(मूलसंघ के अन्तर्गत नंदिसंघ के आचार्यों की नामावली)
‘‘समस्त राजाओं से जिनके पादकमल पूजित हैं, जो मुनिवर भद्रबाहु के पदकमल को विकसित करने में सूर्य हैं, ऐसे ‘श्री गुप्तिगुप्त’ इस नाम से प्रसिद्ध श्रीमान महामुनि आप लोगों के निर्मल संघ की वृद्धि को करें। श्री मूलसंघ में नंदिसंघ हुआ है उसमें अतिरमणीय बलात्कारगण प्रसिद्ध है। उस गण में पूर्वों के अंश को जानने वाले मनुष्य और देवों से वंदनीय ऐसे ‘श्रीमाघनंदी’ स्वामी हुए हैं। उनके पट्ट पर श्रेष्ठ मुनि ‘जिनचंद्र’ हुए हैं और इनके पट्ट पर पाँच नाम के धारक मुनियों में चक्रवर्ती एसे ‘श्री पद्मनंदी’ स्वामी हुए। कुन्दकुन्द, वक्रग्रीव, एलाचार्य, गृद्धपिच्छ और पद्मनंदि ये पाँच नाम उनके प्रसिद्ध हैं। उनके पट्टधर ‘उमास्वाति’-उमास्वामी आचार्य हुए, जो कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता हैं और मिथ्यात्वरूपी अंधकार को नष्ट करने के लिए सूर्य के समान हैं। उनके पट्ट पर देवों से पूज्य जातरूपधारी ‘लोहाचार्य’ हुए जो कि समस्त अर्थ का बोध करने में विशारद थे। यहाँ से इस नंदीसंघ में पूर्व और उत्तर के भेद से दो पट्ट हो गये हैं। उन यतीश्वरों के नाम को अनुक्रम से कहता हूँ। यश:कीर्ति, यशोनंदी देवनंदी अपरनाम पूज्यपाद और गुणनंदी। तार्विकशिरोमणि और वङ्का के सदृश कठोर चर्या के धारक ऐसे वङ्कानंदी, कुमारनंदी, लोकचन्द्र, वचनो की निधि ऐसे प्रभाचन्द्र, नेमिचन्द्र, भानुनंदी, सिंहनंदी, जटाधर, वसुनंदी, वीरनंदी, कामदेव के भेदन करने वाले ऐसे रत्ननंदी, माणिक्यनंदी, मेघचन्द, महायशस्वी, शांतिकीर्ति, मेरुकीर्ति, महाकीर्ति, विद्वानों में श्रेष्ठ विष्णुनंदी, श्री भूषण, शीलचन्द्र, श्रीनंदी, देशभूषण, अनंतकीर्ति और शासन को वृद्धिंगत करने वाले ऐसे धर्मनंदी हुए। विद्यानंदी रामचन्द्र, निर्दोषभावी ऐसे रामकीर्ति, अभयचन्द्र, नरचंद्र, स्थिरव्रती, नागचन्द्र, नयनन्दी, हरिश्चन्द्र, मलदोषों से रहित महीचन्द्र माधवचन्द्र, लक्ष्मीचन्द्र, गुणों के आश्रयभूत ऐसे गुणकीर्ति, गुणचन्द्र, वासवचन्द्र, सुतत्त्वों के वेत्ता लोकचन्द्र, त्रैविद्य और वैयाकरण भास्वर ऐसे श्रुतकीर्ति, भावचन्द्र, महाचन्द्र, क्रियाओं में अग्रणी माघचन्द्र, विश्वनन्दी शिवनन्दी, तपोधन के धारक विश्वचन्द्र, सिद्धांतवेत्ता हरिनन्दी, भावनन्दी सुरकीर्ति, विद्याचन्द्र (विद्यानंद) और लक्ष्मी के भंडार ऐसे सूरचन्द्र आचार्य हुए। माघनन्दी, ज्ञाननन्दी, गंगनन्दी, सिंहकीर्ति, हेमकीर्ति, मनोज्ञबुद्धि वाले चारुनन्दी, नेमिनन्दी, नाभिकीर्ति, नरेन्द्रकीर्ति, श्रीचन्द्र, पद्मकीर्ति, वर्धमानमुनीश्वर, अकलंकचन्द्र, ललितकीर्ति, त्रैविद्यज्ञानी, केशवचन्द्र, चारुकीर्ति, महातपस्वी अभयकीर्ति और सिद्धांतपारंगत वनवासी, व्याघ्र सर्प आदि से सेवित शील के सागर ऐसे वसंतकीर्ति आचार्य हुए। वनवासी इन वसंतकीर्ति सूरि के शिष्य विशालकीर्ति हुए जिनकी कीर्ति भवन में विख्यात हो गई, ये अनेक गुणों के आलय थे, शम-दम, ध्यानरूपी नदियों के सागर, परवादी रूपी हाथियों के मदवारण करने में सिंहतुल्य, त्रैविद्यविद्या के आस्पद अति प्रसिद्ध हुए हैं। इनके पट्ट पर शुभकीर्ति आचार्य हुए जो चरित्रमूर्ति थे, एकान्तर आदि उग्र तपश्चरण के विधाता थे और सन्मार्गविधि के विधान में ब्रहृमा के समान थे। इनके पट्ट पर हमीर राजा से पूजित श्री धर्मचन्द्र हुए, जो कि संयम समुद्र की वृद्धि में चन्द्रमा के समान, सैद्धान्तिक और प्रख्यात माहात्म्य के अवतार स्वरूप थे। इनके पट्ट पर ‘‘रत्नकीर्ति’’ आचार्य हुए जो स्याद्वादविद्या के समुद्र थे, जिनके शिष्य अनेक देशों में फैले हुए थे, धर्म कथाओं में आसक्त मतिवाले, पाप समूह के बाधक बालब्रह्मचारी थे। तपस्या के प्रभावपूजित और कारुण्य के पूर्ण आशय वाले थे। समस्त संघों में तिलक श्री नंदिसंघ है उसमें विशाल कीर्ति वाला सरस्वती गच्छ है। उसमें जिनकी शुभकीर्ति के बखान से आकाश तल व्याप्त हो रहा है, चन्द्रमा के समान निर्मल कीर्ति के धारक ऐसे ये रत्नकीर्ति आचार्य जयवंत रहें। इनके पट्ट पर प्रभाचंद्र आचार्य हुए। इनके पट्ट पर जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराने वाले श्री ‘पद्मनंदी’ हुए। ये निर्ग्रन्थ महामुनि अनेकों गुणों से विभूषित१ थे। उनके पट्ट पर शुभचंद्रसूरि हुए उनके पट्ट पर पद्मनंदी पुन: उनके पट्ट पर जिनचंद्र सूरि हुए पुन: उनके पट्ट पर प्रभाचंद्राचार्य हुए। ‘श्री पद्मनंदी’ गुरु बलात्कारगण में अग्रणी हुए हैं। इन्होंने ऊर्जयंतगिरि पर पाषाण से बनी हुई सरस्व्ती की मूर्ति को बुलवा दिया था। इसी हेतु से सारस्वती गच्छ (सरस्वती गच्छ) प्रसिद्ध हुआ है इसलिए मैं श्री पद्मनंदी मुनीन्द्र को नमस्कार करता हूँ। और भी अनेक गुर्वावलियों में और प्रशस्तियों में परम्परागत अनेकों आचार्यों के नाम हैं। इनके अतिरिक्त न जाने कितने मुनि हुए हैं। जिनकी संख्या को जानने के लिए अपने पास कोई साधन नहीं है। तमाम आचार्यों के ग्रंथों से उनमें लिखी हुई प्रशस्तियों से और शिलालेखों से बहुत से साधुओं के नाम और परिचय जानने को मिल भी रहे हैं। गुणधर धरसेन और कुन्दकुन्द आदि आचार्यों ने ताड़पत्रों पर कितने श्रम से ग्रंथ लिखे हैं अपने ध्यान से समय निकालकर महान् परोपकार की भावना को हृदय में धारण करते हुए ही इन आचार्यों ने परम करुणा बुद्धि से हम लोगों के लिए तमाम ग्रंथों का सृजन किया है। श्री इंद्रनंदि आचार्य के श्रुतावतार में ‘लोहार्य’ तक की गुरु परम्परा के पश्चात् विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हद्दत इन चार आचार्यों का उल्लेख किया है। ये सभी आचार्य अंगों और पूर्वों के एकदेश ज्ञाता थे। इनके पश्चात् ‘अर्हद्बलि आचार्य’ का उल्लेख किया है। अर्हद्बलि आचार्य बहुत बड़े संघ के नायक थे। इन्होंने भिन्न-भिन्न रूप से संघ व्यवस्था की थी। यथा- ‘‘पूर्व देश के श्री पुंड्रवर्धनपुर में श्री अर्हद्बलि नाम के मुनि हुए, ये आचार्य प्रसारणा, धारणा आदि सत्क्रियाओं में उद्युक्त, अष्टांग महानिमित्तज्ञानी संघ के अनुग्रह और निग्रह में समर्थ थे। ये पाँच वर्ष के अनन्तर युगप्रतिक्रमण करते थे। इसमें सौ योजन के अंतर्गत सभी मुनि सम्मिलित होते थे। एक समय इस युगप्रतिक्रमण के समय भगवान अर्हद्बलि ने मुनिसमुदाय को पूछा कि क्या सभी साधु आ गये ? उन साधुओं ने भी कहा ‘हाँ, भगवन्! हम लोग अपने-अपने संघ सहित आ गये।’ इस उत्तर को सुनकर आचार्यदेव न विचार किया कि इस पंचमकाल में अब से लेकर यह जैनधर्मगण के पक्षपात रूप भेदों से ही रह सकेगा, उदासीनभाव से नहीं। ऐसा सोचकर गुरुदेव ने ‘गुफा’ से आये हुए यतीश्वरों में से कुछ को ‘नंदि’ और कुछ को ‘वीर’ ऐसा नाम किया। ‘अशोकवाटिका’ से जो मुनीश्वर आये थे, उनमें से कुछ को ‘अपराजित’ और कुछ को ‘देव’ यह नाम दिया। जो पंचस्तूप्य, निवास से आये हुए अनगारी थे, उनमें से किन्हीं का ‘सेन’ और किन्हीं का ‘भद्र’ यह नाम रखा। जो यति शाल्मली महावृक्ष के नीचे से आये हुए थे उनमें से किन्हीं को ‘गुणधर’ और किन्हीं को ‘गुप्त’ ऐसा नाम दिया तथा जो मुनि खंडकेशर वृक्षों के तले से आये थे, उनमें से किन्हीं का ‘चंद्र’ ऐसा नाम किया। इस प्रकार से ये अर्हद्बलि आचार्य मुनिसंघ के प्रवर्तक हुए हैं। इसके बाद श्रीमाघनंदि आचार्य भी अंग ओर पूव्र के एकदेश ज्ञाता हुए हैं। अनंतर सौराष्ट्र देश में गिरिनगर पुर के निकट ऊर्जयंत गिरि की चंद्रगुफा में रहते थे। ये परमतपस्वी और महामुनियों में मुख्य थे। ये अग्रायणीय पूर्व के अंतर्गत पंचम वस्तु के चतुर्थ महाकर्म प्राभृत के ज्ञाता थे, किसी समय अपनी आयु अल्प जानकर और श्रुत विच्छेद की चिंता से चिंतित हुए। उस समय वेणाकतटीपुर में महामहिम महोत्सव के प्रसंग पर बहुत यति सम्मिलित हुए थे उनके पास ब्रह्मचारी के द्वारा एक पत्र भेजकर दो शिष्य बुलाए। विधिवत् उनकी परीक्षा करके योग्य जानकर शुभ मुहूर्त में अध्ययन प्रारंभ करके आषाढ़ सुदी एकादशी के दिन अध्ययन पूर्ण किया। पुन: इन शिष्यों को अन्यत्र चातुर्मास हेतु भेज दिया। जिनके नाम पुष्पदंत और भूतबलि थे। अनन्तर पुष्पदंत महामुनि ने जिनपालित नाम के अपने भानजे को मुनिदीक्षा देकर उसे पढ़ाने हेतु षट्खण्डागम के कुछ सूत्र बनाए और जिनपालित मुनि को देकर श्री भूतबलि मुनिराज को अभिप्राय जानने हेतु भेज दिया। भूतबलि ने भी पुष्पदंत मुनि की आयु थोड़ी जानकर आगे के सूत्रों की रचना करके षट्खण्डागम ग्रंथ तैयार किया। पुन: ज्येष्ठ सुदी पंचमी के दिन इस महान ग्रंथराज की चातुर्वण्र्य संघ के समक्ष महापूजा की गई। तभी से आज भी श्रुतपंचमी के दिन श्रुत की पूजा की जाती है।’’ ‘‘इस प्रकार षट्खण्डागम की उत्पत्ति का निरूपण करके अनन्तर इन्द्रनन्दि आचार्य ने कषायप्राभृत ग्रंथ की उत्पत्ति का विस्तार किया है। पुन: एक श्लोक दिया है कि ‘‘कषायाप्राभृत के कर्ता श्री गुणधर आचार्य और श्रीधरसेनाचार्य की गुरु परम्परा की हमें जानकारी नहीं है।’’ यतिवृषभाचार्य ने इस ‘कषायाप्राभृत’ ग्रंथ की गाथा पर चूर्णिसूत्र रचे हैं। अनन्तर इस श्रुतावतार में बताया है कि कुंदकुन्दपुर में श्री पद्मनंदि मुनि ने गुरु परम्परा से इन सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त करके षट्खण्डागमसूत्र पर बारह हजार श्लोक प्रमाण में परिकर्म नाम की टीका रची है। श्री समन्तभद्र स्वामी ने इन ग्रंथों का अध्ययन करके षट्खण्डागम के पाँच खंडों पर अड़तालीस हजार श्लोक प्रमाण में विस्तृत टीका लिखी है। इस श्रुतावतार में इन दोनों सिद्धान्त ग्रंथों के विषय में और भी टीकाकारों के नाम आये हुए हैं। पुन: श्री ऐलाचार्य गुरु के निकट सकल सिद्धान्त का अध्ययन करके श्री वीरसेन आचार्य ने षट्खण्डागम सिद्धान्त पर धवला टीका रची और चूर्णिसूत्रसमन्व्ति कषायप्राभृत ग्रंथ पर जयधवला टीका रची है।’’ वर्तमान में कतिपय विद्वान आचार्य परम्परा के विषय में अन्वेषण करते हुए ऐसा लिखते हैं कि ‘‘कसायपाहुड़’’ ग्रंथ के प्रणेता श्री गुणधर आचार्य ‘अर्हद्बलि’ आचार्य से पूर्व हुए हैं तथा षट्खण्डागम के व्याख्याता श्रीधरसेनाचार्य से भी दो सौ वर्ष पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। इस तरह आचार्य गुणधर का समय वि.पू. प्रथम शताब्दी सिद्ध हो जाता है। इसलिए सूत्ररूप से ग्रंथ के रचयिता ये आचार्य इस युग में सबसे प्रथम माने जाते हैं। नीतिसार में आचार्य श्री इंद्रनंदि ने चार संघ के नामों का उल्लेख किया है। यथा-‘‘अर्हद्बलि गुरु ने सिंहसंघ, नंदिसंघ, सेनसंघ और देवसंघ इस प्रकार से चार संघ व्यवस्थापित किये। स्थान-स्थिति को विशेषता से उनमें से गण, गच्छादि भेद हो गये जो कि स्वपर को सौख्यदायी थे। इनमें दीक्षा आदि क्रियाओं, प्रतिक्रमण विधि आदि में किसी भी प्रकार का भेद-भाव नहीं है। कुछ काल के बाद श्वेताम्बर मत उत्पन्न हुआ। द्राविड, यापनीय और काष्ठासंघ भी हुए। गोपुच्छिक, श्वेताम्बर, द्राविड, यापनीय और नि:पिच्छिक ये पाँच जैनाभास माने गये हैं। इन लोगों ने अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार गलत सिद्धान्त रच करके जिनेन्द्रदेव के मार्ग में भेद डाल दिया है। उपर्युक्त सिंह, नंदि आदि चार प्रकार के संघों में जो भेद भावना करते हैं वे सम्यग्दर्शन से रहित हुए संसार में ही भ्रमण करते हैं।’’ मूलसंघ के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता है कि यह कब कायम हुआ। ऐसा मालूम पड़ता है कि भगवान महावीर का संघ, जो उनके समय और उनके बाद में निर्र्ग्रन्थ महाश्रमण के रूप में प्रसिद्ध था। वही निर्र्ग्रन्थ संघ ही अनेक भेद-प्रभेदों के हो जाने पर स्वयं ‘मूलसंघ’ इस नाम से लोक में प्रसिद्ध हुआ। उपर्युक्त चारों संघ मूलसंघ के अन्तर्गत हैं। ‘‘इस संघ के अन्तर्गत सात गणों के नाम मिलते हैं-देवगण, सेनगण, देशोगण, सूरस्थगण, बलात्कारगण, क्राणूरगण और निगमान्वय। इन गणों के नामकरण मुनियों के नामान्त शब्दों से तथा प्रान्त और स्थान विशेष के कारण हुए है।’’ नीतिसार में कहा है कि- ‘‘श्री भद्रबाहु, श्री चन्द्र, जिनचन्द्र, गृद्धपिच्छाचार्य, लोहाचार्य, ऐलाचार्य, पूज्यपाद, सिंहनदी, जिनसेन, वीरसेन, गुणनंदी, समंतभद्र, श्रीकुभशिवकोटि, शिवायन, विष्णुसेन, गुणभद्र, अकलंकदेव, सोमदेव, प्रभाचन्द्र और नेमिन्द्र इत्यादि मुनि पुंगवों के द्वारा रचित शास्त्र ही ग्रंथ करने योग्य हैं और इनके अतिरिक्त (उपर्युक्त चार संघ के आचार्यों से अतिरिक्त) विसंघ्य-परम्परा विरुद्ध जनों के द्वारा रचित ग्रंथ साधु अच्छे होकर भी प्रमाण नहीं है। क्योंकि परम्परागत पूर्वाचार्यों के वचन सर्वज्ञ भगवान के वचनों के सदृश हैं। उन्हीं से ज्ञान प्राप्त करता हुआ अनगार साधु अखिल जनों में पूज्य होता है।२’’ वृन्दावन कवि ने गुर्वावली वंदना में कुछ गुरुओं के नाम और उनके बनाये हुए ग्रंथों का वर्णन बहुत ही मधुर ढंग से किया है। उसमें भी उन्होंने ‘‘भगवान महावीर के निर्वाण के बाद से लेकर हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेन स्वामी तक अनेकों आचार्यों के ग्रंथों का नामोल्लेख किया है और उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार किया है।१’’ डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने दिगम्बर आरातीयों की परम्परा को निम्नलिखित पाँच भागों में विभक्त करके विवेचन किया है- १. श्रुतधराचार्य। २. सारस्वताचार्य। ३. प्रबुद्धाचार्य। ४. परम्परापोषकाचार्य। ५. कवि और लेखक-आचार्यतुल्य। १. जिन्होंने दिगम्बर मुनि अवस्था में केवली और श्रुतकेवलियों की परम्परा को प्राप्त कर अंग या पूर्वों का एकदेश ज्ञान प्राप्त किया था। उन्हीं आचार्यों को इन्होंने श्रुतधर आचार्य की परम्परा में लिया है। ये आचार्य मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्परा को जीवित रखने की दृष्टि से ग्रंथ प्रणयन में संलग्न रहते थे। श्रुत की यह परमपरा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुत के रूप में ईसवी सन् पूर्व की शताब्दियों से आरंभ होकर ई. सन् की चतुर्थ-पंचम शताब्दी तक चलती रही हैं। इन आचार्यों में क्रम से आचार्य गुणधर, धरसेन, पुष्पदंत, भूतबलि, आर्यमंक्षु, नागहस्ति, वङ्कायश, चिरंतनाचार्य, यतिवृषभ, उच्चारणाचार्य, वप्पदेव, कुंदकुंद, वट्टकेर, शिवार्य, स्वामिकुमार (कार्तिकेय), गृद्धपिच्छाचार्य, समंतभद्र, सिद्धसेन, देवनंदि-पूज्यपाद, पात्रकेसरी, जोइन्दुयोगीन्द्रदेव, विमलसूरि, ऋषिपुत्र, मानतुंग, रविषेण, जटासिंहनंदि अकलंकदेव, एलाचार्य, वीरसेन, जिनसेन, विद्यानंद, देवसेन, अमितगति प्रथम, अमितगति द्वितीय, अमृतचंद्रसूरि (नेमिचंद्रसिद्धान्तचक्रवर्ती, नरेन्द्रसेन और नेमिचंद्र मुनि। इतने आचार्यों का परिचय, संवत् और उनके द्वारा रचित ग्रंथों का वर्णन किया है। २. जिन्होंने श्रुतपरम्परा का मौलिक ग्रंथ प्रणयन और टीका साहित्य द्वारा प्रचार और प्रसार किया। इन आचार्यों में आचार्य सिंहनंदि, सुमति, कुमारनंदि, श्रीदत्त, कुमारसेन गुरु, वङ्कासूरि, यशोभद्र आदि का वर्णन किया है। ३. प्रबुद्धाचार्यों में जिनसेन, गुणभद्र, वादीभसिंह, वीरनंदि, इन्दुनंदि आदि लगभग ४० आचार्यों का वर्णन किया है। ४. परम्परापोषकाचार्यों के नाम से बृहत्प्रभ, चंद्र, भास्करनंदि आदि लगभग ५० आचार्यों का वर्णन है। ५. कवि और लेखकों में महाकवि धनंजय, चामुंडराय, आशाधर आदि लगभग १५० कवि और लेखकों का वर्णन किया है।’’ पं. परमानंद शास्त्री ने ईसापूर्व तृतीय शताब्दी से लेकर ‘ईसा की चतुर्थ शताब्दी तक के विद्वान् आचार्यों में आचार्य दौलामस (धृतिसेन), मुनिकल्याण, आचार्य गुणधर, अर्हद्बली, धरसेन, माघनन्दी सैद्धांतिक, पुष्पदंत, भूतबली, भद्रबाहु (द्वितीय), कुन्दकुन्दाचार्य, गुणवीर पंडित, उपास्वाति, समंतभद्र, शिवार्य और सिद्धसेन इन पन्द्रह आचार्यों को लिया है। पुन: पाँचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक आचार्यों में गुहनन्दि तुंबुलूराचार्य, वीरसेन, चन्द्रनन्दि, श्रीदत्त, यशोभद्र, देवनन्दि (पूज्यपाद) आदि लगभग ५८ आचार्यों का इतिवृत्त कहा है। नवमीं शताब्दी और दशवीं शताब्दी आचार्यों में विजयदेव, महासेन, सर्वनदि आदि ८९ आचार्यों का परिचय दिया है। ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान् आचार्यों में अर्हनन्दि, धर्मसेनाचार्य, वादिराज, दिवाकरनन्दि आदि १४७ मुनियों के जीवन पर और उनकी रचनाओं पर प्रकाश डाला है। तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्यों, विद्वानों एवं कवियों के परिचय में कनकचंद्रमुनीन्द्र आदि ९१ विद्वानों का वर्णन किया है और उनकी रचनाओं पर प्रकाश डाला है। पुन: १५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक तथा कवियों का परिचय देते हुए कवि रइधू, भट्टारक पद्मनन्दी आदि ९० विद्वानों का इतिहास बनाया है और उनके द्वारा रचित रचनाओं का वर्णन किया है। भट्टारकों की परम्परा को बतलाते हुए सेनगण के कालानुक्रम से प्रारंभ किया है। उसमें चन्द्रसेन, आर्यनंदि, वीरसेन आदि से प्रारंभ किया है। ये वीरसेनाचार्य सं. ८७३ में हुए हैं। इन्होंने शक सं. ७३८ धवला टीका को पूर्ण किया है। अत: सं. ८७३ से भट्टारकों की परम्परा प्रारंभ करके सं. १९९५ तक ५२ आचार्यों का उल्लेख किया है। पुन: बलात्कारगण को प्राचीन सिद्ध करते हुए श्रीनन्दि, श्रीचन्द्र आदि को लेकर धर्मभूषण पर्यन्त २७ भट्टारकों (आचार्यों) का वर्णन किया है। ७. इनको सं. १०७० से १४४२ तक में घटित किया है। आगे चलकर अमरकीर्ति आदि को लेकर देवेन्द्रकीर्ति तक भट्टारकों का वर्णन किया है। इनको सं. १५९८ से लेकर सं. १९७३ तक में घटित किया है। आगे और भी तमाम भट्टारकों का वर्णन किया है।’’ भट्टारकों के नाम से आप यह न समझिये कि ये सभी वस्त्रधारी ही थे। ये परम्परागत गुरु के पट्ट पर आसीन आचार्यशिरोमणि थे। हाँ आगे कुछ वस्त्रधारी भट्टारक भी हुए हैं। प्रवचनसार आदि ग्रंथों में भगवान को भट्टारक कहा है। श्री वीरसेन स्वामी कषायप्राभृत के कर्ता ‘गुणधर’ आचार्य को भट्टारक कहते हैं। ‘‘जिन्होंने इस आर्यावर्त में अनेक नयों से युक्त, उज्ज्वल और अनन्त अर्थों से व्याप्त कषायप्राभृत का गाथाओं द्वारा व्याख्यान किया है उन गुणधर भट्टारक को मैं वीरसेन आचार्य नमस्कार करता हूँ।’’ और भी अनेकों उदाहरण आगम में भरे हुए हैं। ‘‘सं. १२६४ में वसंतकीर्ति आचार्य हुए हैं। शायद इन्होंने वस्त्र धारण की प्रथा डाली है, ऐसा कथन भट्टारक संप्रदाय पुस्तक में आया है।’’ ‘‘पुन: आगे स्पष्टतया कहा है कि सं. १५७२ में पद्मनंदी के शिष्य यश:कीर्ति हुए हैं, जो कि नैग्र्रन्थ्य रूप आर्हत मुद्रा को धारण करने वाले थे।’’ कहने का अभिप्राय यही है कि अंतिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु के अनंतर आचार्य गुणधर आदि से लेकर आज तक दिगम्बर मुनि होते आये हैं और पंचम काल के अंत तक वीरांगज नाम के मुनि होंगे। श्री गौतम सवमी भी पंचमकाल में ही मोक्ष गये हैं। ऐसा नियम से कि पंचम काल में जन्म लेने वाले जीव पंचमकाल में मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते हैं किन्तु चतुर्थकाल में जन्मे हुए पुरुष पंचमकाल में मोक्ष जा सकते हैं। क्योंकि पंचम काल के प्रारंभ होने में जब तीन वर्ष आठ माह और एक पक्ष मात्र काल बाकी रह गया था, तब भगवान महावीर मोक्ष गये हैं और उसी दिन गौतम स्वामी को केवलज्ञान हुआ था। अनंतर बाहर वर्ष बाद वे मोक्ष गये हैं। वर्तमान में कुन्दकुन्दान्वय का अतीव महत्त्व है। प्रशस्ति या गुरुपरम्परा में ‘‘कुन्दकुन्दाम्नाये मूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे’’ इत्यादि रूप से ही मूर्तियों में या ग्रंथों में प्रशस्तियाँ रहती हैं।