(अच्युत स्वर्ग में इन्द्र सभा लगी हुई है और सभी देवगण आपस में वार्ता कर रहे हैं)
इन्द्र – (अपने अवधिज्ञान से जानकर) अहो! धर्म की कितनी महिमा है जिससे मनुष्य लोक से प्राणी इस स्वर्गलोक में आ जाता है।
एक देव –क्या हुआ इन्द्रराज! अचानक आप धर्म की महिमा का वर्णन क्यों करने लगे? क्या पृथ्वीलोक में कोई विशेष बात हुई है?
इन्द्र – हाँ देव! बात ही कुछ ऐसी है आज मध्यलोक में जम्बूद्वीप की धरती पर जन्म लेकर कुशलतापूर्वक राज्य संचालन कर पुन: जिनदीक्षा धारण कर समाधिमरणपूर्वक शरीर का त्याग करने वाले राजा अग्निवेग का जीव विद्युत्प्रभदेव के रूप में हमारे स्वर्ग में जन्म लेने वाला है।
दूसरा देव – हे पुरन्दर! वैसे तो इस स्वर्ग में अनेक देव जन्म लेते रहते हैं पर कभी तो ऐसी चर्चा आपके मुख से मैंने नहीं सुनी। इस देव में ऐसी क्या बात है जो आप उनका गुणानुवाद कर रहे हैं?
इन्द्राणी – हाँ देव! हमें भी जानने की जिज्ञासा है कि आखिर उन आने वाले देव में ऐसी क्या विशेषता है।
इन्द्र – तो सुनो! मैं तुम सबको बताता हूँ। उसकी विशेषता यह है कि अब से छठे भव में वह देव जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र की बनारस नगरी में तेईसवें तीर्थंकर के रूप में जन्मेगा।
सभी देव मिलकर –जय हो, जय हो, तेईसवें तीर्थंकर भगवान की जय हो। तब तो हम सबको मिलकर उन महान आत्मा के स्वागत हेतु प्रस्थान करना चाहिए।
पहला देव – हाँ, क्यों नहीं! हम सभी उस महापुरुष के स्वागतार्थ चलेंगे। (सभी जय-जयकार करते हुए प्रस्थान करते हैं)
-द्वितीय दृश्य-
(सोलहवें स्वर्ग के पुष्कर विमान में उपपाद शैय्या सुसज्जित है जिसके ऊपर सोलह वर्षीय देव सोते हुए के समान दिखावें) (बाजों की ध्वनि हो रही है, पुष्पवृष्टि हो रही है और देवगण जय-जयकार करते हुए नमस्कार की मुद्रा में खड़े हैं)
विद्युतप्रभ देव – (शैय्या पर उठकर बैठते हुए) ॐ नम: सिद्धेभ्य: (णमोकार मंत्र बोलते हैं पुन:) (ऐसा बोलते हुए आश्चर्यचकित होकर) ओह! मैं कहाँ आ गया? कौन हूँ मैं? ये सब जो मेरे चारों ओर खड़े जय-जयकार कर रहे हैं, कौन हैं यह? इतना दिव्य वैभव, इतनी विभूति! कहीं मैं स्वप्न तो नहीं देख रहा?
सभी देवगण – स्वामिन्! हम सबका प्रणाम स्वीकार करें। आप यहाँ सोलहवें स्वर्ग में विद्युतप्रभ देव के रूप में जन्में हैं।
विद्युतप्रभ देव – (सोचने की मुद्रा में) (अवधिज्ञान द्वारा जानकर) ओह! अच्छा-अच्छा। मैं सब समझ गया। सब याद आ गया मुझे। पूर्व जन्म में मैं विद्याधर राजा का पुत्र अग्निवेग था और जिनदीक्षा लेकर घोर तपश्चर्या करके समाधिपूर्वक शरीर त्यागकर यहाँ पहुँचा हूँ।
देवगण – हे देव! आप पुण्यशाली जीव हैं। आपकी जय हो, देव। अब आप मंगल स्नान हेतु प्रस्थान करें और उसके पश्चात् जिनमंदिर के दर्शनार्थ चलें।
विद्युतप्रभ देव – मित्र देव! मैं शीघ्र ही जिनमंदिर एवं जिनपूजा हेतु प्रस्थान करता हूँ। (स्नान करके उत्तम वस्त्राभूषण धारण कर वे देव तैयार होकर अपने देव साथियों के साथ अपने विमान में स्थित जिनमंदिर में प्रवेश कर भक्तिभाव से जिनप्रतिमाओं की वंदना करते हैं, भक्तिपूर्वक स्तोत्र पाठ करते हैं, अनन्तर जिनबिंबों का अभिषेक-पूजन करते हैं) (यहाँ जिनमंदिर का दृश्य दिखावें।)
-तृतीय दृश्य-
-स्वर्ग का दृश्य है-
एक देव –स्वामिन्! अब आप अपने वैभव का निरीक्षण करें।
विद्युतप्रभ देव –ठीक है। मैं आपके साथ चलता हूँ।
देव – चलिए मित्रवर! (उसके साथ चले जाते हैं) (इन देव की अणिमादि आठ ऋद्धियाँ थीं, बाईस सागर प्रमाण आयु थी। २२ हजार वर्ष व्यतीत होने पर मानसिक आहार करते थे, २२ पक्ष बाद श्वासोच्छ्वास ग्रहण करते थे। तीन हाथ का ऊँचा सुन्दर, सात प्रकार धातु और उपधातु से रहित दिव्य वैक्रियक शरीर है)
विद्युतप्रभ देव साथी – देवों के साथ अपना वैभव देखते हुए-
देव –प्रभो! यह आपकी देवियाँ हैं। ये अनेकों सुन्दर स्त्रीरूप बना सकती हैं।
विद्युतप्रभ देव – (मन में जिनेन्द्रदेव को नमस्कार करते हुए) यह सब जिनमहिमा का ही सुफल है जो मुझे इतने दिव्य सुखों की प्राप्ति हुई है। (देवियाँ स्वामी को नमस्कार कर अपने भवन की ओर प्रस्थान करती हैं और वह देव विद्युतप्रभ देव को उनकी सेना, दिव्य सभा आदि दिखाने हेतु प्रस्थान करता है)
-चतुर्थ दृश्य-
(वह विद्युतप्रभ देव स्वर्ग में अपने देव साथियों के साथ मनोरंजन भी करते थे)
एक देव –हे देवोत्तम! सम्पूर्ण नंदनवन अपने सुगंधित कल्पवृक्षों के फूलों से सुरभित हो रहा है, चलिए वहाँ सैर के लिए चलें।
दूसरा –हे देव! वहाँ छोटी-छोटी बावड़ियाँ जो कि हंस और मयूरों के जलयंत्रों से युक्त हैं, चारों तरफ उज्ज्वल जल की बूंदे बरसा रही हैं, चलिए जल क्रीड़ा के लिए चलें।
तीसरा – हे मित्र! चित्रशाला में नाना प्रकार के चित्र अचेतन होकर भी सचेतन देवों को मानों अपने वश में कर लेते हैं। चलिए, वहाँ चलें।
एक देवी – हे स्वामी। मैं आपके मनोरंजन के लिए अपनी विक्रिया से विविध रूप बनाकर आपको प्रसन्न करूँगी। (इसके साथ ही वे तत्त्वचर्चा भी करते हैं)
-पाँचवा दृश्य-
(विद्युतप्रभ देव अपनी देवियों और अनेक परिकर देवों के साथ बैठे हैं) (अप्सरा द्वारा देवसभा में नृत्य)
इन्द्र –हे देव! मध्यलोक में जन्म लेने वाले तीर्थंकर भगवान का पंचकल्याणक मनाने का पुण्य हमें प्राप्त होता है जिसके फलस्वरूप हम भी अपनी आत्मा को भगवान बनाने की दिशा में महान पुण्य को प्राप्त कर लेते हैं।
दूसरा देव – हाँ स्वामिन्! देखो ना! जन्म से ही तीन ज्ञान के धारी वे तीर्थंकर ३४ अतिशयों से सहित होते हैं।
इन्द्राणी – देवराज! तीर्थंकर शिशु का दर्शन मात्र ही हमारे चतुर्गति का नाश कर देता है।
सभी देव – उन तीर्थंकर भगवान की महिमा अकथनीय है। (सभी देव-देवियाँ आपस में तीर्थंकर भगवान का गुणानुवाद करते हैं)
एक देव – देवराज! आष्टान्हिक महापर्व आ रहा है। हमें नन्दीश्वर द्वीप में आष्टान्हिक पर्व मनाने हेतु चलना चाहिए।
अच्युतेन्द्र – हाँ देव साथी! आपने अच्छा याद दिलाया। आप वहाँ चलने की तैयारी करें। हम सब वहाँ चलकर बावन जिनमंदिरों में विराजमान जिनप्रतिमाओं का विशेष संगीत नृत्य आदि से महापूजा-अभिषेक करेंगे।
इन्द्र – जो आज्ञा स्वामिन्! (चला जाता है) (कुछ देर बाद पुन: आकर) हे नाथ! विमान तैयार है, दिव्य पूजन सामग्री आदि सब तैयार हैं। चलिए। जिनवंदना हेतु प्रस्थान करें।
अच्युतेन्द्र –चलो बंधुओं! हम सब चलें और दर्शन-पूजन कर असीम पुण्य का संचय करें। (सभी प्रस्थान करते हैं)
-छठा दृश्य-
(इस प्रकार से वह अच्युतेन्द्र अपना समय सुखपूर्वक व्यतीत कर रहे हैं। धीरे-धीरे करके उनकी २२ सागर की आयु समाप्त होने को आई और जब मात्र ६ माह शेष बचे तो उनके गले में पड़ी हुई कल्पवृक्षों की पुष्पमाला मुरझाने लगी अत: वह समझ गए कि मेरी आयु का अन्तकाल आ गया है।
अच्युतेन्द्र –ओह! मेरी माला तो सूख रही है इसका मतलब कि मेरा अन्तकाल आ रहा है। अत: अब मुझे जिनभक्ति में अपने चित्त को अनुरक्त करना चाहिए।
देवसाथी –प्रभो! आपने उचित विचार किया। यह जिनधर्म ही हमें न सिर्पâ दिव्यसुखों को प्रदान करने वाला है अपितु मोक्षसुख को भी प्रदान करने वाला है।
अच्युतेन्द्र – अच्छा देवसाथियों! मैं प्रभु का स्मरण एवं ध्यान प्रारंभ करता हूँ। (ज्यों-ज्यों छह माह व्यतीत होते हैं त्यों-त्यों वह अच्युतेन्द्र धर्म में और अधिक अनुरक्त होते जाते हैं और अंत में एक वृक्ष के नीचे पद्मासन मुद्रा में ध्यानस्थ हो जाते हैं। (ध्यान मुद्रा में एक वृक्ष के नीचे बैठे हुए दिखावें)
विद्युतप्रभ देव –ॐ सिद्धाय नम:-३। (इस प्रकार मंत्रोच्चारपूर्वक अपने नश्वर शरीर का उन्होंने त्याग कर दिया और जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह में पद्म देश के अश्वपुर नगर में चक्रवर्ती वङ्कानाभि के रूप में जन्म लेते हैं।)