राजा दशरथ भरत का राज्याभिषेक करके महेंद्रोदय उद्यान में पहुँचते हैं और बहत्तर राजाओं के साथ सर्वभूतहित गुरु के पास दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। उत्तम संहनन से युक्त होने से गुरु की आज्ञा लेकर एकाकी विहार करने लगते हैं चूँकि वे जिनकल्पी हैं। यद्यपि मुनिराज दशरथ सदा ही शुभ ध्यान की इच्छा रखते हैं फिर भी कदाचित्- क्वचित् उनका मन पुत्रशोक के कारण कलुषित हो जाता है तब वे योगारूढ़ हो संसार की स्थिति का विचार करके मन को शांत कर लेते हैं। इधर पति और पुत्र के वियोग से दुःखी हुई अपराजिता और सुमित्रा के अश्रुओं की अविरल धारा को देखकर कैकेयी अतीव दुःखी होती है, पश्चात्ताप करती है और भरत को समझाकर सभी सामंतों को साथ लेकर अपराजिता आदि के साथ रामचन्द्र के पास पहुँचकर पुनः-पुनः क्षमा याचना करते हुए उन्हेें वापस चलने का आग्रह करती है – ‘‘हे पुत्रों! मेरे द्वारा जो भी गलती हुई है क्षमा करो और चलो! ये तुम्हारी मातायें शोक में पागल हो रही हैं, तुम लोग इतने निष्ठुर क्यों हो रहे हो?’’भरत निवेदन करते हैं – ‘‘हे नाथ! आपने राज्य देकर मेरी यह क्या विडम्बना की है? जो हुआ, सो हुआ अब भी स्थिति को संभालो।’’ इत्यादि प्रकार से अनुनय-विनय करने पर भीश्री रामचन्द्र कहते हैं – ‘‘भाई! क्षत्रिय पुत्र एक बार जो निश्चय कर लेते हैं उसेअन्यथा नहीं करते हैं। अतः तुम सब शोक छोड़ो और सुखपूर्वक प्रजा का पालन करो। यदि तुम समझते हो कि यह अनुचित है सो अनुचित नहीं है चूँकि मैं स्वयं तुम्हें राज्याधिकार दे रहा हूँ।’’ ऐसा कहते हुए पुनरपि तमाम राजाओं के समक्ष स्वयं श्री रामचन्द्र उसी वन में भरत का राज्याभिषेक करके अनेकों मधुर वचनों से समझा-बुझाकर सभी को वापस भेज देते हैं।भरत वापस अयोध्या आकर जिनमंदिर में जाकर जिनेन्द्र भगवान की महान पूजा करते हैं पुनः ‘द्युति’ नाम के आचार्य के निकट पहुँचकर उनकी वंदना करके यह प्रतिज्ञा करते हैं कि ‘‘मैं राम के दर्शन मात्र से मुनिव्रत धारण कर लूँगा।अनन्तर महामुनि भरत को समझाते हैं – ‘‘हे भरत! जब तक तुम घर में हो तब तक गृहस्थ के धर्म का पालन करो क्योंकि यह गृहस्थ धर्म मुनि धर्म का छोटा भाई है।’’ पुनः उस धर्म का विस्तार से वर्ण न करते हैं।भरत महाराज गृहस्थ धर्म को विशेष रीति से पालने हेतु डेढ सौ स्त्रियों के बीच में रहकर भी जल से भिन्न कमल के सदृश भोगों से अनासक्त रहते हुए मुनिव्रत की भावना भाते रहते हैं।