रूपलावण्यसौभाग्यकलालंकृतविग्रहा। द्रौपदी तनया तस्य द्रुपदस्योपमोज्झिता।।१२२।।
तस्याःकृते कृताः सर्वे मनोजेन नृपात्मजाः। सग्रहा इव याचन्ते नानोपायनपाणयः।।१२३।।
दाक्षिण्यभङ्गभीतेन द्रुपदेन ततो नृपाः। विश्वे चन्द्रकवेधार्थमाहूताः कन्यर्कािथनः।।१२४।।
द्रौपदीग्रहवश्यानां काश्यप्यामिह भूभृताम्। कर्णदुर्योधनादीनां माकन्द्यां निवहोऽभवत्।।१२५।।
सुरेन्द्रवर्धनः खेन्द्रः स्वसुतावरमार्गणैः। धनुर्गाण्डीवमादेशाद्दिव्यं तत्र तदाऽकरोत्।।१२६।।
चण्डगाण्डीवकोदण्डमण्डलीकरणक्षमः। राधावेधसमर्थो यो द्रौपद्या: भवेत्पति:।।१२७।।
इतीमां घोषणां श्रुत्वा द्रोणकर्गादयो नृपाः। समेत्य मण्डलीभूय कोदण्डमभितः स्थिताः।।१२८।।
देवताधिष्टितायास्तैश्चापयष्टेः प्रदर्शनम्। आसीत्सत्या इवाशक्यं स्पर्शनाकर्षणे कुतः।।१२९।।
भाविना स्वामिना पश्चादर्जुनेन सदर्जुना। दृष्ट्वा स्पृष्ट्वा तदाकृष्टा स सतीव वशं स्थिता।।१३०।।
आरोप्याकृष्य पार्थेन धनुज्र्यास्फालिताक्षिभिः। भ्रान्तं वधिरितं कर्णैः कर्णादीनां पटुध्वनौ।।१३१।।
वितर्वकर्वशं दृष्ट्वा तं तेषामित्यभूदयम्। सहजैः सहजैश्वर्यो मृत्वोत्पन्नः किमर्जुनः।।१३२।।
धन्विनः स्थानमन्यस्येदृशं सामान्यस्येदृशं कुतः। अहो दृष्टिरहो मुष्टिरहो सौष्ठवमित्यपि।।१३३।।
भ्रमच्चक्रसमारूढो बाणं संधृत्य दक्षिणः। लक्ष्यं चन्द्रकवेधाख्यं विव्याध नृपसंनिधौ।।१३४।।
द्रोैपदी च द्रुतं मालां कन्धरेऽभ्येत्य बन्धुरे। अकरोत्करपद्माभ्यामर्जुनस्य वरेच्छया।।१३५।।
विप्रकीर्णा तदा माला सहसा सहर्वितनाम्। पञ्चानाम गोत्रेषु चपलेन नभस्वता।।१३६।।
ततश्चपललोकस्य तत्त्वमूढस्य कस्यचित्। वाचो विचेरुरित्युच्चैर्वता: पञ्चनयेत्यपि।।१३७।।
सद्गन्धस्य सुवृक्षस्य तुङ्गस्य फलितस्य सा। पुष्पितेव लताभासीदर्जुनस्याङ्गमाश्रिता।।१३८।।
ततः कुन्त्याः समीपं सा धीरमञ्जीरबन्धना। अग्रतःपश्यतां राज्ञां नीतानीतिविदां विदा।।१३९।।’
राजा द्रुपद की एक द्रौपदी नामकी पुत्री भी थी जिसका शरीर रूप, लावण्य, सौभाग्य तथा अनेक कलाओें से अलंकृत था एवं जो अपने सौन्दर्य के विषय में उपमा नहीं रखती थी ।।१२२।। कामदेव ने सब राजपुत्रों को उसके लिए पागल-सा बना दिया था इसलिए वे नाना प्रकार के उपहार हाथ में ले उसकी याचना करते थे ।।१२३।। तदनन्तर ‘किस-किससे बुराई की जाये’ यह विचार दाक्षिण्य-भंग से भयभीत राजा द्रुपद ने कन्या की इच्छा रखने वाले सब राजकुमारों को चन्द्रक यन्त्र का वेध करने के लिए आमन्त्रित किया।।१२४। इस पृथ्वी पर द्रोैपदीरूप ग्रह के वशीभूत हुए कर्ण, दुर्योधन आदि जितने राजा थे उन सबका झुण्ड माकन्दी नगरी में इकट्ठा हो गया।।१२५।। उसी समय सुरेन्द्रवर्धन नामका एक विद्याधर राजा अपनी पुत्री के योग्य वर खोजने के लिए वहाँ आया और उसने राजा द्रुपद की आज्ञा से गाण्डीव नामक धनुष को वर की परीक्षा का साधन निश्चित किया।।१२६।। उस समय यह घोषणा की गयी कि ‘जो अत्यन्त भयंकर गाण्डीव धनुष को गोल करने एवं राधावेध (चन्द्रकवेध) में समर्थ होगा वही द्रौपदी का पति होगा’ ।।१२७।। इस घोषणा को सुनकर वहाँ जो द्रोण तथा कर्ण आदि राजा आये थे वे सब गोलाकार हो धनुष के चारों ओर खड़े हो गये ।।१२८।। परन्तु सती स्त्री के समान देवों से अधिष्ठित उस धनुष—यष्टि का देखना भी उनके लिए अशक्य था फिर छूना और खींचना तो दूर रहा।।१२९।। तदनंतर जब सब परास्त हो गये तब द्रोैपदी के होनहार पति एवं सदा सरल प्रकृति को धारण करने वाले अर्जुन ने उस धनुष-यष्टि को देखकर तथा छूकर ऐसा खींचा कि वह सती स्त्री के समान इनके वशीभूत हो गयी।।१३०।। जब अर्जुन ने खींचकर उस पर डोरी चढ़ायी और उसका आस्फालन किया तो उसके प्रचण्ड शब्द में कर्ण आदि राजाओं के नेत्र फिर गये तथा कान बहरे हो गये।।१३१।। तीक्ष्ण आकृति के धारक पार्थको देखकर कर्ण आदि के मन में यह तर्वâ उत्पन्न हुआ कि क्या स्वाभाविक ऐश्वर्य को धारण करने वाला अर्जुन अपने भाईयों के साथ मरकर यहाँ पुनः उत्पन्न हुआ है ?।।१३२।। अर्जुन के सिवाय अन्य सामान्य धनुर्धारी का ऐसा खड़ा होना कहाँ सम्भव है ? अहा! इसकी दृष्टि, इसकी मुट्ठी और इसकी चतुराई-सभी आश्चर्यकारी हैं।।१३३।। उधर राजा लोग ऐसा विचार कर रहे थे इधर अत्यन्त चतुर अर्जुन डोरी पर बाण रख झट से चलते हुए चक्र पर चढ़ गया और राजाओं के देखते-देखते उसने शीघ्र ही चन्द्रकवेध नामका लक्ष्य वेध दिया।।१३४।। उसी समय द्रौपदी ने शीघ्र ही आकर वर की इच्छा से अर्जुन की झुकी हुई सुन्दर ग्रीवा में अपने दोनों कर—कमलों से माला डाल दी।।१३५।। उस समय जोरदार वायु चल रही थी इसलिए वह माला टूट कर साथ खड़े हुए पाँचों पाण्डवों के शरीर पर जा पड़ी।।१३६।। इसलिए विवेकहीन किसी चपल मनुष्य ने जोर-जोर से यह वचन कहना शुरू कर दिया कि इसने पाँच कुमारों को वरा है।।१३७।। जिस प्रकार किसी सुगन्धित,ऊँचे एवं फलों से युक्त वृक्ष पर लिपटी पूâली लता सुशोभित होती है उसी प्रकार अर्जुन के समीप खड़ी द्रौपदी सुशोभित हो रही थी ।।१३८।। तदनन्तर कुशल अर्जुन नुपूरों के निश्चल बन्धन से युक्त उस खड़ी द्रोैपदी को अनीतिज्ञ राजाओं के आगे से उनके देखते-देखते माता कुन्ती के पास ले चला ।।१३९।।
(हरिवंशपुराण सर्ग—४५, पृ. ५४७)