पञ्चधाणुव्रतं प्रोत्तं त्रिविधं च गुणव्रतम्।
शिक्षाव्रतं चतुर्भेदं धर्मोऽयं गृहिणां स्मृतः।।४५।।
हिंसादेर्देशतो मुक्तिरणुव्रतमुदीरितम्।
दिग्देशानर्थदण्डेभ्यो विरतिश्च गुणव्रतम्।।४६।।
सामायिकं त्रिसंध्यं तु प्रोषधातिथिपूजनम्।
आयुरन्ते च सल्लेखः शिक्षाव्रतमितीरितम्।।४७।।
मांसमद्यमधुद्यूतक्षीरिवृक्षफलोज्झनम्।
वेश्यावधूरतित्याग इत्यादिनियमो मत:।।४८।।
इदमेवेति तत्त्वार्थश्रद्धानं ज्ञानदर्शनम्।
शज्रकाङ्क्षाजुगुप्सान्यमतशंसास्तवोज्झनम्।।४९।।
तथोपगूहनं मार्गभ्रंशिनां स्थितियोजनम्।
हेतवो दृष्टिसंशुद्धे वात्सल्यं च प्रभावना।।५०।।
साक्षादभ्युदयोपायःपरम्पर्येण मुक्तये।
गृहिधर्मोऽत्रमौनस्तु साक्षान्मोक्षाय कल्पते।।५१।।
गृहस्थों के लिए पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत यह बारह प्रकार का धर्म कहा है।।४५।।
हिंसादि पापों का एक देश छोड़ना अणुव्रत कहा गया है, दिशा, देश और अनर्थ दण्डों से विरत होने को गुणव्रत कहते हैं और तीनों सन्ध्याओं में सामायिक करना, प्रोषधोपवास करना, अतिथि पूजन करना और आयु के अन्त में सल्लेखना धारण करना इसे शिक्षाव्रत कहते हैं।।४६-४७।।
मद्य-त्याग, मांंस त्याग, मधु-त्याग, द्यूत—त्याग, क्षीरिफल-त्याग ,वेश्या-त्याग तथा अन्यवधू-त्याग आदि नियम कहलाते हैं।।४८।।
‘तत्त्व यही है’ इस प्रकार ज्ञान और श्रद्धान होना सो सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन है। शंका,आकांक्षा,जगुप्सा तथा अन्य मत की प्रशंसा और स्तुति का छोड़ना, उपगूहन,मार्ग से भ्रष्ट होने वालों का स्थितिकरण करना,वात्सल्य और प्रभावना ये सब सम्यग्दर्शन को शुद्ध करने के हेतु हैं।।४९-५०।।
गृहस्थ धर्म साक्षात् तो स्वर्गादिक अभ्युदय का कारण है और परम्परा से मोक्ष का कारण है, परन्तु मुनिधर्म मोक्ष का साक्षात् कारण है।।५१।। (हरिवंशपुराण सर्ग—१८, पृ २६५)