कृतिकर्म विधि के विषय में वर्णन अंग बाह्य के १४ भेदों में से जो ‘कृतिकर्म’ नाम से छठा प्रकीर्णक है। वह कृतिकर्म विधि का विस्तार से वर्णन करता है। आज यद्यपि ये अंगबाह्य नाम से १४ प्रकीर्णक हमारे लिये उपलब्ध नहीं है तो भी इनका अंश—अंश ज्ञान उपलब्ध श्रुतशास्त्रों से प्राप्त होता है। इस कृतिकर्म में जो सामायिक दण्डक पढ़े जाते हैं वे श्री गौतमस्वामी के मुखकमल से ही निकले हुये हैं। एवं ‘थोस्सामि स्तव’’ भी उन्हीं श्रीगौतमस्वामी की ही रचना है, ऐसा निश्चित है। इसमें ‘णमोकार महामंत्र’, एवं ‘चत्तारिमंगल पाठ’ अनादिनिधन हैं किसी के द्वारा रचित नहीं है, ऐसा सिद्ध किया जा चुका है। प्रथम पट्टाचार्य श्री वीरसागर जी महाराज के संघ में आचार्यश्री के समक्ष यही निर्णय रहा था। ‘क्रियाकलाप’ ग्रंथ को ७८ वर्ष पूर्व पं. पन्नालालजी सोनी शास्त्री ने संपादन करके छपाया था। उसमें भी इन्होंने ‘थोस्सामि स्तव’ को श्री कुंदकुंद कृत भक्ति में नहीं लिया है। यह कृतिकर्म प्रकीर्णक नाम से ‘अंगबाह्य श्रुत’ अनादि है अत: कृतिकर्म विधि भी अनादि है। फिर भी हमें आगे कही जाने वाली कृतिकर्म प्रयोगविधि के ‘सामायिक दण्डक’ व ‘थोस्सामि’ पाठ के बारे में ये अनादि हैं ऐसा कहीं प्राप्त नहीं हुआ है। इसलिए मैं इन्हें ‘अनादि’ नहीं कह सकती हूँ फिर भी गुरुपरम्परा से मान्य ये दोनों पाठ श्री गौतमस्वामी प्रणीत ही हैं यह निश्चित है। इसमें सामायिकदण्डक पाठ में ‘सदा करेमि किरियम्मं’ वाक्य बहुत ही महत्वपूर्ण है। यही वाक्य कृतिकर्म विधि के माहात्म्य को प्रदर्शित कर रहा है। इन्हीं हेतुओं से हम इस ‘कृतिकर्म’ को श्रीगौतम स्वामी प्रणीत ही मानते हैं। यह कृतिकर्म विधि षट्खण्डागम (धवला टीका) पुस्तक १३वीं में भी र्विणत है। इसमें भी ‘सामायिक दण्डक’ व ‘थोस्सामि स्तव’ पाठ आया है। अत: यह अत्यर्थ प्राचीन, प्रमाणीक श्री गौतमस्वामी प्रणीत ही है ऐसा निश्चित है। अनंतर यही ‘कृतिकर्म विधि’ देववंदना अपरनाम सामायिक में भी कई बार आती है। जैसा कि— षट्खंडागम ग्रंथ पु. १३ में— ‘‘तमादाहीणं पदाहीणं तिक्खुत्तं तियोणदं चदुस्सिरं वारसावत्तं तं सव्वं किरियाकम्मं णाम।।२८।।’’ इस सूत्र से स्पष्ट है। इसका विस्तृत स्पष्टीकरण ‘‘देववंदना अपरनाम सामायिक’’ पुस्तक में मैंने संकलित किया है उसे भी आप अवश्य पढ़ें। यह कृतिकर्म विधि षट्खण्डागम-धवला एवं जयधवला ग्रंथ में तथा मूलाचार, आचारसार, चारित्रसार आदि ग्रंथों में वर्णित है। इस विधि से भगवान का दर्शन व वंदन करने से असंख्यातों गुणा कर्मनिर्जरा होती है और महान पुण्य का संचय होता है। किसी भी भक्तिपाठ के लिए जो विधि धवला, जयधवला आदि शास्त्रों में कही गई है। उसको श्री गौतम गणधर वाणी अमृतर्विषणी टीका / १९५ ‘कृतिकर्म’ या ‘क्रियाकर्म’ कहते हैं। उसी को यहाँ पहले संक्षेप में बताते हैंएक बार के कायोत्सर्ग में-यह आगे लिखी विधि की जाती है उसी का नाम कृतिकर्म है। यह विधि देववन्दना, प्रतिक्रमण आदि सर्व क्रियाओं में भक्तिपाठ के प्रारम्भ में की जाती है। जैसे देववन्दना में चैत्यभक्ति के प्रारम्भ में- ‘अथ पौर्वाण्हिक-देववन्दनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं श्रीचैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’। यह प्रतिज्ञा हुई, इसको बोलकर भूमि स्पर्शनात्मक पंचांग नमस्कार करें । यह एक अवनति हुई। अनन्तर तीन आवर्त और एक शिरोनति करके ’णमो अरिहंताणं…. चत्तारिमंगलं…अड्ढाइज्जदीव….इत्यादि पाठ बोलते हुए… दुच्चरियं वोस्सरामि’ तक पाठ बोले यह ‘सामायिक स्तव’ कहलाता है। पुन: तीन आवर्त और एक शिरोनति करें। इस तरह ‘सामायिक दण्डक’ के आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति होने से छह आवर्त और दो शिरोनति हुईं। पुन: नौ बार णमोकार मन्त्र को सत्ताईस श्वासोच्छ्वास में जपकर भूमिस्पर्शनात्मक नमस्कार करें । इस तरह प्रतिज्ञा के अनन्तर और कायोत्सर्ग के अनन्तर ऐसे दो बार अवनति हो गयीं। बाद में तीन आवर्त, एक शिरोनति करके ‘थोस्सामि स्तव’ पढ़कर अन्त में पुन: तीन आवर्त, एक शिरोनति करें। इस तरह चतुर्विंशतिस्तव के आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति करने से छह आवर्त और दो शिरोनति हो गयीं । ये सामायिक स्तव सम्बन्धी छह आवर्त, दो शिरोनति तथा चतुर्विंशतिस्तव संबंधी छह आवर्त, दो शिरोनति मिलकर बारह आवर्त और चार शिरोनति हो गयीं। इस तरह एक कायोत्सर्ग के करने में दो प्रणाम, बारह आवर्त और चार शिरोनति होती हैं। जुड़ी हुई अंजुलि को दाहिनी तरफ से घुमाना सो आवर्त का लक्षण है। इतनी क्रियारूप कृतिकर्म को करके ‘’जयतु भगवान्’’ इत्यादि चैत्यभक्ति का पाठ पढ़ना चाहिए । ऐसे ही जो भी भक्ति जिस क्रिया में करना होती है तो यही विधि की जाती है। वन्दना योग्य मुद्रा-मुद्रा के चार भेद हैं-जिनमुद्रा, योगमुद्रा, वन्दनामुद्रा, मुक्ताशुक्तिमुद्रा। इन चारों मुद्राओं का लक्षण क्रम से कहते हैं। जिनमुद्रा-दोनों पैरों में चार अंगुल प्रमाण अन्तर रखकर और दोनों भुजाओं को नीचे लटकाकर कायोत्सर्गरूप से खड़े होना सो जिनमुद्रा है। योगमुद्रा-पद्मासन, पर्यंकासन और वीरासन इन तीनों आसनों की गोद में नाभि के समीप दोनों हाथों की हथेलियों को चित रखने को जिनेन्द्रदेव योगमुद्रा कहते हैं। वन्दनामुद्रा-दोनों हाथों को मुकुलितकर और कुहनियों को उदर पर रखकर खड़े होने से वन्दनामुद्रा होती है। मुक्ताशुक्तिमुद्रा-दोनों हाथों की अंगुलियों को मिलाकर और दोनों कुहनियों को उदर पर रखकर खड़े हुए को मुक्ताशुक्तिमुद्रा कहते हैं।