णमोकार मंत्र एवं चत्तारि मंगल पाठ (अनादि निधन है)
महामंत्र णमोकार मंत्र णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।।१।।
इस महामंत्र को णमोकार मंत्र, अपराजित मंत्र, अनादि मंत्र व सार्वभौम मंत्र भी कहते हैं। आज के उपलब्ध सम्पूर्ण जैन वाङ्मय में दो ही मंत्र अनादिनिधन मान्य हैं-१. णमोकार महामंत्र, २. चत्तारि मंगल पाठ। श्रीमान् उमास्वामी आचार्य ने कहा है— ये केचनापि सुषमाद्यरका अनन्ता, उत्सर्पिणी-प्रभृतय: प्रययुर्विवर्ता:। तेष्वप्ययं परतरं प्रथितं पुरापि, लब्ध्वैनमेव हि गता: शिवमत्र लोका:।।३।। श्लोकार्थ-उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी आदि के जो सुषमा, दु:षमा आदि अनन्तयुग पहले व्यतीत हो चुके हैं, उनमें भी यह णमोकार मंत्र सबसे अधिक महत्वशाली प्रसिद्ध हुआ है। मैं संसार से बहिर्भूत (बाहर) मोक्ष प्राप्त करने के लिए उस णमोकार मंत्र को नमस्कार करता हूँ। ‘णमोकार मंत्रकल्प’ में श्री सकलकीर्ति भट्टारक ने भी कहा है
महापंचगुरोर्नाम, नमस्कारसुसम्भवम्। महामंत्रं जगज्जेष्ठ-मनादिसिद्धमादिदम्।।६३।।
महापंचगुरूणां, पंचत्रिंशदक्षरप्रमम्। उच्छ्वासैस्त्रिभिरेकाग्र-चेतसा भवहानये।।६८।।
श्लोकार्थ-नमस्कार मंत्र में रहने वाले पाँच महागुरुओं के नाम से निष्पन्न यह महामंत्र जगत् में ज्येष्ठ-सबसे बड़ा और महान है, अनादिसिद्ध है और आदि अर्थात् प्रथम है।।६३।। पाँच महागुरुओं के पैंतीस अक्षर प्रमाण मंत्र को तीन श्वासोच्छ्वासों में संसार भ्रमण के नाश हेतु एकाग्रचित्त होकर सभी भव्यजनों को जपना चाहिए अथवा ध्यान करना चाहिए।।६८।। श्री गौतम स्वामी ने पाक्षिक प्रतिक्रमण में कुछ पंक्तियाँ ऐसी रखी हैं, जिनसे भी स्पष्ट है कि यह महामंत्र व चत्तारिमंगल पाठ अनादिकालीन हैं। यथा-
‘‘काऊण णमोक्कारं, अरहंताणं तहेव सिद्धाणं। आइरिय-उवज्झायाणं, लोयम्मि य सव्वसाहूणं।।’’
‘‘णमोक्कारपदे अरहंतपदे सिद्धपदे आयरियपदे उवज्झायपदे साहुपदे मंगलपदे लोगोत्तमपदे सरणपदे।।’’
(पाक्षिक प्रतिक्रमण)
श्री गौतम गणधर वाणी अमृतर्विषणी टीका / १९७ —पद्यानुवादअरिहंतों को कर नमस्कार सिद्धों को नमस्कार करके। आचार्य उपाध्याय को व लोक में सर्वसाधु को भी नमते।। जो नमस्कार पद अर्हत् पद अरु सिद्धपदाचार्य पद में। उपाध्याय साधूपद मंगल-लोकोत्तम शरणं पद में।। ‘णमोक्कार पदे’ आदि दण्डक सूत्रों में णमोकार पद में अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुपद ये पांच पद हैं तथा मंगलपद, लोकोत्तमपद व शरणपद से चत्तारि मंगल पाठ आ जाता है क्योंकि चत्तारि मंगल पाठ में—चत्तारि मंगलं, चत्तारि लोगुत्तमा और चत्तारि सरणं पद ही मुख्य है। षट्खण्डागम धवला टीका पुस्तक ९ में कालशुद्धि में साधुओं के लिए श्वासोच्छ्वासपूर्वक महामंत्र जपने का विधान है। इससे भी स्पष्ट होता है इस महामंत्र को श्वासोच्छ्वासपूर्वक जपने की विधि अनादि है। यथा—महामंत्र को १०८ बार जपने से ३०० (३२४) श्वासोच्छ्वास हो जाते हैं। इस एक जाप्य से एक उपवास का फल प्राप्त होता है। ऐसा शास्त्रों में वर्णित हैं। अत्र कालशुद्धिकरणविधान-मभिधास्ये। तं जहा—पच्छिमरत्तिसज्झायं खमाविय बहिं णिक्कलिय पासुवे भूमिपदेसे काओसग्गेण पुव्वाहिमुहो ट्ठाइदूण णवगाहापरियट्ठणकालेण पुव्वदिसं सोहिय पुणो पदाहिणेण पल्लट्टिय एदेणेव कालेण जम-वरुण-सोमदिसासु सोहिदासु छत्तीसगाहुच्चारणकालेण (३६) अट्ठसदुस्सासकालेण वा कालसुद्धी समप्पदि (१०८)। अवरण्हे वि एवं चेव कालसुद्धी कायव्वा। णवरि एक्केक्काए दिसाए सत्त-सत्तगाहापरियट्टणेण परिच्छिण्णकाला त्ति णायव्वा। एत्थ सव्वगाहापमाणमट्ठावीस (२८) चउरासीदिउस्सासा (८४)। पुणो अणत्थमिदे दिवायरे खेत्तसुद्धिं कादूण अत्थमिदे कालसुद्धिं पुव्वं व कुज्जा। णवरि एत्थ कालो वीसगाहुच्चारणमेत्तो (२०) सट्ठिउस्सासमेत्तो वा (६०)। अवररत्ते णत्थि वायणा, खेत्तसुद्धिकरणोवायाभावादो। ओहि-मणपज्जवणाणीणं सयलंगसुदधराण— मागासट्ठियचारणाणं मेरु-कुलसेलगब्भट्ठियचारणाणं च अवररत्तियवाचणा वि अत्थि अव— गयखेत्तसुद्धीदो। अवगयराग-दोसाहंकारट्ट-रुद्दज्झाणस्स पंचमहव्वयकलिदस्स तिगुत्तिगुत्तस्स णाण-दंसण-चरणादिचारणवड्ढिदस्स भिक्खुस्स भावसुद्धी होदि।’’१ यहाँ कालशुद्धि करने के विधान को कहते हैं। वह इस प्रकार है—पश्चिम रात्रि के स्वाध्याय को समाप्त करके बाहर निकलकर प्रासुक भूमि प्रदेश में कायोत्सर्ग से पूर्वाभिमुख स्थित होकर नौ गाथाओं के उच्चारणकाल से पूर्व दिशा को शुद्ध करके फिर प्रदक्षिणरूप से पलटकर इतने ही काल से दक्षिण, पश्चिम व उत्तर दिशाओं को शुद्ध कर लेने पर छत्तीस ३६ गाथाओं के उच्चारणकाल से अथवा एक सौ १. षट्खण्डागम, धवला टीका पुस्तक ९, पृ. २५४। कृतिकर्म विधि १९८ / अमृतर्विषणी टीका वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला श्री गौतम गणधर वाणी आठ १०८ उच्छ्वासकाल से कालशुद्धि समाप्त होती है। अपराण्हकाल में भी इसी प्रकार ही कालशुद्धि करना चाहिए। विशेष इतना है कि इस समय की कालशुद्धि एक-एक दिशा में सात-सात गाथाओं के उच्चारणकाल से सीमित है, ऐसा जानना चाहिए। यहाँ सब गाथाओं का प्रमाण अट्ठाईस २८ अथवा उच्छ्वासों का प्रमाण चौरासी ८४ है। पश्चात् सूर्य के अस्त होने से पहले क्षेत्रशुद्धि करके सूर्य के अस्त हो जाने पर पूर्व के समान कालशुद्धि करना चाहिए। विशेष इतना है कि यहाँ काल बीस २० गाथाओं के उच्चारण प्रमाण अथवा साठ ६० उच्छ्वास प्रमाण है। अपररात्रि अर्थात् रात्रि के पिछले भाग में वाचना नहीं है, क्योंकि उस समय क्षेत्रशुद्धि करने का कोई उपाय नहीं है। अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, समस्त अंगश्रुत के धारक, आकाशस्थित चारण तथा मेरु व कुलाचलों के मध्य में स्थित चारण ऋषियों के अपररात्रिक वाचना भी है, क्योंकि वे क्षेत्रशुद्धि से रहित हैं अर्थात् भूमि पर न रहने से उन्हें क्षेत्रशुद्धि करने की आवश्यकता नहीं होती। राग, द्वेष, अहंकार, आर्त व रौद्र ध्यान से रहित, पाँच महाव्रतों से युक्त, तीन गुप्तियों से रक्षित तथा ज्ञान, दर्शन व चारित्र आदि आचार से वृद्धि को प्राप्त भिक्षु के भावशुद्धि होती है। चत्तारिमंगल पाठ (अनादि निधन है) चत्तारि मंगलं-अरिहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहु मंगलं, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा-अरिहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि-अरिहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहु सरणं पव्वज्जामि, केवलि पण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि। ह्रौं शांतिं कुरु कुरु स्वाहा। अनादि सिद्धमंत्र:। (हस्तलिखित वसुनंदि प्रतिष्ठासार संग्रह) इसलिए ये महामंत्र और चत्तारि मंगल पाठ अनादि निधन है, ऐसा स्पष्ट है। वर्तमान में विभक्ति लगाकर ‘चत्तारिमंगल पाठ’-नया पाठ पढ़ा जा रहा है। जो कि विचारणीय है। परिर्वितत पाठ-नया पाठ— चत्तारि मंगलं-अरहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहूं मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा-अरहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि-अरिहंत शरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि। श्री गौतम गणधर वाणी अमृतर्विषणी टीका / १९९ यह पाठ लगभग ४० वर्षों से अपनी दिगम्बर जैन परम्परा में आया है। देखें प्रमाण-‘ज्ञानार्णव’ जैसे प्राचीन ग्रंथ में बिना विभक्ति का प्राचीन पाठ ही है। यह विक्रम सम्वत् १९६३ से लेकर कई संस्करणों में वि.सं. २०५४ तक में प्रकाशित है। पृ. ३०९ पर यही प्राचीन पाठ है। प्रतिष्ठातिलक जो कि वीर सं. २४५१ में सोलापुर से प्रकाशित है, उसमें पृष्ठ ४० पर यही प्राचीन पाठ है। आचार्य श्री वसुविंदु-अपरनाम जयसेनाचार्य द्वारा रचित ‘प्रतिष्ठापाठ’ जो कि वीर सं. २४५२ में प्रकाशित है। उसमें पृ. ८१ पर प्राचीन पाठ ही है। हस्तलिखित ‘श्री वसुनंदिप्रतिष्ठापाठ संग्रह’ में भी प्राचीन पाठ है। प्रतिष्ठासारोद्धार जो कि वीर सं. २४४३ में छपा है, उसमें भी यही पाठ है। ‘क्रियाकलाप’ जो कि वीर सं. २४६२ में छपा है, उसमें भी तथा जो ‘सामायिकभाष्य’ श्री प्रभाचंद्राचार्य द्वारा ‘देववंदना’ की संस्कृत टीका है, उसमें भी अरहंत मंगलं-अरहंत लोगुत्तमा,……. अरहंत सरणं पव्वज्जामि, यही पाठ है पुन: यह संशोधित नया पाठ क्यों पढ़ा जाता है। क्या ये पूर्व के आचार्य व्याकरण के ज्ञाता नहीं थे? इन आचार्यों की कृति में परिवर्तन, परिवर्धन व संशोधन कहाँ तक उचित है ?
जो परमब्रह्मपथ अवलोकन, इच्छुक हैं भव्यात्मा उनको।
स्याद्वाद रहस्य बता करके, भुक्ती मुक्ती देती सबको।।
चिन्मयज्योती मोहांधकार, हरिणी हे जिनवाणी माता।
रवि उदय पूर्वदिशी जेत्री, त्रिभुवन द्योतित करणी माता।।१।।
जो अनादि से दुर्लभ अचिन्त्य, आनन्त्य मोक्षसुख है जग में।
हे सरस्वती मातः! वह भी, तव प्रसाद से अतिसुलभ बने।।
आश्चर्यकारि स्वर्गादिक सब, ऐश्वर्य प्राप्त हों भक्तों को।
मेरे सब वाञ्छित पूर्ण करो, हे मातः! नमस्कार तुमको।।२।।
संपूर्ण स्त्री की सृष्टी में, चूड़ामणि हो हे सरस्वती!
तुम से ही दयाधर्म की औ, संपूर्ण गुणों की उत्पत्ती।।
मुक्ती के लिए प्रमुख कारण, माँ सरस्वती! मैं नमूँ तुम्हें।
तव चरण कमल में शीश धरूँ, भक्तीपूर्वक नित नमूँ तुम्हें।।३।।
पद्यानुवाद-गणिनी ज्ञानमती