इह जाहि बाहिया वि य, जीवा पावंति दारुणं दुक्खं।
सेवंता वि य उभये, ताओ चत्तारि सण्णाओ।।३९।।
इह याभिर्बाधिता अपि च जीवा: प्राप्नुवन्ति दारुणं दु:खम्।
सेवमाना अपि च उभयस्मिन् ताश्चतस्र: संज्ञा:।।३९।।
अर्थ—जिनसे संक्लेशित होकर जीव इस लोक में और जिनके विषय का सेवन करने से दोनों ही भवों में दारुण दु:ख को प्राप्त होते हैं उनको संज्ञा कहते हैं। उसके विषय भेद के अनुसार चार भेद हैं—आहार, भय, मैथुन और परिग्रह।
भावार्थ —संज्ञा नाम वांछा का है। जिसके निमित्त से दोनों ही भवों में दारुण दु:ख की प्राप्ति होती है उस वांछा को संज्ञा कहते हैं।
उसके चार भेद हैं—आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा और परिग्रह संज्ञा। क्योंकि इन आहारादिक चारों ही विषयों की प्राप्ति और अप्राप्ति दोनों ही अवस्थाओं में यह जीव संक्लिष्ट और पीड़ित रहा करता है। इस भव में भी दु:खों को अनुभव करता है और उसके द्वारा अर्जित पाप कर्म के उदय से पर भव में भी सांसारिक दुखों को भोगता है।
आहारदंसणेण य, तस्सुवजोगेण ओमकोठाए।
सादिदरुदीरणाए, हवदि हु आहारसण्णा हु।।४०।।
आहारदर्शनेन च तस्योपयोगेन अवमकोष्ठतया।
सातेतरोदीरणया भवति हि आहारसंज्ञा हि।।४०।।
अर्थ—आहार के देखने से अथवा उसके उपयोग से और पेट के खाली होेने से तथा असाता वेदनीय कर्म के उदय और उदीरणा होने पर जीव के नियम से आहार संज्ञा उत्पन्न होती है।
भावार्थ —किसी उत्तम रसयुक्त विशिष्ट आहार के देखने से अथवा पूर्वानुभूत भोजन का स्मरण आदि करने से अथवा पेट के खाली हो जाने से और असाता वेदनीय कर्म का तीव्र उदय एवं उदीरणा होने से आहार संज्ञा अर्थात् आहार की वांछा उत्पन्न होती है।
इस तरह आहार संज्ञा के चार कारण हैं जिनमें अंतिम एक असाता वेदनीय की उदीरणा अथवा तीव्र उदय अंतरंग कारण है और शेष तीन बाह्य कारण हैं।
अइभीमदंसणेण य, तस्सुवजोगेण ओमसत्तीए।
भयकम्मुदीरणाए, भयसण्णा जायदे चदुहिं।।४१।।
अतिभीमदर्शनेन च तस्योपयोगेन अवमसत्वेन।
भयकर्मोदीरणया भयसंज्ञा जायते चतुर्भि:।।४१।।
अर्थ—अत्यंत भयंकर पदार्थ के देखने से अथवा पहले देखे हुए भयंकर पदार्थ के स्मरणादि से, यद्वा शक्ति के हीन होेने पर और अंतरंग में भयकर्म का तीव्र उदय, उदीरणा होने पर भयसंज्ञा उत्पन्न हुआ करती है।
भावार्थ —भय से उत्पन्न होने वाली भाग जाने की या किसी के शरण में जाने की अथवा छिपने एवं शरण ढूंढने की जो इच्छा होती है उसी को भयसंज्ञा कहते हैं। इसके चार कारण हैं जिनमें भयकर्म की उदीरणा अंतरंग कारण है और शेष तीन बाह्य कारण हैं।
पणिदरसभोयणेण य, तस्सुवजोगे कुसील सेवाए।
वेदस्सुदीरणाए, मेहुणसण्णा हवदि एवं।।४२।।
प्रणीतरसभोजनेन च तस्योपयोगे कुशीलसेवया।
वेदस्योदीरणया मैथुनसंज्ञा भवति एवम्।।४२।।
अर्थ—कामोत्तेजक स्वादिष्ट और गरिष्ठ पदार्थों का भोजन करने से और कामकथा नाटक आदि के सुनने एवं पहले के भुक्त विषयों का स्मरण आदि करने से तथा कुशील का सेवन, विट आदि कुशीली पुरुषों की संगति, गोष्ठी आदि करने से और वेद कर्म का तीव्र उदय या उदीरणा आदि से मैथुन संज्ञा होती है।
भावार्थ —मैथुन कर्म या सुरत व्यापार की इच्छा को मैथुन संज्ञा कहते हैं। इसके मुख्यतया ये चार कारण हैं जिनमें वेद कर्म का उदय या उदीरणा अंतरंग और शेष तीन बाह्य कारण हैं।
उपयरणदंसणेण य, तस्सुवजोगेण मुच्छिदाए य।
लोहस्सुदीरणाए, परिग्गहे जायदे सण्णा।।४३।।
उपकरणदर्शनेन च तस्योपयोगेन मूर्छिताये च।
लोभस्योदीरणया परिग्रहे जायते संज्ञा।।४३।।
अर्थ—इत्र, भोजन, उत्तम वस्त्र, स्त्री, धन, धान्य आदि भोगोपभोग के साधनभूत बाह्य पदार्थों के देखने से अथवा पहले के भुक्त पदार्थों का स्मरण या उनकी कथा का श्रवण आदि करने से और ममत्व परिणामों के परिग्रहाद्यर्जन की तीव्र गृद्धि के भाव होने से एवं लोभ कर्म का तीव्र उदय या उदीरणा होने से, इन चार कारणों से परिग्रह संज्ञा उत्पन्न होती है।
भावार्थ —भोगोपभोग के बाह्य साधनों के संचय आदि की इच्छा को परिग्रह संज्ञा कहते हैं। इसके मुख्यतया चार कारण हैं जो कि इस गाथा में बताये गये हैं। इनमें से लोभ की तीव्र उदय-उदीरणा अंतरंग कारण और बाकी के तीन बाह्य कारण हैं।
संज्ञा—जिनके द्वारा संक्लेश को प्राप्त होकर जीव इस लोक में दु:ख को प्राप्त करते हैं और जिनका सेवन करके दोनों ही भवों में दारुण दु:खों को प्राप्त होते हैं उनको ‘‘संज्ञा’’ कहते हैं।
संज्ञा नाम वाञ्छा का है। जिसके निमित्त से दोनों ही भवों में दारुण दु:ख की प्राप्ति होती है उस वाञ्छा को संज्ञा कहते हैं।
उसके चार भेद हैं—आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा। इन आहार आदि चारों ही विषयों को प्राप्त करके और न प्राप्त करके भी दोनों ही अवस्थाओं में यह जीव संक्लेश और पीड़ा को प्राप्त होते रहते हैं। इस भव में भी दु:खों का अनुभव करते हैं और उसके द्वारा अर्जित पाप कर्म के उदय से परभव में सांसारिक दु:खों को भोगते हैं इसलिये ये संज्ञायें दु:खदाई हैं।
आहार संज्ञा—आहार के देखने से अथवा उसके उपयोग से और पेट के खाली होने से यद्वा असातावेदनीय कर्म का तीव्र उदय एवं उदीरणा होेने से आहार संज्ञा अर्थात् आहार की वाञ्छा उत्पन्न होती है। इस तरह आहार संज्ञा के चार कारण हैं जिनमें अंतिम एक असातावेदनीय की उदीरणा अथवा तीव्र उदय अंतरंग कारण है और तीन बाह्य कारण हैं।
भय संज्ञा—अत्यंत भयंकर पदार्थ के देखने से अथवा पहले देखे हुए भयंकर पदार्थ के स्मरण आदि से यद्वा शक्ति के होने पर और अंतरंग में भयकर्म का तीव्र उदय, उदीरणा होने पर भयसंज्ञा उत्पन्न हुआ करती है। इसके चार कारणों में भी भय कर्म की उदीरणा अंतरंग कारण है और शेष तीन बाह्य कारण हैं।
मैथुन संज्ञा—कामोद्रेक, स्वादिष्ट और गरिष्ठ रसयुक्त पदार्थों का भोजन करने से, कामकथा, नाटक आदि के सुनने एवं पहले के भुक्त विषयों का स्मरण आदि करने से तथा कुशील का सेवन, बिट आदि कुशीली पुरुषों की संगति, गोष्ठी आदि करने से और वेद कर्म का उदय या उदीरणा आदि से मैथुन संज्ञा होती है। इसमें भी चार कारणों में वेद कर्म का उदय या उदीरणा अंतरंग कारण है और शेष तीन बाह्य कारण हैं।
परिग्रह संज्ञा—उत्तम वस्त्र, स्त्री, धन, धान्य आदि बाह्य पदार्थों के देखने से अथवा पहले के भुक्त पदार्थों का स्मरण या उनकी कथा श्रवण आदि करने से, परिग्रह अर्जन के तीव्र ममत्व भाव होने से एवं लोभ कर्म का तीव्र उदय या उदीरणा होने से इन चार कारणों से परिग्रह संज्ञा उत्पन्न होती है। इनमें से लोभ कर्म का तीव्र उदय या उदीरणा अंतरंग कारण है शेष तीन बाह्य कारण हैं।
संज्ञाओं के स्वामी—छठे गुणस्थान तक आहारसंज्ञा है, आगे सातवें से ऊपर के गुणस्थानों में नहीं होती है क्योंकि छठे से आगे असाता वेदनीय का तीव्र उदय अथवा उदीरणा नहीं है। भयसंज्ञा और मैथुनसंज्ञा भी छठे से आगे नवमें तक उपचार से ही है क्योंकि वहाँ ध्यान अवस्था है। परिग्रह संज्ञा दशवें तक उपचार से ही है क्योंकि वहाँ तक लोभ कषाय का सूक्ष्म उदय पाया जाता है। छठे से आगे इन संज्ञाओं की प्रवृत्ति मानने पर ध्यान अवस्था नहीं बन सकती है अत: मात्र कर्मों के उदय आदि के अस्तित्व से ही इनका अस्तित्व आगे माना गया है।