्यम शुक्ललेश्या और परम शुक्ललेश्या ये लेश्याओं के भेद हैं।
प्रश्न— उपर्युक्त सात लेश्याओं के ये भेद किनके हैं ?
उत्तर— तिण्हं दोण्हं दोण्हं छण्हं दोण्हं च तेरसण्हं च। एतो य चोदसण्हं लेस्सा भवणादिदेवाणं।।११३८।।
भवनवासी, व्यंतरवासी और ज्योतिषी इन तीन प्रकार के देवों में जघन्य तेजो लेश्या है। सौधर्म—ऐशान स्वर्ग में देवों के मध्यम तेजोलेश्या होती है। सानत्कुमार और माहेन्द्र में देवों के उत्कृष्ट तेजोलेश्या और जघन्य पद्मलेश्या हैं। ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र और महाशुक्र इन छह स्वर्गों में देवों के मध्यम पद्मलेश्या है। शतार और सहस्रार स्वर्गों में देवों के उत्कृष्ट पद्मलेश्या और जघन्य शुक्ललेश्या है। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन चार कल्प और नव ग्रैवेयक इन तेरहों में मध्यम शुक्ललेश्या है। नव अनुत्तर अर्थात् अनुदिश और पाँच अनुत्तर इन चौदहों में परमशुक्ल है। ये लेश्याएँ सर्वत्र देवों के होती हैं यह यथाक्रम लगा लेना चाहिए।
प्रश्न— तिर्यंच और मनुष्यों में लेश्याभेदों को बताइए ?
उत्तर— एइंदियवियलिंदिय असण्णिणो तिण्णि होंति असुहाओ। संखादी दाऊणं तिण्णि सुहा छप्पि सेसाणं।।११३९।।
पृथिवीकायिक से लेकर वनस्पति पर्यन्त एकेन्द्रिय जीवों के द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के तथा शिक्षा अलाप आदि, और ग्रहण करने में अयोग्य ऐसे असैनी पंचेन्द्रिय जीवों के कापोत, नील और कृष्ण ये तीन अशुभ लेश्याएँ ही रहती हैं। भोगभूमिज और भोगभूमिप्रतिभागज जीव जो असंख्यात वर्ष की आयु वाले होते हैं, उनमें तेज, पद्म और शुक्ल ये तीन शुभलेश्याएँ ही होती हैं। शेष—कर्मभूमिज और कर्मभूमि प्रतिभागज पंचेन्द्रिय सैनी तिर्यंच तथा मनुष्यों में छहों लेश्याएँ होती हैं। यहाँ पर भी किन्हीं जीवों के द्रव्य लेश्या अपने आयु प्रमाण निश्चित है। किन्तु सभी जीवों की भाव लेश्या अन्तर्मुहूर्त में परिवर्तन करने वाली होती है, क्योंकि कषायों की हानि—वृद्धि से उनकी हानि वृद्धि जानना चाहिए।
प्रश्न— प्रवीचार कारण और इन्द्रिय विषयों का भेद प्रतिपादन करें ?
उत्तर— कामा दुवे तिओ भोग इंदियत्था विदूहिं पण्णत्ता। कामो रसा य फासो सेसा भोगेति आहीया।।११४०।।
स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द ये पाँच इन्द्रियों के विषय हैं। इनमें से स्पर्श और रस को काम तथा तीन को भोग शब्द से कहा है।
प्रश्न— देव आदि के प्रवीचार बताइए ?
उत्तर— आईसाणा कप्पा देवा खलु होंति कायपडिचारा। फासप्पडिचारा पुण सणक्कुमारे य माहिंदे।।११४१।।
तिर्यंच, मनुष्य, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी, सौधर्म स्वर्ग के देव तथा ईशान स्वर्ग तक के देव में काया से प्रवीचार होता है। पुन: सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में स्पर्श से कामसेवन होता है।
प्रश्न— ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ इन चार स्वर्ग के देवों के सुख का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— बंभे कप्पे बंभुत्तरे य तह लंतवे य कापिट्ठे। एदेसु य जे देवा बोधव्वा रूवपडिचारा।।११४२।।
ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ठ स्वर्गों के देव देवांगनाओं के शृंगार—चतुर और मनोज्ञ वेष तथा रूप के अवलोकन मात्र से ही परम सुख को प्राप्त हो जाते हैं तथा देवियाँ भी अपने देव के रूप अवलोकन से काम का अनुभव कर तृप्त हो जाती हैं।
प्रश्न— शब्द द्वारा काम सुख का अनुभव कौन करते हैं ?
उत्तर— सुक्कमहासुक्केसु य सदारकप्पे तहा सहस्सारे। कप्पे एदेसु सुरा बोधव्वा सद्दपडिचारा।।११४३।।
शुक्र, महाशुक्र, शतार और देवियाँ हैं वे शब्द सुनकर कामसुख का अनुभव करते हैं। अर्थात् वहाँ के देव अपनी देवांगनाओं के मधुर संगीत, मृदु ललित कथाएँ और भूषणों की ध्वनि के सुनने मात्र से ही परमप्रीति को प्राप्त कर लेते हैं।
प्रश्न— मन के द्वारा कामसुख का अनुभव कौन करते हैं ?
उत्तर— आणदपाणदकप्पे आरणकप्पे य अच्चुदे य तहा। मणपडिचारा णियमा एदेसु य होंति जे देवा।।११४४।।
आनत, प्राणत, आरण और अच्चुत इन कल्पों में देव मानसिक काम की अभिलाषा से प्राप्त सुख का अनुभव करते हैं।
प्रश्न— नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पंच अनुत्तरों में किस प्रकार का सुख है ?
उत्तर— तत्तो परं तु णियमा देवा खलु होंति णिप्पडीचारा। सप्पडिचारेहिं वि ते अणंतगुण सोक्खसंजुत्ता।।११४५।।
नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश तथा पाँच अनुत्तरों में जो देव हैं वे निश्चय से कामसेवन के सुख से रहित हैं। अर्थात् वे अहमिन्द्र कामाग्नि की दाह से विनिर्मुक्त हैं। फिर भी वे अनन्तगुणों से और अपने अधीन सभी आत्मप्रदेशों में उत्पन्न हुए आनन्द से संतृप्त रहते हैं।
प्रश्न— वीतराग सुख किससे श्रेष्ठ है ?
उत्तर— जं च कामसुहं लोए जं च दिव्वमहासुहं। वीदरागसुहस्सेदे णंतभागंपि णग्घंदि।।११४६।।
लोक में जो मनुष्यों का काम सुख है और जो देवों का दिव्य महासुख है वे वीतराग सुख के अनन्तवें भाग भी नहीं हो सकता। अत: वीतराग आत्मिक सुख सबसे श्रेष्ठ है।
प्रश्न— देवों में मानसिक आहार कितने दिनों में होता है ?
उत्तर— जदि सागरोवमाओ तदि वाससहस्सियादु आहारो। पक्खेहिं दु उस्सासो सागरसमयेहिं चेव भवे।।११४७।।
जिन देवों की जितने सागर प्रमाण आयु है उतने हजार वर्षों के बीत जाने पर उनके मानसिक आहार होता है। इन देवों के गन्ध का क्या है ? जितने सागर प्रमाण आयु है उतने पक्षों के व्यतीत हो जाने पर उच्छ्वास—निश्वास लेते हैं। सौधर्म और ऐशान में देवों के आहार संज्ञा कुछ अधिक दो हजार वर्ष के बीतने पर होती है। तथा कुछ अधिक एक महीने के बीत जाने पर उच्छ्वास होता है। सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग में देवों को कुछ अधिक सात हजार वर्षों के बीत जाने पर आहार की इच्छा होती है। एवं कुछ अधिक उतने ही पक्षों के बीतने पर उच्छ्वास होता है। देवियों का अन्तर्मुहूर्त पृथक्त्व से श्वासोच्छ्वास होता है।
प्रश्न— जिनकी पल्योपम की आयु है उनका आहार कैसा है ?
उत्तर— उक्कस्सेणाहारो वाससहस्साहिएण भवणाणं। जोदिसियाणं पुण भिण्णमुहुत्तेणेदि सेस उक्कस्सं।।११४८।।
भवनवासी देवों में से असुरकुमार जाति के देवों का आहार उत्कृष्ट की अपेक्षा पन्द्रह सौ वर्षों के बीतने पर होता है। चन्द्र, सूर्य आदि ज्योतिषी देवों का आहार अन्तर्मुहूर्त से होता है। शेष नौ प्रकार के भवनवासी देव और व्यन्तर देवों का एवं सर्वदेवियों का आहार अन्तर्मुहूर्त से होता है। किन्हीं—किन्हीं का अन्तर्मुहूर्त पृथक्त्व के बीतने पर आहार होता है।
प्रश्न— भवनत्रय का उच्छ्वास कैसा होता है ?
उत्तर— उक्कस्सेणुस्सासो पक्खेणहिएण होइ भवणाणं। मुहुत्तपुधत्तेण तहा जोइसणागाण भोमाणं।।११४९।।
भवनवासियों में से असुरकुमारों का कुछ अधिक पन्द्रह दिन के बीतने पर उच्छ्वास होता है। ज्योतिषी देव, नागकुमार देव एवं कल्पवासी देवियाँ—इनका उच्छ्वास अन्तर्मुहूर्त पृथक्त्व के बीतने पर होता है।
प्रश्न— देवों के अवधिज्ञान का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— सक्कीसाणा पढमं विदियं तु सणक्कुमारमाहिंदा। बंभालंतव तदियं सुक्कसहास्सारया चउत्थी दु।।११५०।।
पंचमि आणदपाणद छट्ठी आरणाच्चुदा य पस्संति। णवगेवज्जा सत्तमि अणुदिस अणुत्तरा य लोगंतं।।११५१।।
सौधर्म—ऐशान स्वर्ग के देव पहली पृथिवी तक, सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग के देव दूसरी तक, ब्रह्म युगल और लान्तव युगल स्वर्ग के देव तीसरी तक, शुक्र युगल और शतार सहस्रार स्वर्ग के देव चौथी पृथिवी तक अवधिज्ञान से देखते हैं। आणत—प्राणत के देव पाँचवी तक, आरण—अच्युत के छठी तक, नव ग्रैवेयक के इन्द्र सातवीं पृथिवी तक, अनुदिश और अनुत्तर के इन्द्र लोकान्त तक देख सकते हैं।
प्रश्न— व्यन्तर आदि के अवधि का विषय प्रतिपादन करें ?
उत्तर— पणवीस जोयणाणं ओही विंतरकुमार वग्गाणं। संखेज्ज जोयणेही जोदिसियाणं जहण्णं तु।।११५२।।
किन्नर आदि आठ प्रकार के व्यन्तरों और नागकुमार आदि नव प्रकार के भवनवासी देवों के अवधिज्ञान का विषय कम से कम पच्चीस योजन तक है। ज्योतिषी देवों के जघन्य अवधि संख्यात योजन अर्थात् सात—आठ योजन पर्यन्त ही है।
प्रश्न— असुर चन्द्र सूर्य आदि की जघन्य और सभी के उत्कृष्ट अवधि का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— असुराणमसंखेज्जा कोडी जोइसिय सेसाणं। संखादीदा य खलु उक्कस्सोहीयविसओ दु।।११५३।।
असुर देवों के और शेष ज्योतिषी देवों के जघन्य अवधि असंख्यात कोटि योजन है तथा उत्कृष्ट अवधि का विषय संख्यातीत कोटि योजन है।
प्रश्न— नारकियों की अवधि का विषय कितना है ?
उत्तर— रयणप्पहाय जोयणमेयं ओहीविसओ मुणेयव्वो। पुढवीदो पुढवीदो गाऊ अद्धद्ध परिहाणी।।११५४।।
रत्नप्रभा नरक में अविधिज्ञान का विषय चार कोश प्रमाण है। दूसरी पृथ्वी में आधा कोश घटाने से साढ़े तीन कोश तक है, तीसरी पृथ्वी में तीन कोश तक है, चौथी में ढाई कोश तक, पाँचवी में दो कोश तक, छठी में डेढ कोश तक और सातवीं पृथ्वी में एक कोश प्रमाण है। यह सम्यग्दृष्टि देवों के अवधि का विषय है किन्तु मिथ्यादृष्टि देवों के विभंगावधि का विषय इससे कम कम है।
प्रश्न— कौन—कौन जीव किस नरक तक जाते हैं ?
उत्तर— पढमं पुढविमसण्णी पढमं विदियं च सरिसवा जंति। पक्खी जावदु तदियं जाव चउत्थी दु उरसप्पा।।११५५।।
आ पंचमित्ति सीहा इत्थीओ जंति छट्ठिपुढवित्ति। गच्छंति माधवीत्ति य मच्छा मणुया य ये पावा।।११५६।।
असंज्ञी जीव पहली पृथवी तक, सरीसृप पहली और दूसरी पृथ्वी तक, पक्षी तीसरी पर्यन्त एवं उर: सर्प (सरक कर चलने वाले) चौथी पृथ्वी पर्यन्त जाते हैं। सिंह पाँचवी पृथ्वी तक, स्त्रियाँ छठी पृथ्वी तक जाते हैं तथा जो पापी मत्स्य और मनुष्य हैं वे सातवीं पृथ्वी पर्यन्त जाते हैं।
प्रश्न— सातवें नरक से निकला हुआ नारकी किस गति में जाता है ?
उत्तर— उव्वट्टिदाय संता णेरइया तमतमादु पुढवीदो। ण लहंति माणुसत्तं तिरिक्ख जोणी मुवणयंति।।११५७।।
सातवें नरक से निकलकर मनुष्य पर्याय को प्राप्त नहीं कर पाते हैं क्योंकि उनके परिणाम अत्यधिक संक्लेश के कारणभूत होते हैं। इसलिए वे पुनरपि पाप के लिए कारणभूत, सिंह, व्याघ्र आदि तिर्यंच योनि को ही प्राप्त करते हैं।
प्रश्न— सातवें नरक से निकलकर वे किन तिर्यचों में उत्पन्न होते हैं और वहाँ उत्पन्न हुए जीव पुन: कहाँ जाते हैं ?
उत्तर— वालेसु य दाढीसु य पक्खीसु य जलचरेसु उववण्णा। संखेज्ज आउठिदिया पुणेवि णिरयावहा होंति।।११५८।।
सातवीं पृथ्वी से निकलकर दाढ़वाले व्याल, सिहं आदि हिंसक जन्तु, पक्षी और जलचरों में जन्म लेकर पुनरपि नरक में जाते हैं।
प्रश्न— छठे नरक से निकलकर कहाँ उत्पन्न होते हैं और क्या प्राप्त करते हैं, क्या नहीं प्राप्त करते हैं ?
उत्तर— छट्ठीदो पुढवीदो उव्वट्ठिदा अणंतर भवम्हि। भज्जा माणुसलंभे संजम लंभेण दु विहीणा।।११५९।।
छठे नरक से निकले हुए नारकी अनन्तर भव में ही मनुष्य पर्याय को प्राप्त कर सकते हैं। और सम्यक्त्व की प्राप्ति कर भी सकते हैं और नहीं भी कर सकते हैं। किन्तु संयम की प्राप्ति उन्हें निश्चय से नहीं होती हैं।
प्रश्न— पाँचवी पृथ्वी से आकर कहाँ उत्पन्न हो सकते हैं और कहाँ नहीं जाते हैं ?
उत्तर— होज्जदु संजमलाभो पंचमखिदिणिग्गदस्स जीवस्स। णत्थि पुण अंतकिरिया णियमा भवसंकिलेसेण।।११६०।।
पाँचवें नरक से निकले हुए जीव को संयम की प्राप्ति हो सकती है किन्तु भव संक्लेश के कारण उसी भव से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
प्रश्न— चौथी पृथ्वी से आने वाले को कौन—सा पद प्राप्त हो सकता है ?
उत्तर— होज्जदु णिव्वुदिगमणं चउत्थिखिदिणिग्गदस्स जीवस्स। णियमा तित्थयरत्तं णत्थित्ति जिणेहिं पण्णत्तं।।११६१।।
चौथी भूमि से निकले हुए जीव का मोक्ष गमन हो जाए किन्तु नियम से तीर्थंकर पद नहीं हो सकता है।
प्रश्न— तीन नरक से निकले नारकियों को क्या प्राप्त हो सकता है ?
उत्तर— तेण परं पुढवीसु य भजणिज्जा उवरिमा हु णेरइया। णियमा अणंतरभवे तित्थयरत्तस्स उप्पत्ति।।११६२।।
चौथी पृथ्वी से परे पहली, दूसरी और तीसरी पृथ्वी से निकले हुए नारकियों को उसी भव से संयम का लाभ, मोक्ष की प्राप्ति और तीर्थंकर पद सम्भव है, इसमें निषेध नहीं हैं।
प्रश्न— सातों नरकों से आकर उसी भव से किन पदों को प्राप्त नहीं कर सकते हैं ?
उत्तर— णिरयेहिं णिग्गदाणं अणंतरभवम्हि णत्थि णियमादो। बलदेववासुदेवत्तणं च तह चक्कवट्ठित्तं।।११६३।।
सातों नरकों में से आये हुए जीवों को अनन्तर भव में ही बलदेव, नारायण, प्रतिनारायण और चक्रवर्ती पद नहीं मिलता है क्योंकि ये पद संयमपूर्वक ही होते हैं और संयमसहित जीव नरक में जा नहीं सकता है।
प्रश्न— इस गाथा में आचार्य भगवन् क्या कहते हैं?
उत्तर— उववादोवट्टणमा णेरइयाणं समासदो भणिओ। एत्तो सेसाणं पिय आगदिगदिमो पवक्खामी।।११६४।।
नारकियों के जन्म लेने का और निकलने का संक्षेप से कथन किया है, इसके आगे अब शेष जीवों की भी आगति और गति कहने की प्रतिज्ञा करते हैं।
प्रश्न— तिर्यंच और मनुष्य कहाँ उत्पन्न हो सकते हैं ?
उत्तर— सव्वमपज्जत्ताणं सुहुमकायाण सव्वतेऊणं। वाऊणमसण्णीणं आगमणं तिरियमणुसेहिं।।११६५।।
सभी लब्धि—अपर्याप्त जीवों में मनुष्य और तिर्यंच ही मरकर जन्म धारण करते हैं। तथा पृथिवी से लेकर वनस्पति पर्यन्त सभी सूक्ष्मकायिक अपर्याप्तकों में, अग्निकायिक, वायुकायिक बादर पर्याप्तक— अपर्याप्तकों में और असैनी जीवों में तिर्यंच और मनुष्य ही उत्पन्न होते हैं। इन पर्यायों में देव—नारकी, भोगभूमिज और भोगभूमि प्रतिभागज जीव उत्पन्न नहीं होते हैं।
प्रश्न— पृथिवीकायिक आदि जीव यहाँ से जाकर कहाँ उत्पन्न होते हैं ?
उत्तर— तिण्हं खलु कायाणं तहेव विगलिंदियाण सव्वेसिं। अवरिुद्धं संकमणं माणुसतिरिएसु य भवेसु।।११६६।।
पृथिवीकाय, जलकाय और वनस्पतिकाय इन तीनों के जीव तथा सभी पर्याप्तक और अपर्याप्तक विकलेन्द्रिय जीव मरण करके, वहाँ से आकर मनुष्य और तिर्यंच पर्यायों में ही उत्पन्न होते हैं।
प्रश्न— अग्निकायिक और वायुकायिक का संक्रमण कहाँ नहीं हो सकता है ?
उत्तर— सव्वेवि तेउकाया सव्वे तह वाउकाइया जीवा। ण लहंति माणुसत्तं णियमादु अणंतरभवेहिं।।११६७।।
सभी बादर—सूक्ष्म पर्याप्तक और अपर्याप्तक अग्निकायिक जीव तथा सभी बाद—सूक्ष्म पर्याप्तक— अपर्याप्तक वायुकायिक जीव उसी भव से मरणकर निश्चित ही मनुष्यपर्याय को प्राप्त नहीं कर पाते हैं।
प्रश्न— प्रत्येक वनस्पति, पृथिवीकाय और जलकाय बादरपर्याप्तक जीवों में कौन आ सकते हैं ?
उत्तर— पत्तेयदेह वणप्फइ वादरपज्जत्त पुढवि आऊय। माणुसत्तिरिक्खदेवेहिं चेव आइंति खलु एदे।।११६८।।
संक्लेश परिणाम वाले, आर्तध्यान में तत्पर हुए मिथ्यादृष्टि मनुष्य तिर्यंच और देव मरण करके आकर प्रत्येक वनस्पतिकायिक, पृथिवीकायिक और जलकायिक बादर पर्याप्तक जीवों में उत्पन्न होते हैं।
प्रश्न— असंज्ञी पर्याप्तक तिर्यंच जीव कहाँ—कहाँ उत्पन्न हो सकता है ?
उत्तर— अविरुद्धं संकमणं असण्णिपज्जत्तयाण तिरियाणं। माणुसतिरिक्खसुरणारएसु ण दु सव्वभावेसु।।११६९।।
असंज्ञी पर्याप्तक तिर्यंच जीव चारों ही गतियों में जाते हैं इसमें कोई विरोध नहीं है, किन्तु वे उनकी सभी पर्यायों में नहीं जाते हैं। अर्थात् असैनी जीव नरकों में पहली पृथिवी में ही उत्पन्न होते हैं, आगे नहीं, भवनवासी व्यंतर और ज्योतिषी देवों में ही उत्पन्न हो सकते हैं, वैमानिकों में नहीं, तथा भोगभूमिज, भोगभूमि प्रतिभागज व अन्य भी पुण्यवान् मनुष्य तिर्यंचों में उत्पन्न नहीं होते हैं।
प्रश्न— असंख्यात वर्ष आयु वाले कहाँ से आते हैं ?
उत्तर— संखादीदाओ खलु माणुसतिरिया दु मणुयतिरियेहिं। संखिज्जआउगेहिं दु णियमा सण्णीय आयंति।।११७०।।
भोगभूमिज और भोगभूमि प्रतिभागज मनुष्य और तिर्यंच असंख्यात वर्ष की आयु वाले होते हैं। कर्मभूमिज व कर्मभूमिप्रतिभागज मनुष्य संख्यात वर्ष की आयु वाले होते हैं। संख्यात वर्ष आयु वाले सैनी तिर्यंच व मनुष्य ही मरकर असंख्यात वर्ष की आयु वालों में जन्म लेते हैं, अन्य नहीं। क्योंकि वे दान की अनुमोदना से और दिये हुए दान के फल से ही वहाँ जाते हैं।
प्रश्न— असंख्यात वर्ष की आयु वाले मरकर किस गति में जाते हैं ?
उत्तर— संखादीदाऊणं संकमणं णियमदो दु देवेसु। पयडीए तणुकसाया सव्वेसिं तेण बोधव्वा।।११७१।।
असंख्यात वर्ष की आयु वाले भोगभूमिज और भोगभूमिज प्रतिभागज जीव मरकर नियम से देवों में ही उत्पन्न होते हैं। क्योंकि ये स्वभाव से ही मन्द कषायी होते हैं।
प्रश्न— कहाँ से आकर शलाकापुरुष होते हैं और कहाँ से आकर नहीं होते हैं ?
उत्तर— माणुस तिरियाय तहा सलागपुरिसा ण होंति खलु णियमा। तेसिं अणंतरभवे भजणिज्जं णिव्वुदीगमणं।।११७२।।
मनुष्य और तिर्यंच मरकर तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव अर्थात् त्रेसठ शलाका पुरुष नहीं हो सकते हैं। उनका उसी भव से मोक्ष प्राप्त करना भजनीय है, अर्थात् मनुष्यों को उसी भव से मुक्ति हो, न भी हो, अगले भव से भी हो, न भी हो किन्तु तिर्यंचों के उसी भव से मुक्ति है ही नहीं यह नियम है। वैसे तिर्यंचों में भी मुक्तिगम के कारणभूत सम्यक्त्व आदि हो सकते हैं।
प्रश्न— मिथ्यादृष्टियों का जन्म कहाँ होता है ?
उत्तर— सण्णि असण्णीण तहा वाणेसु य तह य भवणवासीसु। उववादो वोधव्वो मिच्छादिट्ठीण णियमादु।।११७३।।
सैनी और असैनी मिथ्यादृष्टि जीव मरण कर कदाचित् व्यंतरों में और कदाचित् भवनवासियों में जन्म ले सकते हैं और परिणाम के वश से अन्यत्र भी उत्पन्न हो सकते हैं।
प्रश्न— ज्योतिषी देवों में कौन उत्पन्न होते हैं ?
उत्तर— संखादीदाऊणं मणुयतिरिक्खाण मिच्छभावेण। उववादो जोदिसिए उक्कस्सं तावसाणं दु।।११७४।।
असंख्यात वर्ष प्रमाण आयु वाले मनुष्यों और तिर्यंचों का जन्म मिथ्यात्व भाव से भवनवासी आदि से लेकर ज्योतिषी देवों में होता है। कन्दफल आदि आहार करने वाले तापसियों का जनम उन्हीं ज्योतिषियों में शुभ परिणाम से उत्कृष्ट आयु लेकर होता है।
प्रश्न— आजीवक और पारिव्राजकों का शुभ परिणाम से कितनी दूर तक गमन होता है ?
उत्तर— परिवाय गाण णियमा उक्कस्सं होदि वंभलोगम्हि। उक्कस्सं सहस्सार त्ति होदि य आजीवगाण तहा।।११७५।।
पारिव्राजक संन्यासियों का उत्कृष्ट जन्म शुभ परिणाम से निश्चित ही भवनवासी से लेकर ब्रह्म नाम के पांचवें स्वर्ग पर्यंत होता है। तथा आजीवक साधुओं का जन्म मिथ्यात्व सहित सर्वोत्कृष्ट आचरण रूप शुभ परिणाम से भवनवासी आदि से लेकर सहस्रार पर्यंत होता है। और अन्य लिंगी—पाखण्डी साधुओं का जन्म भी शुभपरिणाम से भवनवासी आदि देवों में देखना चाहिए।
प्रश्न— निग्र्रंथ मुनि, र्आियका, श्रावक—श्राविका कौन से स्वर्ग तक जा सकते हैं ?
उत्तर— तत्तो परं तु णियमा उववादो णत्थि अण्णलिंगीणं। णिग्गंथसावगाणं उववादो अच्चुदं जाव।।११७६।।
उस सहस्रार स्वर्ग से आगे के कल्पों में नियम से अन्य पाखण्डियों का परम उत्कृष्ट आचरण होने पर भी जन्म नहीं होता है। निग्र्रंथ मुनियों का, श्रावकों का और र्आियकाओं का जन्म शुभ परिणाम रूप उत्कृष्ट आचरण से सौधर्म स्वर्ग से लेकर अच्युत नामक सोलहवें स्वर्ग पर्यंन्त निश्चित रूप से होता है।
प्रश्न— अभव्यजीव जिनलिंग से कितनी दूर तक जाते हैं ?
उत्तर— जा उवरिमगेवेज्जं उववादो अभवियाण उक्कस्सो। उक्कट्ठेण तवेण दु णियमा णिग्गंथलिंगेण।।११७७।।
अभव्य जीवों का उत्कृष्ट जन्म निग्र्रंथ मुद्रा धारण कर उत्कृष्ट तपश्चरण द्वारा भवनवासी से लेकर उपरिम ग्रैवेयक पर्यन्त होता है। यद्यपि मिथ्यात्व भाव उनमें है तो भी रागद्वेषादि के अभावरूप शुभ परिणाम से ही वहाँ तक जन्म होता है।
प्रश्न— नव अनुदिश और सर्वाथसिद्धि में कौन जाते हैं ?
उत्तर— तत्तो परं तु णियमा तवदंसणणाणचरण जुत्ताणं। णिग्गंथाणुववादो जावदु सव्वट्ठसिद्धित्ति।।११७८।।
नव अनुदिश से लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यनत सर्वसंग से परित्यागी निग्र्रंथ लिंगधारी, दर्शन ज्ञान चारित्र और तप से युक्त अचरमदेही शुभ परिणाम वाले मुनियों का जन्म होता है। अर्थात् निग्र्रंथ भावलिंगी मुनि सौधर्म स्वर्ग से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक उत्पन्न होते हैं।
प्रश्न— देव आकर कहाँ उत्पन्न होते हैं ?
उत्तर— आईसाणा देवा चएत्तु एइंदिएत्तणे भज्जा। तियित्तमाणुसत्ते भयणिज्जा जाव सहसारा।।११७९।।
भवनवासी से लेकर ईशान स्वर्ग तक के देव वहाँ से च्युत होकर कदाचित् आर्तध्यान से पृथिवीकायिक, जलकायिक और प्रत्येक वनस्पतिकायिक बादर एकेन्द्रियों में उत्पन्न हो सकते हैं। तथा परिणाम के वश से अन्य पर्यायों में भी अर्थात् पंचेन्द्रिय पर्याप्तक तिर्यंच मनुष्यों में उत्पन्न हो जाते हैं। किन्तु वे देव भोगभूमिज आदि मनुष्यों या तिर्यंचों में जन्म नहीं लेते हैं। उसके ऊपर तीसरे स्वर्ग से लेकर सहस्रार नाम के बारहवें स्वर्ग तक के देव च्युत होकर तिर्यंच या मनुष्यों में जन्म लेते हैं। अर्थात् ये देव एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते हैं।
प्रश्न— देवगति से किन पर्यायों में उत्पन्न नहीं होते ?
उत्तर— नारकी, देव, विकलेन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, सूक्ष्म, अपर्याप्तक, सर्व अग्निकायिक, वायुकायिक, भोगभूमिज आदि स्थानों में भी सभी देव उत्पन्न नहीं होते हैं।
प्रश्न— सहस्रार स्वर्ग के ऊपर के देवों का कहाँ जन्म होता है ?
उत्तर— तत्तो परं तु णियमा देवावि अणंतरे भवे सव्वे। उववज्जंजति मणुस्से ण तेसिं तिरिएसु उववादो।।११८०।।
सहस्रार स्वर्ग से ऊपर के सभी देव नियम से अगले भव में मनुष्य पर्याय में ही होते हैं। वे तिर्यचों में जन्म नहीं ले सकते हैं, क्योंकि वहाँ से च्युत होने के समय उनके अधिक संक्लेश का अभाव है।
प्रश्न— भवनत्रिक से आकर किस स्थान में नहीं जा सकते ?
उत्तर— आजोदिसं ति देवा सलागपुरिसा ण होंति ते णियमा। तेसिं अणंतरभवे भजणिज्जं णिव्वुदीगमणं।।११८१।।
भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देव वहाँ से च्युत होकर तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव ऐसे शलाकापुरुष नहीं होते हैं। उनकी उसी भव से मुक्ति होती है या नहीं भी होती है (सर्वथा निषेध नहीं है) शलाकापुरुषों में तीर्थंकर तो उसी भव से मोक्ष जाते हैं इसमें विकल्प नहीं है। चक्रवर्ती और बलदेव ये उसी भव से मुक्ति भी पा सकते हैं अथवा स्वर्ग जाते हैं। चक्रवर्ती नरक भी जा सकते हैं। वासुदेव और प्रतिवासुदेव ये नरक ही जाते हैं फिर भी ये महापुरुष स्वल्प भवों में मुक्ति प्राप्त करते ही हैं ऐसा नियम है।
प्रश्न— शलाका पुरुष कौन होते हैं ?
उत्तर— तत्तो परं तु गेवेज्जं भजणिज्जा सलागपुरिसा दु। तेसिं अणंतरभवे भजणिज्जा णिव्वुदीगमणं।।११८२।।
सौधर्म स्वर्ग से लेकर नव ग्रैवेयक तक के देव वहाँ से च्युत होकर शलाकापुरुष होते हैं, नहीं भी होते हैं। तथा वहाँ से आये हुए पुरुष अनन्तर भव से मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, कदाचित् नहीं भी करते हैं।
प्रश्न— अनुदिश और अनुत्तर देवों का जन्म कहाँ होता है ?
उत्तर— णिव्वुदिगमणे रामत्तणे य तित्थयरचक्कवट्टित्ते। अणुदिसणुत्तरवासी तदो चुदा होंति भयणिज्जा।।११८३।।
अनुदिश और अनुत्तरवासी देव उन विमानों से च्युत होकर कदाचित् तीर्थंकर होते हैं, या नहीं भी होते हैं कदाचित् बलदेव या चक्रवर्ती होते हैं, नहीं भी होते हैं। वे देव यहाँ आकर कदाचित् मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं अथवा नहीं भी कर पाते हैं। किन्तु वहाँ से च्युत हुए देव वासुदेव अर्थात् नारायण और प्रतिनारायण नहीं होते हैं, यह नियम है।
प्रश्न— सर्वार्थसिद्धि से देवों का कहाँ जन्म होता है ?
उत्तर— सव्वट्ठादो य चुदा भज्जा तित्थयरचक्कवट्टित्ते। रामत्तणेण भज्जा णियमा पुण णिव्वुदिं जंति।।११८४।।
सर्वार्थसिद्धि से च्युत हुए देव तीर्थंकर, चक्रवर्ती अथवा बलदेव होते हैं या नहीं भी होते हैं किन्तु वे नियम से मुक्ति प्राप्त करते हैं, इसमें विकल्प नहीं हैं।
प्रश्न— देव गति से आकर नियम से मुक्ति प्राप्त करने वाले कौन—कौन होते हैं ?
उत्तर— सक्को सहग्गमहिसी सलोगपाला य दक्खिणिंदा य। लोगंतिगा य णियमा चुदा दु खलु णिव्वुदिं जंति।।११८५।।
सौधर्म स्वर्ग का प्रथम इन्द्र शुक्र है, उसकी अग्र महिषी का नाम शची है। उसके चार दिशा सम्बन्धी सो, यम, वरुण और कुबेर ये चार लोकपाल होते हैं। दक्षिण दिशा सम्बन्धी दक्षिणेन्द्र हैं, वे सौधर्म इन्द्र तथा सानत्कुमार ब्रह्म, लान्त्व, शतार आनत और आरण के इन्द्र हैं। ब्रह्मलोक में निवास करने वाले लौकान्तिक कहलाते हैं। ये सब नियम से मोक्ष जाते हैं।
प्रश्न— मोक्ष की प्राप्ति किस गति में होती है और क्यों ?
उत्तर— एवं तु सारसमए भणिदा दु गदागदी मया विंâचि। णियमादु मणुसगदिए णिव्वुदिगमणं अणुण्णादं।।११८६।।
मोक्ष की प्राप्ति तो निश्चय से मनुष्य गति में होती है, अन्य गतियों में नहीं। क्योंकि अन्य गतियों में संयम का अभाव है। मनुष्य गति में ही संयम है।
प्रश्न— कौन कैसे होकर और क्या करके मोक्ष जाते हैं ?
उत्तर— सम्मद्दंसणणाणेहिं भाविदा सयलसंजमगुणेिंह। णिट्ठवियसव्वकमा णिग्गंथा विव्वुदिं जंति।।११८७।।
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से अपनी आत्मा को भावित करके तथा यथाख्यातसंयम की विशुद्धि से वृद्धिंगत हुए सर्व कर्मों का विनाश करके वे निग्र्रंथ महामुनि अनन्तचतुष्टय से सहित होकर निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं।
प्रश्न— मोक्ष सुख का अनुभव करते हुए कितने काल तक वहाँ ठहरते हैं ?
उत्तर— ते अजरमरुजममरमसरीरमक्खयमणुवमं सोक्खं। अव्वाबाधमणंतं अणागदं कालमत्थंति।।११८८।।
जिसमें वृद्धावस्था नहीं है वह अजर है। जिसमें रोग नहीं है वह अरुज है। जहाँ मरण नहीं है वह अमर है। औदारिक आदि पाँच शरीरों से रहित को अशरीर कहते हैं। क्षय रहित शाश्वत को अक्षय तथा अनन्तज्ञान दर्शन—सुख—वीर्य रूप उपमा रहित को अनुपम कहते हैं। अन्य के द्वारा जिसमें बाधा न हो वह अव्याबाध है। जो मुक्ति को प्राप्त हो चुके हैं वे सिद्ध भगवान अजर अरुज, अमर, अशरीर, अक्षय अनुपम, अव्याबाध और अनन्त सौख्य का अनुभव करते हैं तथा आने वाले अनन्त भविष्य काल पर्यन्त परमसुख में निमग्न हुए स्थित रहते हैं।
प्रश्न— स्थानाधिकार का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— एइंदियादि पाणा चोद्दस दु हवंति जीवठाणाणि। गुणठाणाणि य चोद्दस मग्गण ठाणाणिवि तहेव।।११८९।।
(१) एकेन्द्रियादिक प्रथम सूत्र है। (२) प्राण द्वितीय सूत्र है। (३) चौदह जीवस्थान तृतीय सूत्र है। (४) चौदह गुणस्थान चौथा सूत्र है। (५) चौदह मार्गणा स्थान पाँचवा सूत्र है। प्रश्न— मार्गणा, जीवस्थान और गुणस्थान के कितने कितने भेद हैं ? उत्तर— गदिआदि मग्गणाओ परूविदाओ य चोद्दसा चेव। एदेसिं खलु भेदा विंâचि समासेण वोच्छामि।।११९०।। गति आदि मार्गणाएँ चौदह ही हैं। एकेन्द्रिय आदि जीवस्थान चौदह है, मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान चौदह हैं।
प्रश्न— एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रियादिकों का कथन करें ?
उत्तर— एइंदियादि जीवा पंचविधा भयवदा दु पण्णत्ता। पुढवी कायादीदा विगला पंचेंदिया चेव।।११९१।।
संखो गोभी भमरादिया दु विगलिंदिया मुणेदव्वा। पंचेदिया दु जलथलखचरा सुरणारयणरा य।।११९२।।
एकेन्द्रिय जीव— (१) पृथिवीकायिक (२) जलकायिक (३) अग्निकायिक (४) वायुकायिक (५) वनस्पति कायिक द्वीन्द्रिय जीव : शंख, कौडी आदि। त्रीन्द्रिय जीव : चींटी, गोम, बिच्छु आदि। चतुरिन्द्रिय जीव : भ्रमर, पतंगा, मच्छर आदि। पंचेन्द्रिय जीव : जलचर, थलचर, नभचर, देव, नारकी, मनुष्य।
प्रश्न— प्राण कितने हैं ?
उत्तर— पंचय इंदियपाणा मणवचकाया दु तिण्णि बलपाणा। आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण होंति दस पाणा।।११९३।।
पाँच इन्द्रिय प्राण मन वचनकाय ये तीन बल प्राण तथा श्वासोच्छ्वास प्राण और आयु प्राण मिलकर दस प्राण होते हैं।
प्रश्न— एकेन्द्रिय से संज्ञी पंचेन्द्रिय तक जीवों को कितने प्राण होते हैं ?
उत्तर— इंदिय बल उस्सासा आऊ चदु छक्क सत्त अट्ठेव। एगिंदिय विगलिंदिय असण्णि सण्णीण णव दस पाणा।।११९४।।
एकेन्द्रिय के चार प्राण होते हैं—एक इन्द्रिय, कायबल, श्वोसाच्छ्वास और आयु। दो इन्द्रिय जीव के छह प्राण होते हैं—दो इन्द्रिय, काय बल और वचन बल उच्छ्वास और आयु। तीन इन्द्रिय जीव के सात प्राण होते हैं—तीन आयु, काय बल और वचन बल, उच्छवास और आयु चार इन्द्रिय जीव के आठ प्राण होते हैं—चार इन्द्रिय, दो बल, उच्छ्वास और आयु। असैनी पंचेन्द्रिय जीव के नौ प्राण होते हैं—पाँच इन्द्रिय, दो बल, उच्छ्वास और आयु। सैनी पंचेन्द्रिय जीव के दस प्राण होते हैं—पाँच इन्द्रिय, तीन बल, उच्छ्वास और आयु।
प्रश्न— जीवसमासों के कितने भेद हैं, प्ररूपण करें ?
उत्तर— सुहुमा वादरकाया ते खलु पज्जत्तया अपज्जत्ता। एइंदिया दु जीवा जिणेहिं कहिया चदुवियप्पा।।११९५।।
पज्जत्तापज्जत्ता वि होंति विगलिंदिया दु छब्भेया। पज्जत्तापज्जत्ता सण्णि असण्णीय सेसा दु।।११९६।।
(१) एकेन्द्रिय सूक्ष्म (२) एकेन्द्रिय बादर (३) दो इन्द्रिय जीव (४) तीन इन्द्रिय जीव (५) चार इन्द्रिय जीव (६) असैनी पंचेन्द्रिय (७) सैनी पंचेन्द्रिय इन सात भेद के पर्याप्तक और अपर्याप्तक कुल चौदह जीवसमास हैं।
प्रश्न— गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर— मोह और योग के निमित्त से आत्मा के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप गुणों की तारतम्य रूप (उत्तरोत्तर वर्धनशील) अवस्था विशेष को गुणस्थान कहते हैं।
प्रश्न— गुणस्थान के कितने भेद हैं विवेचन करें ?
उत्तर— मिच्छादिट्ठी सासादणो य मिस्सो असंजदो चेव। देसविरदो पमत्ता अपमत्तो तह य णायव्वो।।११९७।।
एत्तो अपुव्वकरणो अणियट्टी सुहुमसंपराओ य। उवसंतखीणमोहो सजोगिकेवलिजिणो अजोगी य।।११९८।।
गुणस्थान चौदह हैं (१) मिथ्यात्व, (२) सासादन, (३) सम्यग्मिथ्यात्व, (४) असंयत, (५) देशविरत, (६) प्रमत्तसंयत, (७) अप्रमत्तसंयत, (८) अपूर्वक, (९) अनिवृत्तिकरण, (१०) सूक्ष्म साम्पराय, (११) उपशान्तमोह, (१२) क्षीणमोह, (१३) सयोगिजिन, (१४) अयोगिजिन। (१) मिथ्यात्व : मिथ्या, असत्य—श्रद्धान का नाम मिथ्यादृष्टि है, अर्थात् विपरीत, एकान्त, विनय, संशय और अज्ञान इन पाँच भेद रूप मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न हुई है असत्य श्रद्धा जिनके वे मिथ्यादृष्टि हैं। अथवा मिथ्या, असत्य में दृष्टि, रुचि श्रद्धा, विश्वास है जिनको वे मिथ्यादृष्टि हैं जो अनेकान्त तत्त्व से विमुख रहते हैं। (२) सासादन : आसादना—सम्यक्त्व की विराधना के साथ जो रहता है वह सासादन है, अर्थात् जिसने सम्यग्दर्शन का तो विनाश कर दिया है और मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न हुए परिणाम मिथ्यात्व को अभी प्राप्त नहीं है किन्तु मिथ्यात्व के अभिमुख किया है वह सासादन गुणस्थानवर्ती है। (३) सम्यग् मिथ्यात्व : दृष्टि, श्रद्धा और रुचि ये एकार्थवाची हैं। समीचन और मिथ्या है दृष्टि—श्रद्धा जिसकी वह सम्यग्मिथ्यादृष्टि है। वह सम्यग्मिथ्यात्व नामक प्रकृति के उदय से उत्पन्न हुए परिणामों को धारण करता है। अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय प्राप्त स्पर्धकों का क्षय होने से और सत्ता में स्थित कर्मों का उदयाभावलक्षण उपशम होने से सम्यग्मिथ्यादृष्टि होता है। (४) असंयत—सम्यक् : समीचीन दृष्टि—श्रद्धा है जिसकी वह सम्यग्दृष्टि है और जो संयत नहीं वह असंयत है। ऐसे असंयत—सम्यग्दृष्टि के क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यक्त्व के भेद से तीन प्रकार हो जाते हैं। चार अनन्तानुबन्धी और तीन दर्शनमोहनीय इन सात प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक, इनके क्षयोपशम से क्षायोपशमिक और इनके उपशम से औपशमिक सम्यग्दर्शन होते हैं। (५) देशविरत : देशविरत को संयतासंयत भी कहते हैं। संयत और असंयत की मिश्र अवस्था का नाम संयतासंयत है। इसमें विरोध नहीं है क्योंकि एक जीव में एक साथ संयम और असंयम दोनों का होना त्रसस्थावरनिमित्तक है। अर्थात् एक ही समय में वह जीव त्रसहिंसा से विरत है और स्थावरहिंसा से विरत नहीं है इसलिए संयतासंयत कहलाता है। अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क के सर्वघाति—स्पर्धकों का उदयाभावलक्षण क्षय होने से और उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम होने से एवं प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का उदय होने से यह संयमासंयम गुणपरिणाम होता है : (६) प्रमत्तसंयत : जो सम—सम्यक् प्रकार ये यत—प्रयत्नशील हैं या नियन्त्रित हैं अर्थात् व्रतसहित हैं वे संयत हैं। तथा जो प्रमत्त भी हैं। और संयत भी हैं वे प्रमत्तसंयत कहलाते हैं। इसमें कोई विरोध नहीं हैं क्योंकि हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रह इन पापों से विरति का नाम संयम है। तथा यह संयम गुप्ति और समिति से अनुरक्षित होने से नष्ट नहीं होता है। अर्थात् प्रमाद संयमी मुनियों का संयम का नाश नहीं कर पाता है किन्तु मलदोष उत्पन्न करता रहता है इसलिए ये प्रमत्तसंयम कहलाते हैं। (७) अप्रमत्तसंयत : ये पन्द्रह प्रमाद से रहित होते हैं। यह गुणस्ािान भी क्षायोपशमिकभावरूप है। यहाँ पर प्रत्याख्यानावरण कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभावलक्षण क्षय, उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम और संज्वलन कषाय का उदय होने से यह गुणस्थान होता है इसलिए इसमें प्रत्याख्यान त्याग अर्थात् संयम की उत्पत्ति होती है। यहाँ ‘अप्रमत्त’ शब्द आदि दीपक है अत: आगे के सभी गुणस्थानों में प्रमत्त अवस्था है। (८) अपूर्वकरण : करण अर्थात् परिणाम, जो पूर्व में नहीं प्राप्त हुआ वह अपूर्व हैं। अपूर्व है परिणाम जिसके वह अपूर्वकरण है। उसके दो भेद हैं—उपशमक और क्षपक। ये कर्मों के उपशमन और क्षपण की अपेक्षा रखते हैं। क्षपक के क्षायिक भाव होता है और उपशमक के क्षायिक और औपशमिक दो भाव होते हैं। दर्शनमोहनीय के क्षय के बिना क्षपक श्रेणी में आरोहण करना बन नहीं सकता इसलिए क्षपक के क्षायिक भाव ही है तथा दर्शन मोहनीय के क्षय या उपशम के बिना उपशमश्रेणी में आरोहण करना नहीं हो सकता है अत: उपशमक के दोनों भाव हैं। (९) अनिवृत्तिकरण : समान समय में स्थित हुए जीवों के परिणामों के बिना भेद के वृत्ति—रहना अर्थात् उनमें भेद नहीं रहने से अनिवृत्तिकरण है। अथवा निवृत्ति—व्यावृत्ति नहीं है जिनकी वे अनिवृत्ति हैं उनके साथ हुआ चारित्र परिणाम अनिवृत्तिकरण गुणस्थान है। उसका नाम बादर—साम्पराय भी है। उसके भी दो भेद हैं—उपशमक और क्षपक। जो कुछ प्रकृतियों को उपशमित कर रहा है और कुछ प्रकृतियों का आगे करेगा ऐसे उपशमश्रेणी वाले के औपशमिक भाव हैं। तथा क्षपक कुछ प्रकृतियों का क्षपण करता है और आगे कुछ प्रकृतियों का क्षपण करेगा इसलिए उसके क्षायिक भाव होता है। इन गुणस्थानों में औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीनों भाव पाये जाते हैं। (१०) सूक्ष्मसाम्पाराय : सूक्ष्म हैं साम्पराय अर्थात् कषायें जिनकी वे सूक्ष्मसाम्पराय कहलाते हैं उनके सहचरित गुणस्थान सूक्ष्मसांपराय है, वह भी दो प्रकार का है उपशमक और क्षपक। सम्यक्त्व की अपेक्षा से क्षपक होते हैं। क्षपक के क्षायिक गुण हैं। औपशामिक के भी क्षायिक गुण हैं तथा उपशमक के क्षायिक और औपशमिक दोनों भाव हैं। जो किन्हीं प्रकृतियों का क्षय कर रहे हैं, किन्हीं का करेंगे और किन्हीं का कर चुके हैं वे क्षायिक भाव वाले क्षपक हैं। तथा जो किन्हीं प्रकृतियों का उपशम कर रहे हैं, किन्हीं का आगे करेंगे और किन्हीं का उपशम कर चुके हैं उनके औपशमिक भाव हैं। (११) उपशान्तमोह : यहाँ उपशान्त के साथ मोह शब्द लगा लेना चाहिए। इससे उपशान्त हो गया है मोह जिनका वे उपशान्तमोह हैं। उनमें सहचरित गुणस्थान भी उपशान्तमोह कहलाता है। जिन्होंने अखिल कषायों का उपशम कर दिया है वे औपशमिक भाव वाले हैं। (१२) क्षीणमोह : क्षीण अर्थात् विनष्ट हो गया है मोह जिनका वे क्षीणमोह हैं, उनसे सहचरित गुणस्थान भी क्षीणमोह होता है, द्रव्य और भावरूप दोनों प्रकार के मोहनीय कर्म का जडमूल से विनाश हो जाने से यहाँ पर क्षायिक भाव होते हैं। यहाँ तक के सभी जीव छद्मस्थ कहलाते हैं। (१३) सयोगकेवली : केवलज्ञान जिनके पाया जाए वे केवली हैं और जो योग के साथ रहते हैं वे सयोगकेवली जिन हैं। उनसे सहचरित गुणस्थान सयोगकेवली है। यहाँ सम्पूर्ण घातिया कर्म नष्ट हो चुके हैं, वेदनीय कर्म की फल देने की शक्ति भी समाप्त हो चुकी है। (१४) अयोकेवली : जिनके मन, वचन और काय के निमिति से आत्मा के प्रदेशों में परिस्पन्दात्मक द्रव्य भावरूप योग नहीं है वे अयोगी हैं, केवलज्ञान सहित वे अयोगी अयोगकेवलिजिन कहलाते हैं। उनसे सहचरित गुणस्थान भी अयोककेवलिजिन कहलाता है। यहाँ पर घातिकर्म का तो नाश हो ही चुका है किन्तु सम्पूर्ण अघाति कर्म भी क्षीण हो रहे हैं। वेदनीय भी नि:शामिक है इसलिए यह भी क्षायिक भावरूप है। अर्थात् ये अयोगकेवली बहुत ही अल्प काल में सर्वकर्मों का निर्मूलन करके सिद्ध अवस्था को प्राप्त होनेवाले होते हैं।
प्रश्न— मार्गणा किसे कहते हैं ?
उत्तर— मार्गण शब्द का अर्थ होता है अन्वेषण। अतएव जिन करणरूप परिणामों के द्वारा जीव का अन्वेषण किया जा सके उनको कहते हैं मार्गणा।
प्रश्न— मार्गणा के कितने भेद हैं ?
उत्तर— गइ इंदिये च काये जोगे वेदे कसाय णाणे य। संजम दंसण लेस्सा भविया सम्मत्त सण्णि आहारे।।११९९।।
गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्तव संज्ञी, आहार ये चौदह मार्गणाएँ हैं।
प्रश्न— मार्गणाओं में गुणस्थान का निरूपण करें ?
उत्तर— जीवाणं खलु ठााणाणि जाणि गुण सण्णिदाणि ठाणाणि। एदे मग्गण ठाणेसु चेव परिमग्ग दव्वाणि।।१२००।।
जीवस्थान अर्थात् जीवसमासों को और गुणस्थानों को मार्गणाओं में जो जहाँ सम्भव है उन्हें वहाँ घटित करना चाहिए।
प्रश्न— चतुर्गतियों में जीव समास का निरूपण करें ?
उत्तर—तरियगदीए चोद्दस हवंति सेसाणु जाण दो दो दु। मग्गणठाणस्सेदं णेयाणि समासठाणाणि।।१२०१।।
तिर्यंचगति में चौदह जीव समास होते हैं। शेष गतियों में सैनी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो दो हैं ऐसा जानो। मार्गणास्थानों में इन समासस्थानों का जानना चाहिए।
प्रश्न— चारों गतियों में कितने-कितने गुणस्थान होते हैं ?
उत्तर— सुरणारयेसु चत्तारि होंति तिरियेसु जाण पंचेव। मणुसगदीएवि तहा चोद्दसगुणणामधेयाणि।।१२०२।।
देव और नानकियों में मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयत पर्यन्त चार गुणस्थान होते हैं। तिर्यंचों में ये पहले चार और संयतासंयत इस प्रकार पाँच होते हैं। मनुष्यों में मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोग पर्यन्त चौदह गुणस्थान होते हैं।
प्रश्न— एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक जीवों का क्षेत्र प्रमाण प्रतिपादन करें ?
उत्तर— एइंदिया य पंचेन्दिया य उड्ढमहोतिरियलोएसु। सयलविगलिंदिया पुण जीवा तिरियंमि लोयंमि।।१२०३।।
एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव ऊध्र्वलोक में, अधोलोक और तिर्यग्लोक में होते हैं। किन्तु दो—इन्द्रिय, तीन—इन्द्रिय, चौ—इन्द्रिय, और असैनी पंचेन्द्रिय ये सभी जीव तिर्यग्लोक में ही हैं, अन्यत्र नहीं है। क्योंकि इनका नरकलोक में, देवलोक और सिद्धक्षेत्र में अभाव है।
प्रश्न— एकेन्द्रिय जीवों का क्षेत्र प्रमाण बताइए ?
उत्तर— एइंदियाय जीवा पंचविधा बादरा य सुहुमा य। देसेहिं बादरा खलु सुहुमेहिं णिरंतरो लोओ।।१२०४।।
एकेन्द्रिय के पृथिवीकाय से लेकर वनस्पति पर्यन्त पाँच भेद हैं। इन प्रत्येक के बादर और सूक्ष्म के भेद से दो—दो प्रकार हो जाते हैं। बादर जीव लोक के एकदेश में हैं क्योंकि ये वातवलयों में हैं, आठों पृथिवियों का एवं विमान पटलों का आश्रय लेकर ये रहते हैं तथा सूक्ष्म जीव इस सर्वलोक में पूर्णरूप से भरे हुए हैं, लोक का एक प्रदेश भी उनसे रहित नहीं है।
प्रश्न— सूक्ष्म जीव लोक के सम्पूर्ण भाग में ठसाठस भरे हैं कारण बताइए ?
उत्तर— अत्थि अणंता जीवा जेहिं ण पत्तो तसाण परिणामो। भावकलंकसुपउरा णिगोदवासं अमुंचंता।।१२०५।।
अनन्त जीव हैं जिन्होंने त्रसों की पर्याय को प्राप्त नहीं किया है। भावकलंक की अधिकता से युक्त होने से वे निगोदवास को नहीं छोड़ते हैं।
प्रश्न— निगोद के कितने भेद हैं ?
उत्तर— निगोद के दो भेद हैं—(१) नित्य निगोद और (२) चतुर्गतिनिगोद या इतरनिगोद। जिसने कभी त्रसपर्याय प्राप्त कर ली हो उसे चतुर्गति—निगोद कहते हैं। जिसने अभी तक कभी भी त्रस पर्याय नहीं पायी हो अथवा जो भविष्य में भी कभी त्रसपर्याय नहीं पायेगा उसे नित्यनिगोद कहते हैं।
प्रश्न— एक निगोदिया जीव के शरीर में कितने जीव रहते हैं ?
उत्तर— एगणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्पमाणदो दिट्ठा। सिद्धेहिं अणंतगुणा सव्वेण वितीदकालेण।।१२०६।।
गुरच आदि वनस्पतिकायिक के साधरणकाय में एक निगोद जीव के शरीर में अनन्तकायिक जीव द्रव्य प्रमाण रूप संख्या से सभी अतीतकाल के सिद्धों से भी अनन्तगुणे हैं।
प्रश्न— असंख्यात प्रदेशी लोक में ये अनन्त जीव वैâसे रहते हैं ?
उत्तर— अवगाह्य और अवगाहन की सामथ्र्य के माहात्म्य से ही ये अनन्त जीव असंख्यात प्रदेश वाले लोकाकाश में रह जाते हैं।
प्रश्न— एकेन्द्रिय जीवों का द्रव्य प्रमाण बताइए ?
उत्तर— एइंदिया अणंता वणप्फदीकायिगा णिगोदेसु। पुढवी आऊ तेऊ वाऊ लोया असंखिज्जा।।१२०७।।
निगोदों में वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीव अनन्त हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुकायिक जीव असंख्यात लोक प्रमाण है।
प्रश्न— त्रसकायिकों की संख्या बताइए ?
उत्तर— तसकाइया असंखा सेढीओ पदरछेदणिप्पणा। सेसासु मग्गणासु वि णेदव्वा जीवसमासेज्ज।।१२०८।।
त्रसकायिक जीव प्रतर के असंख्यात भाग प्रमाण ऐसी असंख्यात श्रेणी मात्र हैं।
प्रश्न— कुलों का वर्णन करें ?
उत्तर— वावीस सत्त तिण्णि य सत्त य कुलकोडि सदसहस्साइं। णेया पुढविदगागणिवाऊकायाण परिसंखा।।१२०९।।
कोडि सद सहस्साइं सत्तट्ठ य णव य अट्टवीसं च। वेइंदिय तेइंदियचउरिंदिय हरिदकायाणं।।१२१०।।
अद्धत्तेरस वारस दसयं कुलकोडिसदसहस्साइं। जलचर पक्खिचउप्पयउरपरिसप्पेसु णव होंति।।१२११।।
छव्वीसं पणवीसं चउदस कुलकोडि सहसहस्साइं। सुरणेरइयणराणं जहाकमं होइ णायव्वं।।१२१२।।
पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु काय के कुलों की संख्या क्रमश: बाईस लाख करोड़ सात लाख करोड़ तीन लाख करोड़ और सात लाख करोड़ जानना। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और वनस्पति काय इनके कुल सात कोटि लक्ष, आठकोटि लक्ष, नौ कोटिलक्ष और अट्ठाईस कोटिलक्ष हैं। जलचरों के कुल साढ़े बारह कोटिलक्ष, पक्षियों के बारह कोटिलक्ष, चतुष्पद—पशुओं के दश कोटिलक्ष और छाती के सहारे चलने वाले गोधा—सर्प आदि जीवों के कुल नौ कोटिलक्ष होते हैं। देव, नारकी और मनुष्य के कुल क्रम से छब्बीस करोड़ लाख, पच्चीस करोड़ लाख और बारह करोड़ लाख होते हैं।
प्रश्न— अल्पबहुत्व का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— मणुसगदीए थोवा तेहिं असंखिज्जसंगुणा णिरये। तेहिं असंखिज्जगुणा देवगदीए हवे जीवा।।१२१३।।
तेहिंतो णंतगुणा सिद्धिगदीए भवंति भवरहिया। तेहिंतो णंतगुणा तिरयगदीए किलेसंता।।१२१४।।
मनुष्य गति में सबसे कम जीव हैं। नरक में उनसे असंख्यात गुणे हैं और देवगति में उनसे भी असंख्यातगुणे जीव हैं। सिद्धगति में भवरहित सिद्ध जीव उन देवों से अनन्तगुणे अधिक हैं। तिर्यंचगति में क्लेश को भोगते हुए तिर्यंच जीव उन सिद्धों से भी अनन्तगुणे अधिक हैं।
प्रश्न— नरक गति में अल्प बहुत्व को बताइए ?
उत्तर— थोवा दु तमतमाए अणंतराणंतरे दु चरमासु। होंति असंखिज्जगुणा णारइया छासु पुढवीसु।।१२१५।।
सातवीं पृथिवी में नारकी सबसे थोड़े हैं। इस अन्तिम से अनन्तर—अनन्तर छहों पृथिवियों में नारकी असंख्यातगुण—असंख्यातगुणे होते हैं।
प्रश्न— तिर्यंचगति में अल्प बहुत्व को बताइए ?
उत्तर— थोवा तिरिया पंचेंदिया दु चउरिंदिया विसेसहिया। वेइंदिया दु जीवा तत्तों अहिया विसेसेण।।१२१६।।
तत्तो विसेसअहिया जीवा तेइंदिया दु णायव्वा। तेहिंतोणंतगुणा भवति बेइंदिया जीवा।।१२१७।।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच सबसे थोड़े हैं, चौइन्द्रिय जीव उनसे विशेष अधिक हैं, और दोइन्द्रिय जीव उनसे विशेष अधिक हैं। उनसे विशेष अधिक तीन इन्द्रिय जीव जानना चाहिए और उनसे भी अनन्तगुणे एकेन्द्रिय जीव होते हैं।
प्रश्न— मनुष्य गति में अल्पबहुत्व को बताइए ?
उत्तर— अंतरदीवे मणुया थोवा मणुयेसु होंति णायव्वा। कुरुवेसु दससु मणुया संखेज्जदुणा तहा होंति।।१२१८।।
तत्तो संखेज्जगुणा मणुया हरिरम्मएसु वस्सेसु। तत्तो संखिज्जगुणा हेमवदहरिण्णवस्साय।।१२१९।।
भरहेरावदमणुया संखेज्जगुणा हवंति खलु तत्तो। तत्तो संखिज्जगुणा णियमादु विदेहगा मणुया।।१२२०।।
सम्मुच्छिमा य मणुया होंति असंखिज्जगुणा य तत्तो दु। ते चेव अपज्जत्ता सेसा पज्जत्तया सव्वे।।१२२१।।
मनुष्यों में अन्तद्वीपों में सबसे थोड़े मनुष्य होते हैं तथा पाँच देवकुरु, पाँच उत्तरकुरु हमें मनुष्य संख्यातगुणे होते हैं। पुन: पाँच हरिक्षेत्र और पाँच रम्यक््â क्षेत्रों में मनुष्य संख्यातगुणे अधिक हैं। पाँच हैमवत और पाँच हैरण्यवत क्षेत्रों के मनुष्य इससे संख्यातगुणे हैं। उससे संख्यातगुणे पाँच भरत और पाँच ऐरावत के मनुष्य होते हैं तथा पाँचों विदेहक्षेत्रों के मनुष्य नियम से उनसे संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातगुणे सम्मूच्र्छन मनुष्य होते हैं। ये ही अपर्याप्तक हैं, जबकि शेष सभी पर्याप्तक हैं।
प्रश्न— देवगति में अल्पबहुत्व को बताइए ?
उत्तर— थोवा विमाणवासी देवा देवी य होंति सव्वेवि। तेहिं असंखेज्ज गुणा भवणेसु य दसविहा देवा।।१२२२।।
तेहिं असंखेज्ज गुणा देवा खलु होंति वाणवेंतरिया। तेहिं असंखेज्जगुणा देवा सव्वेवि जोदिसिया।।१२२३।।
विमानवासी देव और देवियाँ, ये सभी थोड़े होते हैं, उनसे असंख्यात गुणे भवनवासियों में दश प्रकार के देव हैं। उनसे असंख्यातगुणे व्यंतर देव होते हैं। उनसे असंख्यातगुणे सभी ज्योतिष्क देव हैं।
प्रश्न— देवों का गुणस्थान द्वारा निरूपण करें ?
उत्तर— अणुदिसणुत्तरदेवा सम्मादिट्ठीय होंति बोधव्वा। तत्तो खलु हेट्ठिमया सम्मामिस्सा य तह सेसा।।१२२४।।
अनुदिश और अनुत्तर के देव सम्यग्दृष्टि होते हैं ऐसा जानना। इनसे नीचे के देव सम्यक्तव और मिथ्यात्व इन दोनों वाले होते हैं तथा शेष जीव भी दोनों से मिश्रित होते हैं।
प्रश्न— बन्ध के कारण क्या हैं ?
उत्तर—मिच्छादंसण अविरदि कसाय जोगा हवंति बंधस्स। आऊसज्झवसाणं हेदवो ते दु णायव्वा।।१२२५।।
मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और योग ये बन्ध के कारण हैं। ये परिणाम आयु बंध के भी कारण हैं।
प्रश्न— बंध किसे कहते हैं ?
उत्तर— जीवो कसायजुत्तो जोगादो कम्मणो दु जे जोग्गा। गेण्इह पोग्गलदव्वे बंधो सो होदि णायव्वो।।१२२६।।
कषाय सहित जीव योग से कर्म के जो योग्य हैं ऐसे पुद्गल द्रव्यों को ग्रहण करता है वह बन्ध है।
प्रश्न— बन्ध के कितने भेद हैं ?
उत्तर— पायडिट्ठिदि अणुभागप्पदेसबंधो य चदुविहो होइ। दुविहो य पयडिबंधो मूलो तह उत्तरो चेव।।१२२७।।
प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप से बन्ध चार प्रकार का होता है, और प्रकृतिबन्ध दो प्रकार का है—मूलप्रकृति बन्ध तथा उत्तरप्रकृतिबन्ध है।
प्रश्न— कर्म की मूल प्रकृतियाँ कितनी हैं ?
उत्तर— णाणस्स दंसणस्य य आवरणं वेदणीय मोहणियं। आउगणामा गोदं तहंतरायं च मूलाओ।।१२२८।।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये आठ मूलप्रकृतियाँ हैं।
प्रश्न— आठ कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ कितनी हैं ?
उत्तर— पंच णव दोण्णि अट्ठावीसं चदुरो तहेव वादालं। दोण्णि य पंच य भणिया पयडीओ उत्तरा चेव।।१२२९।।
ज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियाँ हैं, दर्शनावरण की नौ प्रकृतियाँ हैं, वेदनीय की दो प्रकृतियाँ हैं, मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृतियाँ हैं, आयु की चार प्रकृतियाँ हैं, नाम की तिरानवे प्रकृतियाँ हैं, गोत्र की दो प्रकृतियाँ है और अंतराय की पाँच प्रकृतियाँ हैं। इस प्रकार से एक सौ अड़तालीस उत्तर प्रकृतियाँ होती हैं।
प्रश्न— ज्ञानावरण के पाँच भेद कौन से हैं ?
उत्तर— आभिणिबोहियसुदओहीमण पज्जयकेवलाणं च। आवरणं णाणाणं णादव्वं सव्वभेदाणं।।१२३०।।
अभिनिबोधिकज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण मन: पर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण ये पाँच ज्ञानावरण के भेद हैं।
प्रश्न— दर्शनावरण के नौ भेद कौन—कौन से हैं ?
उत्तर— णिद्दाणिद्दा पयलापयला तह थीणगिद्धि णिद्दा य। पयला चक्खु अचक्खु ओहीणं केवलस्सेदं।।१२३१।।
निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, सत्यानगृद्धि, निद्रा और प्रचला तथा चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण, ऐसे नौ भेद दर्शनावरण के हैं।
प्रश्न— वेदनीय और मोहनीय की उत्तरप्रकृतियों का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— सादमसादं दुविहं वेदणियं तहेव मोहणीयं च। दंसणचरित्तमोहं कसाय तह णोकसायं च।।१२३२।।
तिण्णिय दुवेय सोलस णवभेदा जहाकमेण णायव्वा। मिच्छत्तं सम्मत्तं सम्मामिच्छत्तामिदि तिण्णि।।१२३३।।
साता और असाता से देवनीय के दो भेद हैं। मोहनीय के दर्शनमोह और चारित्रमोह ये दो भेद हैं। तथा क्रम से दर्शनमोहनीय के तीन एवं चारित्रमोहनीय के कषाय और नोकषाय ये दो भेद हैं। कषाय के सोलह और नो—कषाय के नौ भेद जानना चाहिए। दर्शनमोह के मिथ्यात्व, सम्यक्त्व तथा सम्यक् मिथ्यात्व ये तीन भेद भी होते हैं।
प्रश्न— सोलह कषायों के नाम बताइए ?
उत्तर— कोहो माणो माया लोहोणंताणुबंधिसण्णा य। अप्पच्चक्खाण तहा पच्चक्खाणो य संजलणो।।१२३४।।
क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन रूप होने से सोलह हो जाते हैं। प्रश्न— नोकषाय के भेदों का निरूपण करें ? उत्तर— इत्थीपुरिसणउंसयवेदा हास रदि अरदि सोगो य। भयमेतो य दुगंछा णवविह तह णोकसायभेयं तु।।१२३५।। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा ये नोकषायों के नौ भेद हो जाते हैं।
प्रश्न— आयु और नाम कर्म की प्रकृतियों के भेदों को बताइए ?
उत्तर— णिरियाऊ तिरियाऊ माणुसदेवाण होंति आऊणी। गदिजादिसरीराणि य बंधणसंघाद संठाणा।।१२३६।।
संघडणंगोवंगं वण्णरसगंधफासमणुपुव्वी। अगुरुलहुगुवघादं परघादमुस्सास णामं च।।१२३७।।
आदावुज्जोदविहायगइजुयलतस सुहुमणामं च। पज्जत्तसाहरणजुग थिरसुह सुहगं च आदेज्जं।।१२३८।।
अथिरअसुहदुब्भगयाणादेज्जं दुस्सरं अजसकित्ती। सुस्सरजसकित्ती विय णिमिणं तित्थयर णामबादालं।।१२३९।।
नरकायु, तिर्यंचायु, मानुषायु और देवायु ये आये के चार भेद हैं। (१) गति, (२) जाति, (३) शरीर, (४) बन्धन, (५) संघात, (६) संस्थान, (७) संहनन, (८) अंगोपांग, (९) वर्ण, (१०) रस, (११) गंध, (१२) स्पर्श, (१३) आनुपूर्वी, (१४) अगुरुलघु, (१५) उपघात, (१६) परघात, (१७) उच्छ्वास, (१८) आतप, (१९) उद्योत, (२०) विहायोगति, (२१) त्रस, (२२) स्थावर, (२३) सूक्ष्म, (२४) बादर, (२५) पर्याप्त, (२६) अपर्याप्त, (२७) साधारण, (२८) प्रत्येक, (२९) स्थिर (३०) शुभ, (३१) सुभग, (३२) आदेय, (३३) अस्थिर, (३४) अशुभ, (३५) दुर्भग, (३६) अनोदय (३७) दु:स्वर, (३८) अयशस्र्कीित, (३९) सुस्वर, (४०) यशस्र्कीित, (४१) निर्माण और (४२) तीर्थंकरत्व ये ब्यालीस भेद नामकर्म के है।
प्रश्न— गोत्र और अन्तराय प्रकृतियों के भेद बताइए ?
उत्तर— उच्चाणिच्चागोदं दाणं लाभंतराय भोगो य। परिभोगो विरियं चेव अंतरायं च पंचविहं।।१२४०।।
गोत्र के उच्चगोत्र और नीचगोत्र ऐसे दो भेद हैं। अन्तराय के दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ऐसे पाँच भेद हैं।
प्रश्न— कर्म प्रकृतियों के स्वामी का प्रतिपादन करें ?
उत्तर— सयअडयालपईणं बंधं गच्छंति वीसअहियस। सव्वे मिच्छादिट्ठी बंधदि नाहारतित्थयरा।।१२४१।।
एक सौ अड़तालीस प्रकृतियों में से एक सौ बीस प्रकृतियाँ बन्धयोग हैं। अट्ठाईस अबन्ध प्रकृतियाँ हैं। पाँच शरीरबन्धन, पाँच शरीर संघात, चार वर्ण, चार रस, एक गंध, सात स्पर्श तथा सम्यक्तव और सम्यग्मिथ्यात्व इस प्रकार ये अट्ठाईस प्रकृतियाँ बन्धयोग्य नहीं हैं। इनके अतिरिक्त शेष एक सौ बीस प्रकृतियों में से आहारद्विक और तीर्थंकर ये तीन प्रकृतियाँ कम करने से मिथ्यादृष्टि जीव एक सौ सत्रह प्रकृतियाँ बाँधता है, अर्थात् मिथ्यादृष्टि इन प्रकृतियों का स्वामी है। तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध सम्यक्त्व से होता है और आहारकद्वय का संयम से होता है इसलिए मिथ्यादृष्टि जीव इन्हें नहीं बाँधते हैं।
प्रश्न— सासादन आदि गुणस्थानों में बन्ध योग्य प्रकृतियों की विवेचना करें ?
उत्तर— वज्जिय तेदालीसं तेवण्णं चेव पंचवण्णं च। बंधइ सम्मादिट्ठी दं सावओ संजदो तहा चेव।।१२४२।।
चौदह गुणस्थानों में बंध योग्य प्रकृतियाँ— प्रथम गुणस्थान में एक सौ सत्रह प्रकृतियाँ बन्ध योग्य हैं, दूसरे सासादन गुणस्थान में एक सौ एक प्रकृतियाँ तीसरे गुणस्ािान में चौहत्तर प्रकृतियाँ, चौथे गुणस्थान में सत्तहत्तर प्रकृतियाँ पांचवे गुणस्थान में सडसठ प्रकृतियाँ छोटे गुणस्ािान में तिरेसठ प्रकृतियाँ सातवे गुणस्थान में उनसठ प्रकृतियाँ आठवें गुणस्थान में अट्ठावन प्रकृतियाँ नौवे गुणस्थान में बाईस प्रकृतियाँ दसवें गुणस्थान में सत्रह प्रकृतियाँ ग्यारहवें गुणस्थान में एक प्रकृति बारह गुणस्थान में एक प्रकृति, तेरह गुणसिवान में एक प्रकृति बंधयोग्य हैं।
प्रश्न— आठ कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति बंध का प्ररूपण करें।
उत्तर— तिण्हं खलु पढमाणं उक्कस्सं अंतरायस्सेव। तीसं कोडाकोडी सायरणामाणमेव ठिदी।।१२४३।।
मोहस्स सत्तरिं खलु बीसं णामस्स चेव गोदस्स। तेतीसमाउगाण उवमाओ सायराणं तु।।१२४४।।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। ये कर्म रूप हुए पुद्गल इतने काल तक कर्म अवस्था में रहते हैं और इसके बाद कर्मस्वरूपता को छोड़कर निर्जीर्ण हो जाते हैं। मोह की सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम, नाम और गोत्र की बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम और आयु की तेतीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है।
प्रश्न— आठ कर्मों की जघन्य स्थिति कितनी हैं ?
उत्तर— बारस य वेदणीए णामगोदाणमट्ठय मुहुत्ता। भिण्णमुहुत्तं तु ठिदीं जहण्णयं सेस पंचण्हं।।१२४५।।
वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त है। नाम और गोत्र कर्म की जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त है। शेष ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, आयु और अन्तराय इन पाँच कर्मों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र है।
प्रश्न— अनुभाग बंध किसे कहते हैं ?
उत्तर— कम्माणं जो दु रसो अज्झवसाणजणिद सुह असुहो वा। बंधो सो अणुभागो पदेसबंधो इमो होइ।।१२४६।।
ज्ञानावरण आदि कर्मों का परिणामों से होने वाला जो रस अनुभव है। वह अनुभागबन्ध है। अर्थात् क्रोध—मान—माया लोभ कषायों की तीव्रता आदि परिणामों से उत्पन्न होने वाला सुखदायक और दुखदायक अनुभव अनुभाग बन्ध कहलाता है। जैसे बकरी, गाय, भैंस आदि के दूध में तीव्र, मन्द भाव से रस माधुर्य विशेष होता है वैसे ही कर्म पुद्गलों में तीव्र आदि भाव से जो शुभ अथवा अशुभ अपने में होने वाली सामथ्र्य विशेष है वह अनुभाग बन्ध है।
प्रश्न— प्रदेश बन्ध किसे कहते हैं ?
उत्तर— सुहुमे जोगविसेसेण एगखेत्तावगाढठिदियाणं। एक्केक्के दु पदेसे कम्मपदेसा अणंता दु।।१२४७।।
ज्ञानावरणादि कर्मरूप से होने वाले पुद्गल—स्कन्धों के परमाणुओं की जो संख्या है उसे प्रदेश बंध कहते हैं। जो पुद्गल सूक्ष्म हैं, मन वचन काय के विशिष्ट व्यापार रूप योग विशेष से आत्मा के साथ एक क्षेत्रागाही हैं।
प्रश्न— उपशमनविधि और क्षपण विधि की विवेचना करें ?
उत्तर— मोहस्सावरणाणं खयेण अह अंतरायस्स य एव। उव्वज्जइ केवलयं पयासयं सव्वभावाणं।।१२४८।।
मोह के विनाश से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय के विनाश से सर्वद्रव्य और पर्यायों को जानने वाला केवलज्ञान उत्पन्न होता है। उपशमन विधि : अनन्तानुबन्धी क्रोध—मान—माया—लोभ, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यङ मिथ्यात्व इन सात प्रकृतियों का असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और अप्रमत्तसंयत में से कोई एक गुणस्थानवर्ती जीव उपशमन करता है। उसमें यह अध:करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण इन तीन करणों को करता है अर्थात् दो कारण करने के पश्चात् अनिवृत्तिकरण के काल में संख्यात भागरूप काल के व्यतीत हो जाने पर विशेषघात से नष्ट किया जाने वाला ऐसा अनन्तानुबन्धी चतुष्क स्थितिसत्कर्म उपशम को करता है। अपने स्वरूप को छोड़कर अन्य प्रकृति रूप से स्थित हो जाना अनन्तानुबन्धी का उपशम है। पुन: वही जीव अध:करण और अपूर्वकरण परिणाम को करके अनिवृत्तिकरण में संख्यात भाग बीत जाने पर दर्शनमोह की तीन प्रकृतियों का उदयाभावरूप उपशमता है अर्थात् उपशम को प्राप्त होने पर भी इनका उत्कर्ष, अपकर्ष और परप्रकृतिरूप संक्रमण का अस्तित्व होता है। यह उपशम का विधान हुआ। अर्थात् चौथे, पाँचवे, छठे या सातवें गुणस्थान में से किसी में इन तीन—तीन करणरूप परिणामों द्वारा उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करके अध: प्रवृत्तिकरण नामवाले सातवें गुणस्थान का अन्तर्मुहूर्त काल बिताकर अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में आ जाता है। अपूर्वकरण में एक भी कर्म का उपशम नहीं होता है किन्तु इस अपूर्वकरण परिणाम वाला जीव प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि से परिणामों की शुद्धि को वृद्धिंगत करता रहता है। अत: अन्तर्मुहूर्त से एक—एक स्थितिखण्ड का घात करता हुआ संख्यात लाख स्थितिखण्डों का घात कर देता है और उतने प्रमाण ही स्थिति बन्धापसरण भी करता है। इन एक—एक स्थिति बन्धापसरणों के मध्य संख्यात हजार अनुभागखण्डकों का घात होता है और प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणी रूप से कर्मपरमाणुओं की निर्जरा होती है। वह जीव अप्रशस्त कर्मांशों को नहीं बाँधता है बल्कि उनके प्रदेशाग्रों को असंख्यातगुण श्रेणीरूप से बद्धमान अन्य प्रकृतियों में संक्रमण करा देता है। पुन: अपूर्वकरण का काल बिताकर, अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करके, अन्तर्मुहूर्त मात्र तक इसी विधि से स्थित होकर बारह कषाय और नौ नोकषायों का अन्तर करता है। इसमें अन्तर्मुहूर्त लगता है। अन्तर करने के बाद, पहले समय से ऊपर अन्तर्मुहूर्त जाकर असंख्यातगुणश्रेणी द्वारा नपुंसक वेद का उपशम करता है। इसके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त काल से नपुंसकवेदोपशम विधि से ही स्त्रीवेद का उपशम करता है। अन्तर उसी विधि के अनुसार छह नोकषायों का और चिरन्तन सत्कर्म के साथ रह रहे पुंवेद का भी युगपत् उपशम कर देता है। इसमें भी अन्तर्मुहूर्त काल लगता है। तदनन्तर एक समय, कम दो आवली के बीत जाने पर पुरुषवेद के नवक बन्ध का उपशम करता है। पुन: अन्तर्मुहूर्त के बाद अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान संज्ञक क्रोध का और चिरन्तन सत्कर्म के साथ संज्वलन क्रोध का एक साथ उपशम कर देता है। पुन: एक समय कम दो आवली प्रमाण काल के व्यतीत हो जाने पर, क्रोधसंज्वलन के नवक बन्ध का उपशम करता है। अनन्तर अन्तर्मुहूर्त के बाद, अप्रत्याख्या—मान और प्रत्याख्यान मान का एवं चिरन्तम सत्कर्म के साथ संज्वलन—मान का असंख्यात गुणश्रेणी से एक साथ उपशम करता है। इसके बाद एक समय कम दो आवली काल के अनन्तर मान के संज्वलन के नवक बन्ध का उपशम करता है। इसके बाद प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणी के द्वारा अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर दो प्रकार की माया का और चिरन्तन सत्कर्म के साथ संज्वलन—माया का एक साथ उपशम कर देता है। पुन: एक समय कम दो आवली के बीत जाने पर माया संज्वलन के नवक बन्ध का उपशम करता है। पुन: अन्तर्मुहूर्त के बाद दो प्रकार के लोभ का और चिरन्तन सत्कर्म के साथ संज्वलन लोभ का उपशम कर देता है। अथवा लोभवेदक से द्वितीय त्रिभाग में जो सूक्ष्मकृष्टिरूप लोभ है उसे छोड़कर स्पद्र्धकगत सर्वबादर लोभ, जो कि सर्वनवक बन्ध की उच्छिष्टावलि से र्विजत है, का अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के अन्त समय में यह जीव उपशम कर देता है। इस तरह नपुंसकवेद से लेकर लोभसंज्वलन तक इन प्रकृतियों का यह अनिवृत्तिकरण में उपशमक होता है। इसके अन्तर सूक्ष्मकृष्टिरूप लोभ का अनुभव करता हुआ अनिवृत्तिसंज्ञक गुणस्थान से आगे बढ़कर सूक्ष्मसाम्पराय हो जाता है। यह जीव अपने इस गुणस्थान के चरम समय में सूक्ष्म किट्टिका रूप संज्वलन लोभ को पूर्णतया उपशान्त कर देता है। तब उपशान्तकषाय गुणस्थान में वीतराग छद्मस्थ हो जाता है। उदय, उदीरणा, उत्कर्षण, अपकर्षण, परप्रकृतिसंक्रमण, स्थित्यनुभागखण्ड घात के बिना यह स्थान, अपने नाम के अनुरूप ही है। अर्थात् इसका उपशान्त नाम सार्थक है। यह मोहनीय कर्म के उपशमन की विधि कही गयी। क्षपण विधि— बन्ध के प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रदेश ये चार भेद हैं। तथा ज्ञानावरण आदि मूलभेद आठ और उनके उत्तरभेद एक सौ अड़तालीस हैं। इन सबका नाश करना क्षपण है। इनके नाश होने पर जीव ज्ञानज्योति स्वरूप अपने अनन्त गुणों को प्राप्त कर लेता है। अनन्तानुबन्धी क्रोधमान—माया लोभ, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन सात प्रकृतियों का असंयत सम्यग्दृष्टि संयतासंयत, प्रमत्तसंयत अथवा अप्रमत्तसंयत मुनि क्षय कर देता है। क्या एक साथ क्षय कर देता है। नहीं, पहले वह अध: प्रवृत्तकरण और अपूर्वकरण पुन: अनिवृत्तिकरण नामक तृतीय करण के चरम समय में अनन्तानुबन्धी चतुष्क का एक साथ क्षपण कर देता है। इसके अनन्तर पुन: अध: प्रवृत्तिकरण और अपूर्वकरण का समय बिताकर अनिवृत्तिकरण काल में भी संख्यातभाग व्यतीत हो जाने पर मिथ्यात्व कर्म का विनाश करता है। उसके बाद अन्तर्मुहूर्त काल व्यतीत करके सम्यकङ् मिथ्यात्व का क्षपण करता हैं। पुन: अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर सम्यक्त्व प्रकृति का विनाश करता है। तब उन्हें क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है। अर्थात् यह क्षायिक सम्यक्त्व चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक किसी में भी हो सकता है। ये तीन करण सम्यक्त्व के लिए होते हैं। अनन्तर छठा गुणस्थानवर्ती मुनि सातवें गुणस्थान में पहुँचकर उस अध:प्रवृत्तिकरण नामक सातवें गुणस्थान के अन्तर्मुहूर्त काल को व्यतीत कर अपूर्वकरण नामक आठवाँ गुणस्थान प्राप्त कर लेता है। वह अपूर्वकरण मुनि एक भी कर्म का क्षपण नहीं करता है, किन्तु समय—समय के प्रति असंख्यातगुणरूप से कर्म प्रदेशों की निर्जरा करता है। अन्तर्मुहूर्त काल के भीतर ही असंख्यात हजार स्थितिखण्डों का घात कर देता है। और वह उतने मात्र ही स्थितिबन्धापसरणों को कर लेता है। उनसे भी असंख्यात हजार गुणे अनुभागखण्डों का घात करता है, क्योंकि एक अनुभागखण्डकोत्कीर्ण काल से एकस्थिति— खण्कोत्कीर्ण काल संख्यात गुणा अधिक होता है। यह विधि करके वह मुनि अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थान में प्रवेश करके इस गुणस्थान का संख्यात भाग काल अपूर्वकरण के विधान से ही बिताकर पुन: अनिवृत्तिकरण का संख्यातभाग काल शेष रह जाने पर सत्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, नरकगति, तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियजाति, नरकगति, प्रयोग्यानुपूव्र्य, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूव्र्य, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियों का क्षय कर देता है। पुन: अन्तर्मुहूर्त काल व्यतीत कर अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों का क्रम से क्षपण करता है—सो यह ‘कर्मप्राभृत’, ग्रंथ का उपदेश है, किन्तु ‘कषायप्राभृत’ का ऐसा उपदेश है कि आठ कषायों का नाश कर देने पर पुन: अन्तर्मुहूर्त काल के अनन्तर सोलह कर्म प्रकृतियों का अथवा बारह कर्मों का नाश करता है। पापभीरू भव्यों को इन दोनों उपदेशों को ग्रहण करना चाहिए। अर्थात् केवली या श्रुतकेवली के अभाव में आज दोनों में से एक का सही निर्णय नहीं हो सकता है अत: हम और आपके लिए दोनों ही उपदेश प्रमाण के योग्य हैं। इसके बाद अन्तर्मुहूर्त काल बिताकर चार संज्वलन और नौ नोकषायों का अन्तर करता है—उदय सहित कर्मों को अन्तर्मुहूर्त मात्र प्रथम स्थिति में स्थापित करता है और जिनका उदय नहीं है ऐसे अनुदयकर्मों (संज्वलन और नौ नोकषायों) को एक समय कम आवलिमात्र प्रथम स्थिति में स्थापित करता है। इसके बाद अन्तर करके अन्तर्मुहूर्त काल में नपुंसकवेद का क्षपण करता है। इसके अन्तर्मुहूर्त काल के बाद स्त्रीवेद का क्षय करता है। पुन: अन्तर्मुहूर्त व्यतीत कर छह नोकषायों का और चिरन्तन सत्कर्म के साथ वेद का सवेद भाग के द्विचरम समय में युगपत् विनाश कर देता है। पुन: आवलीमात्र काल बाद पुंवेद का क्षपण करता है। पुन: अन्तर्मुहूर्त काल से क्रोधसंज्वलन का क्षय करता है। पुन: अन्तर्मुहूर्त काल से मानसंज्वलन का क्षय करता है। पुन: अन्तर्मुहूर्त से मायासंज्वलन का क्षय करता है। पुन: अन्तर्मुहूर्त काल बिताकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है। इस दशवें गुणस्थान में वह चरमसमय में किट्टिकागत सम्पूर्ण लोभसंज्वलन का क्षय कर देता है। इसके अन्तर वह क्षीणकषाय निग्र्रंथ हो जाता है। वहाँ पर भी वह अन्तर्मुहूर्तकाल व्यतीत करके अपने इस बारहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों का क्षपण करता है। इसके बाद अन्तिम—चरमसमय में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तराय इन चौदह प्रकृतियों का विनाश करता है। इस प्रकार इन त्रेसठ कर्मप्रकृतियों के सर्वथा विनष्ट हो जाने पर वह मुनि सयोगी जिन केवली हो जाता है।
प्रश्न— जिन भगवान किन कर्मों का क्षपणा करते हैं, उनका निरूपण करें ?
उत्तर— तत्तोरालियदेहो णामा गोदं च केवली युगवं। आऊण वेदणीयं चदुहिं खिविइत्तु णीरओ होइ।।१२४९।।
वे अयोगकेवली जिन भगवान् औदारिक शरीर, नाम, गोत्र, आयु और वेदनीय इन कर्मों का एक साथ क्षय करके कर्म रजरहित सिद्ध भगवान् हो जाते हैं।
प्रश्न— श्री कुंदकुंदाचार्य ने शिष्य वर्ग को किस प्रकार से आज्ञा दी है ?
उत्तर— एसो में उवदेसो संखेवेण कहिदो जिणक्खादो। सम्मं भावेदव्वो दायव्वो सव्वजीवाणं।।कुंद. मूला.।।
जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित यह उपदेश मैंने संक्षेप में कहा है। हे शिष्यगण ! तुम लोग मन–वचन—काय की एकाग्रतापूर्वक इस उपदेश की भावना करो और इसे सभी जीवों का प्रदान करो।
दइदूण सव्वजीवे दमिदूण या इंदियाणि तह पंच। अट्ठविहकम्मरहिया णिव्वाणमणुत्तरं जाथ।। कुन्द. मूला.।।
हे मुनिगण ! तुम सभी जीवों पर दया करके तथा स्पर्शन आदि पाँचों इन्द्रियों का दमन करके, आठ प्रकार के कर्मों से रहित होकर सर्वोत्कृष्ट निर्वाण पद प्राप्त करो।