इस हुण्डावसर्पिणी के दोष से तृतीय, चतुर्थ और पंचमकाल में अनेकों मत-मतान्तर प्रचलित हो जाते हैं। कुदेव और कुलिंगी साधु भी दिखने लगते हैं। विदेह क्षेत्र में आज भी द्रव्य मिथ्यात्व नहीं है। यथा- ‘‘उदुंबरफलों के सदृश धर्माभास वहाँ नहीं सुने जाते। शिव, ब्रह्मा, विष्णु, चण्डी, रवि, शशि व बुद्ध के मंदिर वहाँ नहीं हैं। यह देश पाखंड संप्रदायों से रहित और सम्यग्दृष्टि जनों के समूह से व्याप्त है। विशेष इतना है कि वहाँ किन्हीं जीवों के भाव मिथ्यात्व विद्यमान रहता है।’’ निष्कर्ष यह निकलता है कि स्वर्गों में, भोगभूमियों में, विदेह क्षेत्रों में और विजयार्ध पर्वत की श्रेणियों पर होने वाली विद्याधर नगरियों में कुदेव, कुगुरु आदि रूप द्रव्य मिथ्यात्व नहीं रहता है। भरत-ऐरावत क्षेत्रों में भी अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी के चतुर्थ पंचमकाल में भी द्रव्य मिथ्यात्व नहीं रहता है। चूँकि हुण्डावसर्पिणी के दोष से ही इसकी उत्पत्ति मानी है। अत: अनादिकाल से लेकर अनन्तकाल तक सर्वत्र जैनधर्म और दिगम्बर सम्प्रदाय ही रहती है। हाँ, भाव मिथ्यात्व तो नवग्रैवेयक तक सर्वत्र सर्वकाल रहता ही है।
विभिन्न मतमतान्तरों की उत्पत्ति कब और कैसे ?
इस युग की आदि में सबसे प्रथम भगवान् ऋषभदेव के साथ बिना कुछ जाने-बूझे चार हजार राजाओं ने दीक्षा ले ली थी। भगवान के छह महीने के योग्य के प्रसंग में वे सब भूख-प्यास से व्याकुल हो गये और वन के कंदमूल फल भक्षण करने लगे तथा नदियों का पानी पीने लगे। तब वनदेवता ने कहा कि इस अर्हन्त वेश में आप लोगों की यह स्वच्छंद प्रवृत्ति नहीं चल सकती है। तब उन लोगों ने भीतिवश अनेकों वेष बना लिए। किसी ने वल्कल पहने, किसी ने जटाएं बढ़ार्इं, किसी ने भस्म रमाई आदि। एक हजार वर्ष बाद भगवान को केवलज्ञान होने पर समवसरण में सभी भ्रष्ट तापसियों ने दगम्बर दीक्षा ले ली किन्तु भगवान वृषभदेव का प्रपौत्र-भरतचक्री के पुत्र मरीचिकुमार ने पुन: दीक्षा नहीं ली वह तीन सौ त्रेसठ पाखण्डमतों में अग्रणी हो गया। कहा भी है- मिथ्यात्व से कलंकित, महामोह से सहित वृषभदेव के पुत्र का पुत्र पूर्वसूरियों के द्वारा सभी पाखंडियों में अग्रेसर गिना गया है।’’ इन पाखंड मतों में मूल पाँच भेद हैं-एकान्त, संशयिक, विपरीत, विनय और अज्ञान।
एकान्तमत प्रस्थापक
‘‘श्री पाश्र्वनाथ के शासनकाल में सरयू-नदी के किनारे पलास नगर में रहने वाला पिहितास्रव मुनि का ‘शिष्य’ बुद्धिकीर्ति नाम का एक मुनि था। वह मछली का मांस खाकर अपनी तपस्या से भ्रष्ट हो गया और उसने रक्तवस्त्र धारण करके एकान्त मत चलाया। उसने कहा कि मरे हुए जीवों के मांस में जीव नहीं है और मद्य भी द्रव पदार्थ है उसके पीने में भी दोष नहीं है। कर्म अन्य ही करता है और उसका फल अन्य ही भोगता है, ऐसा कहकर उसने क्षणिक एकांत बौद्धमत की स्थापना की थी।’’
संशयमत प्रस्थापक
‘‘विक्रम राजा के मरने के १३६ वर्ष बाद सौराष्ट्र देश के वल्लभीनगर में श्वेताम्बर मत उत्पन्न हुआ है। श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली के शिष्य शांति नाम के आचार्य थे। उनके शिष्य जिनचन्द्र ने यह मत चलाया है।’’ इन्होंने स्त्रियों को इसी भव से मोक्ष, केवलियों को कवलाहार, वस्त्र सहित यतियों की मोक्ष, वीरप्रभु का गर्भ परिवर्तन आदि अनेकों अघटित बातें मानी हैं। ‘‘राजा विक्रम के मरने के १३६ वर्ष बाद सोरठ देश के बलभी नगर में श्वेतपट उत्पन्न हुआ है। सो सुनो-उज्जयिनी नगर में अष्टांग महानिमित्त शास्त्र के ज्ञाता भद्रबाहु आचार्य थे। उन्होंने निमित्तज्ञान जानकर अपने संघ से कहा कि इस देश में बारह वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ेगा। इसलिए आप लोग अपने-अपने संघ सहित दूसरे देशों में चले जावो। आचार्य के वचन सुनकर समस्त गणधर-गणनायक अपने-अपने संघ को लेकर सुभिक्ष वाले देशों में चले गये। उन आचार्यों में एक शांतिचन्द्र आचार्य थे वे अपने अनेक शिष्यों सहित सोरठ देश के बलभीनगर में पहुँचे। तब वहाँ भी भयंकर दुर्भिक्ष पड़ गया। यहाँ तक कि व्रूर निर्धन भिक्षुक आदि दूसरों के उदर को विदीर्ण कर उसमें का अन्न खाने लगे। इसी निमित्त से शांतिचन्द्र के समस्त संघ ने कंवल, दंड, कुंडी और ओढ़ने के लिए श्वेत चादर धारण कर लिया और दीनवृत्ति से घर-घर से भिक्षा लाकर अपनी वसतिका में बैठकर खाने लगे। अनंतर जब सुभिक्ष हो गया, तब आचार्य शांतिचंद्र ने अपने संघ से कहा कि अब यह कुत्सित आचरण छोड़ो और फिर से मुनि दीक्षा लेकर शास्त्रोक्त आचरण पालो। यह सुनकर उनके मुख्य शिष्य जिनचंद्र ने कहा कि अब ऐसे कठिन दुर्धर आचरणों को कौन धारण कर सकता है। इसलिए इस दु:षमकाल में हम अब इन धारण किए हुए आचरणों को नहीं छोड सकते। पुन: शांतिचंद्र के समझाने पर जिनचंद्र ने क्रोधित हुए डंडे से गुरु का सिर फोड़ दिया वे मरकर व्यंतर हो गये। इधर जिनचंद्र संघ का आचार्य बन गया। जब व्यंतर ने पुन: निग्र्रन्थ लिंग की प्रेरणा दी और नहीं मानने पर उपसर्ग किया तब शांति हेतु जिनचंद्र ने गुरु की अष्टद्रव्यों से पूजा की। आज भी श्वेताम्बरों में वह पूजा प्रचलित है।’’
विपरीत मत संस्थापक”
मुनिसुव्रतनाथ के शासन में क्षीरकदंब उपाध्याय का शिष्य वसु और पुत्र पर्वत ये दोनों दुष्टात्मा हुए हैं। इन्होंने विपरीत मत की स्थापना करके नरकगति को प्राप्त किया है। अर्थात् ‘‘अजैर्यष्टव्यं’’ सूत्र के अज शब्द का बकरा अर्थ करके (बकरे से होम करना चाहिए) पर्वत ने विपरीत मिथ्यात्व चलाया है।
वैनयिक मत संस्थापक
सभी तीर्थंकरों के काल में वैनयिक मिथ्यात्व प्रगट हुआ है। इनमें कोई जटासहित, कोई मुंडितशिर, कोई शिखाधारी और कोई नग्न भी रहते हैं। ये कहते हैं कि दुष्ट और गुणवान सभी की समान विनय करना चाहिए।’’
अज्ञान मत संस्थापक
‘‘पाश्र्वनाथ के शासन के गण का शिष्य मस्करीपूरण नाम का साधु बहुश्रुतधारी था। इसने वीरप्रभू के तीर्थ में लोगों में अज्ञानमत चलाया। इसका कहना कि अज्ञान से ही मोक्ष होगी। सम्पूर्ण विश्व का कर्ता-विधाता कोई एक ही है। शून्य का ध्यान-प्रतिमा के बिना ही निराकार शून्य का चिन्तन करना चाहिए। यह मदिरा में आसक्त होता हुआ दुर्गति को चला गया है।’’ ‘‘भगवान पाश्र्वनाथ के शासन में मस्करीपूरण नाम के एक मुनि थे। वे ग्यारह अंग पाठी थे, भगवान वीर प्रभू के समवसरण में आये किन्तु गणधर के अभाव में भगवान की दिव्यध्वनि नहीं खिरी। पुन: गौतम ने आकर दीक्षा ले ली, मन:पर्ययज्ञानी हो गये। तत्क्षण वीर भगावन की दिव्यध्वनि खिरने लगी, यह देख मस्करीपूरण समवसरण से बाहर निकल आया। उसने भगवान की दिव्यध्वनि नहीं सुनी और लोगों से कहने लगा, देखो! मैं ग्यारह अंग पाठी समवसरण में बैठा रहा था तब दिव्यध्वनि नहीं खिरी और जब उनके शिष्य गौतम आ गये, तब दिव्यध्वनि प्रगट हो गई। वह गौतम जिनेन्द्रदेव कथित शास्त्रों को नहीं जानता है। वह तो वेदों का ज्ञाता है। उसने आकर दीक्षा ले ली इसलिए भगवान की वाणी खिरने लगी। इसलिए ऐसा मालुम होता है कि ज्ञान से मोक्ष नहीं होता है। बल्कि अज्ञान से ही मोक्ष होता है। संसार में देव कोई नहीं है अत: तुम लोग शून्य का ध्यान करो। इत्यादि रूप से इसने अज्ञानमत चलाया।’’ अन्य जो द्राविडसंघ आदि उत्पन्न हुए हैं, उनके प्रवर्तकों का वर्णन-
द्राविड संघ
‘‘श्री पूज्यपाद के शिष्य, वङ्कानंदी नाम के मुनि ने द्राविड़संघ की स्थापना की। ये विक्रमराजा के स्वर्गस्थ होने के ५२६ वर्ष के बाद दक्षिण मथुरा में (मद्रास प्रांत में) हुए हैं। इन्होंने अप्रासुक चने आदि को खाने का, अगालित जल में स्नान आदि का निरूपण किया है।’’
यापनीय संघ
‘‘विक्रम राजा के मरने के ७०५ वर्ष बाद कल्याणनगर में श्वेतपट धारियों में से श्रीकलश नाम के साधु से ‘यापनीय’ नाम का संघ प्रगट हुआ है।’’ अन्यत्र भी कहा है-‘‘करहाटक नगर में भूपाल नामक राजा की नृकुल देवी रानी थीं। किसी समय रानी ने कहा हे नाथ! मेरे पिता के नगर में गुरु हैं उन्हें आप बुलाइए। राजा ने अपने बुद्सिागर मंत्री को उन्हें लेने भेजा। मंत्री उन्हें लिवा लाया। जब राजा ने उन्हें दूर से देखा कि ये दण्ड पात्रादि नवीन मत के धारक हैं, वह बिना दर्शन किये वापस लौट आया। तब रानी ने उन गुरुओं से जाकर प्रार्थना की कि हे भगवन्! मेरे आग्रह से आप सब परिग्रह छोड़कर पहले ग्रहण की हुई पवित्र निग्र्रन्थ अवस्था ग्रहण कीजिए। तब उन श्वेताम्बर साधुओं ने वस्त्रादि परिग्रह छोड़कर हाथ में पिच्छी कमण्डलु लेकर दिगम्बरी दीक्षा ले ली। तब राजा भी उनके दर्शनार्थ जाकर उन्हें अपने शहर में लिवा लाया। उस समय ये साधु दिगम्बर वेश धारण कर भी श्वेताम्बर मत के समान आचरण करने लगे। गुरुपदेश के बिना नट के समान उपहास का कारण लिंग धारण किया और पिुर कितने दिनों बाद इन्हीं कुमार्गियों से यापनीय संघ निकला।’’ पुन: इसी मिथ्यात्व मोह से मलीन श्वेताम्बर मत से शुभ कार्य पराङ् मुख कितने ही मत प्रचलित हो गये। उनमें से कितने तो अहंकार के वश से, कितने अपेन आप आचरण धारण करने से, कितने अपने-अपने आश्रय के भेद से तथा कितने ही अपने खोटे कर्म के उदय से निकले। इसी तरह अनेकों मतों का आविर्भाव हो गया। ‘‘महाराज विक्रम की मृत्यु के १५२७ वर्ष बाद धर्म कर्म का सर्वथा नाश करने वाला एक लुंकामत (ढूँढिया मत) प्रगट हुआ। गुजरात में अणहल नगर है। वहाँ प्राग्वाट (कुलंबी) कुल में लुंका नामक एक श्वेतांबरी१ हुआ। उसने जिनप्रतिमा की पूजा, दान आदि कर्मों का विरोध करके लुंका मत चलाया है। पुन: उस मत में भी कलिकाल के निमित्त से अनेकों भेद हो गये हैं।’
काष्ठा संघ की उत्पत्ति
श्री वीरसेनाचार्य के शिष्य जिनसेन हुए। उनके शिष्य गुणभद्रसूरि हुए जो कि महातपस्वी और भावलिंगी मुनि थे। इन्होंने विनयसेन मुनि को सिद्धान्त का अध्ययन कराकर स्वर्ग प्राप्त किया। इन विनयसेन के शिष्य कुमारसेन हुए जो कि नंदीतट नामक ग्राम में रहते थे। इन्होंने संन्यास ग्रहण करने के बाद उसे भंग करके प्रायश्चित्तरूप पुनर्दीक्षा नहीं ली। इन कुमारसेन मुनि ने मयूरपिच्छिका छोड़कर चमरीकेशों की पिच्छिका ग्रहण कर ली और बागड़ प्रांत में अपना मत चलाया। इन्होंने स्त्रियों की पुनर्दीक्षा, क्षुल्लकों को वीरचर्या, चमरीगाय के केशों की पिच्छिका आदि का विधान करके मिथ्यामत चलाया। अर्थात् मूलसंघाम्नाय में अािय्रकाओं के अपरााध् में अधिक से अधिक ६ मास तक उपवास आदि के द्वारा प्रायश्चित्त का विधान है किन्तु दीक्षा छेद करके पुनर्दीक्षा देने रूप प्रायश्चित्त का निषेध है, क्षुल्लकों के लिए वीरचर्या, आतापन योग आदि का विधान नहीं है। सो इन्होंने प्रचलित कर दिया।१ इन्होंने संघ से बहिष्कृत होकर कषायभाव से विक्रम सं. ७५३ में नंदितट नामक ग्राम में यह काष्ठा संघ स्थापित किया है।’’
नि:पिच्छिकासंघ (माथुरसङ्घ)
इस काष्ठासां के २०० वर्ष बाद अर्थात् विक्रम सं. ९५३ में मथुरा नगरी में माथुर-काष्ठासङ्घी आचार्य रामसेन नामक थे। उन्होंने नि:पिच्छासङ्घ की स्थापना की। अर्थात् साधुओं को पिच्छिका की आवश्यकता नहीं है, ऐसा कहा। इन्होंने कहा कि जिनप्रतिमा का पूजन करने वालों के जो सम्यक्त्व प्रकृति का उदय है वह दर्शनमोहनीय का ही तृतीय भेद होने से मिथ्यात्व है। अर्थात् सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से ही लोग जिनबिम्बों की पूजा करते हैं, सो यह मिथयत्व हैं अत: क्षायिक और उपशम सम्यग्दृष्टियों को जिनमूर्ति की पूजा नहीं करना चाहिए। अपने गुरु जी संसार तारक हैं, ऐसा कहकर अन्य गुरुओं की आज्ञा नहीं मानना, ऐसा बताया।
भिल्लक संघ की उत्पत्ति
‘‘दक्षिण देश में विंध्यगिरि के पुष्करक्षेत्र में वीरचन्द्रनाम के साधु ने विक्रम संवत् १८०० में भिल्लकसङ्घ की स्थापना की है। इन्होंने अपना गच्छ बनाकर प्रतिक्रम आदि क्रियाएँ भिन्न-भिन्न ही बना ली है।’’ विशेष-दर्शनसार गंरथ के आधार से यह नानामतमतान्तरों का वर्णन दिखाया गया, इसमें जो जैनाभास हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिए और अपनी श्रद्धा को मलिन नहीं करना चाहिए।