छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभू के जन्म से पावन इस कौशाम्बी तीर्थ को जहाँ तीर्थंकर जन्मभूमि का गौरव प्राप्त है, वहीं यहाँ भगवान के चार कल्याणक भी शास्त्रों में माने गये हैं। श्री पद्मप्रभु तीर्थंकर के गर्भ-जन्म, तप और ज्ञान कल्याणकों को मनाने हेतु इन्द्र-देव सभी ने इस नगरी में आकर अगणित रत्नों की वर्षा की थी। यह नगरी उन दिनों विश्व के आकर्षण का केन्द्र बन गई थी। प्रसिद्ध आर्षग्रन्थ उत्तरपुराण में वर्णन आया है
तीर्थंकर पद्मप्रभु ने कौशाम्बीपुरी में पिता धरणराज और माता सुसीमा से कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी के दिन चित्रानक्षत्र में जन्म लिया था। वर्तमान की पूजाओं में कहीं कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी तिथि भी आती है। इतिहास बताते हैं कि उस समय कौशाम्बी अत्यन्त समृद्ध महानगरी थी किन्तु दुर्भाग्यवश आज तो वह खण्डहरों के रूप में पड़ी हुई है। कहते हैं कि वर्तमान पाली, सिंहबल, कोसम, पभोसा ये सब गांव पहले कौशाम्बी के अन्तर्गत थे। वास्तव में तो कौशाम्बी में भगवान के गर्भ-जन्म कल्याणक ही हुए थे और ‘पभोसा’ जो कौशाम्बी के उद्यान का पर्वत कहलाता था वहाँ दीक्षा और ज्ञान कल्याणक हुए थे अत: ये दोनों स्थान एक-दूसरे से अभिन्न ही हैं, कौशाम्बी से भिन्न पभोसा का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। वर्तमान में दोनों ही स्थानों को ‘‘तीर्थ’’ माना जाता है क्योंकि आज यह कौशाम्बी से ८-१० किमी. दूर यमुना तट पर अवस्थित है और कौशाम्बी नगरी इलाहाबाद से ६० किमी.दूर है। यहाँ एक प्राचीन किला भी था। कहते हैं इसे पाण्डवों ने बनवाया था। यह आजकल खण्डहर पड़ा हुआ है। इस किले के कारण इस स्थान का नाम भी कौशाम्बीगढ़ हो गया है। चन्दनबाला की बेड़ियाँ यहीं टूटी थीं कौशाम्बी नगरी का एक महत्वपूर्ण घटनाचक्र भगवान महावीर के काल से संबंधित है जब महावीर दीक्षा के कुछ दिनों पश्चात् यहाँ पधारे थे। वे आहार चर्या के लिए भ्रमण कर रहे थे कि संयोगवश उस समय वैशाली के अधिपति राजा चेटक की पुत्री कुमारी चन्दना दुर्भाग्य के चक्र में पड़कर सेठ वृषभसेन की सेठानी द्वारा बन्धन में डाल दी गई थी। झूठी सौत कल्पना की ईष्र्या से सेठानी ने उसे जंजीरों से बाँध रखा था और खाने के लिए कोदों का भात देती थीं। चन्दना ने ज्यों ही प्रभु महावीर को देखा, त्यों ही पड़गाहन के लिए आगे बढ़ते ही उसके सारे बंधन टूट गये और शरीर उत्तम वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो गया। उसके शील के प्रभाव से मिट्टी का सकोरा स्वर्णपात्र बन गया, कोदों का भात उत्तम शालि धान्यरूप खीर में परिवर्तित हो गया। नवधाभक्तिपूर्वक चन्दना ने तीर्थंकर प्रभु को आहार दिया वह अपने सब शोक संताप को भूल गई। इन्द्रों ने इस उपलक्ष्य में पंचाश्चर्य की वृष्टि कर दी। भगवान महामुनि तो आहार के पश्चात् वन की ओर चले गये और सेठानी उससे क्षमायाचना करती हुई पश्चाताप करने लगी। कौशाम्बी के नागरिक आकर चन्दना के पुण्य की सराहना कर रहे थे। यह पुण्यचर्चा राजमहलों में भी पहुँची। कौशाम्बी नरेश शतानीक की पट्टरानी मृगावती ने सुना तो वह भी राजकुमार उदयन के साथ स्वयं उस महिमा को देखने आ गई किन्तु उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि यह कन्या तो और कोई नहीं, मेरी छोटी बहन चन्दना ही है। मृगावती ने सारी स्थिति ज्ञात की और चन्दनबाला को बड़े आदरपूर्वक राजमहल लिवा ले गयी किन्तु चन्दनबाला को तो अब संसार से असली वैराग्य हो गया था अतः उसने राजसुखों को ठोकर मारकर भगवान महावीर की शरण प्राप्त कर ली। समवसरण में उसने आर्यिका दीक्षा धारण कर ३६००० आर्यिकाओं में प्रमुख गणिनीपद को सुशोभित किया। वर्तमान में कुछ लोग कहते हैं कि कौशाम्बी के बाजारों में चन्दना को दासी के रूप में बेचा गया था क्योंकि उस समय दासीप्रथा का प्रचलन था किन्तु दिगम्बर जैन परम्परानुसार यह कथन पूर्ण असत्य है। इस विषय में वास्तविक तथ्य यही है कि वैशाली के उद्यान से एक विद्याधर द्वारा अपहरण की गई राजकन्या चन्दना अपने शील की रक्षा करती हुई एक भील के द्वारा कौशाम्बी के नगरसेठ वृषभदत्त को सौंपी गयी और वहाँ पुत्री बनाकर रखी गई किन्तु सेठानी ने अकारण ही उसके चारित्र पर संदेह करके उसका सिर मुंडवाकर तहखाने में डाल दिया और उसे खाने के लिए कोदों का भात देने लगी। अन्ततोगत्वा चन्दना की पवित्रता भगवान महावीर के निमित्त से प्रगट हुई और वह एक ऐतिहासिक साध्वी के रूप में परमपूज्य बन गई। अतः यहाँ यह प्रेरणा ग्रहण करना है कि आप लोग अपने लेखों में चंदना को कभी दासी के रूप में बिक्री का उल्लेख न करें और न ही नाटकों में उसका इस प्रकार दिग्दर्शन करावें, बल्कि उत्तरपुराण के आधार से उन सतीचंदना का वास्तविक जीवन ही प्रस्तुत करें ताकि पुण्यबंध की क्रिया में पापबंध का कार्य न होने पावे। विधि की वैसी विडम्बना है कि जो नगरियाँ कभी जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र रहीं, आज वहाँ एक भी जैन का घर नहीं मिलता है। यही दशा कौशाम्बी नगरी की भी है। वहाँ एक दिगम्बर जैन मंदिर है। वहाँ की वर्तमान स्थिति चिन्तनीय है और यह स्थल अपने उद्धार एवं विकास का इंतजार कर रहा है। कौशाम्बी से १० किमी. दूर प्रभासगिरि तीर्थ पर निर्मित जिनमंदिर का पंचकल्याणक सन् १९९६ में हुआ पुनः सन् २००१ में पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के साथ हम सभी को कौशाम्बी एवं प्रभासगिरि तीर्थ के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। तीर्थदर्शन के साथ-साथ पूज्य श्री की प्रेरणा से कौशाम्बी के मंदिर में भगवान पद्मप्रभु के चार कल्याणक के प्रतीक में चतुर्मुखी चार चरणचिन्हों का एक शिलाफलक विराजमान किया गया है। उसी समय मई २००१ में प्रभासगिरि में मानस्तम्भ का पंचकल्याणक हुआ, भगवान पद्मप्रभु की विशाल पद्मासन प्रतिमा, पर्वत के मंदिर हेतु सवा दो पुट पद्मासन प्रतिमा तथा कौशाम्बी के इतिहास से संबंधित आहार मुद्रा की भगवान महावीर की एवं महासती चंदना की प्रतिमा स्थापित हुई हैं। भगवान पद्मप्रभु के जन्म से पावन उस कौशाम्बी नगरी का खूब विकास हो तथा पभौसा (प्रभासगिरि) तीर्थ के द्वारा अहिंसा का संदेश विश्व में प्रसारित होता रहे, यही मंगल कामना है।