भागीरथोऽपि तान् गत्वा कृत्वा भक्त्या नमस्क्रियाम्। धर्ममाकण्र्य जैनेन्द्रमादत्त श्रावकव्रतम्।।१३३।।
प्रकटीकृततन्मायो मणिकेतुश्च तान् मुनीन्। क्षन्तव्यमित्युवाचैतान सगरादीन् सुहृद्वरः।।१३४।।
कोऽपराधस्तवेदं नस्त्वया प्रियमनुष्ठितम्। हितं चेति प्रसन्नोक्त्या ते तदा तमसान्त्वयन्।।१३५।।
सोऽपि सन्तुष्य सिद्धार्थो देवो दिवमुपागमत्। परार्थसाधनं प्रायो ज्यायसां परितुष्टये।।१३६।।
सर्वेऽते सुचिरं कृत्वा सत्तपो विधिवद् बुधाः। शुक्लध्यानेन सम्मेदे सम्प्रापन् परमं पदम्।।१३७।।
निर्वाणगमनं श्रुत्वा तेषां निर्विण्णमानसः। वरदत्ताय दत्त्वात्मराज्यलक्ष्मीं भागीरथः।।१३८।।
केलाशपर्वते दीक्षां शिवगुप्तमहामुनेः। आदाय प्रतिमायोगधार्यभूत्स्वर्धुनीतटे।।१३९।।
सुरेन्द्रेणास्य दुग्धाब्धिपयोभिरभिषेचनात्। क्रमयोस्तत्प्रवाहस्य गङ्गायाःसङ्गमे सति।।१४०।।
तदाप्रभृति तीर्थत्वं गङ्गाप्यस्मिन्नुपागता। कृत्वोत्कृष्टं तपो गङ्गातटेऽसौ निर्वृतिं गतः।।१४१।।
जब भागीरथ ने यह समाचार सुना तब वह भी उन मुनियों के पास गया और वहाँ उसने उन सबको भक्ति से नमस्कार कर जिनेद्रोक्त धर्म का स्वरूप सुना तथा श्रावक के व्रत ग्रहण किये ।।१३३।। अन्त में मित्रवर मणिकेतु ने उन सगर आदि मुनियों के समक्ष अपनी समस्त माया प्रकट कर दी और कहा कि आप लोग क्षमा कीजिये ।।१३४।। ‘इसमें आपका अपराध ही क्या है ? यह तो आपने हमारा हित तथा प्रिय कार्य किया है’ इस प्रकार के प्रसन्नता से भरे हुए शब्दों द्वारा उन सब मुनियों ने मणिकेतु देव को सान्त्वना दी ।।१३५।। जिसका कार्य सिद्ध हो गया है ऐसा देव भी सन्तुष्ट होकर स्वर्ग चला गया सो ठीक ही है क्योंकि अन्य पुरुषों के कार्य सिद्ध करने से ही प्रायः महापुरुषों को स्ांतोष होता है ।।१३६।। वे सभी विद्वान् मुनिराज चिरकाल तक यथा—विधि तपश्चरण कर सम्मेद शैल पर पहुँचे और शुक्लध्यान के द्वारा परम पद को प्राप्त हुए ।।१३७।। उन सबका मोक्ष जाना सुनकर भगीरथ का मन निर्वेद से भर गया अतः उसने वरदत्त के लिए अपनी राज्यश्री सौंपकर वैलास पर्वत पर शिवगुप्त नामक महामुनि से दीक्षा ले ली तथा गङ्गा नदी के तट पर प्रतिमा योग धारणकर लिया।।१३८-१३९।। इन्द्र ने क्षीरसागर के जल से महामुनि भगीरथ के चरणों का अभिषेक किया जिसका प्रवाह गङ्गा में जाकर मिल गया। उसी समय से गङ्गा नदी भी इस लोक में तीर्थरूपता को प्राप्त हुई अर्थात् तीर्थ मानी जाने लगी। महामुनि भगीरथ गङ्गानदी के तट पर उत्कृष्ट तप कर वहीं से निर्वाण को प्राप्त हुए ।।१४०-१४१।।
(उत्तरपुराण पृ॰ १२)