आगम में जो मनुष्यों का कदलीघात नामका अकालमरण बतलाया गया है उसकी अधिक से अधिक संख्या यदि हुई थी तो उस युद्ध में ही हुई थी ऐसा उस युद्ध के मैदान के विषय में कहा जाता है ।।१०९।। इस प्रकार दोनों सेनाओं में चिरकाल तक तुमुल युद्ध होता रहा जिससे यमराज भी खूब सन्तुष्ट हो गया था।।११०।। तदनन्तर जिस प्रकार किसी छोटी नदी के जल को महानदी के प्रवाह का जल दबा देता हेै उसी प्रकार श्रीकृष्ण की सेना को शत्रु की सेना ने दबा दिया।।१११।। यह देख,जिस प्रकार सिंह हाथियों के समूह पर टूट पड़ता है उसी प्रकार श्रीकृष्ण व्रुद्ध होकर तथा सामन्त राजाओं की सेना के समूह साथ लेकर शत्रु को मारने के लिए उद्यत हो गये-शत्रु पर टूट पड़े ।।११२।। जिस प्रकार सूर्य का उदय होते ही अन्धकार विलीन हो जाता है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण को देखते ही शत्रुओं की सेना विलीन हो गई—उसमें भगदड़ मच गई । यह देख क्रोध से भरा जरासन्ध आया और उसने रुक्ष दृष्टि से देखकर, अपने पराक्रम से समस्त दिशाओं को प्रकाशित करने वाला चक्ररत्न ले श्रीकृष्ण की ओर चलाया।।११३-११४।। परन्तु वह चक्र प्रदक्षिणा देकर श्रीकृष्ण की दाहिनी भुजा पर ठहर गया। तदनन्तर वही चक्र लेकर श्रीकृष्ण ने मगधेश्वर—जरासन्ध का शिर काट डाला।।११५।। उसी समय श्रीकृष्ण की सेना में जीत के नगाड़े बजने लगे और आकाश से सुगन्धित जल की बूँदों के साथ साथ कल्पवृक्षों के पूâल बरसने लगे।।११६।। चक्रवर्ती श्रीकृष्ण ने दिग्विजय की भारी इच्छा से चक्ररत्न आगे कर बड़े भाई बलदेव तथा अपनी सेना के साथ प्रस्थान किया।।११७।। जिनका उदय बलवान् है ऐसे श्रीकृष्ण ने मागध आदि प्रसिद्ध देवों को जीत कर अपना सेवक बनाया और उनके द्वारा दिये हुए श्रेष्ठ रत्न ग्रहण किये ।।११८।।