श्रीरामचन्द्र जी ने लंका में स्वर्णमयी हजार खंभों वाले पद्मप्रभ मंदिर के दर्शन किये
इस प्रकार सुन्दरी स्त्रियों के मुख—कमलों को विकसित करते हुए वे सब विभीषण के राजभवन में पहुँचे।।६०।। उस समय राम, लक्ष्मण आदि की शुभ—लक्षणों से युक्त जो विभूति थी वह देवों के लिए भी आश्चर्य उत्पन्न करने वाली थी।।६१।। अथानन्तर हाथी से उतरकर, जिनका रत्नों के अघ्र्य आदि से सत्कार किया गया था ऐसे सीता सहित राम लक्ष्मण ने विभीषण के सुन्दर भवन में प्रवेश किया।।६२।। विभीषण के विशाल भवन के मध्य में श्री श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र का वह मन्दिर था जो रत्नमयी तोरणों से सहित था, स्वर्ण के समान देदीप्यमान था, समीप में स्थित महलों के समूह से मनोहर था, शेष नामक पर्वत के मध्य में स्थित था, प्रेम की उपमा को प्राप्त था, स्वर्णमयी हजार खम्भों से युक्त था, उत्तम देदीप्यमान था, योग्य लम्बाई और विस्तार से सहित था, नाना मणियों के समूह से शोभित था, चन्द्रमा के समान चमकती हुई नाना प्रकार की बल्लभियों से युक्त था, झरोखों के समीप लटकती हुई मोतियों की जाली से सुशोभित था, अनेक अद्भुत रचनाओं से युक्त प्रतिसर आदि विविध प्रदेशों से सुन्दर था और पाप को नष्ट करने वाला था।।६३—६७।। इस प्रकार के उस मन्दिर में श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र की पद्मराग मणि निर्मित वह अनुपम प्रतिमा विराजमान थी। जो अपनी प्रभा से मणिमय भूमि में कमल—समूह की शोभा प्रकट कर रही थी। सब लोग उस प्रतिमा की स्तुति—वन्दना कर यथायोग्य बैठ गये।।६८—६९।।