जिणउवदिट्ठत्तादो होदु दव्वागमो पमाणं, किन्तु अप्पमाणीभूदपुरिसपव्वोलीकमेण आगयत्तादो अप्पमाणं वट्टमाणकालदव्वागमो त्ति ण पच्चवट्ठादुं जुत्तं, राग-दोष-भयादीदआइरिय-पव्वोलीकमेण आगयस्स अप्पमाणत्तविरोहादो। तं जहां, तेण महावीर- भडारएण इंदभूदिस्स अज्जस्स अज्जखेत्तुप्पण्णस्स चउरमल-बुद्धिसंपण्णस्स दित्तुग्गतत्ततवस्स अणिमादिअट्ठविह-विउव्वणलद्धिसंपण्णस्स सव्वट्ठसिद्धिणि-वासिदेवेहिंतो अणंतगुणबलस्स मुहुत्तेणेक्केण दुवालसंगत्थगंथाणं सुमरण-परिवादिकरणक्खमस्स सयपाणिपत्तणिवदिदरव्वं पि अमियसरूवेण पल्लट्टावणसमत्थस्स पत्ताहारवसहि-अक्खीणरिद्धिस्स सव्वोहिणाणेण दिट्ठासेसपोग्गलदव्वस्स तपोबलेण उप्पायिदुक्कस्सविउलमदि-मणपज्जवणाणस्स सत्तभयादीदस्स खविदचदुकसायस्स जियपंचिंदियस्स भग्गतिदंडस्स छज्जीवदयावरस्स णिट्टवियअट्ठमयस्स दसधम्मुज्जयस्स अट्ठमाउगणपरिवालियस्स भग्गबाबीसपरीसहपसरस्स सच्चालंकारस्स अत्थो कहिओ। तदो तेण गोअमगोत्तेण इंदभूदिणा अंतोमुहुत्तेणावहारिय-दुवालसंगत्थेण तेणेव कालेण कयदुवालसंगगंथरयणेण गुणेहि सगसमाणस्स सुहमा (म्मा) इरियस्स गंथो वक्खाणिदो। तदो केत्तिएण वि कालेण केवलणाणमुप्पाइय वारसवासाणि केवलविहारेण विहरिय इंदभूदिभडारओ णिव्वुइं संपत्तो १२। तद्दिवसे चेव सुहम्माइरियो जंबूसामियादीणमणेयाणमा—इरियाणं वक्खाणिददुवालसंगो घाइचउक्कक्खएण केवली जादो। तदो सुहम्मभडारयो वि बारहवस्साणि १२ केवलविहारेण विहरिय णिव्वुइं पत्तो। तद्दिवसे चेव जंबूसामिभडारओ बिट्ठू (विष्णु) आइरियादीणमणेयाणं वक्खाणिददुवालसंगो केवली जादो। सो वि अट्ठत्तीसवासाणि ३८ केवलविहारेण विहरिदूण णिव्वुइं गदो। एसो एत्थोसप्पिणीए अंतिमकेवली।
यदि कोई ऐसा माने कि जिनेन्द्रदेव के द्वारा उपदिष्ट होने से द्रव्यागम प्रमाण होओ किन्तु वह अप्रमाणीभूत पुरुष- परम्परा से आया हुआ है अर्थात् भगवान के द्वारा उपदिष्ट आगम जिन आचार्यों के द्वारा हम तक लाया गया है, वे प्रमाण नहीं थे। अतएव वर्तमानकालीन द्रव्यागम अप्रमाण है, सो उसका ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यागम राग, द्वेष और भय से रहित आचार्यपरम्परा से आया हुआ है इसलिए उसे अप्रमाण मानने में विरोध आता है। आगे इसी विषय का स्पष्टीकरण करते हैं- जो आर्य क्षेत्र में उत्पन्न हुए हैं, मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय इन चार निर्मल ज्ञानों से सम्पन्न हैं, जिन्होंने दीप्त, उग्र और तप्त तप को तपा है, जो अणिमा आदि आठ प्रकार की वैक्रियिक लब्धियों से सम्पन्न हैं, जिनका सर्वार्थसिद्धि में निवास करने वाले देवों से अनन्तगुणा बल है, जो एक मुहूर्त में बारह अंगों के अर्थ और द्वादशांगरूप ग्रंथों के स्मरण और पाठ करने में समर्थ हैं, जो अपने पाणिपात्र में दी गई खीर को अमृतरूप से परिवर्तित करने में या उसे अक्षय बनाने में समर्थ हैं, जिन्हें आहार और स्थान के विषय में अक्षीण ऋद्धि प्राप्त है, जिन्होंने सर्वावधिज्ञान से अशेष पुद्गलद्रव्य का साक्षात्कार कर लिया है, तप के बल से जिन्होंने उत्कृष्ट विपुलमति मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न कर लिया है, जो सात प्रकार के भय से रहित हैं, जिन्होंने चार कषायोें का क्षय कर दिया है, जिन्होंने पाँच इन्द्रियों को जीत लिया हैं, जिन्होंने मन, वचन और कायरूप तीन दंडों को भग्न कर दिया है, जो छह कायिक जीवों की दया पालने में तत्पर हैं, जिन्होंने कुलमद आदि आठ मदों को नष्ट कर दिया है, जो क्षमादि दस धर्मों में निरन्तर उद्यत हैं, जो आठ प्रवचन मातृकगणों का अर्थात् पाँच समिति और तीन गुप्तियों का परिपालन करते हैं, जिन्होंने क्षुधा आदि बाईस परीषहों के प्रसार को जीत लिया है और जिनका सत्य ही अलंकार है, ऐसे आर्य इन्द्रभूति के लिए उन महावीर भट्टारक ने अर्थ का उपदेश दिया। उसके अनन्तर उन गौतम गोत्र में उत्पन्न हुए इन्द्रभूति ने एक अन्तर्मुहूर्त में द्वादशाङ्ग के अर्थ का अवधारण करके उसी समय बारह अंगरूप ग्रंथों की रचना की और गुणों से अपने समान श्री सुधर्माचार्य को उसका व्याख्यान किया। तदनन्तर कुछ काल के पश्चात् इन्द्रभूति भट्टारक केवलज्ञान को उत्पन्न करके और बारह वर्ष तक केवलिविहाररूप से विहार करके मोक्ष को प्राप्त हुए। उसी दिन सुधर्माचार्य, जम्बूस्वामी आदि अनेक आचार्यों को द्वादशांग का व्याख्यान करके चार घातिया कर्मों का क्षय करके केवली हुए। तदनन्तर सुधर्म भट्टारक भी बारह वर्ष तक केवलिविहाररूप से विहार करके मोक्ष को प्राप्त हुए। उसी दिन जम्बूस्वामी भट्टारक विष्णु आचार्य आदि अनेक ऋषियों को द्वादशांग का व्याख्यान करके केवली हुए। वे जम्बूस्वामी भी अड़तीस वर्ष तक केवलि-विहाररूप से विहार करके मोक्ष को प्राप्त हुए। ये जम्बूस्वामी इस भरतक्षेत्र संबंधी अवसर्पिणी काल में पुरुषपरम्परा की अपेक्षा अंतिम केवली हुए हैं। एदम्हि णिव्वुइं गदे विष्णुआइरियो सयलसिद्धंतिओ उवसमियचउकसायो णंदिमित्ताइरियस्स समप्पियदुवालसंगो देवलोअं गदो। पुणो एदेण कमेण अवराइयो गोवद्धणो भद्दबाहु त्ति एदे पंच पुरिसोलीए सयलसिद्धंतिया जादा। एदेसिं पंचण्हं पि सुदकेवलीणं कालो वस्ससदं १००। तदो भद्दबाहुभयवंते सग्गं गदे सयलसुदणाणस्स वोच्छेदो जादो। इन जम्बूस्वामी के मोक्ष चले जाने पर सकल सिद्धान्त के ज्ञाता और जिन्होंने चारों कषायों को उपशमित कर दिया था ऐसे विष्णु आचार्य, नन्दिमित्र आचार्य को द्वादशांग समर्पित करके अर्थात् उनके लिए द्वादशाङ्ग का व्याख्यान करके देवलोक को प्राप्त हुए। पुन: इसी क्रम से पूर्वोक्त दो और अपराजित, गोवद्र्धन तथा भद्रबाहु इस प्रकार ये पाँच आचार्य पुरुष परम्पराक्रम से सकल सिद्धान्त के ज्ञाता हुए। इन पाँचों ही श्रुतकेवलियों का काल सौ वर्ष होता है। तदनन्तर भद्रबाहु भगवान् के स्वर्ग चले जाने पर सकल श्रुतज्ञान का विच्छेद हो गया। णवरि, विसाहाइरियो तक्काले आयारादीणमेक्कारसण्ह-मंगाणमुप्पायपुव्वाईणं दसण्हं पुव्वाणं च पच्चक्खाण-पाणावाय-किरियाविसाल-लोगबिंदुसारपुव्वाणमेगदेसाणं च धारओ जादो। पुणो अतुट्टसंताणेण पोट्ठिल्लो खत्तिओ जयसेणो णागसेणो सिद्धत्थो धिदिसेणो विजयो बुद्धिल्लो गंगदेवो धम्मसेणो त्ति एदे एक्कारस जणा दसपुव्वहरा जादा। तेसिं कालो तेसिदिसदवस्साणि १८३। धम्मसेणे भयवंते सग्गं गदे भारहवस्से दसण्हं पुव्वाणं वोच्छेदो जादो। णवरि, णक्खत्ताइरियो जसपालो पांडू धुवसेणो कंसाइरियो चेदि एदे पंच जणा जहाकमेण एक्कारसंगधारिणो चोद्दसण्हं पुव्वाणमेगदेसधारिणो च जादा। एदेसिं कालो बीसुत्तरविसदवास-मेत्तो २२०। पुणो एक्कारसंगधारए कंसाइरिए सग्गं गदे एत्थ भरहखेत्ते णत्थि कोइ वि एक्कारसंगधारओ। किन्तु इतना विशेष है कि उसी समय विशाखाचार्य आचार आदि ग्यारह अंगों के और उत्पादपूर्व आदि दशपूर्वों के तथा प्रत्याख्यान, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार इन चार पूर्वों के एकदेश के धारक हुए। पुन: अविच्छिन्न संतानरूप से प्रोष्ठिल्ल, क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह मुनिजन दस पूर्वों के धारी हुए। उनका काल एक सौ तिरासी वर्ष होता है। धर्मसेन भगवान् के स्वर्ग चले जाने पर भारत वर्ष में दस पूर्वों का विच्छेद हो गया। इतनी विशेषता है कि नक्षत्राचार्य, जसपाल, पांडु, ध्रुवसेन, कंसाचार्य ये पाँच मुनिजन ग्यारह अंगों के धारी और चौदह पूर्वों के एकदेश के धारी हुए। इनका काल दो सौ बीस वर्ष होता है। पुन: ग्यारह अंगों के धारी कंसाचार्य के स्वर्ग चले जाने पर यहाँ भरतक्षेत्र में कोई भी आचार्य ग्यारह अंगों का धारी नहीं रहा।
णवरि, तक्काले पुरिसोलीकमेण सुहदो जसभद्दो जहबाहू लोहज्जो चेदि एदे चत्तारि वि आयारंगधरा सेसंगपुव्वाणमेगदेसधरा य जादा। एदेसिमायारंगधारीणं कालो अट्ठारसुत्तरं वाससदं ११८। पुणो लोहाइरिए सग्गं गदे आयारंगस्स वोच्छेदो जादो। एदेसिं सव्वेसिं कालाणं समासो छसदवासाणि तेसीदिवासेहि समहियाणि ६८३। वड्ढमाणजिणिंदे णिव्वाणं गदे पुणो एत्तिएसु वासेसु अइक्कंतेसू एदम्हि भरहखेत्ते सव्वे आइरिया सव्वेसिमंगपुव्वाणमेग—देसधारया जादा।
इतनी विशेषता है कि उसी काल में पुरुषपरम्पराक्रम से सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चार आचार्य आचारांग के धारी और शेष अंग और पूर्वों के एकदेश के धारी हुए। आचारांग के धारण करने वाले इन आचार्यों का काल एक सौ अठारह वर्ष होता है। पुन: लोहाचार्य के स्वर्ग चले जाने पर आचारांग का विच्छेद हो गया। इन समस्त कालों का जोड़ ६२+१००+१८३+२२०+११८=६८३ अर्थात् तेरासी अधिक छह सौ वर्ष होता है।
विशेषार्थ- तीन केवलियों के नामों में से धवला में सुधर्माचार्य के स्थान में लोहार्य नाम आया है। लोहार्य सुधर्माचार्य का ही दूसरा नाम है। जैसा कि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की ‘तेण वि लोहज्जस्स य लोहज्जेण य सुधम्मणामेण’ इस गाथांश से प्रकट होता है तथा दस पूर्वधारियों के नामों में जयसेन के स्थान में जयाचार्य, नागसेन के स्थान में नागाचार्य और सिद्धार्थ के स्थान में सिद्धार्थदेव नाम धवला में आया है। इन नामों मेें विशेष अन्तर नहीं है। मालूम होता है कि प्रारंभ के दो नाम जयधवला में पूरे लिखे गये हैं और अंतिम नाम धवला में पूरा लिखा गया है तथा ग्यारह अंग के नामधारियों में जसपाल के स्थान में धवला में जयपाल नाम आया है। बहुत संभव है कि लिपिदोष से ऐसा हो गया हो या ये दोनों ही नाम एक आचार्य के रहे हों। इसी प्रकार आचारांगधारी आचार्यों के नामों में जहबाहू के स्थान में धवला में जसबाहू नाम पाया जाता है। इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार में इसी स्थान में जयबाहू यह नाम पाया जाता है इसलिए यह कहना बहुत कठिन है कि ठीक नाम कौन सा है। लिपिदोष से भी इस प्रकार की गड़बड़ी हो जाना बहुत कुछ संभव है। जो भी हो। यहाँ एक ही आचार्य की दोनों कृति होने से पाठ भेद का दिखाना मुख्य प्रयोजन है। वर्धमान जिनेन्द्र के निर्वाण चले जाने के पश्चात् इतने अर्थात् ६८३ वर्षों के व्यतीत हो जाने पर इस भरतक्षेत्र में सब आचार्य सभी अंगों और पूर्वों के एकदेश के धारी हुए।
तदो अंगपुव्वाणमेगदेसो चेव आइरियपरंपराए आगंतूण गुणहराइरियं संपत्तो। पुणो तेण गुणहरभडारएण णाणपवादपंचम-पुव्व-दसमवत्थु-तदियकसायपाहुडमहण्णवपारएण गंथवोच्छेदभएण पवयणवच्छलपरवसीक-यहियएण एदं पेज्जदोसपाहुडं सोलसपद-सहस्सपमाणं होंतं असीदि-सदमेत्तगाहाहि उवसंघारिदं। पुणो ताओ चेव सुत्त गाहाओ आइरियपरपंराए आगच्छमाणीओ अज्जमंखु-णागहत्थीणं पत्ताओ। पुणो तेसिं दोण्हं पि पादमूले असीदिसदगाहाणं गुणहरमुहकमलविणिग्गयाणमत्थं सम्मं सोऊण जयिवसहभडारएण पवयणवच्छलेण चुण्णिसुत्तं कयं।
उसके पश्चात् अंग और पूर्वों का एकदेश ही आचार्यपरम्परा से आकर गुणधर आचार्य को प्राप्त हुआ। पुन: ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्व की दसवीं वस्तुसंबंधी तीसरे कषायप्राभृतरूपी महासमुद्र के पार को प्राप्त श्री गुणधर भट्टारक ने, जिनका हृदय प्रवचन के वात्सल्य से भरा हुआ था सोलह हजार पदप्रमाण इस पेज्जदोसपाहुड़ का ग्रंथ विच्छेद के भय से, केवल एक सौ अस्सी गाथाओं के द्वारा उपसंहार किया। विशेषार्थ- ऊपर जो पेज्जपाहुड सोलह हजार पदप्रमाण बतलाया है वह ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्व की दसवीं वस्तु के मूल पेज्जपाहुड का प्रमाण समझना चाहिए। यहाँ पद से मध्यमपद लेना चाहिए, क्योंकि द्वादशांग की गणना मध्यमपदों के द्वारा ही की गई है। पुन: वे ही सूत्र गाथाएँ आचार्य परम्परा से आती हुईं आर्यमंक्षु और नागहस्ती आचार्य को प्राप्त हुईं। पुन: उन दोनों ही आचार्यों के पादमूल में गुणधर आचार्य के मुखकमल से निकली हुईं उन एक सौ अस्सी गाथाओं के अर्थ को भली प्रकार श्रवण करके प्रवचनवत्सल यतिवृषभ भट्टारक ने उन पर चूर्णिसूत्रों की रचना की।
जेणेदे सव्वे वि आइरिया जियचउकसाया भग्गपंचिंदियपसरा वू (चू) रियचउसण्णसेण्णा इड्ढि-रस-सादगारवुम्मुक्का सरीरवदिरित्तासेसपरिग्गहकलंकुत्तिण्णा एक्कसंथाए चेव सयलगंथत्थावहारया अलीयकारणा-भावेण अमोहवयणा तेण कारणेणेदे पमाणं। ‘‘वत्तृप्रामाण्याद् वचनस्य प्रामाण्यम्।।३२।। इति न्यायात् एदेसिमाइरियाणं वक्खाणमुवसंहारो च पमाणमिदि घेत्तव्वं, प्रमाणीभूतपुरुषपंक्तिक्रमायातवचनकलापस्य नाप्रामाण्यम् अतिप्रसंगात्।
इस प्रकार जिसलिए ये सर्व ही आचार्य चारों कषायों को जीत चुके हैं, पाँचों इन्द्रियों के प्रसार को नष्ट कर चुके हैं, चारों संज्ञारूपी सेना को चूरित कर चुके हैं, ऋद्धिगारव, रसगारव और सादगारव से रहित हैं, शरीर से अतिरिक्त बाकी के समस्त परिग्रहरूपी कलंक से मुक्त हैं, एक आसन से ही सकल ग्रंथों के अर्थ को अवधारण करने में समर्थ हैं और असत्य के कारणों के नहीं रहने से मोहरहित वचन बोलते हैं इस कारण ये सब आचार्य प्रमाण हैं। ‘‘वक्ता की प्रमाणता से वचन की प्रमाणता होती है।।३२।।’’ ऐसा न्याय होने से इन आचार्यों का व्याख्यान और उनके द्वारा उपसंहार किया गया ग्रंथ प्रमाण है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि प्रामाणिक पुरुषपरम्पराक्रम से आया हुआ वचनसमुदाय अप्रमाण नहीं हो सकता है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष आ जायेगा।
संपहि वड्ढमाणतित्थगंथकत्तारो वुच्चदे-
पंचेव अत्थिकाया छज्जीवणिकाया महव्वया पंच। अट्ठ य पवयणमादा सहेउओ बंध-मोक्खो य।।३९।।
को होदि त्ति सोहम्मिंदचालणादो जादसंदेहेण पंच-पंचसयंतेवासिसहियभादुत्तिदयपरिवुदेण माणत्थंभदंसणेणेव पणट्ठमाणेण वड्ढमाणविसोहिणा वड्ढमाणजिणिंददंसण— वणट्ठासंखेज्ज—भवज्जियगरुवकम्मेण जिणिंदस्स तिपदाहिणं करिय पंचमुट्ठीए वंदिए हियएण जिणं झाइय पडिवण्णसंजमेण विसोहिबलेण अंतोमुहुत्तस्स उप्पण्णासेसगणिंदलक्खणेण उवलद्धजिणवयणविणिविणिग्गयबीजपदेण गोदमगोत्तेण बम्हणेण इंदभूदिणा आयार-सूदयद-ट्ठाण-समवायवियाहपण्णत्ति-णाहधम्मकहोवासयज्झयणंतयडदस-अणुत्तरोववादियदस-पण्णवायरण-विवाय-सुत्त-दिट्ठिवादाणं सामाइय-चउवीसत्थय-वंदणा-पडिक्कमण-वइणइय-किदियम्म दसवेयालि-उत्तरज्झयण-कप्पववहार-कप्पाकप्प-महाकप्प-पुंडरीय-महापुंडरीय-णिसिहियाणं चोद्दसपइण्णयाणमंगबज्झाणं च सावणमासबहुलपक्खजुगादि-पडिवयपुव्वदिवसे जेण रयणा कदा तेणिंदभूदि भडारओ वड्ढमाणजिणतित्थगंथकत्तारो। उत्तं च-
वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहुले। पाडिवदपुव्वदिवसे तिंत्थुप्पत्ती दु अभिजिम्मि।।४०।।
एवं उत्तरतंतकत्तारपरूवणा कदा। अब वर्धमान जिनके तीर्थ में ग्रंथकर्ता को कहते हैं- पाँच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय, पाँच महाव्रत, आठ प्रवचनमाता अर्थात् पाँच समिति और तीन गुप्ति तथा सहेतुक बंध और मोक्ष।।३९।। ‘उक्त पाँच अस्तिकायादिक क्या है ? ऐसे सौधर्मेन्द्र के प्रश्न से संदेह को प्राप्त हुए, पाँच सौ-पाँच सौ शिष्यों से सहित तीन भ्राताओं से वेष्टित, मानस्तंभ के देखने से ही मान से रहित हुए, वृद्धि को प्राप्त होने वाली विशुद्धि से संयुक्त, वर्धमान भगवान के दर्शन करने पर असंख्यात भवों में अर्जित महान् कर्मों को नष्ट करने वाले, जिनेन्द्र देव की तीन प्रदक्षिणा करके पंच मृष्टियों से अर्थात् पाँच अंगों द्वारा भूमिस्पर्शपूर्वक वंदना करके एवं हृदय से जिन भगवान का ध्यान कर संयम को प्राप्त हुए, विशुद्धि के बल से मुहूर्त के भीतर उत्पन्न हुए समस्त गणधर के लक्षणों से संयुक्त तथा जिनमुख से निकले हुए बीजपदों के ज्ञान से सहित ऐसे गौतम गोत्र वाले इन्द्रभूति ब्राह्मण द्वारा चूँकि आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्तिअंग, ज्ञातृधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अन्तकृतदशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग व दृष्टिवादांग, इन बारह अंगों तथा सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक व निषिद्धिका, इन अंगबाह्य चौदह प्रकीर्णकों की श्रावण मास के कृष्ण पक्ष में युग के आदि में प्रतिपदा के पूर्व दिन में रचना की थी, अतएव इन्द्रभूति भट्टारक वर्धमान जिनके तीर्थ में ग्रंथकर्ता हुए। कहा भी है- वर्ष के प्रथम मास व प्रथम पक्ष में श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के पूर्व दिन में अभिजित् नक्षत्र में तीर्थ की उत्पत्ति हुई।।४०।। इस प्रकार उत्तरतंत्रकर्ता की प्ररूपणा की। संपहि उत्तरोत्तरतंतकत्तारपरूवणं कस्सामो।
तं जहा-कत्तियमासकिण्णपक्खचोद्दसरत्तीए पच्छिमभाए महदिमहावीरे णिव्वुदे संते केवलणाणसंताणहरो गोदमसामी जादो। बारहवरसाणि केवलविहारेण विहरिय गोदमसामिम्हि णिव्वुदे संते लोहज्जाइरिओ केवलणाणसंताणहरो जादो। बारहवासाणि केवलविहारेण विहरिय लोहज्जभडारए णिव्वुदे संते जंबूभडारओ केवलणाणसंताणहरो जादो। अट्ठत्तीसवस्साणि केवलविहारेण विहरिय जंबूभडारए परिणिव्वुदे संते केवलणाण-संताणस्स वोच्छेदो जादो भरहक्खेत्तम्मिं। एवं महावीरे णिव्वाणं गदे बासट्ठिवरसेहि केवलणाणदिवायरो भरहम्मि अत्थमिदि। ६२। ३। णवरि तक्काले सयलसुदणाणसंताणहरो विण्णुआइरियो जादो। तदो अत्तुट्टसंताणरूवेण णंदिआइरिओ अवराइदो गोवद्धणो भद्दबाहु त्ति एदे सकलसुदधारया जादा। एदेसिं पंचण्हं पि सुदकेवलीणं कालसमासो वस्ससदं ।१००।५। तदो भद्दबाहुभडारए सग्गं गदे संते भरहक्खेत्तम्मि अत्थमिओ सुदणाण-संपुण्णमियंको, भरहखेत्तमावूरियमण्णाणंधयारेण। णवरि एक्कारसण्णमंगाणं विज्जाणुपवादपेरंतदिट्ठिवादस्स य धारओ विसाहाइरिओ जादो। णवरि उवरिमचत्तारि वि पुव्वाणि वोच्छिण्णाणि तदेगदेसधारणादो। पुणो तं विगलसुदणाणं पोट्ठिल्ल-खत्तिय-जय-णाग-सिद्धत्थ-धिदिसेण-विजय-बुद्धिल्ल-गंगदेव-घम्मसेणाइरियपरंपराए तेयासीदिवरिससयाइमागंतूण वोच्छिण्णं। १८३।११। तदो धम्मसेणभडारए सग्गं गदे णट्ठे दिट्ठिवादुज्जोए एक्कारसण्ण मंगाणं दिट्ठिवादेगदेसस्स य धारयो णक्खत्ताइरियो जादो। तदो तमेक्कारसंगं सुदणाणं जयपाल-पांडु-धुवसेण-कंसो त्ति आइरियपरंपराए वीसुत्तरबेसदवासाइमागंतूण वोच्छिण्णं।२२०। ५। तदो वंâसाइरिए सग्गं गदे वोच्छिण्णे एक्कारसंगुज्जोवे सुभद्दाइरियो आयारंगस्स सेसंग-पुव्वाणमेगदेसस्स य धारओ जादो। तदो तमायारंगं पि जसभद्द-जसबाहु-लोहाइरियपरंपराए अट्ठारहोत्तर-वरिससयमागंतूण वोच्छिण्णं।११८।४। सव्वकाल-समासो तेयासीदीए अहियछस्सदमेत्तो।६८३। पुणो एत्थ सत्तमासाहियसत्त-हत्तरिवासेसु।७७/७। वारिसेसु पंचमासाहिएसु वड्ढमाणजिणणि-व्वुददिणादो अइक्कंतेसू सगणरिंदरज्जुप्पत्ती जादो त्ति। एत्थ गाहा-
सत्तसहस्सा णवसद पंचाणउदी सपंचमासा य। अइकंता वासाणं जइया तइया सगुप्पत्ती।।४३।। (७९९५/५)
अब उत्तरोत्तर तंत्रतकर्ताओं की प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-कार्तिक मास में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि के पिछले भाग में अतिशय महान महावीर भगवान के मुक्त होने पर केवलज्ञान की सन्तान को धारण करने वाले गौतम स्वामी हुए। बारह वर्ष तक केवलविहार से विहार करके गौतम स्वामी के मुक्त हो जाने पर लोहार्य आचार्य केवलज्ञान-परम्परा के धारक हुए। बारह वर्ष केवलविहार से विहार करके लोहार्य भट्टारक के मुक्त हो जाने पर जम्बू भट्टारक केवलज्ञान की परम्परा के धारक हुए। अड़तीस वर्ष केवलविहार से विहार करके जम्बू भट्टारक के मुक्त हो जाने पर भरत क्षेत्र में केवलज्ञान परम्परा का व्युच्छेद हो गया। इस प्रकार भगवान् महावीर के निर्वाण को प्राप्त हो जाने पर बासठ वर्षों से केवलज्ञानरूपी सूर्य भरत क्षेत्र में अस्त हुआ (६२ वर्ष में ३ के.)। विशेष यह है कि उस काल में सकल श्रुतज्ञान की परम्परा को धारण करने वाले विष्णु आचार्य हुए। पश्चात् अविच्छिन्न सन्तान स्वरूप से नन्दि आचार्य, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु, ये सकल श्रुत के धारक हुए। इन पाँच श्रुतकेवलियों के काल का योग सौ वर्ष है (१०० वर्ष में ५ श्रुत के.)। पश्चात् भद्रबाहु भट्टारक के स्वर्ग को प्राप्त होने पर भरतक्षेत्र में श्रुतज्ञानरूपी पूर्ण चन्द्र अस्तमित हो गया। अब भरतक्षेत्र अज्ञान अंधकार से परिपूर्ण हुआ। विशेष इतना है कि उस समय ग्यारह अंगों और विद्यानुवाद पर्यन्त दृष्टिवाद अंग के भी धारक विशाखाचार्य हुए। विशेषता यह है कि इसके आगे के चार पूर्व उनका एक देश धारण करने से व्युच्छिन्न हो गये। पुन: वह विकल श्रुतज्ञान प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन, इन आचार्यों की परम्परा से एक सौ तेरासी वर्ष आकर व्युच्छिन्न हो गया (१८३ वर्ष में ११ एकादशांग-दशपूर्वधर)। पश्चात् धर्मसेन भट्टारक के स्वर्ग को प्राप्त होने पर दृष्टिवाद-प्रकाश के नष्ट हो जाने से ग्यारह अंगों और दृष्टिवाद के एकदेश के धारक नक्षत्राचार्य हुए। तदनन्तर वह एकादशांग श्रुतज्ञान जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस, इन आचार्यों की परम्परा से दो सौ बीस वर्ष आकर व्युच्छिन्न हो गया (२२० वर्ष में ५ एकादशांगधर)। तत्पश्चात् वंâसाचार्य के स्वर्ग को प्राप्त होने पर ग्यारह अंगरूप प्रकाश के व्युच्छिन्न हो जाने पर सुभद्राचार्य आचारांग के और शेष अंगों एवं पूर्वों के एक देश के धारक हुए। तत्पश्चात् वह आचारांग भी यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य की परम्परा से एक सौ अठारह वर्ष आकर व्युच्छिन्न हो गया (११८ वर्ष में ४ आचारांगधर)। इन सब काल का योग छह सौ तेरासी वर्ष होता है (६२+१००+१८३+२२०+११८=६८३)। पुन: इसमें से सात मास अधिक सतत्तर वर्षों को होने के दिन से पाँच मास अधिक सात हजार नौ सौ पंचानवे वर्षों के बीतने पर शक नरेन्द्र के राज्य की उत्पत्ति हुई। यहाँ गाथा- जब सात हजार नौ सौ पंचानवे वर्ष और पाँच मास बीत गये तब शक नरेन्द्र की उत्पत्ति हुई।।४३।। (७९९५ व. ५ मा.)
एदेसु तिसु एक्केण होदव्वं। ण तिण्णमुवदेसाण सच्चत्तं, अण्णोण्णविरोहादो। तदो जाणिय वत्तव्वं। एत्तो उवरि पयदं परूवेमो-लोहाइरिये सग्गलोगं गदे आयार-दिवायरो अत्थमिओ। एवं वारससु दिणयरेसु भरहखेत्तम्मि अत्थमिएसु सेसाइरिया सव्वेसिमंग-पुव्वाणमेगदेसभूद—पेज्जदोस-महाकम्मपयडिपाहुडादीणं धारया जादा। एवं पमाणीभूदमहरिसि-पणालेण आगंतूण महाकम्मपयडिपाहुडामियजलपवाहो धरसेणभडारयं संपत्तो। तेण वि गिरिणयरचंदगुहाए भूदबलि-पुप्फदंताणं महाकम्मपयडिपाहुडं सयलं समप्पिदं। तदो भूदबलिभडारएण सुदणईपवाहवोच्छेदभीएण भवियलोगाणुग्गहट्ठं महाकम्मपयडिपाहुडमुवसंहरिऊण छखंडाणि कयाणि। तदो तिकालगोयरासेसपयत्थ—विसयपच्चक्खाणंतकेवलणाणप्पभावादो पमाणीभूदआइरियपणालेणागदत्तादो दिट्ठिट्ठविरोहाभावादो पमाणमेसो गंथो। तम्हा मोक्खवंâखिणा भवियलोएण अब्भसेयव्वो। ण एसो गंथो थोवो ति मोक्खकज्जजणणं पडि असमत्थो, अमियघडसयवाणफलस्स चुलुवामियवाणे वि उवलंभादो।
इन तीन उपदेशों में एक होना चाहिए। तीनों उपदेशों की सत्यता संभव नहीं है, क्योंकि इनमें परस्पर विरोध है। इसका कारण जानकर कहना चाहिए। यहाँ से आगे प्रकृत की प्ररूपणा करते हैं-लोहाचार्य के स्वर्गलोक के प्राप्त होने पर आचारांगरूपी सूर्य अस्त हो गया। इस प्रकार भरतक्षेत्र में बारह सूर्यों के अस्तमित हो जाने पर शेष आचार्य सब अंग पूर्वों के एकदेशभूत ‘पेज्जदोस’ और ‘महाकम्मपयडिपाहुड’ आदिकों के धारक हुए। इस प्रकार प्रमाणीभूत महर्षिरूप प्रणाली से आकर महाकम्मपयडिपाहुड-रूप अमृत-जल-प्रवाह धरसेन भट्टारक को प्राप्त हुआ। उन्होंने भी गिरिनगर की चन्द्रगुफा में सम्पूर्ण महाकम्म्पयडिपाहुड भूतबलि और पुष्पदन्त को अर्पित किया। पश्चात् श्रुतरूपी नदीप्रवाह के व्युच्छेद से भयभीत हुए भूतबलि भट्टारक ने भव्य जनों के अनुग्रहार्थ महाकम्मपयडिपाहुड का उपसंहार कर छह खण्ड (षट्खण्डागम) किये। अतएव त्रिकालविषयक समस्त पदार्थों को विषय करने वाले प्रत्यक्ष अनन्त केवलज्ञान के प्रभाव से प्रमाणीभूत आचार्यरूप प्रणाली से आने के कारण प्रत्यक्ष व अनुमान से चूँकि विरोध से रहित है अत: यह ग्रंथ प्रमाण है। इस प्रकार मोक्षाभिलाषी भव्य जीवों को इसका अभ्यास करना चाहिए। चूँकि यह ग्रंथ स्तोक है अत: वह मोक्षरूप कार्य को उत्पन्न करने के लिए असमर्थ है, ऐसा विचार नहीं करना चाहिए क्योंकि अमृत के सौ घड़ों के पीने का फल चुल्लू प्रमाण अमृत के पीने में भी पाया जाता है।
जिस दिन भगवान महावीर सिद्ध हुए उसी दिन गौतम गणधर केवलज्ञान को प्राप्त हुए। ये बारह वर्षों तक केवलीपद में रहकर सिद्धपद को प्राप्त हुए। उसी दिन सुधर्मस्वामी केवली हुए, ये भी बारह वर्षों तक केवली रहकर मुक्त हुए, तब जम्बूस्वामी केवली हुए, ये अड़तीस वर्षों तक केवली रहे अनंतर मुक्त हो गये। पुन: कोई अनुबद्ध केवली नहीं हुए। यह १२+१२+३८=६२ वर्ष का काल अनुबद्ध केवलियों के धर्म प्रवर्तन का माना गया है। केवलियों में अंतिम केवली ‘श्रीधर’ कुंडलगिरी से सिद्ध हुए हैं और चारण ऋषियों में अंतिम ऋषि सुपार्श्व नामक हुए हैं। प्रज्ञाश्रमणों में अंतिम वङ्कायश नामक प्रज्ञाश्रमण मुनि और अवधिज्ञानियों में अंतिम श्री नामक ऋषि हुए हैं। मुकुटधरों में अंतिम चन्द्रगुप्त ने जिन दीक्षा धारण की। इससे पश्चात् मुकुटधारी राजाओं ने जैनेश्वरी दीक्षा नहीं ली है। अनुबद्ध केवली के अनंतर नंदी, नंदिमित्र, अपराजित, गोवद्र्धन और भद्रबाहु ये पाँच श्रुतकेवली हुए है। इनका काल ‘सौ वर्ष’ प्रमाण है। पुन: विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिल, गंगदेव और सुधर्म ये ग्यारह आचार्य दशपूर्व के धारी हुए हैं। इन सबका काल ‘एक सौ तिरासी’ वर्ष है। अनंतर नक्षत्र, जयपाल, पांडु, ध्रुवसेन और वंâस ये पाँच आचार्य ग्यारह अंग के धारी हुए हैं। इनका काल ‘दो सौ बीस’ वर्ष है। पुन: सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चार आचार्य आचारांग के धारक हुए हैं। ये चारों आचार्य ग्यारह अंग और चौदह पूर्वों के एकदेश के भी ज्ञाता थे। इनका काल ‘एक सौ अठारह’ वर्ष है। इस प्रकार गौतम स्वामी से लेकर आचारांग धारी आचार्यों तक का काल ६२+१००+१८३+२२०+११८=६८३ छह सौ तिरासी वर्ष प्रमाण है। इसके अनंतर २०३१७ वर्षों तक धर्म प्रवर्तन के लिए कारणभूत ऐसा श्रुततीर्थ चलता रहेगा, पुन: काल दोष से व्युच्छेद को प्राप्त हो जायेगा। इतने मात्र समय में अर्थात् ६८३+२०३१७=२१००० इक्कीस हजार वर्षों के समय में चातुर्वण्र्य संघ जन्म लेता रहेगा।
सप्तर्षि वंदनासुरमन्यु, श्रीमन्यु ऋषिवर, श्रीनिचय, सर्वसुंदर स्वामी। जयवान, विनयलालस गुरुवर जयमित्र सप्तऋषि जगनामी।। ये मथुरानगरी में आये, महामारी व्याधी हुई शांत। मैं नमूँ सहस्रों बार इन्हें, ये रोग शोक का करें अन्त।।१।।