’’ अनुपममद्वितीयमनादिमिथ्यादृशोऽपि भरतपुत्रास्त्रयोविंशत्यधिकनवशत- परिमाणास्ते च नित्यनिगोदवासिनः क्षपितकर्माण इन्द्रगोपाः संजातास्तेषां च पुञ्जीभूतानांमुपरि भरतहस्तिना पादो दत्तस्ततस्ते मृत्वादि वद्र्धनकुमारादयो भरतपुत्रा जातास्ते च केनचिदपि सह न वदन्ति।
ततो भरतेन समवसरणे भगवान् पृष्टो,भगवता च प्राक्तनं वृत्तान्तं कथितम्। तच्छ्रुत्वा ते तपो गृहीत्वा क्षणस्तोककालेन मोक्षं गताः आचाराराधनाटिप्पणे कथितमास्ते।इति संसारानुपेक्षा गता।
यहां विशेष यह है—कि नित्य निगोद के जीवों को छोड़कर,पंच प्रकार के संसार का व्याख्यान जानना चाहिये। यानी-नित्य-निगोदी जीव इस पंच प्रकार के संसार में परिभ्रमण नहीं करते । क्योंकि-नित्य निगोदवर्ती जीवों को तीन काल में भी त्रसपर्याय नहीं मिलती।
सो ही कहा-‘‘ऐसे अनंत जीव हैं कि जिन्होंने त्रसपर्याय को प्राप्त ही नहीं किया और जो भाव-कलंको (अशुभपरिणामों) से भरपूर हैं, जिससे वे निगोद के निवास को नहीं छोड़ते’’(गोम्मटसार जीवकांड । १९६।)
यह वृत्तान्त अनुपम और अद्वितीय है कि नित्य निगोदवासी अनादि मिथ्यादृष्टि नौ सौ तेईस (९२३) जीव कर्मों की निर्जरा होने से इन्द्रगोप (मखमली लाल कीड़े) हुए, सो उन सबके ढेर पर भरत के हाथी ने पैर रख दिया इससे वे मरकर, भरत के वद्र्धनकुमार आदि पुत्र हुए। वे पुत्र किसी के भी साथ नहीं बोलते थे,
इसलिये भरत ने समवसरण में भगवान् से पूछा, तो भगवान् ने उन पुत्रों का पुराना सब वृत्तान्त कहा। उसको सुनकर उन सब वद्र्धनकुमारादि ने तप ग्रहण किया और बहुत थोड़े काल में मोक्ष चले गये।’’ यह कथा आचाराराधना की टिप्पणी में कही गई है। इस प्रकार ‘‘संसार अनुप्रेक्षा का’’व्याख्यान हुआ।]