यह दैवसिक प्रतिक्रमण से ली गई है। इसमें ‘‘श्रीमते वर्धमानाय’’ श्लोक को यहीं से इस पुस्तक में मंगलाचरण में लिया है। उसका ‘‘अमृतर्विषणी’’ टीका में विस्तृत विवेचन हो चुका है। ‘‘तवसिद्धे’’ पद्य में सिद्धों का संक्षिप्त वर्णन है। तप से सिद्ध में श्रीबाहुबली स्वामी का उदाहरण सर्वोत्तम है। दीक्षा लेते ही श्रीबाहुबली ने एक वर्ष का ‘आतापन’ योग ले लिया था और वर्ष पूर्ण होते ही तथा जो विकल्प था कि ‘‘भरतचक्री को मुझ से क्लेश हो गया है। ‘‘इत्यादि इस ‘प्रेम शल्य’ के निमित्त से केवलज्ञान नहीं हुआ किन्तु उसी दिन भरत चक्रवर्ती ने आकर नमस्कार किया और बाहुबली नि:शल्य होकर क्षपकश्रेणी में आरोहण कर शुक्लध्यान से घातिया कर्मों का नाश कर केवली बन गये। देखिये महापुराण—
संक्लिष्टो भरताधीश: सोऽस्मत्त इति यत्किल। हृद्यस्य हार्दं तेनासीत् तत्पूजाऽपेक्षि केवलम्१ ।।१८६।।
अर्थ—वह भरतेश्वर मुझसे संक्लेश को प्राप्त हुआ है अर्थात् मेरे निमित्त से उसे दु:ख पहुँचा है, यह विचार बाहुबली के हृदय में विद्यमान रहता था, इसलिए केवलज्ञान ने भरत की पूजा की अपेक्षा की थी। भावार्थ—भरत के पूजा करते ही बाहुबली का हृदय निश्चिंत हो गया और उसी समय उन्हें केवलज्ञान भी प्राप्त हो गया।।१८६।। श्रीगौतमस्वामी ने शल्य आठ प्रकार की मानी हैं, उसी में यह—‘पेम्मसल्लाए२ , प्रेम शल्य पांचवीं शल्य है क्योंकि बाहुबली स्वामी के महापुराण के अनुसार ‘माया, मिथ्या, निदान’ इन तीनों शल्य में से एक भी नहीं थी, महापुराण पर्व छत्तीस में उन्हें एक वर्ष के ध्यान में संपूर्ण ऋद्धियां व मन:पर्ययज्ञान माना है जो कि भाविंलगी सच्चे महामुनियों के ही संभव है। क्षेत्र, काल, गति, िंलग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येक बुद्ध, बोधित बुद्ध, ज्ञान, अवगाहना, अन्तर, संख्या और अल्पबहुत्व इनके द्वारा सिद्ध जीव विभाग करने योग्य है।।९।।३ क्षेत्र—क्षेत्र की अपेक्षा किस क्षेत्र में सिद्ध होते हैं ? प्रत्युत्पन्नग्राही नय, ऋजुसूत्रनय वा निश्चयनय की अपेक्षा से स्वप्रदेश लक्षण सिद्धक्षेत्र में (अपने आत्मप्रदेशों में) ही सिद्धि होती है। भूतग्राही (अतीत को ग्रहण करने वाले) व्यवहार नय की अपेक्षा आकाश प्रदेश में वा जन्म का उद्देश्य लेकर कथन किया जाय तो पन्द्रह कर्मभूमियों में और अपहरण—संहरण की अपेक्षा ढाईद्वीप प्रमाण मानुषक्षेत्र १. आदिपुराण भाग—२, पर्व ३६। २. दैवसिक प्रतिक्रमण मुनिचर्या पु. पृ. ४३। ३. तत्त्वार्थवृत्ति पृ. ७०२ से ७०७ तक। श्री गौतम गणधर वाणी अमृतर्विषणी टीका / २०१ में सिद्धि (मुक्तिपद की प्राप्ति) होती है। संहरण (अपहरण) दो प्रकार का होता है स्वकृत और परकृत। चारण ऋद्धिधारी मुनियों का और विद्याधरों का स्वकृत संहरण है अर्थात् विद्याधर और चारणऋद्धिधारी मुनि स्वयमेव सारे मानुष क्षेत्र जा सकते हैं और सारे मानुषक्षेत्र में कहीं पर भी कर्मों का नाश कर सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। देव आदि के द्वारा अन्य मुनियों का संहरण परकृत संहरण है यानी मुनि आदि उनके द्वारा ले जाये जाकर समुद्र आदि में डाल दिये जाते हैं, वह परकृत संहरण है। संहरण की अपेक्षा मानुषक्षेत्र में स्थित नदी, समुद्र, पर्वत आदि सर्व स्थानों में सिद्धि हो सकती है। चारित्र—चारित्र की अपेक्षा किस चारित्र से सिद्धि होती है ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं विशेष, व्यपदेश (भेद) रहित ‘‘यह मैं सर्व सावद्ययोग से विरक्त होता हूँ’’ इस प्रकार सामायिक चारित्र से (अभेद चारित्र से) सिद्धि होती है। ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा यथाख्यातचारित्र से सिद्धि होती है। व्यवहारनय की अपेक्षा पाँचों चारित्र (सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातचारित्र) से सिद्धि होती है अथवा किसी के परिहारविशुद्धि चारित्र रहित चार चारित्र से मुक्ति होती है। ज्ञान—किस ज्ञान से सिद्धि होती है ? ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा केवलज्ञान से सिद्धि (मुक्ति) होती है। व्यवहारनय से पश्चात्कृत मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन दो ज्ञानों से मुक्ति होती है। मतिज्ञान , श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान इन तीन ज्ञानों से या मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, मन:पर्यय इन तीनों ज्ञानों से वा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान इन चार ज्ञानों से मुक्ति होती है। इसका अर्थ है— पूर्व में मतिज्ञान श्रुतज्ञान में स्थित होकर पश्चात् केवलज्ञान उत्पन्न करके सिद्ध होते हैं तथा मति, श्रुत, अवधि वा मति, श्रुत, मन:पर्यय इन तीन को प्राप्त कर पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्त होते हैं वा मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय इन चार ज्ञानों की प्राप्ति के पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्त होते हैं। अवगाहना—कितनी अवगाहना से जीव मुक्त होता है ? ऐसा पूछने पर कहते हैं—आत्म—प्रदेश में व्याप्त करके रहना इसका नाम अवगाहना है। वह अवगाहना दो प्रकार की है—जघन्य और उत्कृष्ट। उत्कृष्ट अवगाहना पाँच सौ पच्चीस धनुष प्रमाण है और जघन्य अवगाहना साढ़े तीन अरत्नि प्रमाण है। जो जीव सोलह वर्ष में सात हाथ शरीर वाला होता है वह गर्भ से आठवें वर्ष में साढ़े तीन हाथ शरीर वाला होता है और उस जीव की आठ वर्ष की अवस्था में मुक्ति होने से जघन्य अवगाहना साढ़े तीन हाथ रहती है। (जो १६ वर्ष में साढ़े तीन हाथ शरीर वाला होता है, उसकी मुक्ति नहीं होती है)। मध्यम अवगाहना के अनेक भेद हैं अत: मध्यम अवगाहना की अपेक्षा अनेक अवगाहना से सिद्धि होती है। अन्तर—सिद्ध होने वाले पुरुषों के परस्पर कितना अन्तर होता है ? ऐसा पूछने पर कहते हैं कि सिद्धि को प्राप्त होने वाले सिद्धों का जघन्य अन्तर दो समय और उत्कृष्ट अन्तर आठ समय है अर्थात् कृतिकर्म विधि २०२ / अमृतर्विषणी टीका वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला श्री गौतम गणधर वाणी यदि जीव निरन्तर मोक्ष में जाते रहें तो जघन्य दो समय तक और उत्कृष्ट आठ समय तक अन्तर होगा। उसके बाद नियम से अन्तर पड़ जाता है अथवा कोई भी जीव मोक्ष में नहीं जाय तो जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक नहीं जाते अर्थात् जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट छह मास का अन्तर पड़ता है। उसके अनन्तर कोई—न—कोई जीव मोक्ष में जाता ही है। संख्या—ाqकतनी संख्या में जीव एक साथ मोक्ष में जा सकते हैं। जघन्य से एक समय में एक जीव मोक्ष जाता है और उत्कृष्ट से एक समय में एक साथ एक सौ आठ जीव सिद्ध हो सकते हैं। अब अल्पबहुत्व कहते हैं—क्षेत्रादि भेदों की अपेक्षा भेद को प्राप्त हुए जीवों की परस्पर संख्याविशेष प्राप्त करना अल्पबहुत्व है। जैसे—प्रत्युत्पन्न (वर्तमान) नय की अपेक्षा सिद्धक्षेत्र में सिद्ध होने वाले जीवों का अल्पबहुत्व नहीं है। अब—भूतपर्व नय की अपेक्षा विचार करते हैं—क्षेत्रसिद्ध जीव दो प्रकार के हैं—जन्मसिद्ध और संहरण सिद्ध। इनमें से संहरणसिद्ध जीव सबसे अल्प हैं। इनसे जन्मसिद्ध जीव संख्यात गुणे हैं। क्षेत्रों का विभाग इस प्रकार है—कर्मभूमि, अकर्मभूमि, समुद्र, द्वीप, ऊध्र्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक; इनमें से ऊध्र्वलोक सिद्ध सबसे स्तोक हैं। इनसे अधोलोक सिद्ध संख्यातगुणे है, इनसे तिर्यग्लोक सिद्ध संख्यातगुणे है। समुद्रसिद्ध सबसे स्तोक हैं। इनसे द्वीपसिद्ध संख्यात गुणे हैंं। यह सामान्यरूप से कहा है। विशेषरूप से विचार करने पर लवण—समुद्र सिद्ध सबसे स्तोक हैं। इनसे कालोद सिद्ध संख्यातगुणे हैं। इनसे जम्बूद्वीप सिद्ध संख्यातगुणे हैं। इनसे धातकीखंडद्वीप सिद्ध संख्यातगुणे हैं। इनसे पुष्कराद्र्धद्वीप सिद्ध संख्यातगुणे हैं। व्यवहारनय से उत्र्सिपणी काल में सिद्ध होने वाले अल्प हैं और अवर्सिपणी काल में सिद्ध होने वाले उनसे कुछ अधिक हैं। अनुत्र्सिपणी अनवर्सिपणी काल में सिद्ध होने वाले उनसे संख्यातगुणे हैं। ऐसे ये सिद्ध भगवान आठों कर्मों से छूटकर मुख्य आठ गुणों से समन्वित हैं। ऊध्र्वलोक के मस्तक पर विराजमान हैं अर्थात् लोकाकाश के अग्रभाग में विराजमान हैं न कि लोकाकाश के ऊपर अलोकाकाश में, क्योंकि आगे ‘धर्मास्तिकाय’ का अभाव होने से तथा अलोकाकाश जीवों का अस्तित्व न होने से सिद्ध भगवान भी लोकाकाश में ही हैं ऐसा समझना। ये सभी सिद्ध भगवान अतीत, अनागत और वर्तमान अर्थात् भूत, भविष्यत् और वर्तमान इन तीनों कालों की अपेक्षा अनंतानंत हैं। उन सभी सिद्धों की वंदना करते हुये, मेरे दु:खों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, बोधिलाभ—रत्नत्रय की प्राप्ति और र्पूित हो, सुगति में गमन हो, समाधिपूर्वक करण हो एवं हे भगवन् ! आपके गुणों की संपत्ति मुझे प्राप्त हो या जिनेंद्र भगवान के गुणों की प्राप्ति होवे, यही याचना की गई है।