चक्किस विजयभंगो णिव्वुइगमणं च थोवजीवाणं।
चक्कधराउ दिजाणं हवेदि वंसस्स उप्पत्ती।।१६१८।।
दुस्समसुसमे काले अट्ठावण्णा सलायपुरिसा य।
णवमादिसोलसंतं सत्तसु तित्थेसु धम्मवोच्छेदो।।१६१९।।
एक्करस होंति रुद्दा कलहपिया णारदा य णवसंखा।
सत्तमतेवीसंतिमतित्थयराणं च उवसग्गो।।१६२०।।
तदियचदुपंचमेसुं कालेसुं परमधम्मणासयरा।
विविहकुदेवकुिंलगी दीसंते दुट्ठपाविट्ठा।।१६२१।।
चंडालसबरपाणप्पुिंलदणाहलचिलायपहुदिकुला।
दुस्समकाले कक्की उवकक्की होंति बादाला।।१६२२।।
अइवुट्ठिअणावुट्ठी भूवड्ढी वज्जअग्गिपमुहा य।
इय णाणाविहदोसा विचित्तभेदा हवंति पुढं।।१६२३।।
चक्रवर्ती का विजयभंग और थोड़े से जीवों का मोक्षगमन भी होता है।
इसके अतिरिक्त चक्रवर्ती से की गयी द्विजों के वंश की (वर्ण की) उत्पत्ति भी होती है।।१६१८।।
दुष्षमसुषमाकाल में अट्ठावन ही शलाकापुरुष होते हैं और नौवें से सोलहवें तीर्थंकर तक सात तीर्थों में धर्म की व्युच्छित्ति होती है।।१६१९।।
ग्यारह रुद्र और कलहप्रिय नौ नारद होते हैं तथा इसके अतिरिक्त सातवें, तेईसवें और अन्तिम तीर्थंकर के उपसर्ग भी होता है।।१६२०।।
तृतीय, चतुर्थ व पंचम काल में उत्तम धर्म को नष्ट करने वाले विविध प्रकार के दुष्ट, पापिष्ट, कुदेव और कुिंलगी भी दिखने लगते हैं। तथा चाण्डाल, शबर, पाण (श्वपच), पुिंलद, लाहल और किरात इत्यादि जातियां उत्पन्न होती है तथा दुष्षमकाल में ब्यालीस कल्की व उपकल्की होते हैं।।१६२१-१६२२।।
अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूवृद्धि (भूकंप) और वङ्कााग्नि आदि का गिरना इत्यादि विचित्र भेदों को लिये हुए नाना प्रकार के दोष इस हुण्डावर्सिपणी काल में हुआ करते हैं।।१६२३।। (तिलोयपण्णत्ति महाअधिकार-४,पृ॰ ३५५)