पर्याप्ति का लक्षण
जह पुण्णापुण्णाइं, गिह-घड-वत्थादियाइं दव्वाइं।
तह पुण्णिदरा जीवा, पज्जत्तिदरा मुणेयव्वा।।३४।।
यथा पूर्णापूर्णानि गृहघटवस्त्रादिकानि द्रव्याणि।
तथा पूर्णतरा: जीवा: पर्याप्तेतरा: मन्तव्या:।।३४।।
अर्थ—जिस प्रकार घर, घट, वस्त्र आदिक अचेतन द्रव्य पूर्ण और अपूर्ण दोनों प्रकार के होते हैं उसी प्रकार पर्याप्त और अपर्याप्त नामकर्म के उदय से युक्त जीव भी पूर्ण और अपूर्ण दो प्रकार के होते हैं। जो पूर्ण हैं उनको पर्याप्त और जो अपूर्ण हैं उनको अपर्याप्त कहते हैं।
भावार्थ—गृहीत आहार वर्गणा को खल-रस भाग आदि रूप परिणमाने की जीव की शक्ति के पूर्ण हो जाने को पर्याप्ति कहते हैं। ये पर्याप्ति जिनके पाई जाएँ उनको पर्याप्त और जिनकी वह शक्ति पूर्ण न हो उन जीवों को अपर्याप्त कहते हैं। जिस प्रकार घटादिक द्रव्य बन चुकने पर पूर्ण और उससे पूर्व अपूर्ण कहे जाते हैं उसी प्रकार पर्याप्ति सहित को पूर्ण या पर्याप्त तथा पर्याप्ति रहित को अपूर्ण या अपर्याप्त कहते हैं।
पर्याप्तियों के भेद
आहार-सरीरिंदिय, पज्जत्ती आणपाण-भास-मणो।
चत्तारि पंच छप्पि य, एइंदिय-वियल-सण्णीणं।।३५।।
आहार शरीरेन्द्रियाणि पर्याप्तय: आनप्राणभाषामनान्सि।
चतस्र: पंच षडपि च एकेन्द्रिय-विकल-संज्ञिनाम्।।३५।।
अर्थ—आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन इस प्रकार पर्याप्ति के छह भेद हैं। इनमें से एकेन्द्रिय जीवों के आदि की चार पर्याप्ति होती हैं और विकलेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के अंतिम मन: पर्याप्ति को छोड़कर शेष पाँच पर्याप्ति होती हैं और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के सभी छहों पर्याप्ति हुआ करती हैं।
भावार्थ—एक शरीर को छोड़कर दूसरे नवीन शरीर के लिए कारणभूत जिन नोकर्म वर्गणाओें को जीव ग्रहण करता है उनको खलरसभागरूप परिणमाने की पर्याप्त नाम कर्म के उदय से युक्त जीव की शक्ति के पूर्ण हो जाने को आहार पर्याप्ति कहते हैं और उनमें से खलभाग को हड्डी आदि कठोर अवयवरूप तथा रसभाग को खून आदि द्रव (नरम पतले) अवयव रूप परिणमाने की शक्ति के पूर्ण होने को शरीर पर्याप्ति कहते हैं तथा उसी नोकर्म वर्गणा के स्कंधों में से कुछ वर्गणाओं को अपनी-अपनी इंद्रिय के स्थान पर उस द्रव्येन्द्रिय के आकाररूप परिणमाने की आवरण—ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम तथा जाति नाम कर्म के उदय से युक्त जीव की शक्ति के पूर्ण होने को इंद्रिय पर्याप्ति कहते हैं। इसी प्रकार कुछ स्कन्धों को श्वासोच्छ्वासरूप परिणमाने की जो जीव की शक्ति की पूर्णता है, उसको पर्याप्ति कहते हैं और वचन रूप होेने के योग्य पुद्गल स्कन्धों (भाषा वर्गणा) को वचन रूप परिणमावने की स्वर नाम कर्म के उदय से युक्त जीव की शक्ति के पूर्ण होने को भाषा पर्याप्ति कहते हैं तथा द्रव्य मनरूप होने के योग्य पुद्गल स्कंधों को (मनोवर्गणाओं को) द्रव्य मन के आकार परिणमावने को नोइंद्रियावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से युक्त जीव की शक्ति के पूर्ण होने को मन: पर्याप्ति कहते हैं। इन छह पर्याप्तियों में से एकेन्द्रिय जीवों के आदि की चार ही पर्याप्ति हुआ करती हैं और द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक जीवों के मन: पर्याप्ति को छोड़कर शेष पाँच पर्याप्ति ही होती हैं और संज्ञी जीवों के छहों पर्याप्ति हुआ करती हैं। जिन जीवों की पर्याप्ति पूर्ण हो जाती हैं उनको पर्याप्त और जिनकी पूर्ण नहीं होती अपर्याप्त कहते हैं।
अपर्याप्त जीवों के भी दो भेद हैं—एक निर्वृत्य पर्याप्त दूसरा लब्ध्यपर्याप्त। जिनकी पर्याप्ति अभी तक पूर्ण नहीं हुई है, किन्तु अंतर्मुहूर्त में नियम से पूर्ण हो जायेंगी उनको निर्वृत्यपर्याप्त कहते हैं और जिनकी पर्याप्ति न तो अभी तक पूर्ण हुई हैं और न होेंगी, पर्याप्ति पूर्ण होने के काल से पहले ही जिनका मरण हो जाएगा अर्थात् अपनी आयु के काल में जिनकी पर्याप्ति कभी भी पूर्ण न हों उनको लब्ध्यपर्याप्त कहते हैं। इनमें से जो जीव पर्याप्त नाम कर्म के उदय से युक्त हुआ करते हैं वे ही पर्याप्त और निवृत्यपर्याप्त माने गये हैं और जो अपर्याप्त नामकर्म के उदय से युक्त हैं वे ही लब्ध्यपर्याप्त हुआ करते हैं। इनकी पर्याप्ति वर्तमान आयु के उदयकाल में कभी भी पूर्ण नहीं हुआ करतीं। पर्याप्ति पूर्ण होने के काल से पूर्व ही उनका मरण हो जाया करता है, उनकी आयु पूर्ण हो जाती है जैसा कि वृहत् गोम्मटसार जीवकाण्ड की गाथा १२२ की टीका में बताया है, वहाँ से अध्ययन करना चाहिए।
क्षुद्र भवों की संख्या
तिण्णिसया छत्तीसा, छवट्ठिसहस्सगाणि मरणाणि।
अंतोमुहुत्तकाले, तावदिया चेव खुद्दभवा।।३६।।
त्रीणि शतानि षट् त्रिंशत् षट्षष्टिसहस्रकाणि मरणानि।
अन्तर्मुहूर्तकाले तावन्तश्चैव क्षुद्रभवा:।।३६।।
अर्थ—एक अंतर्मुहूर्त में एक लब्ध्यपर्याप्तक जीव छ्यासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार मरण और उतने ही भवों—जन्मों को भी धारण कर सकताहै। इन भवों को क्षुद्रभव शब्द से कहा गया।
भावार्थ—एक लब्ध्यपर्याप्तक जीव यदि निरंतर जन्म मरण करे तो अंतर्मुहूर्त काल में ६६,३३६ जन्म और उतने ही मरण कर सकता है। इससे अधिक नहीं कर सकता।
इन भवों को क्षुद्र भव इसलिये कहते हैं कि इनसे अल्प स्थिति वाला अन्य कोई भी भव नहीं पाया जाता। इन भवों में से प्रत्येक का काल प्रमाण श्वांस का अठारहवाँ भाग है। फलत: त्रैराशिक के अनुसार ६६,३३६ भवों के श्वांसों का प्रमाण ३,६८५-१/३ होता है। इतने उच्छ्वासों के समूह प्रमाण अंतर्मुहूर्त में पृथ्वीकायिक से लेकर पंचेन्द्रिय तक लब्ध्यपर्याप्तक जीवों के क्षुद्रभव ६६,३३६ हो जाते हैं। ध्यान रहे (३,७७३ उच्छ्वासों एक मुहूर्त होता है)।
पर्याप्ति प्ररूपणा सार
पर्याप्ति—ग्रहण किये गये आहार वगर्णा को खल-रस भाग आदि रूप परिणमन कराने की जीव की शक्ति के पूर्ण हो जाने को ‘‘पर्याप्ति’’ कहते हैं। ये पर्याप्तियाँ जिनके पाई जाएं उनको पर्याप्त और जिनकी वह शक्ति पूर्ण न हो उन जीवों को अपर्याप्त कहते हैं। जिस प्रकार कि घट, पट आदि द्रव्य बन चुकने पर पूर्ण और उससे पूर्व अपूर्ण कहे जाते हैं।
पर्याप्तियों के भेद—आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन ये पर्याप्ति के छह भेद हैं। एक शरीर को छोड़कर दूसरे नवीन शरीर के लिए कारणभूत जिन नोकर्म वर्गणाओं को जीव ग्रहण करता है उनको खल-रस भागरूप परिणमाने की शक्ति के पूर्ण हो जाने को ‘‘आहार’’ पर्याप्ति कहते हैं। उनमें से खल भाग को हड्डी आदि कठिन अवयव रूप और रस भाग द्रवभाग रूप परिणमाने की शक्ति की पूर्णता हो जाने को शरीर पर्याप्ति कहते हैं, इत्यादि।
पर्याप्ति के स्वामी—एकेन्द्रिय जीवों के प्रारंभ से चार पर्याप्तियाँ होती हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों की मन के बिना पाँच पर्याप्तियाँ एवं सैनी पंचेन्द्रिय जीवों की छहों पर्याप्तियाँ होती हैं।
ये जीव अपनी-अपनी पर्याप्तियों को प्रारंभ युगपत् करते हैं किन्तु उनकी पूर्ति क्रम-क्रम से होती है। सबका अलग-अलग काल भी अंतर्मुहूर्त है और सभी पर्याप्तियों के पूर्ण हो जाने में जितना काल लगता है वह भी अंतर्मुहूर्त ही है। कारण यह कि असंख्यात समय वाले अंतर्मुहूर्त के भी असंख्यात ही भेद हो जाते हैं।
सामान्यतया जिनकी पर्याप्तियाँ नियम से पूर्ण हो जाती हैं वे पर्याप्त एवं जिनकी पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती हैं वे अपर्याप्त कहलाते हैं। अपर्याप्त के दो भेद हैं—निवृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त।
निवृत्यपर्याप्त का लक्षण—पर्याप्ति नाम कर्म के उदय से जीव अपनी-अपनी पर्याप्तियों से पूर्ण हो जाता है तथापि जब तक उसकी शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती है तब तक उसको निर्वृत्यपर्याप्त कहते हैं अर्थात् इंद्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन इन पर्याप्तियों के पूर्ण नहीं होने पर भी यदि शरीर पर्याप्ति पूर्ण हो गई है तो वह जीव पर्याप्त कहलाता है किन्तु उससे पूर्व निर्वृत्यपर्याप्त कहा जाता है। इस निर्वृत्यपर्याप्त जीव के नियम से अपनी-अपनी पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जावेंगी क्योंकि इसके पर्याप्त नाम कर्म का उदय है। यदि एकेन्द्रिय है तो ४, विकलेन्द्रिय जीवों के ५ और संज्ञी जीव के ६ पर्याप्तियाँ पूर्ण अवश्य होती हैं।
लब्ध्यपर्याप्त का लक्षण
अपर्याप्त नामक नामकर्म के उदय से जो जीव अपने-अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण न करके अंतर्मुहूर्त काल में ही मरण को प्राप्त हो जाय उसे लब्ध्यपर्याप्त कहते हैं। लब्धि—अपने-अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने की योग्यता की प्राप्ति का होना। वह जिनकी पर्याप्ति पूर्ण नहीं होगी उसे लब्ध्यपर्याप्त कहते हैं। इनकी जघन्य और उत्कृष्ट दोनों की आयु अंतर्मुहूर्त मात्र ही है, यह अंतर्मुहूर्त एक श्वांस के अठारहवें भाग प्रमाण होता है। इस प्रकार के लब्ध्यपर्याप्तक जीव एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यंत सब में ही पाये जाते हैं।
यदि एक जीव एक अंतुर्मुहूर्त में लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था में अधिक से अधिक भवों को धारण करे तो कितने कर सकता है ?
अंतुर्मुहूर्त काल में यदि यह जीव निरंतर जन्म-मरण करे तो छ्यासठ हजार तीन सौ छत्तीस (६६,३३६) बार कर सकता है, इन भवों को ही क्षुद्रभव कहते हैं। इनको क्षुद्रभव इसलिये कहते हैं कि इनसे अल्प आयु वाला अन्य कोई भी भव नहीं हो सकता है। इन भवों में से प्रत्येक के काल का प्रमाण श्वांस के अठारहवें भाग प्रमाण है। फलत: त्रैराशिक के अनुसार ६६,३३६ भवों के श्वासों का प्रमाण-३,६८५-१/३ होता है। इतने उच्छ्वासों के समूह प्रमाण अंतुर्मुहूर्त में पृथ्वीकायिक से लेकर पंचेन्द्रिय तक लब्ध्यपर्याप्त जीवों के क्षुद्रभव ६६,३३६ हो जाते हैं। ध्यान रहे ३,७७३ उच्छ्वासों का एक मुहूर्त होता है।
एकेन्द्रियों के पृथक्-पृथक् क्षुद्रभव—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और साधारण वनस्पति इन पाँच के बादर-सूक्ष्म से दो-दो भेद कर देने से दश हो गये और इनमें प्रत्येक वनस्पति मिलाने से ग्यारह भेद हो गये मतलब प्रत्येक वनस्पति में बादर-सूक्ष्म दो भेद नहीं हैं केवल बादर ही एक भेद है। इनके प्रत्येक के ६०१२ भेद होते हैं अत: ११ को ६०१२ से गुणा करने पर ११x ६०१२·६६,१३२ भेद हो जाते हैं।
सभी लब्ध्यपर्याप्तक के पृथक् क्षुद्रभव—एकेन्द्रियों के ६६,१३२, द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक के ८० भव, त्रीन्द्रिय के ६०, चतुरिन्द्रिय के ४०, पंचेन्द्रिय के २४ ऐसे सभी मिलकर ६६,१२३+८०+६०+४०+२४·६६,३३६ हो जाते हैं।
लब्ध्यपर्याप्त जीवों के एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होेता है। निर्वृत्यपर्याप्त में मिथ्यात्व, सासादन, असंयत, अप्रमत्तविरत और सयोगिकेवली ऐसे पाँच गुणस्थान हो सकते हैं और पर्याप्तक जीवों के सभी गुणस्थान हो सकते हैं।
छठे गुणस्थान में निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था आहारक ऋद्धिधारी मुनि के आहारक पुतला निकलते समय आहारक काययोग में होती है उसी अपेक्षा से कहा है। सयोगकेवली के समुद्घात अवस्था में कपाट, प्रतर और लोक पूरण ऐेसे तीनों समुद्घातों में योग पूर्ण नहीं हैं अत: उस समय वहाँ गौणता से निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था कही गई है।
द्वितीय छह नरक, ज्योतिष, व्यंतर और भवनवासी देव तथा सम्पूर्ण स्त्रियाँ, इनको अपर्याप्त अवस्था में सम्यक्त्व नहीं होता मतलब सम्यग्दृष्टि मरकर इन उपर्युक्त पर्यायों में जन्म नहीं लेता है और सासादन सम्यग्दृष्टि मरकर नरक में नहीं जाता है अत: नरक में अपर्याप्त अवस्था में सासादन गुणस्थान नहीं होता है।
इस पर्याप्ति प्रकरण को पढ़कर लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था के क्षुद्रभवों में जन्म लेने से डरना चाहिए और हमें जो पर्याप्त अवस्था प्राप्त हुई है, इसमें रत्नत्रय को पूर्ण करने का प्रयत्न करना चाहिये।