==श्रद्धा== कदाचित् धर्म—श्रवण का अवसर पर लेने पर भी उसमें श्रद्धा होना अत्यंत दुर्लभ है। धर्म की और ले जाने वाली सही मार्ग को जानकर भी अनेक लोग उस मार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं। ==ज्ञान का अंकुश== उच्छृंखल मन एक उन्मत्त हाथी की भाँति है लेकिन इसे ज्ञान रूपी अंकुश से वश में किया जा सकता है। ==दुर्लभ संयोग== जीव—मात्र के लिए चार उत्तम संयोग मिलना अत्यंत दुर्लभ हैं— १. मनुष्य—जन्म, २.धर्म का श्रवण, ३.धर्म में श्रद्धा, और ४. धर्म के पालन में पराक्रम। ==धर्म—श्रवण== मनुष्य—जन्म प्राप्त होने पर भी उस धर्म का श्रवण अतिदुर्लभ है, जिसे सुनकर मनुष्य तप, क्षमा और अहिंसा को स्वीकार करता है। ==पुरुषार्थ== कदाचित् धर्म को सुनकर उसमें श्रद्धा हो जाय तो भी समय पालन में पुरुषार्थ होना अत्यंत दुर्लभ है धर्म में रुचि रखते हुए कई लोग उसके अनुसार आचरण नहीं करते। ==कर्म शत्रु पर विजय== मनुष्य जन्म को पाकर जो धर्म को सुनता और श्रद्धा करता हुआ उसके अनुसार आचरण करता हैं, वह तपस्वी नये कर्मों को रोकता हुआ संचित कर्म—रूपी रज को धुन डालता है, आत्मा से हटा देता है। ==पछतावा == जो इस जन्म में परलोक की हित साधना नहीं करता, उसे मृत्यु के समय पछताना पड़ता है। ==आराधना== ज्ञान आत्मा को प्रकाशित करता है, तप उसे शुद्ध करता है और संयम पापों का निरोध करता है। इन तीनों की समन्वित आराधना से ही मोक्ष मिलता है,यही जिनशासन में प्रतिपादित है। ==प्रतिस्रोत== अनुस्रोत अर्थात् जगत् के प्रवाह में बहना (विषयासक्त रहना) संसार है। प्रतिस्रोत अर्थात् जगत् के प्रवाह के विपरीत चलना (विषयों से विरक्त रहना) संसार सागर से पार होना है। ==कापुरुष == जो बड़ी कठिनाई से मिलता है, जो बिजली की चमक की तरह अस्थिर है, ऐसे मनुष्य जन्म को पाकर भी जो धर्म के आचरण में प्रमाद करता है, वह कापुरुष ही है, सत्पुरुष नहीं ==अनुभव== मैंने सुना है और अनुभव किया है कि बंध और मोक्ष अपनी आत्मा में ही स्थित हैं। ==मुक्ति का मार्ग == जिनेश्वर देव ने ज्ञान दर्शन, चारित्र और तप को मोक्ष का मार्ग बतलाया है। ==क्रोध== पत्थर पर खींची गई रेखा के समान कभी नहीं मिटनेवाला उग्र क्रोध आत्मा को नरक गति में ले जाता है। ==क्रोध का परिणाम== क्रोध में अंधा हुआ मनुष्य पास में खड़ी माँ, बहन और बच्चे की भी हत्या करने को उतारू हो जाता है। ==क्रोध रूपी अग्नि== जैसे खलिहान में रखे गए वर्षभर में इकट्ठे किए हुए अनाज की आग की एक चिनगारी जला डालती है, वैसे ही क्रोध रूपी अग्नि श्रमण जीवन के सभी उत्कृष्ट गुणोें को जला डालती है। ==चारित्र की हानि== ज्यों—ज्यों क्रोधादि कषाय की वृद्धि होती है, त्या—त्यों चारित्र की हानि होती है। ==प्रीति का नाश== क्रोध प्रीति का नाश करता है। ==कषाय से आसक्त== जो मनुष्य क्रोधी, अविवेकी, अभिमानी, कटुभाषी, कपटी तथा धूर्त हैं, वे अविनीत व्यक्ति नदी के प्रभाव में बहते हुए काठ की तरह संसार में प्रवाह में बहते रहते हैं। ==अहंकार== पत्थर के खम्भे के समान कभी नहीं झुकने वाला अहंकार आत्मा को नरक गति की ओर ले जाता है। ==ममता का बन्धन== साधक ममत्व के बन्धन को उसी प्रकार हटा दें जैसे एक महानाग अपने केचुल को उतार फैकता है। ==मोह का क्षय== जिस वृक्ष की जड़ सूख गई हो, उसे कितना ही सींचा जायें, वह कभी हरा—भरा नहीं होता है। मोह के जीत लिये जाने पर कर्म को भी फिर अंकुरित नहीं होते। ==मोह का परिणाम== मोह से जीव बार—बार जन्म मरण को प्राप्त होता है। ==मोहाग्नि== बाहर से जलती हुई अग्नि को थोड़े से जल से शान्त किया जा सकता है, किन्तु मोह रूपी अग्नि को समस्त समुद्रो के जल से भी शान्त नहीं किया जा सकता। ==माया की गाँठ== जीव जन्म, वृद्धा अवस्था और मरण से होनेवाले दु:ख को जानता है, उनका विचार भी करता है, किन्तु विषयों से विरक्त नहीं हो पाता। अहो! माया की गाँठ कितनी सुदृढ़ होती है। ==मायावी== भले ही कोई नग्न रहे और घोर तप द्वारा देह को कृश करे, भले ही कोई मास—मास के अंतर से भोजन करे, किन्तु यदि वह मायवी है, तो उसे अनन्त बार गर्भ धारण करना पड़ेगा। वह जन्म और मरण के चक्र में घूमता ही रहेगा। ==लोभ== जैसे—जैसे लाभ है, वैसे—वैसे लोभ होता है। लाभ से लोभ बढ़ता जाता है। दो माशा सोने से पूर्ण होनेवाला कार्य करोड़ों स्वर्ण—मुद्राओं से भी पूरा नहीं हुआ। ==अनंत इच्छाएँ== कदाचित् साने और चाँदी के केलाश के समान असंख्य पर्वत प्राप्त हो जाएँ, तो भी लोभी पुरुष को उनसे तृप्ति नहीं होती, क्योंकि इच्छाओं आकाश के समान अनंत हैं। ==लोभ का परिणाम== लोभ के बढ़ जाने पर मनुष्य कार्याकार्य का विचार नहीं करता और अपनी मौत की भी परवाह नहीं करता हुआ चोरी करता है। ==माया== माया सहस्रों सत्यों को नष्ट कर डालती है। ==तृष्णा और मोह== जैसे बलाका (बगुली) अंडे से उत्पन्न होती है और अंडा बलाका से उत्पन्न होता है, उसी प्रकार तृष्णा मोह से उत्पन्न होता है। और मोह तृष्णा से उत्पन्न होता है। ==इच्छा== कदाचित् सोने और चाँदी के केलाश के समान असंख्य पर्वत मिल जाएँ तो भी मनुष्य को संतोष नहीं होता क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है। ==क्षमा== क्रोध को जीत लेने से क्षमाभाव जाग्रत होता है। ==अज्ञानी == जो अपनी प्रज्ञा के अहंकार से दूसरों की अवज्ञा करता है, वह व्यक्ति अज्ञानी है। ==संतोष== लोभ को जीत लेने से संतोष की प्राप्ति होती है। == आशा से ग्रस्त== जिस व्यक्ति का चित हमेशा लोग से लपटा रहता है, जिसे कभी संतोष नहीं है, जो सदा हाय—हाय करता रहता है, जो आशा से ग्रस्त है, उसे क्या कभी सुख प्राप्त हो सकता है ? ==वैर का परिणाम == वैरी पुरुष वैर करता है और और बाद में दूसरों से वैर बढ़ाकर आनन्दित होता है, परंतु इस प्रकार की तमाम पापमय प्रवृत्तियाँ अंत में दु:खकारक होती हैं। ==चार दुर्गण== क्रोध, दुराग्रह, अकृतज्ञता और मिथ्यात्व—इन चार दुर्गणों के कारण मनुष्य में विद्यमान समस्त गुण नष्ट हो जाते हैं। ==चार पशु—कर्म== कपट, धूर्तता, असत्य वचन और खोटे तोल माप—ये चार प्रकार के व्यवहार पशु—कर्म हैं। इनसे जीव पशु—योनी में जन्म लेता है। ==पापों से बचें== विवेकी पुरुष अपने हाथ, पाँव मन और पाँचों इन्द्रियों को वश में रखे पापपूर्ण परिणाम एवं भाषा—दोषों से अपने को बचावे। ==राग और द्वेष== राग और द्वेष कर्म के बीज (मूल कारण) हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। कर्म जन्म—मरण का मूल है। जन्म—मरण को दु:ख का मूल कहा जाता गया है। ==चार कषाय== क्रोध, मान, माया और लोभ—ये चारों दुर्गण पाप की वृद्धि करनेवाले हैं। जो अपनी आत्मा की भलाई चाहे वह इन चारों दोषों को छोड़ दे। ==तीव्र कषाय== क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, मान विनय को नष्ट करता है, माया (कपट) मैत्री को नष्ट करती है और लोभ सब कुछ नष्ट कर देता है। ==विश्वस्त नहीं होना== ऋण को थोड़ा घाव को छोटा, आग को तनिक और कषाय को अल्प मान विश्वस्त होकर नहीं बैठ जाना चाहिए क्योंकि ये थोड़े भी बढ़कर बहुत हो जाते हैं। ==कषाय को कैसे जीतें?== क्रोध को उपशम (शान्ति) से, मान को मुदुता से, माया को सरलता से व लोभ को संतोष से जीतें। ==कषायरूपी अग्नि== क्रोध, मान, माया और लोभ—ये चार कषायरूपी अग्नियाँ हैं। श्रुत, शील और तप जल हैं। श्रुतादि रूप जलधारा से सिंचित होने पर ये अग्नियाँ मुझे नहीं जलातीं। ==कषाय का विनाश== जिसके मोह नहीं हैं, उसने दु:ख का नाश कर दिया। जिसके तृष्णा नहीं हैं, उसने मोह का नाश कर दिया। जिसके लोभ नहीं है, उसने तृष्णा का नाश कर दिया और जो आकिञ्चन है,उसने लोभ का नाश कर दिया। ==जागरूक बनो== ऋण को थोड़ा घाव को छोटा, आग को तनिक व कषाय को अल्प मान विश् वस्त होकर नहीं बैठ जाना चाहिये क्योंकि ये थोड़े भी बढ़कर बहुत हो जाते है ==मन== मन ही वह दु:साहसी, रौद्र और दुष्ट अश्व है, जो चारों दिशाओं में दौड़ता है। मैं उसे सुधरे हुए अश्व की तरह धर्म शिक्षा द्वारा नियन्त्रित करता हूँ। ==अशांत मन== जैसे बंदर क्षणभर भी शान्त होकर नहीं बैठ सकता, वैसे ही मन भी विषय—वासना मूलक संकल्प—विकल्प से हटकर क्षणभर के लिए भी शान्त नहीं होता। ==”आत्मा की झलक== मनरूपी जल जब निर्मल एवं स्थिर हो जाता है, तब उसमें आत्मा का दिव्य रूप झलकने लगता है। ==”मानसिक भाव== जिस—जिस समय जीव जैसे—जैसे भाव करता है, वह उस समय वैसवे ही शुभ—अशुभ कर्मो का बंध करता है। ==दोषरहित मन== मन को बुरे विचारों से दूषित न होने दो। ==मन का वशीकरण== जैसे उन्मत्त हाथी वस्त्रा (सांकल) से वश में कर लिया जाता है, वैसे ही मनरूपी हाथी ज्ञानरूपी वस्त्रा से वश कर लिया जाता है। ==सच्चा साधक == जो अपने मन को अच्छी तरह परखना जानता है, वही सच्चा निर्ग्रन्थ साधक है। ==कर्मफल== संसार के सभी प्राणी अपने—अपने संचित कर्मों का फल भोगते हैं। अपने—अपने कर्मों के अनुसार ही वे भिन्न गतियों में भ्रमण करते हैं।। फल भोगे बिना उपार्जित कर्मों से प्राणी का छुटकारा नहीं होता है। ==कर्मबन्ध== कर्मबंध वस्तु से नहीं, राग और द्वेष के अध्यवसाय (परिणाम) से होता है। ==अच्छे व बूरे कर्म== अच्छे कार्मों का फल शुभ होता है। बुरे कर्मों का फल अशुभ होता है। ==राग की मात्रा== राग की जैसी मंद, मध्यम और तीव्र मात्रा होती है, उसी के अनुसार मंद, मध्यम और तीव्र कर्मबन्ध होता है। ==कर्म का फंदा== जो मनुष्य अनेक प्रकार के पाप कृत्यों द्वारा धन का उपार्जन करते हैं, वे कर्म के फदे मेें पड़ जाते हैंं। वे अनेक जीवों से वैर—विरोध बाँध लेते हैं तथा अंत में सारा धन यहीं छोड़कर नरक में जाते हैं। ==रागरहित आत्मा== राग युक्त आत्मा कर्म का बंध करती है और रागरहित आत्मा कर्मों से मुक्त होती है। ==उत्थान और पतन== हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, ममत्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष कलह, मिथ्या दोषारोपण, चुगली, असंयम में अनुरक्ति, संयम से विरक्ति, निन्दा, माया—मृषा और मिथ्यात्व—ये अठारह प्रकार के पाप हैं, जिनके सेवन से आत्मा पतन को प्राप्त होती है। इन पापों से विरत होन पर आत्मा उत्थान को प्राप्त होकर मुक्त हो जाती है। ==जीवन की अस्थिरता== एक ही झपाटे में बाज जैसे बटेर को मार डालता है, वैसे ही आयु के क्षीण होन पर मृत्यु जीवन को हर लेती है। बालक और बूढ़े यहाँ तक कि गर्भस्थ शिशु तक चल बसते हैं। ==काम—भोग अनित्य== काल बीतता जा रहा है। रात्रियों भागी जा रही है। मनुष्यों के कामभोग भी नित्य नहीं हैं। जैसे क्षीण फलवाले वृक्ष को पक्षी छोड़ देते हैं. वैसे ही आशक्त मनुष्य को कामभोग छोड़ देते हैं। ==अशाश्वत== समस्त इन्द्रियाँ, रूप आरोग्य, यौवन, बल, तेज, सौभाग्य और लावण्य—ये सब शाश्वत नहीं है, किन्तु इंद्रधनुष के समान अस्थिर हैं। ==एकाकी== दु:ख आ पड़ने पर मनुष्य अकेला ही उसे भोगता है। मृत्यु आने पर जीव अकेला ही परभव में जाता है। इसलिए ज्ञानी पुरुष किसी को शरण रूप नहीं मानते। ==अपर्याप्त== यदि सारा जगत् और उसका सारा धन भी तुम्हारा हो जाये, तो भी वह तुम्हारे लिए अपर्याप्त ही होगा और न यह सब तुम्हारा रक्षण करने में ही समर्थ होगा। ==कोई सहायक नहीं== निश्चय ही अंतकाल में मृत्यु मनुष्य को वैसे ही पकड़कर ले जाती है, जैसे सिंह मृग को ले जाता है। अंत समय में माता—पिता या भाई—बन्धु कोई उसे नही बचा सकते। ==कोई आश्रयदाता नहीं== अज्ञानी मनुष्य धन, सम्पत्ति, पशु और ज्ञातिबन्धुओं को अपना आश्रयदाता मानता है और समझता है कि ‘ये मेरे हैं और मैं इनका हूँ’, किन्तु ये सब रक्षक नहीं हैं और न ही उसको शरण देने वाले है। ==क्षणभंगुर== मनुष्य को यह समझना चाहिये कि धन एवं सम्पत्ति, जमीन एवं जायदाद, संतान, बांधव तथा इस देह को भी छोड़कर मुझे एक दिन अवश्य जाना पड़ेगा। ==असंतोष== यदि धन—धान्य से परिपूर्ण यह सारा लोक भी किसी एक व्यक्ति को मिल जा, तो भी वह उससे संतुष्ट नहीं होगा। (लोभी व्यक्ति की आकांक्षाओं का पूर्ण होना अत्यंत कठिन है।) ==धन से त्राण नहीं== प्रमत्त मनुष्य धन द्वारा न तो इस लोक में अपनी रक्षा कर सकता है और न परलोक में। हाथ में दीपक होने पर भी जैसे उसके बुझ जाने पर मार्ग पर मार्ग दिखाई नहीं देता, वैसे ही धन ही धन में मूढ़ हुआ मनुष्य न्यायमार्ग को नहीं देख पाता है। ==रक्षक कौन ?== धन और सहोदर आदि व्यक्ति की रक्षा नहीं कर सकते तथा मनुष्य का जीवन अल्प है—यह जानकर विरक्त होने वाला व्यक्ति कर्मों से मुक्त हो जाता है। ==एकत्व—भावना== दूसरे का दु:ख कोई नहीं बाँट सकता। प्रत्येक प्राणी अकेला जन्म लेता है, अकेला ही मरता है। ==कोई साथी नहीं== स्त्रियाँ और पुत्र मित्र और बांधव जब तक ही साथ में रहते हैं। मरने पर वे साथ नहीं आते। ==”विषय—भोग== संसार के विषय—भोग क्षणभर के लिए सुख देते हैं, किन्तु बले में चिरकाल तक दु:ख प्रदान करते हैं। अत्यधिक दु:ख और थोड़ा सा सुख देने वाले हैं। ये संसार मुक्ति के विरोधी तथा अनर्थों की खान हैं। ==इन्द्रिय—विषय== बहुत खोजने पर भी जैसे केले के तने में कोई सार दिखाई नहीं देता, वैसे ही इन्द्रिय विषयों में वास्तविक सुख नहीं दिखाई देता। ==इन्द्रियाँ== वह व्यक्ति जो भोग—वासनाओं व व्यसनों में आसक्त हो जाता है, उस यात्री की भाँति है जो अपने धृष्ट घोड़ पर नियन्त्रण नहीं कर पाने के कारण अपनी मंजिल पर पहुँच नहीं पाता। ==निर्जरा== भोग समर्थ होते हुए भी जो भोगों का परित्याग करता हे, वह कर्मों की महान् निर्जरा करता है। उसे मुक्ति महाफल मिलता है। ==बोधि== हे मनुष्यों! बोध प्राप्त करो। तुम क्यों बोध प्राप्त नहीं करते? मृत्यु के बाद संबोधि प्राप्त होना निश्चय ही दुर्लभ है। बीती हुई रातें वापिस नहीं लौटती और न ही मनुष्य भव बार—बार सुलभ होता है। ==धर्म== धर्म उत्कृष्ट मंगल है। अहिंसा, संयम और तप उसके मुख्य अंग है। जिसका मन सदा धर्म धर्म में रमता रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।