तृतीय तीर्थंकर भगवान संभवनाथ के जन्म एवं चार कल्याणकों से पवित्र ‘‘श्रावस्ती’’ तीर्थ उत्तर प्रदेश के बलरामपुर-बहराइच रोड पर अवस्थित है। अयोध्या से यह ११० किमी. है तथा लखनऊ से लगभग १६० किमी. है। प्राचीन जैन तीर्थ के साथ-साथ यह बौद्धों का भी प्रसिद्ध तीर्थ बन गया है यहाँ बौद्धों के अनेक मंदिर तथा दर्शनीय स्थल बने हुए हैं।
यहाँ एक बहुत प्राचीन खण्डहर है जो भगवान संभवनाथ की जन्मस्थली (महल) का प्रतीक माना जाता है। पुरातत्व विभाग के अधिकार में यह खण्डहर है अतः इस स्थल पर कोई चरणपादुका आदि का निर्माण भी नहीं हो सका है, मात्र श्रद्धावश जैन यात्री वहाँ जाकर टीले का दर्शन करते हैं और उसे संभवनाथ का प्राचीन महल मानकर मस्तक झुकाकर चले जाते हैं। कुछ वर्षों पूर्व उत्तरप्रदेश पुरातत्व विभाग द्वारा उस टीले की व्यापक स्तर पर खुदाई की गई, जहाँ से बड़ी संख्या में जैन तीर्थंकरों की एवं यक्ष-यक्षिणी की मूर्तियाँ उपलब्ध हुर्इं, जिन्हें संग्रहालय में स्थापित किया गया है। बलरामपुर से बहराइच जाने वाली सड़क के किनारे सन् १९६६ में एक दगम्बर जैन मंदिर का निर्माण हुआ था। यह शिखरबन्द मंदिर है। इसमें एक हाल में एक वेदी बनी हुई है जिसमें भगवान संभवनाथ की श्वेतवर्ण पद्मासन पौने चार फुट अवगाहना वाली भव्य प्रतिमा विराजमान हैं। इस मूलनायक प्रतिमा के अतिरिक्त वेदी में कुछ और धातु की प्रतिमाएँ भी विराजमान हैं। परिसर के अन्दर धर्मशाला भी है जिसका अब जीर्णोद्धार हो चुका है तथा कुछ नये कमरे भी बने हैं। सन् १९९५ में यहाँ नवीन मंदिर का निर्माण भी हुआ है जिसमें सामने बीच की वेदी में भगवान संभवनाथ के अतिरिक्त दो पद्मासन तथा दो खड्गासन प्रतिमाएँ हैं तथा तीन ओर दीवार में चौबीस तीर्थंकरों की पद्मासन प्रतिमाएँ अलग-अलग वेदियों में विराजमान हैं। मंदिर का शिखर सुन्दर नये ढंग का है जिसमें सबसे ऊपर चार दिशाओं में चार प्रतिमाएँ विराजमान हैं। श्रावस्ती कमेटी के कार्यकर्ताओं ने कई वर्षों के परिश्रम से इस विशाल जिनमंदिर का निर्माण कराया तथा मार्च १९९५ में उसकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा भी सम्पन्न कराई है किन्तु वास्तुशास्त्र के अनुसार वहाँ एक कमी रह गई जिसके बारे में ४ अप्रैल १९९५ को पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने श्रावस्ती पहुँचने पर वहाँ के कुछ लोगों को अवगत कराया था। मूल मंदिर के बाईं ओर इस चौबीसी मंदिर का निर्माण होने से दाईं ओर का हिस्सा पूरा खाली है अत: वास्तुशास्त्र के अनुसार दूसरी ओर भी एक मंदिर का निर्माण शीघ्र होना चाहिए ताकि दोष दूर होकर क्षेत्र की उन्नति में चार चांद लगें। इस बड़े दोष के अतिरिक्त वहाँ एक कमी और देखने को मिली कि जैन मंदिर परिसर के प्रवेशद्वार के ऊपर राजा सुहेलदेव का तलवार लिए हुए घोड़े पर बैठा स्टेचू बनाया गया है। इस विषय में भी पूज्य माताजी ने कार्यकर्ताओं को बताया कि इस स्थान पर भगवान संभवनाथ का पद्मासन स्टेचू होना चाहिए। अिहसा के केन्द्र जैन मंदिरों के मुख्य द्वार पर हिंसा के प्रतीक तलवार आदि शस्त्र नहीं दिखाए जाने चाहिए। सुहेलदेव यद्यपि यहाँ के जैन राजा थे अतः उनका यह स्टेचू किसी पार्क में लगाकर ‘‘सुहेलदेवपार्क’’ बना दें किन्तु प्रवेश द्वार पर यह शोभास्पद नहीं है। इसी प्रकार १-२ छोटी-छोटी त्रुटियाँ भी हैं जिनसे क्षेत्र के विकास में बाधा पहुँचने की पूर्ण संभावना है अत: पदाधिकारियों को शीघ्र इस ओर ध्यान देना चाहिए। वास्तव में तीर्थों को अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति न समझकर खुलेमन से वहां के कार्यकर्ताओं को प्रतिष्ठाग्रंथ एवं शिल्पशास्त्र के जानकार प्राचीन साधुओं एवं विद्वानों से सलाह लेकर ही मंदिर आदि का निर्माण करवाना चाहिए तभी तीर्थक्षेत्रों का चहुँमुखी विकास संभव होता है अन्यथा वे उपेक्षित ही बने रहते हैं। श्रावस्ती तीर्थ के दिगम्बर जैन मंदिर परिसर के बगल में ही श्वेताम्बर जैन समाज का भी मंदिर बना हुआ है। इस प्रकार यह तीर्थ जैनियों का प्रमुख तीर्थ है। भगवान संभवनाथ का समवसरण भी सर्वप्रथम यहीं रचा गया था, यहीं से उन्होंने धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया था। ऐसी पावन तीर्थ भूमि को श्रद्धापूर्वक शत-शत नमन।