अथानन्तर समागमरूपी सूर्य से जिसका मुखकमल खिल उठा था ऐसी सीता का हाथ अपने हाथ से पकड़ श्रीराम उठे और इच्छानुकूल चलने वाले ऐरावत के समान हाथी पर बैठकर स्वयं उस पर आरूढ़ हुए। महातेजस्वी तथा सम्पूर्ण कान्ति को धारण करने वाले श्रीराम हिलते हुए घंटों से मनोहर हाथीरूपी मेघ पर सीतारूपी रोहिणी के साथ बैठे हुए चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रहे थे।।१—३।।
अतिशय निपुण थे ऐसे श्रीराम, सूर्य के विमान समान जो रावण का भवन था उसमें जाकर प्रविष्ट हुए। वहां उन्होंने भवन के मध्य में स्थित श्री शांतिनाथ भगवान् का परम सुन्दर मन्दिर देखा। वह मन्दिर योग्य विस्तार और ऊँचाई से सहित था, स्वर्ण के हजार खम्भों से निर्मित था, विशाल कान्ति का धारक था, उसकी दीवालों के प्रदेश नाना प्रकार के रत्नों से युक्त थे, वह मन को आनन्द देने वाला था, विदेह क्षेत्र के मध्य में स्थित मेरुपर्वत के समान था, क्षीर समुद्र के फैन पटल के समान कान्ति वाला था, नेत्रों को बांधने वाला था, रुणझुण करने वाली किाqज्र्णियों के समूह एवं बड़ी—बड़ी ध्वजाओं से सुशोभित था, मनोज्ञरूप से युक्त था तथा उसका वर्णन करना अशक्य था।।६—१०।। (पद्मपुराण भाग-३,पृ॰ ९३)